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अथ पञ्चदशोऽध्यायः- पुरुषोत्तमयोग
पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
संसाररूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति का उपाय (01-06)
इश्वरांश जीव, जीव तत्व के ज्ञाता और अज्ञाता ( 07-11)
प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप का वर्णन ( 12-15 )
क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विश्लेषण ( 16-20 )
संसार रूपी अश्वत्वृक्ष का स्वरूप और भगवत्प्राप्ति का उपाय
श्रीभगवानुवाच
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ৷৷15.1৷৷
श्रीभगवान् उवाच-परम पुरुषोत्तम भगवान ने कहा; ऊधर्वमूलम्-जड़ें, ऊपर की ओर; अधः-नीचे की ओर; शाखम्–शाखाएँ, अश्वत्थम्-पीपल का पवित्र वृक्ष; प्राहु:-कहा गया है; अव्ययम्-शाश्वत; छन्दांसि- वैदिक मंत्र या वैदिक स्तोत्र ; यस्य–जिसके; पर्णानि–पत्ते; यः-जो कोई; तम्-उसको; वेद- वेद शास्त्र; सः-वह; वेदवित्-वेदों का ज्ञाता।
परम पुरुषोतम श्री भगवान ने कहा – हे अर्जुन! इस संसार को अविनाशी और शाश्वत अश्वत्थ वृक्ष कहा गया है, जिसकी जड़ें ऊपर की ओर हैं और शाखाएँ नीचे की ओर तथा वैदिक स्तोत्र इस वृक्ष के पत्ते हैं । जो इस अविनाशी विश्व वृक्ष को और इसके रहस्य को जानता है वही वेदों का ज्ञाता है ৷৷15.1৷৷
अधश्चोर्ध्वं प्रसृतास्तस्य शाखा गुणप्रवृद्धा विषयप्रवालाः ।
अधश्च मूलान्यनुसन्ततानि कर्मानुबन्धीनि मनुष्यलोके ৷৷15.2৷৷
अध:-नीचे की ओर; च-और; ऊर्ध्वम्-ऊपर की ओर; प्रसृताः-प्रसारित; तस्य-उसकी; शाखाः-शाखाएँ; गुण–प्राकृतिक गुणों द्वारा; प्रवद्धाः-पोषित; विषय-इन्द्रिय विषय; प्रवाला:-कोंपलें; अध:-नीचे की ओर; च -तथा; मूलानि-जड़ें; अनुसन्ततानि-बंधन; कर्म-कर्म; अनुबन्धीनि-बांधना; मनुष्यलोके-मानव समाज में।
इस संसार रूपी वृक्ष की समस्त योनियों रूपी शाखाएँ नीचे और ऊपर सभी ओर फ़ैली हुई हैं, इस वृक्ष की शाखाएँ प्रकृति के तीनों गुणों (सत्त्व, रज और तम) द्वारा विकसित होती है, इस वृक्ष की इन्द्रिय-विषय रूपी कोंपलें है अर्थात पांच इन्द्रिय विषय इसके अंकुर या कोपलें हैं , इस वृक्ष की जड़ों का विस्तार नीचे की ओर भी होता है जो कि सकाम-कर्म रूप से मनुष्यों के लिये फल रूपी बन्धन उत्पन्न करती हैं या संसार में मानव जाति के कर्मों का कारण हैं अर्थात मनुष्यों के फल की इच्छा से किये गए सकाम कर्म ही उसे मनुष्य लोक में बार बार जन्म लेने पर बाध्य करते हैं ৷৷15.2৷৷
न रूपमस्येह तथोपलभ्यते नान्तो न चादिर्न च सम्प्रतिष्ठा ।
अश्वत्थमेनं सुविरूढमूल मसङ्गशस्त्रेण दृढेन छित्त्वा৷৷15.3৷৷
न-नहीं; रूपम्-रूप; अस्य-इसकी; इह-इस संसार में; तथा-जैसे की; उपलभ्यते-बोध किया जा सकता है; न-कभी नहीं; अन्तः-अन्त; न- कभी नहीं; च-भी; आदिः-प्रारम्भ; न – कभी नहीं; च-भी; सम्प्रतिष्ठा-आधार; अश्वत्थम्-पवित्र पीपल वृक्ष का; एनम्-इस; सुविरूढमूलम्-गहरी जड़ों वाले; असंग -शस्त्रेण विरक्ति के शस्त्र से; दृढेन-दृढ; छित्वा-काट देना चाहिए;
इस संसार रूपी वृक्ष के वास्तविक स्वरूप का अनुभव इस जगत में नहीं किया जा सकता है क्योंकि न तो इसका आदि है और न ही इसका अन्त है और न ही इसका कोई आधार ही है, अत्यन्त दृढ़ता से स्थित इस वृक्ष को केवल वैराग्य रूपी सशक्त शस्त्र के द्वारा ही काटा जा सकता है तभी कोई इसके आधार को जान सकता है ৷৷15.3৷৷
ततः पदं तत्परिमार्गितव्यं यस्मिन्गता न निवर्तन्ति भूयः ।
तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये यतः प्रवृत्तिः प्रसृता पुराणी৷৷15.4৷৷
ततः-तब; तत्-उस; परिमार्गितव्यम्-खोजना चाहिए; यस्मिन्-जहाँ; गताः-जाकर; न-कभी नहीं; निवर्तन्ति–वापस आते हैं; भूयः-पुनः; तम्-उसको; एव–निश्चय ही; च-भी; आद्यम्-मूल; पुरुषम्-परम प्रभुः प्रपद्ये-शरणागत होना; यतः-जिससे; प्रवृत्तिः-गतिविधि; प्रसृता–प्रवाह; पुराणी-अनादिकाल।
वैराग्य रूपी शस्त्र से काटने के बाद मनुष्य को उस परम-लक्ष्य (परमात्मा) के मार्ग की खोज करनी चाहिये, जिस मार्ग पर पहुँचा हुआ और जिसके प्राप्त होने के बाद मनुष्य इस संसार में फिर कभी वापस नहीं लौटता है, फिर मनुष्य को “मैं उस आदि पुरुष की शरण हूँ” ऐसा विचार कर उस परमात्मा के शरणागत हो जाना चाहिये, जिस परमात्मा से इस अनादि काल से चली आने वाली इस सृष्टि या संसार रूपी वृक्ष की उत्पत्ति और विस्तार होता है ৷৷15.4৷৷
निर्मानमोहा जितसङ्गदोषाअध्यात्मनित्या विनिवृत्तकामाः ।
द्वन्द्वैर्विमुक्ताः सुखदुःखसञ्ज्ञैर्गच्छन्त्यमूढाः पदमव्ययं तत्৷৷15.5৷৷
निः-से मुक्त; मान-अभिमान; मोहा:-मोह; जित-वश में करना; संग – आसक्ति; दोषा:-बुराइयाँ ; अध्यात्मनित्याः-निरन्तर अपनी आत्मा और भगवान में लीन रहना; विनिवृत्त – से मुक्त; कामा:-विषय भोगों की लालसा; द्वन्द्वैः-द्वैत से; विमुक्ताः-मुक्त; सुख-दुःख-सुख तथा दुख; संज्ञैः-जाने जाते हैं; गच्छन्ति–प्राप्त करते हैं; अमूढाः-मोहरहित; पदम्-लोक; अव्ययम्-अविनाशी; तत्-उस।
जो अभिमान , मान-प्रतिष्ठा और मोह से मुक्त हो गये हैं, जिन्होंने संग दोष या आसक्ति से होने वाले दोषों को जीत लिया है और सांसारिक विषयों में लिप्त मनुष्यों की संगति को त्याग दिया है , जो नित्य-निरन्तर परमात्मा में ही लगे हुए हैं और परमात्म स्वरूप में स्थित रहते हैं , जो सम्पूर्ण कामनाओं से रहित हो गये हैं और जिसकी सांसारिक कामनाएँ पूर्ण रूप से समाप्त हो चुकी है , जो सुख-दुःख रूप द्वन्द्वों से मुक्त हो गये हैं, ऐसे ऊँची स्थिति वाले मोह रहित ज्ञानी साधक भक्त और मुक्त जीव उस अविनाशी परमपद परमात्मा को प्राप्त होते हैं अर्थात मेरे नित्य धाम को प्राप्त करते हैं ৷৷15.5৷৷
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम৷৷15.6৷৷
न-नहीं; तत्-वह; भासयते-आलोकित करता है; सूर्यः-सूर्य न-न तो; शशाङ्कः-चन्द्रमा; न-न तो; पावकः-अग्नि; यत्-जहाँ; गत्वा-जाकर न-कभी नहीं; निवर्तन्ते-वापस आते हैं; तत् धाम-उसके धाम; परमम्-परम; मम-मेरा ।
उस परम-धाम को अर्थात मेरे सर्वोच्च लोक को न तो सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा प्रकाशित कर सकता है और न ही अग्नि प्रकाशित कर सकती है, जहाँ पहुँचकर कोई भी मनुष्य इस भौतिक संसार में वापस लौट कर नहीं आता है वही मेरा परम-धाम है ৷৷15.6৷৷
इश्वरांश जीव, जीव तत्व के ज्ञाता और अज्ञाता
श्रीभगवानुवाच
ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः ।
मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति৷৷15.7৷৷
मम–मेरा; एव-केवल; अंश:-अणु अंश; जीव-लोके-भौतिक संसार में; जीवभूतः-सन्निहित आत्मा; सनातनः-नित्य; मनः-मन; षष्ठानि – छह; इन्द्रियाणि-इन्द्रियों सहित; प्रकृति-भौतिक प्रकृति के बंधन में; स्थानि-स्थित; कर्षति-संघर्ष।
हे अर्जुन! इस भौतिक संसार की आत्माएं या प्रत्येक शरीर में स्थित जीवात्मा ( जीव बना हुआ आत्मा ) मेरा ही सनातन अंश है , जो कि मन सहित छह इन्द्रियों के द्वारा प्रकृति के अधीन होकर कार्य करता है अर्थात वह प्रकृति में स्थित मन और पाँचों इन्द्रियों को आकर्षित करता है और अपना मान लेता है ৷৷15.7৷৷
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वरः ।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्৷৷15.8৷৷
शरीरम्-शरीर; यत्-जैसे; अवाप्नोति–प्राप्त करता है; यत्-जैसे; च-और; अपि-भी; उत्क्रामति-छोड़ता है; ईश्वरः-भौतिक शरीर का स्वामी; गृहीत्वा-ग्रहण करके; एतानि–इन्हें; संयाति–चला जाता है; वायुः-वायुः गन्धान्–सुगंध; इव-सदृश; आशयात्-धारण करना।
जिस प्रकार से वायु सुगंध को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है उसी प्रकार से देहधारी आत्मा जब पुराने शरीर का त्याग करती है और नये शरीर में प्रवेश करती है उस समय वह अपने साथ मन और इन्द्रियों को भी ले जाती है अर्थात जैसे वायु गन्ध के स्थान से गन्ध को ग्रहण कर के ले जाती है उसी प्रकार शरीर आदि का स्वामी बना हुआ जीवात्मा भी जिस शरीर को छोड़ता है, वहाँ से मन सहित इन्द्रियों को ग्रहण करके फिर जिस शरीर को प्राप्त होता है, उसमें चला जाता है ৷৷15.8৷৷
( शरीर का स्वामी जीवात्मा छहों इन्द्रियों के कार्यों को संस्कार रूप में ग्रहण करके एक शरीर का त्याग करके दूसरे शरीर में उसी प्रकार चला जाता है जिस प्रकार वायु गन्ध को एक स्थान से ग्रहण करके दूसरे स्थान में ले जाती है।)
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते৷৷15.9৷৷
श्रोत्रम्-कान; चक्षुः-आँखें; स्पर्शनम्-त्वचा इन्द्रिय, च-भी; रसनम्-जीभ, घ्राणम्-नासिका; एव-भी; च-तथा; अधिष्ठाय-स्थित होकर; मन:-मन; च-भी; अयम्-यह; विषयान्- इन्द्रिय विषय; उपसेवते-भोग करता है।
इस प्रकार दूसरे शरीर में स्थित होकर जीवात्मा या देहधारी आत्मा मन का आश्रय ले कर या मन की सहायता से कान, आँख, त्वचा, जीभ और नाक इन पाँचों इन्द्रियों के द्वारा से ही इन्द्रिय विषयों का भोग करता है ৷৷15.9৷৷
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः৷৷15.10৷৷
उत्क्रामन्तम्-प्रस्थान करते हुए; स्थितम्–शरीर में रहते हुए; वा-अपि-अथवा; भुजजानम्-भोग करते हुए; वा–अथवा; गुण-अन्वितम्-प्रकृति के गुणों के अधीन; विमूढाः-अज्ञानी; न – कभी नहीं; अनुपश्यन्ति-जान सकते हैं; पश्यन्ति-देख सकते हैं; ज्ञानचक्षुषः-ज्ञान चक्षुओं से सम्पन्न।
अज्ञानीजन इस शरीर में स्थित आत्मा का अनुभव नहीं कर पाते जबकि यह शरीर में ही रहती है , इन्द्रिय विषयों का भोग करती है ; न ही उन्हें इसके शरीर से प्रस्थान करने का बोध होता है लेकिन वे मनुष्य जिनके नेत्र ज्ञान से युक्त होते हैं वे ही इसे ऐसा करते देख सकते हैं अर्थात जीवात्मा किस प्रकार शरीर में स्थित रहती है, किस प्रकार प्रकृति के गुणों के अधीन होकर विषयों का भोग करती है और किस प्रकार इस शरीर का त्याग कर सकती है; मूर्ख मनुष्य कभी भी इस प्रक्रिया को नहीं देख पाते हैं। केवल वही मनुष्य देख पाते हैं जिनकी आँखें ज्ञान के प्रकाश से प्रकाशित हो गयी हैं ৷৷15.10৷৷
( मूढ़ जन शरीर को छोड़कर जाते हुए या शरीर का त्याग करते हुए , शरीर में स्थित या रहते हुए , विषयों का भोग करते हुए गुणों से युक्त इस जीवात्मा के स्वरूप को नहीं जान पाते, केवल ज्ञानरूपी नेत्रों या ज्ञान चक्षु वाले ज्ञानी मनुष्य ही उसे जान सकते हैं।)
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम् ।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः৷৷15.11৷৷
यतन्तः-प्रयासरत करता; योगिन:-योगी; च-भी; एनम् – इसे; पश्यनित-देखता है; आत्मनि- शरीर में; अवस्थितम् – प्रतिष्ठित; यतन्तः-प्रयत्न करते हुए; अपि – यद्यपि; अकृत-आत्मानः-जिनका मन शुद्ध नहीं है; न – नहीं; एनम्-इसे; पश्यन्ति-देखते हैं; अचेतसः-अनभिज्ञ रहते हैं।
भगवद्प्राप्ति के लिए प्रयासरत योगी यह जानने में समर्थ हो जाते हैं कि आत्मा शरीर में प्रतिष्ठित है किन्तु जिनका मन शुद्ध नहीं है वे प्रयत्न करने के बावजूद भी इसे जान नहीं सकते अर्थात यत्न करने वाले प्रयासरत योगी अपने-आप में स्थित इस परमात्म तत्त्व का अनुभव करते हैं या अपने हृदय में स्थित इस आत्मा को देख सकते हैं, किन्तु जिनका मन शुद्ध नहीं है या जिन्होंने अपना अंतःकरण शुद्ध नहीं किया है ऐसे अज्ञानी और अविवेकी मनुष्य यत्न करते रहने पर भी इस आत्मा या आत्म तत्व को नहीं देख पाते हैं और सदैव इस से अनभिज्ञ रहते हैं ৷৷15.11৷৷
प्रभाव सहित परमेश्वर के स्वरूप का वर्णन
यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम् ।
यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्৷৷15.12৷৷
यत्-जो; आदित्य-गतम्-सूर्य में; तेजः-दीप्ति; जगत्-ब्रह्मांड; भासयते-आलोकित होता है; अखिलम्-सम्पूर्ण; यत्-जो; चन्द्रमसि-चन्द्रमा में; यत्-जो; च-भी; अग्नौ-अग्नि में; तत्-वह; तेजः-तेज; विद्धि-जानो; मामकम्-मुझसे।।
हे अर्जुन! यह जान लो कि मैं सूर्य के तेज के समान हूँ जो पूरे ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करता है। सूर्य का तेज और अग्नि की दीप्ति मुझसे ही उत्पन्न होती है अर्थात जो प्रकाश सूर्य में स्थित है जिससे समस्त संसार प्रकाशित होता है, जो प्रकाश चन्द्रमा में स्थित है और जो प्रकाश अग्नि में स्थित है, उस प्रकाश को तू मुझसे ही उत्पन्न समझ ৷৷15.12৷৷
गामाविश्य च भूतानि धारयाम्यहमोजसा ।
पुष्णामि चौषधीः सर्वाः सोमो भूत्वा रसात्मकः৷৷15.13৷৷
गाम्-पृथ्वीलोक में; आविश्य-व्याप्त; च-भी; भूतानि-जीवों के; धारयामि-धारणा करता हूँ; अहम्-मैं; ओजसा-शक्ति; पुष्णामि-पोषण करता; च-तथा; औषधीः-पेड़ पौधों को; सर्वोः-समस्त; सोमः-चन्द्रमा; भूत्वा-बनकर; रसात्मकः – जीवन रस प्रदान करने वाला।
पृथ्वी पर व्याप्त रहकर मैं सभी जीवों को अपनी शक्ति से पोषित करता हूँ। चन्द्रमा के रूप में मैं सभी पेड़-पौधों और वनस्पतियों को जीवन रस प्रदान करता हूँ और उन्हें पोषित करता हूँ अर्थात मैं ही पृथ्वी लोक में प्रवेश करके अपनी शक्ति और ओज से सभी प्राणियों को धारण करता हूँ और मैं ही रसमय चन्द्रमा के रूप में वनस्पतियों और औषधियों में जीवन-रस बनकर समस्त प्राणियों का पोषण करता हूँ ৷৷15.13৷৷
अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रितः ।
प्राणापानसमायुक्तः पचाम्यन्नं चतुर्विधम्৷৷15.14৷৷
अहम्-मैं; वैश्वानरः-पाचक-अग्नि; भूत्वा-बन कर; प्राणिनाम्-सभी जीवों के; देहम्- शरीर; अश्रित:-स्थित; प्राण-अपान-भीतर और अंदर जाने वाली श्वास; समायुक्तः-संतुलित होना; पचामि-पचाता हूँ; अन्नम्-अन्न को; चतुःविधम्-चार प्रकार के।
मैं ही पाचन-अग्नि के रूप में समस्त जीवों के शरीर में स्थित रहता हूँ, मैं ही प्राण वायु और अपान वायु को संतुलित रखते हुए चार प्रकार के (चबाने वाले, पीने वाले, चाटने वाले और चूसने वाले) अन्नों को पचाता हूँ ৷৷15.14৷৷
सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्टोमत्तः स्मृतिर्ज्ञानमपोहनं च ।
वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्योवेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम् ৷৷15.15৷৷
सर्वस्य-सभी प्रणियों के; च और; अहम्- मैं; हृदि – हृदय में; सन्निविष्ट:-स्थित; मत्तः-मुझसे; स्मृति:-स्मरणशक्ति; ज्ञानम्-ज्ञान; अपोहनम् – विस्मृति; च-और; सर्वेः-समस्त; अहम्-मैं हूँ; एव-निश्चय ही; वेद्यः-वेदों द्वारा जानने योग्य, ज्ञेय; वेदान्तकृत-वेदान्त के रचयिता; वेदवित्-वेदों का अर्थ जानने वाले; एव–निश्चय ही; च-और; अहम्-मैं।
मैं ही समस्त जीवों के हृदय में निवास करता हूँ अर्थात सम्पूर्ण प्राणियों के हृदय में आत्मा रूप में स्थित हूँ और मेरे ही द्वारा जीव को स्वयं के और मेरे वास्तविक स्वरूप की स्मृति और ज्ञान होता है और मेरे ही द्वारा उसे उस स्वरूप और ज्ञान की विस्मृति हो जाती है अर्थात वह उस समस्त ज्ञान और स्वरूप की स्मृतियों को भूल जाता है । मैं ही समस्त वेदों द्वारा जानने योग्य हूँ, मैं ही वेदांत का रचयिता अर्थात मुझसे ही समस्त वेद उत्पन्न होते हैं ( मैं ही वेदों के तत्व का निर्णय करने वाला ) , मैं ही समस्त वेदों को और उनका अर्थ जानने वाला हूँ ৷৷15.15৷৷
क्षर, अक्षर, पुरुषोत्तम का विश्लेषण
द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ৷৷15.16৷৷
द्वौ-दो; इमौ–ये; पुरुषौ-जीव; लोके-सृष्टि में; क्षर:-नश्वर; च – और; अक्षर:-अविनाशी; एव-वास्तव में; च-तथा; क्षरः-नश्वर; सर्वाणि-सभी; भूतानि – जीवों को; कूटस्थ:-मुक्त; अक्षर:-अविनाशी; उच्यते-कहा जाता है।
हे अर्जुन! संसार में दो प्रकार के ही जीव होते हैं एक नाशवान (क्षर) और दूसरे अविनाशी (अक्षर) । इनमें समस्त जीवों के शरीर तो नाशवान होते हैं परन्तु समस्त जीवों की आत्मा या जीवात्मा को मुक्त और अविनाशी कहा जाता है अर्थात जीवों की देह कुछ समय पश्चात् नष्ट होने वाली होती है अर्थात क्षर होती है परन्तु उनकी आत्मा कभी न नष्ट होने वाली अक्षर और अविनाशी होती है। ৷৷15.16৷৷
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः৷৷15.17৷৷
उत्तमः-परम; पुरुषः-दिव्य व्यक्तित्व; तु-लेकिन; अन्यः-अतिरिक्त; परमात्मा- परम आत्मा; इति-इस प्रकार; उदाहृतः-कहा जाता है; यः-जो; लोकत्रयम्-तीन लोकों में; आविश्य-प्रवेश करके; बिभिर्ति-पालन करना; अव्ययः-अविनाशी; ईश्वरः-नियन्ता।
परन्तु इन दोनों के अतिरिक्त एक अन्य परम सर्वोच्च दिव्य व्यक्तित्व है , एक उत्तम श्रेष्ठ पुरुष है जो अक्षय परमात्मा कहा जाता है। वही अविनाशी ईश्वर ही तीनों लोकों में अपरिवर्तनीय नियंता के रूप में प्रवेश करता है और सभी जीवों का पालन पोषण करता है।।15.17।।
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः ।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः৷৷15.18৷৷
यस्मात्-क्योंकि; क्षरम्-नश्वर; अतीत:-परे; अहम् – मैं हूँ; अक्षरात्-अक्षर से भी; अपि-भी; च-तथा; उत्तमः-परे; अत:-अतएव; अस्मि-मैं हूँ; लोके-संसार में; वेदे-वैदिक ग्रंथों में; च – तथा; प्रथितः – विख्यात; पुरुषोत्तम – पुरुषों में सबसे उत्तम पुरुष
क्योंकि मैं ही नश्वर सांसारिक पदार्थों और अविनाशी आत्मा से भी परे हूँ अर्थात मैं ही क्षर और अक्षर दोनों से परे स्थित सर्वोत्तम हूँ, इसलिए मैं संसार में और वेदों दोनों में ही दिव्य परम पुरूष अर्थात पुरुषोत्तम के रूप में विख्यात हूँ৷৷15.18৷৷
यो मामेवमसम्मूढो जानाति पुरुषोत्तमम् ।
स सर्वविद्भजति मां सर्वभावेन भारत ৷৷15.19৷৷
यः-जो; माम् – मुझको; एवम् – इस प्रकार; असम्मूढः-संदेह रहित; जानाति–जानता है; पुरुषोत्तम -दिव्य परम पुरुषः सः-वह; सर्ववित्-पूर्ण ज्ञान युक्त, सब कुछ जानने वाला; भजति-भक्ति में तल्लीन; माम्-मुझको; सर्वभावेन – सर्वस्व रूप से; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन।
हे भरतवंशी अर्जुन! वे जो संशय रहित होकर मुझे परम दिव्य पुरुषोत्तम भगवान के रूप में जानते हैं, वास्तव में वे ही पूर्ण ज्ञान से युक्त हो कर मुझे ही सब कुछ जान कर ह्रदय से मेरी ही भक्ति में तल्लीन रहते हैं ৷৷15.19৷৷
इति गुह्यतमं शास्त्रमिदमुक्तं मयानघ ।
एतद्बुद्ध्वा बुद्धिमान्स्यात्कृतकृत्यश्च भारत ৷৷15.20৷৷
इति–इन; गुह्यतमम्-सबसे गुह्यतम; शास्त्रम्-वैदिक शास्त्र; इदम्-यह; उक्तम्-प्रकट किया गया; मया – मेरे द्वारा; अनघ-पापरहित, अर्जुन; एतत्-यह; बुद्ध्वा -समझ कर; बुद्धिमान्–प्रबुद्ध; स्यात् – हो जाता है; कृतकृत्यः-अपने प्रयासों से परिपूर्ण होना; च-तथा; भारत-भरतपुत्र, अर्जुन।
हे निष्पाप अर्जुन! इस प्रकार मेरे द्वारा वैदिक ग्रंथों और शास्त्रों का सबसे गुह्य सिद्धान्त और अति गोपनीय रहस्य कहा गया अथवा प्रकट किया गया है। जो मनुष्य इस परम-ज्ञान को इसी प्रकार से समझता है वह बुद्धिमान और ज्ञानवान हो जाता है और अपने प्रयासो में सफल अथवा कृतकृत्य हो जाता है।।१५.20।।
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