अवधूतोपाख्यान – पृथ्वी से लेकर कबूतर तक आठ गुरुओं की कथा
पुरुषत्वे च मां धीराः सांख्य योग विशारदाः ।
आविस्तराम प्रपश्यन्ति सर्व शक्तयुप बृंहितम ।। 1
सांख्य योग विशारद धीर पुरुष इस मनुष्य योनि में इन्द्रिय शक्ति , मनः शक्ति आदि के आश्रय भूत मुझ आत्म तत्व को पूर्णतः प्रकट रूप से साक्षात्कार कर लेते हैं । 1
अत्र मां मार्गयन्त्यद्धा युक्ता हेतुभिरीश्वरम ।
गृह्यमानैर्गुणैरलिङ्गैरग्राह्यमनुमानतः ।।2
इस मनुष्य शरीर में एकाग्र चित्त , तीक्ष्ण बुद्धि , पुरुष बुद्धि आदि ग्रहण किये जाने वाले कारणों से जिनसे कि अनुमान भी होता है , अनुमान से अग्राह्य अर्थात अहंकार आदि विषयों से भिन्न मुझ सर्व प्रवर्तक ईश्वर को साक्षात अनुभव करते हैं । 2
अत्राप्युदा हरन्तीममितिहासं पुरातनं ।
अवधूतस्य संवादं यदोरमिततेजसः ।। 3
इस विषय में महात्मा लोग एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं। वह इतिहास परम तेजस्वी अवधूत दत्तात्रेय और राजा यदु के संवाद के रूप में है। 3
अवधूतं द्विजं कंचिच्चरंतमकुतोभयं ।
कविं निरीक्ष्य तरुणं यदुः पपृच्छ धर्मवित् ।। 4
एक बार धर्म के मर्मज्ञ राजा यदु ने देखा की एक त्रिकाल दर्शी तरुण अवधूत ब्राह्मण ( दत्तात्रेय ) निर्भय हो कर विचार रहे हैं । तब उन्होंने उनसे यह प्रश्न किया । 4
यदुरुवाच
कुतो बुद्धिरियं ब्रह्म ब्रह्मन-नकर्तुः सुविशारदा ।
यामासाद्य भवांल्लोकम विद्वामश्चरति बालवत ।। 5
राजा यदु ने पूछा – ब्रह्मन ! आप कर्म तो करते नहीं , फिर आपको यह अत्यंत निपुण बुद्धि कहाँ से प्राप्त हुयी ? जिसका आश्रय ले कर आप परम विद्वान होने पर भी बालक के समान संसार में विचरते रहते हैं । 5
प्रायो धर्मार्थ कामेषु विवित्सायां च मानवाः।
हेतुनैव समीहन्ते आयुषो यशसः श्रियः ।। 6
ऐसा देखा जाता है कि मनुष्य आयु , यश अथवा सौंदर्य – संपत्ति आदि कि अभिलाषा लेकर ही धर्म , अर्थ , काम अथवा तत्व जिज्ञासा में प्रवृत्त होते हैं; अकारण कहीं किसी की प्रवृत्ति नहीं देखी जाती । 6
तवं तु कल्पः कविर्दक्षः सुभगोऽमृतभाषणः ।
न कर्ता नेहसे किंचिज्जड़ों-मत्त पिशाचवत ।। 7
मैं देख रहा हूँ कि आप कर्म करने में समर्थ , विद्वान और निपुण हैं । आपका भाग्य और सौंदर्य प्रशंसनीय हैं । आपकी वाणी से तो मानो अमृत टपक रहा हैं । फिर भी आप जड़ , उन्मत्त अथवा पिशाच के समान रहते हैं ; न तो कुछ करते हैं और न चाहते ही हैं । 7
जनेषु दह्यमानेषु काम लोभ दावाग्निना ।
न तप्यसेऽग्निना मुक्तो गंगाम्भःस्थ इव द्विपः।। 8
संसार के अधिकाँश लोग काम और लोभ के दावानल से जल रहे हैं परन्तु आपको देखकर ऐसा मालूम होता हैं कि आप मुक्त हैं, आप तक उनकी आंच भी नहीं पहुंच पाती ; ठीक वैसे ही जैसे कोई हाथी वन में दावाग्नि लगने पर उस से छूट कर गंगाजल में खड़ा हो। 8
त्वं हि नः पृच्छतां ब्रह्मन-नातमन्या-नन्द-कारणं।
ब्रूहि स्पर्शविहीनस्य भवतः केवलात्मनः ।। 9
ब्रह्मन ! आप पुत्र , स्त्री , धन आदि संसार के स्पर्श से भी रहित हैं । आप सदा सर्वदा अपने केवल स्वरूप में ही स्थित रहते हैं । हम आपसे यह पूछना चाहते हैं कि आपको अपने आत्मा में ही ऐसे अनिर्वचनीय आनंद का अनुभव कैसे होता हैं ? आप कृपा कर के अवश्य बतलाइये । 9
ब्राह्मण उवाच
सन्ति मे गुरवो राजन बहवो बुद्धयुपाश्रिताः ।
यतो बुद्धि मुपादाय मुक्तोटामीह तान्छृणु ।। 10
ब्रह्म वेत्ता दत्तात्रेय जी ने कहा – राजन ! मैंने अपनी बुद्धि से बहुत से गुरुओं का आश्रय लिया हैं , उनसे शिक्षा ग्रहण करके मैं इस जगत में मुक्तभाव से स्वछंद विचरता हूँ । तुम उन गुरुओं के नाम और उनसे ग्रहण की हुई शिक्षा सुनो । 10
पृथिवी वायुराकाशमापोऽग्निश चन्द्रमा रविः ।
कपोतोऽजगरः सिन्धुः पतंगो मधुकृद गजः।। 11
मेरे 24 गुरुओं के नाम हैं – पृथ्वी , वायु , आकाश , जल , अग्नि , चन्द्रमा , सूर्य , कबूतर , अजगर , समुद्र , पतंग , भौंरा या मधुमक्खी , हाथी । 11
मधुहा हरिणो मीनः पिंगला कुररोऽर्भकः ।
कुमारी शरकृत सर्प ऊर्णनाभिः सुपेशकृत।। 12
शहद निकालने वाला , हरिण , मछली , पिंगला वैश्या, कुरुर पक्षी , बालक , कुंआरी कन्या , बाण बनाने वाला , सर्प , मकड़ी और भृंगी कीट । 12
एते मे गुरवो राजंश्चतुर्विंशतिराश्रिताः ।
शिक्षावृत्तिभिरेतेषामन्व शिक्ष मिहात्मनः ।। 13
राजन ! मैंने इन चौबीस गुरुओं का आश्रय लिया है और इन्हीं के आचरण से इस लोक में अपने लिए शिक्षा ग्रहण की है । 13
यतो यद्नुशिक्षामि यथा वा नाहुषात्मज।
तत्तथा पुरुष व्याघ्र निबोध कथयामि ते ।। 14
वीरवर ययातिनंदन ! मैंने जिस से जिस प्रकार जो कुछ सीखा है , वह सब ज्यों का त्यों तुमसे कहता हूँ , सुनो। 14
भूतैराक्रम्यमाणोऽपि धीरो दैववशानुगैः ।
तद विद्वान्न चलेनमार्गा-दन-व शिक्षम क्षितेरव्रतम।। 15
मैंने पृथ्वी से उसके धैर्य की , क्षमा की शिक्षा ली है । लोग पृथ्वी पर कितना आघात और क्या-क्या उत्पात नहीं करते परन्तु वह न तो किसी से बदला लेती है और न रोती चिल्लाती है । संसार के सभी प्राणी अपने अपने प्रारब्ध के अनुसार चेष्टा कर रहे हैं , वे समय समय अपर भिन्न-भिन्न प्रकार से जाने या अनजाने में आक्रमण कर बैठते हैं । धीर पुरुष को चाहिए कि उनकी विवशता समझे , न तो अपना धीरज खोवे और न क्रोध करे । अपने मार्ग पर ज्यों का त्यों चलता रहे। 15
शश्वतपरार्थसर्वेहः परार्थैकान्तसम्भवः ।
साधुः शिक्षेत भू भृत्तो नग शिष्यः परात्मतां ।। 16
पृथ्वी के ही विकार पर्वत और वृक्ष से मैंने यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे उनकी सारी चेष्टाएं सदा सर्वदा दूसरों के हित के लिए ही होती हैं , बल्कि यों कहना चाहिए कि उनका जन्म ही एकमात्र दूसरों का हित करने के लिए ही हुआ है , साधु पुरुष को चाहिए कि उनकी शिष्यता स्वीकार करके उनसे परोपकार की शिक्षा ग्रहण करे। 16
प्राण वृत्त्यैव संतुष्येन-मुनिर्नैवेन्द्रिय प्रियैः ।
ज्ञानं यथा न नश्येत नावकीर्येत वाङ्गमनः ।। 17
मैंने शरीर के भीतर रहने वाले वायु – प्राण वायु से यह शिक्षा ग्रहण की है कि जैसे वह आहारमात्र की इच्छा रखता है और उसकी प्राप्ति से ही संतुष्ट हो जाता है , वैसे ही साधक को भी चाहिए कि जितने से जीवन निर्वाह हो जाये , उतना भोजन कर ले । इन्द्रियों को तृप्त करने के लिए बहुत से विषय न चाहे । संक्षेप में उतने ही विषयों का उपयोग करना चाहिए जिनसे बुद्धि विकृत न हो , मन चंचल न हो और वाणी व्यर्थ की बातों में न लग जाये । 17
विषयेष्वाविशन योगी नानाधर्मेषु सर्वतः ।
गुणदोषव्यपेतात्मा न विषज्जेत वायुवत।। 18
शरीर के बाहर रहने वाले वायु से मैंने यह सीखा है कि जैसे वायु को अनेक स्थानों में जाना पड़ता है परन्तु वह कहीं भी आसक्त नहीं होता , किसी का भी गुण दोष नहीं अपनाता , वैसे ही साधक पुरुष भी आवश्यकता होने पर विभिन्न प्रकार के धर्म और स्वभाव वाले विषयों में जाये परन्तु अपने लक्ष्य पर स्थित रहे । किसी के गुण या दोष की ओर झुक न जाये , किसी से आसक्ति या द्वेष न कर बैठे । 18
पार्थिवेष्विह देहेषु प्रविष्टस्तदगुणाश्रयः ।
गुणैर्न युज्यते योगी गन्धैर्वायुरिवात्मदृक ।। 19
गंध वायु का गुण नहीं , पृथ्वी का गुण है परन्तु वायु को गंध का वहां करना पड़ता है । ऐसा करने पर भी वायु शुद्ध ही रहता है , गंध से उसका संपर्क नहीं होता । वैसे ही साधक का जब तक इस पार्थिव शरीर से सम्बन्ध है तब तक उसे इसकी व्याधि पीड़ा और भूख प्यास आदि का भी वहां करना पड़ता है परन्तु अपने को शरीर नहीं आत्मा देखने वाला साधक शरीर और उसके गुणों का आश्रय होने पर भी उनसे सर्वथा निर्लिप्त रहता है । 19
अन्तर्हितश्च स्थिरजंगमेषु
ब्रह्मात्मभावेन समन्वयेन ।
व्याप्त्याव्यवच्छेदमसंगमात्मनो
मुनिर्नभसत्वं वित् तस्य भावयेत ।। 20
राजन ! जितने भी घट , मठ आदि पदार्थ हैं , वे चाहे चल हों या अचल उनके कारण भिन्न भिन्न प्रतीत होने पर भी वास्तव में आकाश एक और अपरिच्छिन्न ( अखंड ) ही है । वैसे ही चर- अचर जितने भी सूक्ष्म – स्थूल शरीर हैं , उनमें आत्मा रूप से सर्वत्र स्थित होने के कारण ब्रह्म सभी में है । साधक को चाहिए कि सूत के मणियों में व्याप्त सूत के समान आत्मा को अखंड और असंगरूप से देखे। वह इतना विस्तृत है कि उसकी तुलना कुछ-कुछ आकाश से ही की जा सकती है इसलिए साधक को आत्मा की आकाश रूपता की भावना करनी चाहिए। 20
तेजोऽबन्न मयैर्भावैर्मेघाद्यैर्वायुनेरितैः।
न स्पृश्यते नभस्तद्वत कालसृष्टैर्गुणैः पुमान ।। 21
आग लगती है , पानी बरसता है , अन्न आदि पैदा होते और नष्ट होते हैं , वायु की प्रेरणा से बादल आदि आते और चले जाते हैं ; यह सब होने पर भी आकाश अछूता रहता है । आकाश की दृष्टि यह सब कुछ है ही नहीं । इसी प्रकार भूत , वर्तमान और भविष्य के चक्कर में न जाने किन-किन नाम रूपों की सृष्टि और प्रलय होते हैं परन्तु आत्मा के साथ उनका कोई संस्पर्श नहीं है। 21
स्वच्छः प्रकृतितः स्निग्धो माधुर्यस्तीर्थभूर्नृणाम ।
मुनिः पुनात्यपां मित्र मीक्षोपस्पर्शकीर्तनैः ।। 22
जिस प्रकार जल स्वभाव से ही स्वच्छ , चिकना , मधुर और पवित्र करने वाला होता है तथा गंगा आदि तीर्थों के दर्शन , स्पर्श और नामोच्चारण से भी लोग पवित्र हो जाते हैं – वैसे ही साधक को भी स्वभाव से ही शुद्ध , स्निग्ध , मधुर भाषी और लोक पावन होना चाहिए । जल से शिक्षा ग्रहण करने वाला अपने दर्शन , स्पर्श और नामोच्चारण से लोगों को पवित्र कर देता है । 22
तेजस्वी तपसा दीप्तो दुर्धर्षोरदरभाजनः ।
सर्वभक्षोऽपि युक्तात्मा नादत्ते मलमग्निवत ।। 23
राजन ! मैंने अग्नि से यह शिक्षा ली कि जैसे वह तेजस्वी और ज्योतिर्मय होती है , जैसे उसे कोई अपने तेज से दबा नहीं सकता , जैसे उसके पास संग्रह – परिग्रह के लिए कोई पात्र नहीं – सब कुछ खा पी लेने पर भी विभिन्न वस्तुओं के दोषों से वह लिप्त नहीं होती वैसे ही साधक भी परम तेजस्वी , तपस्या से देदीप्यमान , इन्द्रियों से अपराभूत , भोजन मात्र का संग्रही और यथा योग्य सभी विषयों का उपभोग करता हुआ भी अपने मन और इन्द्रियों को वश में रखे , किसी का दोष अपने में न आने दे। 23
क्वचिच्छन्नः क्वचित स्पष्ट उपास्यः श्रेय इच्छताम।
भुङ्क्ते सर्वत्र दातृणाम दहन प्रागुत्तराशुभं ।। 24
जैसे अग्नि कहीं ( लकड़ी आदि में ) अप्रकट रहती है और कहीं प्रकट , वैसे ही साधक भी कहीं गुप्त रहे और कहीं प्रकट हो जाये । वह कहीं-कहीं ऐसे रूप में प्रकट हो जाता है , जिस से कल्याणकारी पुरुष उसकी उपासना कर सके । वह अग्नि के समान ही भिक्षारूप हवन करने वालों के अतीत और भावी अशुभ को भस्म कर देता है और सर्वत्र अन्न ग्रहण करता है। 24
स्वमायया सृष्टमिदं सदसल्लक्षणं विभुः ।
प्रविष्ट ईयते तत्ततस्वरूपोऽग्निरिवैधसि ।। 25
साधक पुरुष को इसका विचार करना चाहिए कि जैसे अग्नि लम्बी – चौड़ी दिखाई पड़ती है – वास्तव में वह वैसी है ही नहीं ; वैसे ही सर्व व्यापक आत्मा भी अपनी माया से रचे हुए कार्य – कारण रूप जगत में व्याप्त होने के कारण उन-उन वस्तुओं के नाम – रूप से कोई सम्बन्ध न होने पर भी उनके रूप में प्रतीत होने लगता है। 25
विसर्गाद्याः शम्शानांता भावा देहस्य नात्मनः ।
कलानामिव चन्द्रस्य कालेनाव्यक्तवर्त्मना ।। 26
मैंने चन्द्रमा से यह शिक्षा ग्रहण की है कि यद्यपि जिसकी गति नहीं जनि जा सकती , उस काल के प्रभाव से चन्द्रमा कि कलाएं घटती- बढ़ती रहती हैं , तथापि चन्द्रमा तो चन्द्रमा ही है , वह न घटता है न बढ़ता ही है, वैसे ही जन्म से लेकर मृत्यु पर्यन्त जितनी भी अवस्थाएं है, सब शरीर की हैं , आत्मा से उनका कोई सम्बन्ध नहीं है। 26
काले ह्योघवेगेन भूतानां प्रभवाप्ययौ ।
नित्यावपि न दृश्यते आत्मनोऽग्निर्यथार्चिषाम।। 27
जैसे आग की लपट या दीपक की लौ क्षण – क्षण में उत्पन्न और नष्ट होती रहती है , परन्तु दिखाई नहीं पड़ती – वैसे ही जल प्रवाह के समान वेगवान काल के द्वारा क्षण – क्षण में प्राणियों के शरीर की उत्पत्ति और विनाश होता रहता है परन्तु अज्ञानवश वह दिखाई नहीं पड़ता। 27
गुणैर्गुणानुपादत्ते यथा कालम विमुञ्चति ।
न तेषु युज्यते योगी गोभिर्गा इव गोपतिः ।। 28
राजन ! मैंने सूर्य से यह शिक्षा ली है कि जैसे वे अपनी किरणों से पृथ्वी का जल खींचते और समय पर उसे बरसा देते हैं , वैसे ही योगी पुरुष इन्द्रियों के द्वारा समय पर विषयों का ग्रहण करता है और समय आने पर उन का त्याग , उनका दान भी कर देता है । किसी भी समय उसे इन्द्रिय के किसी भी विषय में आसक्ति नहीं होती। 28
बुध्यते स्वे न भेदेन व्यक्तिस्थ इव तद्गतः ।
लक्ष्यते स्थूलमतिभिरात्मा चावस्थितोऽर्कवत ।। 29
स्थूल बुद्धि पुरुषों को जल के विभिन्न पात्रों में प्रतिबिंबित हुआ सूर्य उन्हीं में प्रविष्ट सा होकर भिन्न – भिन्न दिखाई पड़ता है परन्तु इस से स्वरूपतः सूर्य अनेक नहीं हो जाता ; वैसे ही चल – अचल उपाधियों के भेद से ऐसा जान पड़ता है कि प्रत्येक व्यक्ति में आत्मा अलग – अलग है परन्तु जिनको ऐसा मालूम होता है , उनकी बुद्धि मोटी है । असल बात तो यह है कि आत्मा सूर्य के समान एक ही है । स्वरूपतः उसमें कोई भेद नहीं है । 29
नाति स्नेहः प्रसंगो वा कर्तव्यः क्वापि केनचित।
कुर्वन विन्देत सन्तापं कपोत इव दीनधीः।। 30
राजन ! कहीं किसी के साथ अत्यंत स्नेह अथवा आसक्ति नहीं करनी चाहिए , अन्यथा उसकी बुद्धि अपना स्वातंत्र्य खो कर दीन हो जाएगी और उसे कबूतर की तरह अत्यंत क्लेश उठाना पड़ेगा। 30
कपोतः कश्चनाराण्ये कृतनीडो वनस्पतौ ।
कपोत्या भार्यया सार्धमुवास कतिचित समाः ।। 31
राजन ! किसी जंगल में एक कबूतर रहता था , उसने एक पेड़ पर अपना घोंसला बना रखा था । अपनी मादा कबूतरी के साथ वह कई वर्षों तक उसी घोंसले में रहा। 31
कपोतौ स्नेह गुणित हृदयौ गृह धर्मिणौ ।
दृष्टिं दृष्ट्यांगमंगेन बुद्धिं बुद्ध्या बबंधतुः ।। 32
उस कबूतर के जोड़े के ह्रदय में निरंतर एक – दूसरे के प्रति स्नेह की वृद्धि होती जाती थी । वे गृहस्थ धर्म में इतने आसक्त हो गए थे कि उन्होंने एक-दूसरे की दृष्टि – से – दृष्टि , अंग – से – अंग और बुद्धि – से बुद्धि को बाँध रखा था । 32
शय्यासनाटनस्थानवार्ताक्रीडाशनादिकम ।
मिथुनीभूय विस्त्रब्धौ चेरतुर्वनराजिषु ।।33
उनका एक दूसरे पर इतना विश्वास हो गया था कि वे निःशंक हो कर वहाँ की वृक्षावली में एक साथ सोते, बैठते , घूमते – फिरते , ठहरते , बातचीत करते , खेलते और खाते – पीते थे। 33
यं यं वाञ्छति सा राजंस्तर्पयन्त्यनुकम्पिता ।
तं तं समनयत कामं कृच्छ्रेणाप्यजितेन्द्रियः । 34
राजन ! कबूतरी पर कबूतर का इतना प्रेम था कि वह जो कुछ चाहती कबूतर बड़े – से बड़ा कष्ट उठा कर उसकी कामना पूर्ण करता ; वह कबूतरी भी अपने कामुक पति की कामनाएं पूर्ण करती। 34
कपोती प्रथमं गर्भं गृह्णति काल आगते ।
अण्डानी सुषुवे नीडे स्वपत्युः सन्निधौ सती।। 35
समय आने पर कबूतरी को पहला गर्भ रहा । उसने अपने पति के पास ही घोंसले में अंडे दिए । 35
तेषु काले व्यजायंत रचितावयवा हरेः ।
शक्तिभिर्दुर्विभाव्याभिः कोमलांगतनूरुह्यः।। 36
भगवान की अचिन्त्य शक्ति से समय आने पर वे अंडे फूट गए और उनमे से हाथ – पैर वाले बच्चे निकल आये । उनका एक-एक अंग और रोएं अत्यंत कोमल थे। 36
प्रजाः पुपुषतुः प्रीतौ दंपती पुत्रवत्सलौ ।
शृण्वन्तौ कूजितं तासां निर्वृत्तौ कलभाषितैः ।। 37
अब उन कबूतर – कबूतरी की आँखें अपने बच्चों पर लग गयीं , वे बड़े प्रेम और आनंद से अपने बच्चों का लालन – पालन , लाड – प्यार करते और उनकी मीठी बोली , उनकी गुंटूर – गूँ सुन-सुन कर आनंद मग्न हो जाते । 37
तासां पतत्त्रैः सुस्पर्शैः कूजितैर्मुग्धचेष्टितैः ।
प्रत्युदगमैर दीनानाम पितरौ मुदमापतुः।। 38
बच्चे तो सदा – सर्वदा प्रसन्न रहते ही हैं ; वे जब अपने सुकुमार पंखों से माँ – बाप का स्पर्श करते , कूजते , भोली – भाली चेष्टाएं करते और फुदक – फुदक कर अपने माँ – बाप के पास दौड़ कर आते और तब कबूतर – कबूतरी आनंदमग्न हो जाते। 38
स्नेहानुबद्धहृदयावन्योन्यं विष्णु मायया।
विमोहितौ दीनधियौ शिशून पुपूषतः प्रजाः ।। 39
राजन ! सच पूछो तो वे कबूतर – कबूतरी भगवान की माया से मोहित हो रहे थे। उनका ह्रदय एक – दूसरे के स्नेह बंधन से बंध रहा था । वे अपने नन्हें – नन्हें बच्चों के पालन – पोषण में इतने व्यग्र रहते कि उन्हें दीन – दुनिया , लोक – परलोक की याद ही न आती। 39
एकदर जगमतुस्तासा मन्नार्थम तौ कुटुंबिनौ ।
परितः कानने तस्मिन्नर्थिनौ चेरतुश्चिरम ।। 40
एक दिन दोनों नर – मादा अपने बच्चों के लिए चारा लाने जंगल में गए थे क्योंकि अब उनका कुटुंब बहुत बढ़ गया था । वे चारे के लिए चिरकाल तक जंगल में चारों ओर विचरते रहे। 40
दृष्ट्वा तांल्ललुब्धकः कश्चिद् यदृच्छातो वनेचरः ।
जगृहे जाल मातत्य चरतः स्वाल यान्तिके ।। 41
इधर एक बहेलिया घूमता – घूमता संयोगवश उनके घोंसले की ओर आ निकला । उसने देखा कि घोंसले के आस – पास कबूतर के बच्चे फुदक रहे हैं ; उसने जाल फैला कर उन्हें पकड़ लिया। 41
कपोतश्च कपोती च प्रजापोषे सदोत्सुकौ।
गतौ पोषणमादाय स्वनीडमुप जग्मतुः ।। 42
कबूतर – कबूतरी बच्चों को ख़िलाने-पिलाने के लिए हर समय उत्सुक रहा करते थे । अब वे चारा लेकर अपने बच्चों के पास आये। 42
कपोती स्वात्मजान वीक्ष्य बालकान जालसंवृतान।
तानाभ्यधावत क्रोशन्ती क्रोशतो भृशदुःखिता ।। 43
कबूतरी ने देखा कि उसके नन्हें – नन्हें बच्चे , उसके ह्रदय के टुकड़े जाल में फंसे हुए हैं और दुःख से चें- चें कर रहे हैं । उन्हें ऐसी स्थिति में देख कर कबूतरी के दुःख की सीमा न रही । वह रोती – चिल्लाती उनके पास दौड़ी चली गयी । 43
सासकृत्स्नेहगुणिता दीनचित्ताजमायया।
स्वयं चाबध्यत शिचा बद्धान पश्यंत्यपस्मृतिः।। 44
भगवान की माया से उसका चित्त अत्यंत दीन – दुःखी हो रहा था। वह उमड़ते हुए स्नेह की रस्सी से जकड़ी हुयी थी ; अपने बच्चों को जाल में फंसा देख कर उसे अपने शरीर की भी सुध – बुध न रही । और वह स्वयं ही जाकर जाल में फंस गयी। 44
कपोतश्चात्मजान बद्धानात्मनोऽप्याधिकानप्रियान।
भार्यां चात्मसमां दीनो विललापातिदुःखिताः ।। 45
जब कबूतर ने देखा कि मेरे प्राणों से भी प्यारे बच्चे जाल में फंस गए हैं और मेरी प्राण प्रिय पत्नी भी उसी दशा में पहुँच गयी , तब वह अत्यंत दुःखित हो कर विलाप करने लगा । सचमुच उस समय उसकी दशा अत्यंत दयनीय थी। 45
अहो मे पश्यतापायमल्पपुण्यस्य दुर्मतेः।
अतृप्तस्याकृतार्थस्य गृहस्त्रैवर्गिको हतः ।। 46
मैं अभागा हूँ , दुर्मति हूँ । हाय ! हाय ! मेरा तो सत्यानाश हो गया । देखो , देखो , न मुझे अभी तृप्ति हुयी न मेरी आशाएं पूरी हुईं । तब तक मेरा धर्म , अर्थ और काम का मूल यह गृहस्थ आश्रम ही नष्ट हो गया । 46
अनुरूपानुकूला च यस्य मे पतिदेवता ।
शून्ये गृहे मां सन्त्यज्य पुत्रैः स्वर्याति साधुभिः ।। 47
हाय ! मेरी प्राण प्यारी मुझे ही अपना इष्टदेव समझती थी ; मेरी एक – एक बात मानती थी , मेरे इशारे पर नाचती थी , सब तरह से मेरे योग्य थी । आज वह मुझे सूने घर में छोड़ कर हमारे सीधे – सादे निश्छल बच्चों के साथ स्वर्ग सिधार रही है। 47
सोऽहं शून्ये गृहे दीनो मृतदारो मृतप्रजः।
जिजीविषे किमर्थं वा विधुरो दुःखजीवितः ।। 48
मेरे बच्चे मर गए । मेरी पत्नी जाती रही । मेरा अब संसार में क्या काम है ? मुझ दीन का यह विधुर जीवन – बिना गृहणी का जीवन , जलन का – व्यर्थ का जीवन है । अब मैं इस सूने घर में किसके लिए जिऊँ ?48
तांस्तथैवावृतान्छिग्भिर्मृत्यु ग्रस्तान विचेष्टतः।
स्वयं च कृपणः शिक्षु पश्यन्नप्य बुधो ऽपतत ।। 49
राजन ! कबूतर के बच्चे जाल में फंस कर तड़फड़ा रहे थे , स्पष्ट दिख रहा था कि वे मौत के पंजे में हैं परन्तु वह मूर्ख कबूतर यह सब देखते हुए भी इतना दीन हो रहा था कि स्वयं जान – बूझ कर जाल में कूद पड़ा। 49
तं लब्ध्वा लुब्धकः क्रूरः कपोतं गृहमेधिनम।
कपोतकान कपोतीं च सिद्धार्थः प्रययौ ग्रहम।। 50
राजन ! वह बहेलिया बड़ा क्रूर था । गृहस्थाश्रमी कबूतर – कबूतरी और उनके बच्चों के मिल जाने से उसे बड़ी प्रस्सनता हुयी ; उसने समझा मेरा काम बन गया और वह उन्हें ले कर चलता बना । 50
एवं कुटुम्ब्यशान्तात्मा द्वन्द्वारामः पतत्त्रिवत।
पुष्णन कुटुम्बम कृपणः साधु बंधो अवसीदति।। 51
जो कुटुम्बी हैं , विषयों और लोगों के संग – साथ में ही जिसे सुख मिलता है एवं अपने कुटुंब के भरण – पोषण में ही जो सारी सुध – बुध खो बैठता है , उसे कभी शांति नहीं मिल सकती । वह उसी कबूतर के सामान अपने कुटुंब के साथ कष्ट पाता है। 51
यः प्राप्य मानुषं लोकं मुक्तिद्वारंपावृतं।
गृहेषु खगवत सक्तस्तमारूढ़च्युतं विदुः ।। 52
यह मनुष्य शरीर मुक्ति का खुला हुआ द्वार है । इसे पाकर भी जो कबूतर की तरह अपनी घर – गृहस्थी में ही फंसा हुआ है , वह बहुत ऊंचे तक चढ़ कर गिर रहा है । शास्त्र की भाषा में वह ‘ आरूढच्युत ‘ है। 52