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यह वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हो चुका है कि विष्णु सहस्रनाम का जाप करने से अवसाद, तनाव, चिंता दूर होती है और स्मरण शक्ति में सुधार होता है।
लेकिन अगर आप इसका जाप नहीं कर सकते तो केवल “राम राम” कहना ही काफी होगा। जितना हो सके इसका जाप करें।
कहते हैं कि जब आप अपने बिस्तर पर होते हैं और उनका नाम जपते हैं, तो राम बैठते हैं और सुनते हैं। जब आप बैठकर उनका नाम जप रहे होते हैं तो वह खड़े होकर सुनते हैं। जब आप खड़े होकर जप करते हैं तो वह खुशी से नाचते हैं और आपकी बात सुनते हैं और जब आप हर समय इसका जाप करते हैं, तो वह आपके लिए वैकुंठ का द्वार खोल देते हैं ।
विष्णुसहस्रनाम का फल
विष्णु सहस्रनाम में महात्मा केशव के कीर्तनीय एक हजार दिव्य नामों का इस स्तोत्र में गुणगान किया गया है। भगवान् विष्णु के इस स्तोत्र की रचना महर्षि वेद व्यास ने की है। जो मनुष्य इसको श्रेय और सुख की प्राप्ति के लिए पढता है या पढ़ने की इच्छा मात्र करता है । जो भगवान विष्णु के हज़ार नामों को नित्य सुनता है या जो गुणगान करता है वह इस लोक में या परलोक में श्रेष्ठ फलों को भोगता है । जो लोग आपदाओं से घिरे हुए हैं , जो हताश , निराश, परेशान और दुखी हैं , जो भयभीत हैं , जो भयंकर रोगों से ग्रस्त हैं , वे लोग भगवान् विष्णु के नारायण नाम उच्चारण या जाप करने से अपने कष्टों से मुक्त हो जाते हैं और प्रसन्न हो जाते हैं।विष्णु सहस्रनामम रोज सुनने या पाठ करने से रोगी रोग से , बंधा हुआ बंधन से , भयभीत भय से और आपत्तिग्रस्त आपत्ति से छूट जाता है। उसे जीवन में और मृत्यु के बाद भी कभी अशुभता नहीं देखनी पड़ती। सहस्रनाम का श्रवण करने से ब्राह्मण वेदांत का जानने वाला , क्षत्रिय विजयी , वैश्य धन से संपन्न और शूद्र सुख पाता है। सहस्रनाम का पाठ करने से धर्मार्थी धर्म प्राप्त करता है , अर्थार्थी अर्थ प्राप्त करता है , कामना वालों की कामनापूर्ति होती है , पुत्रार्थी पुत्र प्राप्त करता है तथा राजा इक्षुक प्रजा को प्राप्त करता है । जो भक्तिमान पुरुष सदा उठकर पवित्र और तद्गत चित्त से भगवान वासुदेव के इस सहस्रनाम का कीर्तन करता है । वो महान यश , जाति में प्रधानता , अचल लक्ष्मी और मोक्ष प्राप्त करता है। जो विष्णु सहस्रनाम रोज पढता या सुनता है उसे कहीं भय नहीं होता, वह पराक्रम और तेज़ प्राप्त करता है तथा निरोग ( रोगरहित ), कांतिमान ( शोभायुक्त ) , बल , रूप और गुणों से संपन्न होता है । जो प्राणी भक्तिभाव से भगवान पुरुषोत्तम की सहस्रनामों से सदैव स्तुति करता है वह दुःखों से मुक्त हो जाता है । जो जीव विश्वेश्वर, अजन्मा और संसार की उत्पत्ति तथा उसके लय के स्थान देव देव पुण्डरीकाक्ष को भजते हैं उनका कभी पराभव नहीं होता अर्थात कभी दुःखों को प्राप्त नहीं होता । जो मनुष्य भगवान वासुदेव का शरणागत होकर उनमें आसक्ति रखता है वह पापमुक्त हो कर सनातन ब्रह्म को प्राप्त करता है। वासुदेव के भक्तों का कहीं भी अशुभ नहीं होता तथा उन्हें जन्म , मृत्यु, ज़रा और रोगों का भी भय नहीं रहता । जो श्रद्धा भक्ति से इस स्तोत्र का पाठ करता है वह आत्मसुख , शान्ति , लक्ष्मी , बुद्धि, स्मृति , कीर्ति वाला होता है । पुरुषोत्तम भगवान के पुण्यात्मा भक्तों को क्रोध , मात्सर्य ( दूसरों के गुण में दोष दृष्टि रखना), लोभ और अशुभ बुद्धि नहीं होती। भगवान वासुदेव के बल पराक्रम से ही द्यु लोक ( स्वर्ग ), चन्द्रमा , सूर्य , नक्षत्र समूह , आकाश , दिशा , पृथ्वी , समुद्र स्थिर हैं । ऋषि , पितर , देवता , महाभूत , धातु , जंगम , स्थावर जगत की उत्पत्ति भगवान् नारायण से ही है । पांच ज्ञानेन्द्रियाँ , पांच कर्मेन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , सत्व , तेज़ , बल , धृति , क्षेत्र , क्षेत्रज्ञ आदि सभी भगवन वासुदेव के ही रूप हैं । भगवान् विष्णु ही जीवों की आत्मा , सृष्टि के भोगकर्ता व शाश्वत हैं। वे ही महत तत्त्व से उत्पन्न अनेक जीवों और तीनों लोकों को रच कर उसका उपभोग करते हैं। भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा – हे पाण्डव (हे अर्जुन), जो मेरे सहस्रनाम से स्तोत्र या स्तुति करने की इच्छा रखता है, वह विष्णु , मैं एक श्लोक से ही स्तुत हो जाता हूँ । इस बात पर कोई शंका नहीं । जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मुझमें निरन्तर लगे हुए उन भक्तों का योगक्षेम (अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) मैं वहन करता हूँ।
शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये ॥1।।
आप चन्द्रमा जैसे श्वेत रंग में रंगे हुए हैं और उसी रंग में आपकी आभा चमक रही है। आप अन्तर्यामी हैं एवं चार भुजाओं वाले हैं। मैं आपके सदा मुस्कुराने वाले चेहरे पर ध्यान लगा रहा हूँ और प्रार्थना कर रहा हूँ कि मेरे पथ की सारी समस्याएँ दूर हो जाएँ।।1।।
यस्य द्विरदवक्त्राद्याः पारिषद्याः परः शतम् ।
विघ्नं निघ्नन्ति सततं विष्वक्सेनं तमाश्रये ॥ २ ॥
बहुत सारे सेवकों वाले हाथी समान चेहरे वाले विश्वक्सेना हमारे सभी कष्ट दूर करेंगे अगर हम उन पर पूरी तरह समर्पित हो जाएंगे।।2।।
व्यासं वसिष्ठनप्तारं शक्तेः पौत्रमकल्मषम् ।
पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम् ॥ ३ ॥
मैं व्यास को प्रणाम करता हूँ जो तपस्या की मूर्ति हैं, वसिष्ठ ऋषि के परपोते हैं। शक्ति के पोते हैं। पराशर के पुत्र हैं। और शुक के पिता है।।3।।
व्यासाय विष्णुरूपाय व्यासरूपाय विष्णवे ।
नमो वै ब्रह्मनिधये वासिष्ठाय नमो नमः ॥ ४ ॥
व्यास ही विष्णु हैं और विष्णु ही व्यास हैं और मैं उन्हें प्रणाम करता हूँ। वो जो वशिष्ठ के परिवार में जन्मा है उसे मेरा बारम्बार प्रणाम है।।4
अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने ।
सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे ॥ ५ ॥
वो जो पवित्र है, जो परम है, जो सदा सत्य है जो संसार की सब नश्वर वस्तुओं से ऊपर है उस विष्णु को मेरा प्रणाम है।।5।।
यस्य स्मरणमात्रेण जन्मसंसारबन्धनात् ।
विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ ६ ॥
मैं उस सर्वशक्तिमान विष्णु को प्रणाम करता हूँ जिसके बारे में सिर्फ एक बार सोचने से ही जन्म और मृत्यु के समस्त बंधन कट जाते हैं। उस सर्वशक्तिमान विष्णु को बारम्बार प्रणाम है। जिनके सुमिरन मात्र से जीव जन्म और मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है । जो सर्वव्यापी और सर्वसमर्थ हैं उन भगवान विष्णु को नमस्कार है।।6।।
सच्चिदानंद रूपाय कृष्णायाक्लिष्टकारिणे।
नमो वेदांत वेद्याय गुरवे बुद्धि साक्षिणे ।।7।।
सच्चिदानंद स्वरूप ( सत , चित और आनंद स्वरूप ) , सभी प्रकार के क्लेशों का अंत करने वाले , वेदांत को जानने वाले , जिनको जान्ने से वेदों का ज्ञान हो जाता है ऐसे बुद्धि के साक्षी गुरुवर सर्वोच्च ईश्वर श्री कृष्णचंद्र को नमस्कार है ।।7।।
कृष्ण द्वैपायनम व्यासं सर्वलोकहिते रतं।
वेदाब्ज भास्करं वंदे शमादि निलयं मुनिं।।8।।
वेदरूपी कमल के लिए सूर्यरूप , शम आदि के आश्रय , सम्पूर्ण लोकों के हित में तत्पर मुनिवर कृष्ण द्वैपायन व्यास की मैं वंदना करता हूँ ।।8।।
सहस्रमूर्तेः पुरुषोत्तमस्य सहस्रनेत्रानन पाद बाहोः।
सहस्रनाम्नां स्तवनं प्रशस्तं निरुच्यते जन्म जरा दिशान्तयै।।9।।
सहस्र नेत्र , मुख , पाद और भुजाओं वाले सहस्रमूर्ति श्री पुरुषोत्तम भगवान् के सहस्र नामों के इस परम उत्तम स्तवन की , जन्म – जरा आदि की शांति के लिए व्याख्या की जाती है ।
ॐ नमो विष्णवे प्रभविष्णवे ।
श्रीवैशम्पायन उवाच –
श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः ।
युधिष्ठिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत ॥ ७ ॥
श्री वैशम्पायन ने कहा कि राजा युधिष्ठिर ने अभ्युदय और निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए भूत सम्पूर्ण विधिरूप धर्म तथा पवित्र अर्थात पापों का नाश करने वाले धर्म रहस्यों को सब प्रकार सुन कर और यह समझकर कि अभी तक ऐसा कोई धर्म नहीं कहा गया जो सकल पुरुषार्थ का साधक और अल्प प्रयास से ही सिद्ध होने वाला होकर भी महान फलवाला हो शांतनु के पुत्र भीष्म से फिर पूछा ।। 7
युधिष्ठिर उवाच —
किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम् ।
स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ॥ ८ ॥
युधिष्ठिर ने पूछा– इस सृष्टि में सभी फलों के दाता, समस्त विद्याओं के स्थान प्रकाश के हेतु स्वरूप लोक में एक ही सर्वपूज्य देव कौन हैं ? जिसके विषय में कहा है कि जिस की आज्ञा से सब प्राणी प्रवृत्त होते हैं अथवा प्राप्त करने योग्य सर्वोत्तम, एक ही परायण कौन हैं ? जिसका साक्षात्कार कर लेने पर सब संशय नष्ट हो जाते हैं तथा संपूर्ण कर्म क्षीण हो जाते हैं । जिस कार्य कारण रूप परमात्मा को ज्ञान दृष्टि से देख लेने पर जीव की अविद्यारूप हृदय ग्रंथि टूट जाती है । जिसके ज्ञान मात्र से ही आनंद स्वरूप मोक्ष प्राप्त होता है । जिसका जानने वाला किसी से भय नहीं करता । जिसमें प्रवेश करने वाले का फिर जन्म नहीं होता। जिसको जान लेने पर जो ब्रह्म को जनता है वो ब्रह्म ही हो जाता है । मनुष्य वही हो जाता है तथा जिसे छोड़कर मनुष्यों के लिए मोक्ष प्राप्त करने के लिए कोई दूसरा मार्ग नहीं है । इस प्रकार जो लोक में एक ही परायण बतलाया गया है वह कौन है ? किसकी वंदना और पूजा से जीव इहलोक और परलोक में श्रेष्ठ फल पाता है ? कौन से देव की स्तुति , गुण कीर्तन करने से तथा किस देव का नाना प्रकार से अर्चन और आंतरिक पूजा करने से मनुष्य शुभ अर्थात स्वर्गादि फलरूप कल्याण की प्राप्ति कर सकते हैं।
को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः ।
किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् ॥ ९ ॥
सभी धर्मो में कौन सा धर्म सर्वश्रेष्ठ है ? आप सब धर्मों – समस्त धर्मों में पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त किस धर्म को परम श्रेष्ठ मानते हैं? और किस जपनीय का उच्च उपांशु और मानस जप करते हुए जन्म धर्मा जीव जन्म- संसार बंधन से मुक्त हो जाता है ? जंतु शब्द से जप , अर्चन और स्तवन आदि में समस्त प्राणियों की यथायोग्य अधिकार सूचित करते हैं । जन्म शब्द अज्ञान से प्रतीत होने वाले अविद्या के कार्यों को लक्षित करता है तथा संसार अविद्या ही का नाम है । उन जन्म और संसार का जो बंधन है उससे जीव कैसे छूटता है ?
जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम् ।
स्तुवन् नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः ॥ १० ॥
स्थावर जङ्गम रूप जो संसार है उस संसार के प्रभु , स्वामी , ब्रह्मादि देवों के देव , अनंत अर्थात देश काल और वस्तु से परे , कार्य कारण रूप क्षर और अक्षर से श्रेष्ठ पुरुषोत्तम का सहस्रनाम के द्वारा निरंतर तत्पर रहकर स्तवन ( स्तुति ) , गुण, संकीर्तन करने से पुरुष ( प्राणी ) सब दुखों से पार हो जाता है। पूर्ण होने से अथवा शरीर रूप पुर में शयन करने से जीव का नाम ‘ पुरुष ‘ है ।। 10
तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम् ।
ध्यायन् स्तुवन् नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च ॥ ११ ॥
तथा उसी अव्यय विनाश क्रिया रहित पुरुष का नित्य अर्थात सब समय भजन अर्थात तत्परता का नाम भक्ति है । उस भक्ति से युक्त हो कर अर्चन अर्थात वाह्य पूजन करने से और उसी का ध्यान अर्थात आंतरिक पूजन तथा पूर्वोक्त प्रकार से अर्थात सहस्रनाम के द्वारा स्तवन एवं नमस्कार करने से अर्थात पूजा के शेष भूत स्तुति और नमस्कार करने से यजमान – पूजा करने वाला फल भोक्ता सब दुखों से छूट जाता है । वाह्य और आतंरिक दो प्रकार का अर्चन कहा है तथा ध्यान , स्तवन और नमन करते हुए मानसिक , वाचिक और कायिक पूजन बताया गया है ।।11
अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम् ।
लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखादिगो भवेत् ॥ १२ ॥
अनादिनिधन अर्थात [ होना , जन्म लेना , बढ़ना , बदलना , क्षीण होना और नष्ट होना ] इन छह विकारों से रहित , विष्णु अर्थात व्यापक तथा सम्पूर्ण लोकों के महेश्वर जो दिखलाई दे उस दृश्य वर्ग का नाम लोक है । उसके नियंता ब्रह्मादि के भी स्वामी होने से जो सर्व लोक महेश्वर और सारे दृश्य वर्ग को अपने अपने स्वाभाविक ज्ञान से साक्षात देखने के कारण लोकाध्यक्ष है उसी अव्यय ,अविनाशी विनाश क्रिया रहित पुरुष का निरंतर नित्य भक्ति से युक्त हो कर स्तुति , अर्चन ( वाह्य पूजन ) और उसी का ध्यान ( आतंरिक पूजन ) और सहस्रनाम के द्वारा स्तवन एवं नमस्कार करने से यजमान अर्थात पूजा करने वाला समस्त दुखों से पार हो जाता है। इस प्रकार यहाँ स्तवन , अर्चन और जप इन तीनों का एक ही फल बतलाया गया है । सम्पूर्ण दुःख अर्थात अर्थात दैहिक , दैविक और आध्यात्मिक आदि तीनों प्रकार के दुखों को पार कर जाता है यानि सर्वदुःखातीत हो जाता है । 12
ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम् ।
लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूतभवोद्भवम् ॥ १३ ॥
जो ब्रह्मण्य अर्थात जगत की रचना करने वाले ब्रह्मा के तथा ब्राह्मण , तप और श्रुति के हितकारी हैं , सभी धर्मों के ज्ञाता हैं , वह सभी लोकों में जीवन का पोषण करते है, सर्वोच्च शासक, पूर्ण सत्ता, समस्त सृष्टि का कारण है , लोकों की या प्राणियों के यश को उनमें अपनी शक्ति से प्रविष्ट होकर बढ़ाते हैं , जो लोकनाथ अर्थात सभी लोकों के स्वामी हैं , सभी लोकों से प्रार्थित , लोकों को अनुतप्त या शासित करने वाले तथा उन पर सत्ता चलाने वाले हैं, उन पर प्रभुत्व रखने वाले हैं । जो अपने समस्त उत्कर्ष से वर्तमान होने के कारण महद अर्थात ब्रह्म महद्भूत अर्थात परमार्थ सत्य हैं और जिनकी सन्निधि मात्र से समस्त भूतों का उत्पत्ति स्थान संसार उत्पन्न होता है इसलिए जो समस्त भूतों के उद्भव स्थान हैं , उन परमेश्वर का स्तवन करने से मनुष्य सब दुखों से छूट जाता है।
एष मे सर्वधर्माणां धर्मोऽधिकतमो मतः ।
यद्भक्त्या पुण्दरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा ॥ १४ ॥
सम्पूर्ण विधिवत धर्मों में मैं इसी धर्म को सबसे बड़ा मानता हूँ कि मनुष्य श्री पुण्डरीकाक्ष का अर्थात अपने ह्रदय कमल में विराजमान भगवान् वासुदेव का भक्तिपूर्वक तत्परता सहित गुण संकीर्तन , स्तुतियों से सदा अर्चन करे अर्थात आदरपूर्वक पूजन करे । तो यह निश्चित रूप से मोक्ष ( जीवन मरण चक्र से छुटकारा ) पाने का मार्ग है । इस प्रकार जो यह धर्म है यही मुझे सर्वाधिक मान्य है । 14
परमं यो महत्तेजः परमं यो महत्तपः ।
परमं यो महद्ब्रह्म परमं यः परायणम् ॥ १५ ॥
जो देव परम प्रकाशक या परम तेज , परम तप करने वाला यानि आज्ञा देने वाला है , जो इस लोक को , परलोक को और समस्त प्राणियों को उनके भीतर स्थित होकर शासित करता है। जो सत्यादि लक्षणों वाला परम ब्रह्म , और महत्ता युक्त होने के कारण महान है और जो पुनरावृत्ति कि शंका से रहित परम श्रेष्ठ परायण हैं वही समस्त प्राणियों की परम गति है । 15
पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम् ।
दैवतं देवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता ॥ १६ ॥
वह पवित्रों में सबसे अधिक पवित्र है अर्थात पवित्र करने वाले तीर्थादिकों में में पवित्र हैं , शुभों में सबसे अधिक शुभ , देवों में परम देव , जीवों में अव्यय पिता हैं ,अर्थात प्रत्येक जीवित प्राणी में जीवन शक्ति, सभी संसारों के शाश्वत माता-पिता हैं और उनमें सब कुछ है। परम पुरुष परमात्मा ध्यान , दर्शन , कीर्तन , स्तुति , पूजा , स्मरण तथा प्रणाम किये जाने पर समस्त पापों को जड़ से उखाड़ डालते इसलिए वे परम पवित्र हैं । 16
यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादियुगागमे ।
यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये ॥ १७ ॥
कल्प आरम्भ में समस्त जीव जिनसे प्रकट होते हैं और कल्पांत में पुनः उन्हीं में विलीन हो जाते हैं 17
तस्य लोकप्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते ।
विष्णोर्नामसहस्रं मे शृणु पापभयापहम् ॥ १८ ॥
हे नृप ! जगत के स्वामी और सृष्टि प्रमुख उन भगवान विष्णु के उस पाप नाशक और भय नाशक सहस्रनाम को मुझसे सुनो । 18
यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः ।
ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये ॥ १९ ॥
उन महात्मा के गुण, कर्म के अनुसार जो नाम हैं या जिनके परोक्ष या अपरोक्ष , प्रसिद्द और ऋषि मुनियों द्वारा गाये गए नाम हैं उनको मैं धर्म , अर्थ , काम , मोक्ष के लाभार्थ कहता हूँ ।
ऋषिर्नाम्नां सहस्रस्य वेदव्यासो महामुनिः ।
छन्दोऽनुष्टुप् तथा देवो भगवान् देवकीसुतः ॥ २० ॥
इन हजार नामों की रचना महान ऋषि व्यास ने की थी, जिन्होंने वेदों को भी संकलित किया था, और देवकी के पुत्र भगवान की स्तुति में अनुष्टुप छंद का उपयोग करके नामों का आवाहन किया जाता है। 20
अमृतांशुद्भवो बीजं शक्तिर्देवकिनन्दनः ।
त्रिसामा हृदयं तस्य शान्त्यर्थे विनियोज्यते ॥ २१ ॥
इसका बीज वह है जो चंद्र जाति में पैदा हुआ है, शक्ति देवकीनंदन कृष्ण है – , हृदय सत्व, रज और तमस के तीन गुणों में निहित है, लक्ष्य शांति और शांति (किसी के शरीर, मन और आत्मा का मिलन) की प्राप्ति है। 21
विष्णुं जिष्णुं महाविष्णुं प्रभविष्णुं महेश्वरम् ।
अनेकरूप दैत्यान्तं नमामि पुरुषोत्तमं ॥ २२ ॥
मैं सबसे पूर्ण भगवान को नमन करता हूं जो सब में व्याप्त है, जो हमेशा विजयी है, सभी राक्षसों (दैत्यों) को नष्ट करने वाले देवताओं के सर्वशक्तिमान भगवान को मैं नमन करता हूँ।
॥ पूर्वन्यासः ॥
श्रीवेदव्यास उवाच –
ॐ अस्य श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रमहामन्त्रस्य ॥
श्री वेदव्यासो भगवान् ऋषिः ।
अनुष्टुप् छन्दः ।
श्रीमहाविष्णुः परमात्मा श्रीमन्नारायणो देवता ।
अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजम् ।
देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तिः
उद्भवः क्षोभणो देव इति परमो मन्त्रः ।
शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकम् ।
शार्ङ्गधन्वा गदाधर इत्यस्त्रम् ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इति नेत्रम् ।
त्रिसामा सामगः सामेति कवचम् ।
आनन्दं परब्रह्मेति योनिः ।
ऋतुः सुदर्शनः काल इति दिग्बन्धः ।
श्रीविश्वरूप इति ध्यानम् ।
॥ अथ न्यासः ॥
ॐ शिरसि वेदव्यासऋशये नमः ।
मुखे अनुष्टुप्छन्दसे नमः ।
हृदि श्रीकृष्णपरमात्मदेवतायै नमः ।
गुह्ये अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजाय नमः।
पादयोर्देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तये नमः ।
सर्वाङ्गे शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकाय नमः ।
करसंपूटे मम श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः ।
इति ऋषयादिन्यासः ॥
॥ अथ करन्यासः ॥
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कार इत्यङ्गुष्ठाब्यां नमः ।
अमृताम्शूद्भवो भानुरिति तर्जनीभ्यां नमः ।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मेति मध्यमाभ्यां नमः ।
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्य इत्यनामिकाभ्यां नमः ।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वीति कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इति करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
इति करन्यासः ॥
॥ अथ षडङ्गन्यासः ॥
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कार इति हृदयाय नमः ।
अमृताम्शूद्भवो भानुरिति शिरसे नमः ।
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद्ब्रह्मेति शिखायै नमः ।
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्य इति कवचाय नमः ।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वीति नेत्रत्रयाय नमः ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्य इत्यस्त्राय नमः ।
इति षडङ्गन्यासः ॥
श्रीकृष्णप्रीत्यर्थे विष्णोर्दिव्यसहस्रनामजपमहं
करिष्ये इति सङ्कल्पः ।
॥ अथ ध्यानम् ॥
क्षीरोधन्वत्प्रदेशे शुचिमणिविलसत्सैकतेर्मौक्तिकानां
मालाक्लृप्तासनस्थः स्फटिकमणिनिभैर्मौक्तिकैर्मण्डिताङ्गः ।
शुभ्रैरभ्रैरदभ्रैरुपरिविरचितैर्मुक्तपीयूष वर्शः
आनन्दी नः पुनीयादरिनलिनगदा शङ्खपाणिर्मुकुन्दः ॥ १ ॥
भक्तों को मोक्ष प्रदान करने वाले उन शेषशायी विष्णु को नमन कर उन्हें हमें पवित्र करने हेतु प्रार्थना करते हैं , जो क्षीरसागर में जहां चमकते हुए स्फटिक मणियों के मध्य मोतियों की माला से सुशोभित सिंहासन पर आरूढ हैं, जो श्वेत मेघरूपी छत्र से आच्छादित हैं और वे मेघ ऐसे अमृत रूपी ओस की बूंद का वर्षाव करते हैं जैसे वे पुष्प की पंखुरियां हों, उन्हें नमन है जिनका शरीर हीरे मोतियों से सुशोभित हैं और जिन्होंने हाथ में शंख धारण किया हुआ है।
भूः पादौ यस्य नाभिर्वियदसुरनिलश्चन्द्र सूर्यौ च नेत्रे
कर्णावाशः शिरो द्यौर्मुखमपि दहनो यस्य वास्तेयमब्धिः ।
अन्तःस्थं यस्य विश्वं सुरनरखगगोभोगिगन्धर्वदैत्यैः
चित्रं रंरम्यते तं त्रिभुवन वपुषं विष्णुमीशं नमामि ॥ २ ॥
भगवान विष्णु के सर्वव्यापी स्वरूप को नमन है जिनका देह यह त्रिभुवन है , जिनके चरण यह पृथ्वी है , जिनकी नाभि यह गगन है, जिनकी सांसें वायु है, सूर्य और चन्द्रमा जिनके नेत्र हैं, दिशाएँ उनके कर्ण हैं , स्वर्ग उनका सिर है , अग्नि उनका मुख है और सागर उनका पेट है | उनके इस सुंदर स्वरूपमें ही सम्पूर्ण ब्रह्मांड के भिन्न – भिन्न देवता, मानव, पशु, पक्षी, गंधर्व एवं दैत्य विद्यमान हैं |
ॐ शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं
विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभाङ्गम् ।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यं
वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम् ॥ ३ ॥
मैं भगवान विष्णु को नमन करता हूँ जो इस सृष्टि के पालक और रक्षक हैं, जो शांतिपूर्ण हैं , जो विशाल सर्प के ऊपर लेटे हुए हैं , जिनकी नाभि से कमल का फूल निकला हुआ है , जो ब्रह्मांड का सृजन करता है, जो एक परमात्मा हैं , जो पूरी सृष्टि को चलाने वाला है, जो सर्वव्यापी है , जो बादलों की तरह सांवले हैं , जिनकी आंखें कमल के समान है, वही समस्त संपत्तियों के स्वामी हैं, योगी जन उनको समझने के लिए ध्यान करते हैं, वह इस संसार के भय का नाश करने वाले हैं, सब लोगों के स्वामी भगवान विष्णु को मेरा नमस्कार।
मेघश्यामं पीतकौशेयवासं
श्रीवत्साङ्कं कौस्तुभोद्भासिताङ्गम् ।
पुण्योपेतं पुण्दरीकायताक्षं
विष्णुं वन्दे सर्वलोकैकनाथम् ॥ ४ ॥
मैं सभी लोकों के एकमात्र स्वामी भगवान् विष्णु की वन्दना करता हूँ , जो मेघ की तरह श्याम वर्ण वाले हैं , पीले रेशमी वस्त्र पहने हुए हैं । उनका वक्षःस्थल श्रीवत्स से चिह्नित है तथा कौस्तुभ मणि की प्रभा से सारे अङ्ग देदीप्यमान हैं । वे पुण्यस्वरूप हैं और उनके नेत्र कमल की तरह विशाल हैं ॥ ५ ॥
नमः समस्तभूतानामादिभूताय भूभृते ।
अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे ॥ ५ ॥
पृथ्वी के राजा, जो सभी प्राणियों से पहले अस्तित्व में थे, जो पहले प्राणी हैं और जो कई रूपों में खुद को प्रकट करते हैं, को प्रणाम।
सशङ्खचक्रं सकिरीटकुण्डलं
सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणम् ।
सहारवक्षःस्थलकौस्तुभश्रियं
नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुर्जम् ॥ ६ ॥
शंख, चक्र, किरीट, कुण्डल, पीताम्बर, गले में हार, वक्षःस्थल पर कौस्तुभमणि धारण किये हुए भगवान विष्णु को मेरा नमन।
छायायां पारिजातस्य हेमसिंहासनोपरि
आसीनमम्बुदश्याममायताक्षमलंकृतम् ।
चन्द्राननं चतुर्बाहुं श्रीवत्साङ्कित वक्षसं
रुक्मिणी सत्यभामाभ्यां सहितं कृष्णमाश्रये ॥ ७ ॥
मैं उन भगवान् कृष्ण को नमस्कार करता हूँ जो आसमान की तरह नीले रंग वाले हैं , जिनकी बड़ी – बड़ी आँखें और चार हाथ हैं , जिनका मुख चंद्र के समान चमकता है, वक्ष स्थल पर श्रीवत्स बना हुआ है , जो सोने के सिंहासन पर पारिजात के वृक्ष के नीचे सत्यभामा के साथ विराजमान हैं।
॥ स्तोत्रम् ॥
॥ हरिः ॐ ॥
विष्णु सहस्रनाम आरम्भ
ॐ विश्वं विष्णुर्वषट्कारो भूतभव्यभवत्प्रभुः ।
भूतकृद्भूतभृद्भावो भूतात्मा भूतभावनः ॥ १ ॥
1 विश्वम् जो स्वयं में ब्रह्मांड हो जो हर जगह विद्यमान हो, जो सृष्टि के कारणभूत हैं
2 विष्णु: जो हर जगह विद्यमान हो, जो सबमें व्याप्त हैं
3 वषट्कार: जिसका यज्ञ और आहुतियों के समय आवाहन किया जाता हो, जो यज्ञ रूप हैं
4 भूतभव्यभवत्प्रभु: भूत, वर्तमान और भविष्य का स्वामी
5 भूतकृत् सब जीवों का निर्माता, रजो-तमो गुण के आधार पर सृष्टि की रचना और संहार करने वाले ब्रह्मा और रूद्र रूप
6 भूतभृत् सब जीवों का पालनकर्ता ,जो सतो गुण से सृष्टि के धारक व पोषण करता और विश्व रूप हैं
7 भाव: भावना ,जो भाव रूप हैं
8 भूतात्मा सब जीवों का परमात्मा, जो जीवों के ह्रदय में आत्मा रूप से रहते हैं
9 भूतभावन: सब जीवों की उत्पत्ति और पालन के आधार, जो जीवों की उत्पत्ति करते हैं
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः ।
अव्ययः पुरुषः साक्षी क्षेत्रज्ञोऽक्षर एव च ॥ २ ॥
10 पूतात्मा अत्यंत पवित्र सुगंधियों वाला, जो पवित्र आत्मरूप हैं
11 परमात्मा परम आत्मा,जो मुक्त स्वभाव से युक्त हैं
12 मुक्तानां परमा गति: सभी आत्माओं और जीवों के लिए अंतिम लक्ष्य और आश्रय , जो संसार बंधन से मुक्त हैं
13 अव्यय: जो अविनाशी हैं
14 पुरुष: पुरुषोत्तम , जो पुरुष रूप हैं
15 साक्षी बिना किसी व्यवधान सृष्टि के क्रिया कलापों के साक्षी रूप हैं
16 क्षेत्रज्ञः क्षेत्र अर्थात शरीर; शरीर को जानने वाला, या शरीर के ज्ञाता
17 अक्षरः कभी क्षीण न होने वाला अविनाशी,जिनका कभी क्षय या नाश नहीं होता,जो अक्षर ब्रह्म रूप हैं
योगो योगविदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः ।
नारसिंहवपुः श्रीमान् केशवः पुरुषोत्तमः ॥ ३ ॥
18 योग: जिसे योग द्वारा पाया जा सके
19 योगविदां नेता जो योग को जानने वालों में श्रेष्ठ योगी हैं
20 प्रधानपुरुषेश्वर: प्रधान अर्थात प्रकृति; पुरुष अर्थात जीव; इन दोनों का स्वामी
21 नारसिंहवपु: नर और सिंह दोनों के अवयव जिसमे दिखाई दें ऐसे शरीर वाला, जो मनुष्यों में सिंह रूप हैं
22 श्रीमान् जिसके वक्ष स्थल में सदा श्री बसती हैं या जो लक्ष्मी से संपन्न हैं
23 केशव : जिसके केश सुन्दर हों, या जिन्होंने केशी नामक दैत्य का वध किया था
24 पुरुषोत्तम: पुरुषों में उत्तम ,या जो शुद्ध ब्रह्म स्वरुप हैं
सर्वः शर्वः शिवः स्थाणुर्भूतादिर्निधिरव्ययः ।
संभवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभुरीश्वरः ॥ ४ ॥
25 सर्व: सर्वदा सब कुछ जानने वाला
26 शर्व: विनाशकारी या पवित्र,कल्पांत में जो सृष्टि का अंत करने वाले हैं
27 शिव: सदा शुद्ध या कल्याण रूप हैं
28 स्थाणु: स्थिर सत्य,जो सदैव स्थिर भाव से सृष्टि में विद्यमान हैं
29 भूतादि: पंच तत्वों के आधार,जो जीवों के उत्पत्ति कारक हैं
30 निधिः अव्ययः अविनाशी निधि, जो अक्षय निधि हैं
31 सम्भव: जो प्रत्येक युग या काल में अपनी इच्छा से अवतरित होते हैं
32 भावन: जो सभी जीवों को फल प्रदान करने वाले हैं
33 भर्ता समस्त संसार का पालन करने वाले
34 प्रभव: पंच महाभूतों को उत्पन्न करने वाले, जिनसे जगत की उत्पत्ति होती हैं
35 प्रभु: सर्वशक्तिमान भगवान्, जो सर्व समर्थ हैं
36 ईश्वर: जो बिना किसी के सहायता के कुछ भी कर पाए, जो सबके स्वामी हैं
स्वयम्भूः शम्भुरदित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।
अनादिनिधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ॥ ५ ॥
37 स्वयम्भू: जो सबके ऊपर है और स्वयं होते हैं, जो स्वयमेव प्रकट होते हैं
38 शम्भु: भक्तों के लिए जो सुखरूप हैं
39 आदित्य: अदिति के पुत्र (वामन), जो सूर्य के समान हैं
40 पुष्कराक्ष: जिनके नेत्र पुष्कर (कमल) समान हैं
41 महास्वन: अति महान स्वर या घोष वाले, जो महान वेद रूप शब्द करने वाले हैं
42 अनादि-निधन: जिनका आदि और निधन दोनों ही नहीं हैं, जो जन्म मरण से रहित हैं
43 धाता शेषनाग के रूप में विश्व को धारण करने वाले, जो अनंत रूप से जगत के धारण कर्ता हैं
44 विधाता जो जगत के जीवों के लिए कर्म और उसके फलों की रचना करने वाले या निर्धारक हैं
45 धातुरुत्तम: अनंतादि अथवा सबको धारण करने वाले हैं, जो ब्रह्म से भी श्रेष्ठ हैं
अप्रमेयो हृशीकेशः पद्मनाभोऽमरप्रभुः ।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ॥ ६ ॥
46 अप्रमेय: जिन्हें जाना न जा सके , जो ज्ञान के विषय नहीं हैं
47 हृषीकेश: इन्द्रियों के स्वामी, जिन्होंने इन्द्रियों को वशीभूत कर रखा है
48 पद्मनाभ: जिसकी नाभि में जगत का कारण रूप पद्म स्थित है
49 अमरप्रभु: देवता जो अमर हैं उनके स्वामी
50 विश्वकर्मा विश्व जिसका कर्म अर्थात क्रिया है, जो जगत के क्रिया रूप है
51 मनु: मनन करने वाले
52 त्वष्टा प्रलय के समय सब प्राणियों को क्षीण या सूक्ष्म रूप करने वाले
53 स्थविष्ठ: अतिशय या अत्यधिक स्थूल
54 स्थविरः ध्रुव: जो विकार हीन , प्राचीन एवं स्थिर हैं
अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतस्त्रिककुब्धाम पवित्रं मङ्गलं परम् ॥ ७ ॥
55 अग्राह्य: जो कर्मेन्द्रियों द्वारा ग्रहण नहीं किये जा सकते , जो शब्द और मन से ग्रहणीय नहीं हैं
56 शाश्वत: जो सब काल में हो, जो तीनो कालों में स्थिर रहने वाले हैं
57 कृष्ण: जिसका वर्ण श्याम हो, जो कर्षण अर्थात आकर्षित करने का गुण होने के कारण कृष्ण हैं
58 लोहिताक्ष: जिनके नेत्र लाल हों या लालिमा युक्त हैं
59 प्रतर्दन: जो प्रलयकाल में प्राणियों का संहार या नाश करने वाले हैं
60 प्रभूतः जो ज्ञान, ऐश्वर्य आदि गुणों से संपन्न हैं
61 त्रिककुब्धाम ऊपर, नीचे और मध्य तीनो दिशाओं के धाम हैं
62 पवित्रम् जो पवित्र करे
63 मंगलं-परम् जो सबसे उत्तम है या जो समस्त शुभों में श्रेष्ठ है और समस्त अशुभों को दूर करता है
ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।
हिरण्यगर्भो भूगर्भो माधवो मधुसूदनः ॥ ८ ॥
64. ईशान: सर्वभूतों के नियंता, जो समस्त प्राणियों के स्वामी हैं
65. प्राणद: प्राणो को देने वाले , जो प्राणो के दाता हैं
66. प्राण: जो सदा जीवित है, जो जीवो के प्राण रूप हैं
67. ज्येष्ठ: सबसे अधिक वृद्ध या या बड़ा, जो आदि कारण होने से सब से बड़े हैं
68. श्रेष्ठ: सबसे प्रशंसनीय, जो उत्तम हैं
69. प्रजापति: ईश्वररूप से सब प्रजाओं के पति, जो प्रजा पति रूप हैं
70. हिरण्यगर्भ: ब्रह्माण्डरूप सुवर्ण मय अंडे के भीतर व्याप्त होने वाले या निवास करने वाले, जो ब्रह्म रूप हैं
71. भूगर्भ: पृश्वी जिनके गर्भ में स्थित है
72. माधव: माँ अर्थात लक्ष्मी के धव अर्थात पति
73. मधुसूदन: मधु नामक दैत्य को मारने वाले
ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञ कृतिरात्मवान् ॥ ९ ॥
74 ईश्वर: सर्वशक्तिमान
75 विक्रमी शूरवीर
76 धन्वी शारंग नामक धनुष धारण करने वाला
77 मेधावी बहुत से ग्रंथों को धारण करने के सामर्थ्य वाला, बुद्धिमान
78 विक्रम: जगत को लांघ जाने वाला या गरुड़ पक्षी द्वारा गमन करने वाला
79 क्रम: लांघने या विस्तार करने वाला , जो वामन रूप धारण कर विराट रूप से सृष्टि को नापने वाले हैं
80 अनुत्तम: जिससे उत्तम और कोई न हो, जो सर्व श्रेष्ठ हैं
81 दुराधर्ष: जो दैत्यादिकों से दबाया न जा सके, जो शत्रुओ को वशीभूत करने वाले हैं
82 कृतज्ञ: प्राणियों के किये हुए पाप पुण्यों को जानने वाले
83 कृति: सर्वात्मक
84 आत्मवान् अपनी ही महिमा में स्थित होने वाले, जो स्वयं में ही एक भाव से स्थित हैं
सुरेशः शरणं शर्म विश्वरेताः प्रजाभवः ।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ॥ १० ॥
85 सुरेश: देवताओं के ईश
86 शरणम् दीनों का दुःख दूर करने वाले
87 शर्म परमानन्दस्वरूप
88 विश्वरेता: विश्व के कारण
89 प्रजाभव: जिनसे सम्पूर्ण प्रजा उत्पन्न होती है
90 अह: प्रकाशस्वरूप
91 संवत्सर: कालस्वरूप से स्थित हुए
92 व्याल: व्याल (सर्प) के समान पकड़ या ग्रहण में न आ सकने वाले
93 प्रत्यय: प्रतीति रूप होने के कारण
94 सर्वदर्शन: सर्वरूप होने के कारण सभी के नेत्र हैं, जो सभी सभीान रूप से देखते हैं
अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादिरच्युतः ।
वृषाकपिरमेयात्मा सर्वयोगविनिःसृतः ॥ ११ ॥
95 अज: अजन्मा, जिनका जन्म नहीं होता
96 सर्वेश्वर: ईश्वरों का भी ईश्वर, जो सबके स्वामी हैं
97 सिद्ध: नित्य सिद्ध, जो सिद्ध रूप हैं
98 सिद्धि: सबसे श्रेष्ठ, जो चैतन्य रूप हैं
99 सर्वादि: सर्व भूतों के आदि कारण, जो सभी जीवों के उत्पत्ति रूप हैं
100 अच्युत: अपनी स्वरुप शक्ति से च्युत न होने वाले, जो स्थिर रुप हैं
101 वृषाकपि: वृष (धर्म) रूप और कपि (वराह) रूप
102 अमेयात्मा जिनके आत्मा का माप परिच्छेद न किया जा सके
103 सर्वयोगविनिः सृतः सम्पूर्ण संबंधों से रहित
वसुर्वसुमनाः सत्यः समात्मा सम्मितः समः ।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ॥ १२ ॥
104 वसु: जो सब भूतों में समान भाव से बसते हैं और जिनमे सब भूत बसते हैं
105 वसुमना: जिनका मन पवित्र (श्रेष्ठ) है
106 सत्य: जो सत्य स्वरुप हैं
107 समात्मा जो राग द्वेषादि से दूर हैं, जो एकात्म रूप हैं
108 सम्मित: समस्त पदार्थों से परिच्छिन्न , जो शास्त्र सम्मत हैं
109 सम: सदा समस्त विकारों से रहित, जो सत्य संकल्प रूप हैं
110 अमोघ: जो स्मरण किये जाने पर सदा फल देते हैं
111 पुण्डरीकाक्ष: हृदयस्थ कमल में व्याप्त होते हैं , जिनके नेत्र कमल के समान हैं
112 वृषकर्मा जिनके कर्म धर्मरूप हैं
113 वृषाकृति: जिन्होंने धर्म के लिए ही शरीर धारण किया है, जो धर्मावतारी हैं
रुद्रो बहुशिरा बभ्रुर्विश्वयोनिः शुचिश्रवाः ।
अमृतः शाश्वत स्थाणुर्वरारोहो महातपाः ॥ १३ ॥
114 रुद्र: दुःख को दूर भगाने वाले, प्रलयकाल में जो रूद्र बन जाते हैं
115 बहुशिराः बहुत से सिरों वाले
116 बभ्रु: जो सभी लोकों का भरण पोषण करने वाले हैं
117 विश्वयोनि: जो विश्व या सृष्टि की उत्पत्ति के कारण हैं
118 शुचिश्रवा: जिनके नाम सुनने योग्य
119 अमृत: जिनका मृत अर्थात मरण नहीं होता, जो अमर हैं
120 शाश्वतस्थाणु: शाश्वत (नित्य) और स्थाणु (स्थिर), जो सब कालों में विद्यमान रहते हैं
121 वरारोह: जिनकी गोद श्रेष्ठ है, जो वरण करने योग्य हैं या ग्रहणीय हैं
122 महातप: जिनका तप महान है, जो महान तपस्वी हैं या जिन्हे सृष्टि के विषय में पूर्ण ज्ञान है
सर्वगः सर्वविद्भानुर्विष्वक्सेनो जनार्दनः
वेदो वेदविदव्यङ्गो वेदाङ्गो वेदवित् कविः ॥ १४ ॥
123 सर्वग : जो सर्वत्र व्याप्त है
124 सर्वविद्भानु: जो सबको जानने वाले है, अपने सत्य स्वरुप से सूर्य के तेज के समान प्रकाशित हैं
125 विष्वक्सेन: जिनके सामने कोई सेना नहीं टिक सकती
126 जनार्दन: दुष्टजनों को नरकादि लोकों में भेजने वाले या संहार करने वाले हैं
127 वेद: वेद रूप, जो तत्त्व ज्ञान ( आत्मा ) के ज्ञाता हैं
128 वेदवित् वेद जानने वाले
129 अव्यंग: जो किसी प्रकार ज्ञान से अधूरा न हो
130 वेदांग: वेद जिनके अंगरूप हैं
131 वेदवित् वेदों को विचारने वाले
132 कवि: सबको देखने वाले, जो कवि रूप हैं
लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृताकृतः ।
चतुरात्मा चतुर्व्यूहश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः ॥ १५ ॥
133 लोकाध्यक्ष: समस्त लोकों का निरीक्षण करने वाले, जो सभी लोकों के स्वामी हैं
134 सुराध्यक्ष: सुरों (देवताओं) के अध्यक्ष
135 धर्माध्यक्ष: धर्म और अधर्म को साक्षात देखने वाले, जो धर्म के अध्यक्ष हैं
136 कृताकृत: कार्य रूप से कृत और कारणरूप से अकृत, जो जगत के कार्य कारण रूप हैं
137 चतुरात्मा चार पृथक विभूतियों वाले, जो पृथक पृथक कालों में स्वरुप धारण करने वाले हैं
138 चतुर्व्यूह: चार व्यूहों वाले, जो चार रूपों वासुदेव,प्रद्युम्न,अनिरुद्ध,संकर्षण से सृष्टि की रचना करने वाले हैं
139 चतुर्दंष्ट्र: चार दाढ़ों या सींगों वाले, नरसिंह रूप से चार दांत धारण करने वाले हैं
140 चतुर्भुज: चार भुजाओं वाले
भ्राजिष्णुर्भोजनं भोक्ता सहिष्णुर्जगदादिजः ।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ॥ १६ ॥
141 भ्राजिष्णु: एकरस प्रकाशस्वरूप
142 भोजनम् प्रकृति रूप भोज्य माया, जो भोजन रूप हैं
143 भोक्ता पुरुष रूप से प्रकृति को भोगने वाले, जो भोग्य रूप हैं
144 सहिष्णु: दैत्यों को भी सहन करने वाले, जो सहन शील हैं
145 जगदादिज: जगत के आदि में उत्पन्न होने वाले
146 अनघ: जिनमे अघ (पाप) न हो
147 विजय: ज्ञान, वैराग्य व् ऐश्वर्य से विश्व को जीतने वाले, ज्ञान, वैराग्य व् ऐश्वर्य को जीतने वाले
148 जेता समस्त भूतों को जीतने वाले, जो विष्णुरूप है
149 विश्वयोनि: विश्व और योनि दोनों वही हैं, जो कार्य कारण रूप है
150 पुनर्वसु: बार बार शरीरों में बसने वाले, जो युगों के अनुरूप मनुष्य रूप धारण करते है
उपेन्द्रो वामनः प्रांशुर मोघः शुचिरूर्जितः ।
अतीन्द्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ॥ १७ ॥
151 उपेन्द्रः अनुजरूप से इंद्र के पास रहने वाले
152 वामनः भली प्रकार भजने योग्य हैं, जिन्होंने वामन रूप धारण कर बलि से तीन पग भूमि की याचना की थी
153 प्रांशुः तीनो लोकों को लांघने के कारण प्रांशु (ऊंचे) हो गए, जिन्होंने विराट रूप धारण कर तीनो लोकों को अपने पैरो से माप लिया था
154 अमोघः जिनकी चेष्टा मोघ (व्यर्थ) नहीं होती, जो कभी भी व्यय नहीं होने वाले हैं अर्थात अविनाशी हैं
155 शुचिः स्मरण करने वालों को पवित्र करने वाले, जो पवित्र रूप हैं
156 ऊर्जितः अत्यंत बलशाली
157 अतीन्द्रः जो बल और ऐश्वर्य में इंद्र से भी आगे हो
158 संग्रहः प्रलय के समय सबका संग्रह करने वाले
159 सर्गः जगत रूप और जगत का कारण
160 धृतात्मा जो अनेक रूपों से आत्मा को धारण करते है या जो अनेक रूप धारण करते है
161 नियमः प्रजा को नियमित करने वाले
162 यमः अन्तः करण में स्थित होकर नियमन करने वाले
वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः ।
अतीन्द्रयो महामायो महोत्साहो महाबलः ॥ १८ ॥
163 वेद्यः कल्याण की इच्छा वालों द्वारा जानने योग्य
164 वैद्यः सब विद्याओं के जानने वाले
165 सदायोगी सदा प्रत्यक्ष रूप होने के कारण, जो करता होकर भी अकर्ता हैं
166 वीरहा धर्म की रक्षा के लिए असुर योद्धाओं को मारते हैं
167 माधवः विद्या के पति, जो माधव रूप है
168 मधुः मधु (शहद) के समान प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले
169 अतीन्द्रियः इन्द्रियों से परे, जो इन्द्रियों के द्वारा जानने योग्य नहीं हैं
170 महामायः मायावियों के भी स्वामी, जो महा मायावी हैं
171 महोत्साहः जगत की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय के लिए तत्पर रहने वाले, जो अति उत्साह वाले है
172 महाबलः सर्वशक्तिमान
महाबुद्धिर्महावीर्यो महाशक्तिर्महाद्युतिः ।
अनिर्देश्यवपुः श्रीमानमेयात्मा महाद्रिधृक् ॥ १९ ॥
173 महाबुद्धिः सर्वबुद्धिमान
174 महावीर्यः संसार के उत्पत्ति की कारणरूप, महापराक्रमी
175 महाशक्तिः अति महान शक्ति और सामर्थ्य के स्वामी , अति शक्तिशाली
176 महाद्युतिः जिनकी बाह्य और अंतर दयुति (ज्योति) महान है, जो अति शोभाशाली हैं
177 अनिर्देश्यवपुः जिसे बताया न जा सके, जो निर्देश देने के योग्य नहीं हैं, जो किसी के आधीन नहीं हैं
178 श्रीमान् जिनमे श्री है, जो ऐश्वर्य से युक्त है
179 अमेयात्मा जिनकी आत्मा समस्त प्राणियों से अमेय(अनुमान न की जा सकने योग्य) है
180 महाद्रिधृक् मंदराचल और गोवर्धन पर्वतों को धारण करने वाले
महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।
अनिरुद्धः सुरानन्दो गोविन्दो गोविदां पतिः ॥ २० ॥
181 महेष्वासः जिनका धनुष महान है, जिन्होंने रामावतार में भगवान् शिव का धनुष उठाया था
182 महीभर्ता प्रलयकालीन जल में डूबी हुई पृथ्वी को धारण करने वाले, जो सृष्टि के पोषण और धारण कर्ता हैं
183 श्रीनिवासः श्री के निवास स्थान
184 सतां गतिः संतजनों के पुरुषार्थसाधन हेतु, जिनके बारे में सत्पुरुषों से ही ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है
185 अनिरुद्धः प्रादुर्भाव के समय किसी से निरुद्ध न होने वाले, जो शत्रुओ के रोकने पर भी रुकने वाले नहीं हैं
186 सुरानन्दः सुरों (देवताओं) को आनंदित करने वाले
187 गोविन्दः वाणी (गौ) को प्राप्त कराने वाले
188 गोविदां पतिः गौ (वाणी) पति, जो वेद वाणी के ज्ञाता और उसकी रक्षा करने वाले हैं
मरीचिर्दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः॥ २१ ॥
189 मरीचिः तेजस्वियों के परम
190 दमनः राक्षसों और दुष्प्रवृत्ति के लोगों का दमन या संहार करने वाले हैं
191 हंसः संसार भय को नष्ट करने वाले, जो सत्य और असत्य का निर्णय करने में हंस के समान हैं
192 सुपर्णः धर्म और अधर्मरूप सुन्दर पंखों वाले, जो गरुण रूप हैं
193 भुजगोत्तमः भुजाओं से चलने वालों में उत्तम, जो शेष रूप हैं
194 हिरण्यनाभः हिरण्य (स्वर्ण) के समान नाभि वाले, जिन की नाभि में सुवर्ण मय ब्रह्माण्ड है
195 सुतपाः सुन्दर तप करने वाले, जो श्रेष्ठ तपस्वी हैं
196 पद्मनाभः पद्म के समान सुन्दर नाभि वाले
197 प्रजापतिः प्रजाओं के पिता, जो प्रजा पति रूप हैं
अमृत्युः सर्वदृक् सिंहः सन्धाता सन्धिमान् स्थिरः ।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा॥ २२ ॥
198 अमृत्युः जिसकी मृत्यु न हो, जो अमर हैं
199 सर्वदृक् प्राणियों के सब कर्म-अकर्मादि को देखने वाले
200 सिंहः हनन करने वाले हैं, जो सिंह के समान पराक्रमशाली है
201 सन्धाता मनुष्यों को उनके कर्मों के फल देते हैं, जो युधिष्ठिर के दूत रूप में संधि कराने वाले हैं
202 सन्धिमान् फलों के भोगनेवाले हैं
203 स्थिरः सदा एकरूप हैं, जो भक्तो के ह्रदय में रहते हैं
204 अजः असुरों का संहार करने वाले
205 दुर्मर्षणः दानव आदि के द्वारा सहन नहीं किये जा सकते, युद्ध में जिन का पराक्रम असहनीय होता है
206 शास्ता श्रुति स्मृति से सबका अनुशासन करते हैं, जो दुष्टो को दंड देने वाले हैं
207 विश्रुतात्मा सत्यज्ञानादि रूप आत्मा का विशेषरूप से श्रवण करने वाले, जो विराट देह वाले हैं
208 सुरारिहा सुरों (देवताओं) के शत्रुओं को मारने वाले
गुरुर्गुरुतमो धाम सत्यः सत्यपराक्रमः ।
निमिषोऽनिमिषः स्रग्वी वाचस्पतिरुदारधीः ॥ २३ ॥
209 गुरुः सब विद्याओं के उपदेष्टा और सबके जन्मदाता, जो उपदेशको में सर्वश्रेष्ठ उपदेशक हैं
210 गुरुतमः ब्रह्मा आदिको भी ब्रह्मविद्या प्रदान करने वाले
211 धाम परम ज्योति
212 सत्यः सत्य-भाषणरूप, धर्मस्वरूप
213 सत्यपराक्रमः जिनका पराक्रम सत्य अर्थात अमोघ है
214 निमिषः जिनके नेत्र योगनिद्रा में मुंदे हुए हैं
215 अनिमिषः मत्स्यरूप या आत्मारूप
216 स्रग्वी वैजयंती माला धारण करने वाले
217 वाचस्पतिरुदारधीः विद्या के पति,सर्व पदार्थों को प्रत्यक्ष करने वाले, वेद वाणी के स्वामी और उदार बुद्धि वाले हैं
अग्रणीर्ग्रामणीः श्रीमान् न्यायो नेता समीरणः ।
सहस्रमूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात्॥ २४ ॥
218 अग्रणीः मुमुक्षुओं को उत्तम पद पर ले जाने वाले, जो सब से पहले पूजने योग्य हैं
219 ग्रामणीः भूतग्राम का नेतृत्व करने वाले
220 श्रीमान् जिनकी श्री अर्थात कांति सबसे बढ़ी चढ़ी है
221 न्यायः न्यायस्वरूप
222 नेता जगतरूप यन्त्र को चलाने वाले
223 समीरणः श्वासरूप से प्राणियों से चेष्टा करवाने वाले
224 सहस्रमूर्धा सहस्र मूर्धा (सिर) वाले
225 विश्वात्मा विश्व के आत्मा
226 सहस्राक्षः सहस्र आँखों या इन्द्रियों वाले
227 सहस्रपात् सहस्र पाद (चरण) वाले
आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः संप्रमर्दनः ।
अहः संवर्तको वह्निरनिलो धरणीधरः॥ २५ ॥
228 आवर्तनः संसार चक्र का आवर्तन करने वाले हैं, धर्म की रक्षार्थ जो कालानुसार पृथ्वी पर अवतरित होते हैं
229 निवृत्तात्मा संसार बंधन से निवृत्त (छूटे हुए) हैं
230 संवृतः आच्छादन करनेवाली अविद्या से संवृत्त (ढके हुए) हैं, जो योगमाया से घिरे हैं
231 संप्रमर्दनः अपने रूद्र और काल रूपों से सबका मर्दन करने वाले हैं, जो दैत्यों का घमंड चूर चूर करने वाले हैं
232 अहः संवर्तकः दिन के प्रवर्तक हैं, जो सूर्य रूप से जगत को प्रकाशित करने वाले हैं
233 वह्निः हवि का वहन करने वाले हैं
234 अनिलः अनादि, जो वायु रूप हैं
235 धरणीधरः वराहरूप से पृथ्वी को धारण करने वाले हैं
सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृग्विश्वभुग्विभुः ।
सत्कर्ता सत्कृतः साधुर्जह्नुर्नारायणो नरः॥ २६ ॥
236 सुप्रसादः जिनकी कृपा अति सुन्दर है, प्रसन्न होने पर जो सब कुछ देने वाले हैं
237 प्रसन्नात्मा जिनका अन्तः करण रज और तम से दूषित नहीं है, प्रसन्न होने पर जो अपने भक्तो के अपराधों को क्षमा करने वाले हैं
238 विश्वधृक् विश्व को धारण करने वाले हैं
239 विश्वभुक् विश्व का पालन करने वाले हैं
240 विभुः हिरण्यगर्भादिरूप से विविध होते हैं, जो अनेक रूप धारण करने वाले हैं
241 सत्कर्ता सत्कार करते अर्थात पूजते हैं, जो सत्कर्म करने वाले हैं
242 सत्कृतः पूजितों से भी पूजित
243 साधुः साध्यमात्र के साधक हैं, जो दूसरों के कार्यसाधक है जैसा कि साधु का स्वभाव परोपकार करना होता है
244 जह्नुः अज्ञानियों को त्यागते और भक्तो को परमपद पर ले जाने वाले
245 नारायणः नर से उत्पन्न हुए तत्व नार हैं जो भगवान् के अयन (घर) थे, जल ही जिनका अयन अर्थात घर है
246 नरः नयन कर्ता है इसलिए सनातन परमात्मा नर कहलाता है, जो नर रूप हैं
असंख्येयोऽप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्टकृच्छुचिः ।
सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः॥ २७ ॥
247 असंख्येयः जिनमे संख्या अर्थात नाम रूप भेदादि नहीं हो
248 अप्रमेयात्मा जिनका आत्मा अर्थात स्वरुप अप्रमेय है, जिनको मन और वाणी से जानना कठिन है
249 विशिष्टः जो सबसे अतिशय (बढे चढ़े) हैं, सर्वश्रेष्ठ हैं
250 शिष्टकृत् जो शासन करते हैं, जो आचरण हीनो को भी आचरण सिखाते हैं
251 शुचिः जो मलहीन है, जो पवित्र हैं
252 सिद्धार्थः जिनका अर्थ सिद्ध हो, जो सिद्ध मनोरथी हैं
253 सिद्धसंकल्पः जिनका संकल्प सिद्ध हो, जो संकल्प सिद्ध करने वाले हैं
254 सिद्धिदः कर्ताओं को अधिकारानुसार फल देने वाले, जो सिद्धि दाता है
255 सिद्धिसाधनः सिद्धि के साधक, जो चाा पदाार्थों ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ) को देने वााले है
वृषाही वृषभो विष्णुर्वृषपर्वा वृषोदरः ।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुतिसागरः॥ २८ ॥
256 वृषाही जिनमे वृष (धर्म) जो कि अहः (दिन) है वो स्थित है
257 वृषभः जो भक्तों के लिए इच्छित वस्तुओं की वर्षा करते हैं
258 विष्णुः सब और व्याप्त रहने वाले, जो विष्णु रूप है
259 वृषपर्वा धर्म की तरफ जाने वाली सीढ़ी
260 वृषोदरः जिनका उदर मानो प्रजा की वर्षा करता है, जो धर्म को उदर में धारण किये रहते हैं
261 वर्धनः बढ़ाने और पालना करने वाले,
262 वर्धमानः जो प्रपंचरूप से बढ़ते हैं, भक्तों द्वारा दी गई वस्तु को अपनी माया से बढाने वाले हैं
263 विविक्तः बढ़ते हुए भी पृथक ही रहते हैं
264 श्रुतिसागरः जिनमे समुद्र के सामान श्रुतियाँ रखी हुई हैं
सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेन्द्रो वसुदो वसुः ।
नैकरूपो बृहद्रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः॥ २९ ॥
265 सुभुजः जिनकी जगत की रक्षा करने वाली भुजाएं अति सुन्दर हैं
266 दुर्धरः जो मुमुक्षुओं के ह्रदय में अति कठिनता से धारण किये जाते हैं
267 वाग्मी जिनसे वेदमयी वाणी का प्रादुर्भाव हुआ है
268 महेन्द्रः ईश्वरों के भी इश्वर, जो महान इन्द्र है
269 वसुदः वसु अर्थात धन देते हैं
270 वसुः दिया जाने वाला वसु (धन) भी वही हैं, जो स्वयं धन रूप हैैं
271 नैकरूपः जिनके अनेक रूप हों
272 बृहद्रूपः जिनके वराह आदि बृहत् (बड़े-बड़े) रूप हैं
273 शिपिविष्टः जो शिपि (पशु) में यज्ञ रूप में स्थित होते हैं
274 प्रकाशनः सबको प्रकाशित करने वाले, जिनसे सारी सृष्टि प्रकाशित होती है
ओजस्तेजोद्युतिधरः प्रकाशात्मा प्रतापनः ।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मन्त्रश्चन्द्रांशुर्भास्करद्युतिः॥ ३० ॥
275 ओजस्तेजोद्युतिधरः ओज, प्राण और बल को धारण करने वाले हैं
276 प्रकाशात्मा जिनकी आत्मा प्रकाश स्वरुप है
277 प्रतापनः जो अपनी किरणों से धरती को तप्त करते हैं
278 ऋद्धः जो धर्म, ज्ञान और वैराग्य से संपन्न हैं
279 स्पष्टाक्षरः जिनका ओंकाररूप अक्षर स्पष्ट है
280 मंत्रः मन्त्रों से जानने योग्य
281 चन्द्रांशुः मनुष्यों को चन्द्रमा की किरणों के समान आह्लादित करने वाले हैं
282 भास्करद्युतिः सूर्य के तेज के समान धर्म वाले या शोभा वाले
अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिन्दुः सुरेश्वरः ।
औषधं जगतः सेतुः सत्यधर्मपराक्रमः॥ ३१ ॥
283 अमृतांशूद्भवः समुद्र मंथन के समय जिनके कारण चन्द्रमा की उत्पत्ति हुई
284 भानुः भासित होने वााले, सूर्य
285 शशबिन्दुः चन्द्रमा के समान प्रजा और औषधियों का पालन करने वाले
286 सुरेश्वरः देवताओं के इश्वर
287 औषधम् संसार रोग के औषध
288 जगतः सेतुः लोकों के पारस्परिक असंभेद के लिए इनको धारण करने वाला सेतु
289 सत्यधर्मपराक्रमः जिनके धर्म-ज्ञान और पराक्रमादि गुण सत्य है
भूतभव्यभवन्नाथः पवनः पावनोअनलः।
कामहा कामकृत कान्तः कामः कामप्रदः प्रभुः ।।32।।
290 भूतभव्यभवन्नाथः – भूत , भविष्य और वर्तमान प्राणियों के नाथ हैं
291 पवनः – सबको पवित्र करने वाले हैं
292 पावनः – सबको चलाते हैं , इनके भय से वायु भी चलता है
293 अनलः- प्राणों को आत्मभाव से ग्रहण करता है
294 कामहा- मोक्षकामी भक्तों और हिंसकों की कामनाओं को नष्ट कर देते हैं
295 कामकृत – सात्विक भक्तों की कामनाओं को पूरा करते हैं
296 कान्तः – अत्यंत रूपवान हैं
297 कामः – पुरुषार्थ की आकांशा वालों से कामना किये जाते हैं
298 कामप्रदः – भक्तों को अतिशयता से उनकी कामना की हुई वस्तुएं देते हैं
299 प्रभुः – अतिशयता से हैं इसलिए प्रभु हैं
युगादिकृद्युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।
अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजिदनन्तजित्॥ ३३ ॥
300 युगादिकृत् युगादि का आरम्भ करने वाले हैं
301 युगावर्तः सतयुग आदि युगों का आवर्तन करने वाले हैं
302 नैकमायः अनेकों मायाओं को धारण करने वाले हैं
303 महाशनः कल्पांत में संसार रुपी अशन (भोजन) को ग्रसने वाले
304 अदृश्यः समस्त ज्ञानेन्द्रियों के अविषय हैं
305 व्यक्तरूपः स्थूल रूप से जिनका स्वरुप व्यक्त है
306 सहस्रजित् युद्ध में सहस्रों देवशत्रुओं को जीतने वाले
307 अनन्तजित् अचिन्त्य शक्ति से समस्त भूतों को जीतने वाले
इष्टोऽविशिष्टः शिष्टेष्टः शिखण्डी नहुषो वृषः ।
क्रोधहा क्रोधकृत्कर्ता विश्वबाहुर्महीधरः॥ ३४ ॥
308 इष्टः यज्ञ द्वारा पूजे जाने वाले
309 अविशिष्टः अन्तर्यामी
310 शिष्टेष्टः विद्वानों के ईष्ट
311 शिखण्डी शिखण्ड (मयूरपिच्छ) जिनका शिरोभूषण है
312 नहुषः भूतों को या प्राणियों को अपनी माया से संसार के बंधनो से बाँधने वाले
313 वृषः कामनाओं की वर्षा करने वाले या पूर्ति करने वाले
314 क्रोधहा साधुओं का क्रोध नष्ट करने वाले
315 क्रोधकृत्कर्ता क्रोध करने वाले दैत्यादिकों के कर्तन करने वाले हैं
316 विश्वबाहुः जिनके बाहु सब और हैं
317 महीधरः महि (पृथ्वी) को धारण करते हैं
अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।
अपांनिधिरधिष्ठानमप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ॥ ३५ ॥
318 अच्युतः छः भावविकारों से रहित रहने वाले, सृष्टि में सदा विद्यमान रहने वाले
319 प्रथितः जगत की उत्पत्ति आदि कर्मो से प्रसिद्ध, जो अनेक प्रकार की लीलाएं करके प्रसिद्द हैं
320 प्राणः हिरण्यगर्भ रूप से प्रजा को जीवन देने वाले, जो प्राण रूप है
321 प्राणदः देवताओं और दैत्यों को प्राण देने या नष्ट करने वाले हैं, जो भक्त की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं
322 वासवानुजः वासव (इंद्र) के अनुज (वामन अवतार)
323 अपां- निधिः जिसमें अप (जल) एकत्रित रहता है वो सागर हैं, जो समुद्र रूप हैं
324 अधिष्ठानम् जिनमें सब भूत स्थित हैं , जो सृष्टि के नियामक हैं
325 अप्रमत्तः कर्मानुसार फल देते हुए कभी चूकते नहीं हैं
326 प्रतिष्ठितः जो अपनी महिमा में स्थित हैं , जो अपनी ही लीला में लीन रहते हैं
स्कन्दः स्कन्दधरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।
वासुदेवो बृहद्भानुरादिदेवः पुरन्दरः ॥ ३६ ॥
327 स्कन्दः स्कंदन करने वाले हैं
328 स्कन्दधरः स्कन्द अर्थात धर्ममार्ग को धारण करने वाले हैं
329 धुर्यः समस्त भूतों के जन्मादिरूप धुर (बोझे) या सृष्टि को धारण करने वाले हैं
330 वरदः इच्छित वर देने वाले हैं
331 वायुवाहनः आवह आदि सात वायुओं को चलाने वाले हैं
332 वासुदेवः जो वासु हैं और देव भी हैं
333 बृहद्भानुः अति बृहत् किरणों से संसार को प्रकाशित करने वाले, जो सूर्य चंद्र रूप से किरणों को धारण करते हैं
334 आदिदेवः सबके आदि हैं और देव भी हैं। प्रथम देव
335 पुरन्दरः देवशत्रुओं के पूरों (नगर)का ध्वंस करने वाले हैं
अशोकस्तारणस्तारः शूरः शौरिर्जनेश्वरः ।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ॥ ३७ ॥
336 अशोकः शोकादि छः उर्मियों से रहित हैं, जिन्हे किसी प्रकार का शोक नहीं है
337 तारणः जो प्रिय भक्तो को संसार सागर से तारने वाले हैं
338 तारः भय से तारने वाले हैं
339 शूरः पुरुषार्थ करने वाले हैं, जो पराक्रमी हैं
340 शौरिः वासुदेव की संतान, जो शूरवीर हैं
341 जनेश्वरः जन अर्थात सृष्टि के सभी जीवों के इश्वर
342 अनुकूलः सबके आत्मारूप हैं, आत्मारूप से सभी जीवो में व्याप्त हैं
343 शतावर्तः जिनके धर्म रक्षा के लिए सैंकड़ों अवतार हुए हैं
344 पद्मी जिनके हाथ में पद्म अर्थात कमल है
345 पद्मनिभेक्षणः जिनके नेत्र पद्म अर्थात कमल के समान हैं
पद्मनाभोऽरविन्दाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत् ।
महर्द्धिरृद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुडध्वजः ॥ ३८ ॥
346 पद्मनाभः हृदयरूप पद्म की नाभि के बीच में स्थित हैं, जिनकी नाभि कमल नाल के सामान है
347 अरविंदाक्षः जिनकी आँख अरविन्द (कमल) के समान है
348 पद्मगर्भः हृदयरूप पद्म में मध्य में उपासना करने वाले हैं
349 शरीरभृत् अपनी माया से शरीर धारण करने वाले हैं
350 महर्द्धिः जिनकी विभूति महान है, जो महान सिद्धियों वाले हैं
351 ऋद्धः प्रपंचरूप, जो माया से विराट हैं
352 वृद्धात्मा जिनकी देह वृद्ध या पुरातन है, जो पुरातन आत्मा वाले हैं
353 महाक्षः जिनकी अनेको महान आँखें (अक्षि) हैं
354 गरुडध्वजः जिनकी ध्वजा गरुड़ के चिन्ह वाली है
अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।
सर्वलक्षणलक्षण्यो लक्ष्मीवान् समितिञ्जयः ॥ ३९ ॥
355 अतुलः जिनकी कोई तुलना नहीं है, जो उपमारहित हैं
356 शरभः जो नाशवान शरीर में आत्मा रूप से भासते हैं, जो शोभायमान हैं
357 भीमः जिनसे सब डरते हैं , जो दुष्टो के लिए भयरूप हैं
358 समयज्ञः समस्त भूतों में जो समभाव रखते हैं
359 हविर्हरिः यज्ञों में अग्निरूप से हवि ( हवन सामग्री ) का भाग हरण करते हैं
360 सर्वलक्षणलक्षण्यः परमार्थस्वरूप, जो सब गुणों से युक्त हैं
361 लक्ष्मीवान् जिनके वक्ष स्थल में लक्ष्मी जी निवास करती हैं, जो लक्ष्मी से युक्त हैं
362 समितिञ्जयः समिति अर्थात युद्ध को जीतते हैं
विक्षरो रोहितो मार्गो हेतुर्दामोदरः सहः ।
महीधरो महाभागो वेगवानमिताशनः ॥ ४० ॥
363 विक्षरः जिनका क्षर ( क्षय ) ,अर्थात नाश नहीं होता
364 रोहितः अपनी इच्छा से रोहितवर्ण मूर्ति का स्वरुप धारण करने वाले, जिन्होंने मत्स्यावतार धारण किया था
365 मार्गः जिनसे परमानंद प्राप्त होता है, जो श्रुति आदि के द्वारा ही जाने जा सकते हैं
366 हेतुः संसार के निमित्त और उपादान कारण हैं, जो कारण रूप हैं
367 दामोदरः दाम लोकों का नाम है जिसके वे उदर में हैं, एक बार यशोदा जी ने जिनको रस्सी द्वारा कमर से बाँध दिया था
368 सहः सबको सहन करने वाले हैं, सहनशील हैं
369 महीधरः पर्वतरूप होकर मही ( पृथ्वी ) को धारण करते हैं
370 महाभागः हर यज्ञ में जिन्हे सबसे बड़ा भाग मिले
371 वेगवान् तीव्र गति वाले हैं, जो मन के समान गति वाले हैं
372 अमिताशनः संहार के समय सारे विश्व को खा जाने वाले हैं
उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ॥ ४१ ॥
373 उद्भवः भव यानी संसार से ऊपर हैं, जो सृष्टि के परे हैं
374 क्षोभणः जगत की उत्पत्ति के समय प्रकृति और पुरुष में प्रविष्ट होकर क्षुब्ध करने वाले
375 देवः जो स्तुत्य पुरुषों से स्तवन किये जाते हैं और सर्वत्र जाते हैं, जो देवस्वरूप हैं
376 श्रीगर्भः जिनके उदर में संसार रुपी श्री स्थित है
377 परमेश्वरः जो परम है और ईशनशील हैं, महान ईश्वर हैं
378 करणम् संसार की उत्पत्ति के सबसे बड़े साधन हैं
379 कारणम् जगत के उपादान और निमित्त, जो कारण रूप हैं
380 कर्ता स्वतन्त्र, जो कर्ता रूप हैं
381 विकर्ता विचित्र भुवनों की रचना करने वाले हैं, जो विशेष कार्यो को करने वाले हैं
382 गहनः जिनका स्वरुप, सामर्थ्य या कृत्य नहीं जाना जा सकता , जो अंतर्मुखता के विषय हैं
383 गुहः अपनी माया से स्वरुप को ढक लेने वाले, जो ह्रदय में गुप्त रूप से निवास करने वाले हैं
व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो ध्रुवः ।
परर्द्धिः परमस्पष्टस्तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ॥ ४२ ॥
384 व्यवसायः ज्ञानमात्रस्वरूप, जो क्रियारूप हैं
385 व्यवस्थानः जिनमें सबकी व्यवस्था है, जो सर्वाश्रय हैं
386 संस्थानः परम सत्ता, प्रलय काल में जो सब जीवो के आश्रय कारण हैं
387 स्थानादः ध्रुवादिकों को उनके कर्मों के अनुसार स्थान देते हैं, जो मुक्ति धाम की प्राप्ति कराने वाले हैं
388 ध्रुवः अविनाशी, जो करता होकर भी स्वरुप में स्थिर रहते हैं
389 परर्द्धिः जिनकी विभूति श्रेष्ठ है, जो श्रेष्ठ सिद्धियों के स्वामी हैं
390 परमस्पष्टः परम और स्पष्ट हैं, जो मलरहित और महान हैं
391 तुष्टः परमानन्दस्वरूप, जो आनंदरूप हैं
392 पुष्टः सर्वत्र परिपूर्ण, जो पूर्णब्रह्म हैं
393 शुभेक्षणः जिनका दर्शन सर्वदा शुभ है, जो सबका शुभ चाहने वाले हैं
रामो विरामो विरतो मार्गो नेयो नयोऽनयः ।
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठो धर्मो धर्मविदुत्तमः ॥ ४३ ॥
394 रामः अपनी इच्छा से रमणीय शरीर धारण करने वाले, योगीजन जिस परब्रह्म में रमन करते हैं
395 विरामः जिनमें प्राणियों का विराम (अंत) होता है, जिनमे जगत का विलय होता है
396 विरतः विषय सेवन में जिनका राग नहीं रहा है, जो रजोगुण से रहित हैं
397 मार्गः जिन्हें जानकार मुमुक्षुजन अमर हो जाते हैं, जो ब्रह्ममार्ग को बताने वाले हैं
398 नेयः ज्ञान से जीव को परमात्वभाव की तरफ ले जाने वाले, जिनका भक्तो के ह्रदय में निवास होता है
399 नयः नेता, जो भक्तों से प्राप्त अल्पवस्तु भी ग्रहण कर लेते हैं
400 अनयः जिनका कोई और नेता नहीं है, जो अभक्तों से प्राप्त अधिक वस्तु भी ग्रहण नहीं करते
401 वीरः विक्रमशाली, जो पराक्रमी हैं
402 शक्तिमतां श्रेष्ठः सभी शक्तिमानों में श्रेष्ठ
403 धर्मः समस्त भूतों को धारण करने वाले, जो धर्मस्वरूप हैं
404 धर्मविदुत्तमः श्रुतियाँ और स्मृतियाँ जिनकी आज्ञास्वरूप है, धर्म के जानकारों में जो श्रेष्ठ हैं
वैकुन्ठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ॥ ४४ ॥
405 वैकुन्ठः जगत के आरम्भ में बिखरे हुए भूतों को परस्पर मिलाकर उनकी गति रोकने वाले, जो वैकुण्ठ धाम रूप हैं
406 पुरुषः सबसे पहले होने वाले, जो पूर्ण पुरुष हैं
407 प्राणः प्राणवायुरूप होकर चेष्टा करने वाले हैं, जो वेदों के प्राण स्वरुप हैं
408 प्राणदः प्रलय के समय प्राणियों के प्राणों का खंडन करते हैं, जिन्होंने ब्रह्मा को वेद प्रदान किये थे
409 प्रणवः जिन्हें वेद प्रणाम करते हैं, जो प्रणव रूप हैं
410 पृथुः प्रपंचरूप से विस्तृत हैं, जो राजा पृथु के समान हैं
411 हिरण्यगर्भः ब्रह्मा की उत्पत्ति के कारण, जो श्रेष्ठ बाल रूप हैं
412 शत्रुघ्नः देवताओं के शत्रुओं को मारने वाले हैं, जो शत्रुओ के संहार कर्ता हैं
413 व्याप्तः सब कार्यों को व्याप्त करने वाले हैं, जो सर्व व्यापी हैं
414 वायुः गंध वाले हैं, जो वायु रूप हैं
415 अधोक्षजः जो कभी अपने स्वरुप से नीचे न हो, जो इन्द्रियों के विषय नहीं हैं
ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्वदक्षिणः ॥ ४५ ॥
416 ऋतुः ऋतु शब्द द्वारा कालरूप से लक्षित होते हैं, जो ऋतुओ में बसंत ऋतुरूप हैं
417 सुदर्शनः उनके नेत्र अति सुन्दर हैं, जो श्रेष्ठ और दर्शनीय हैं
418 कालः सबकी गणना करने वाले हैं, जो कालरूप हैं
419 परमेष्ठी हृदयाकाश के भीतर परम महिमा में स्थित रहने के स्वभाव वाले, जो अपने ही धाम में रहने वाले हैं
420 परिग्रहः भक्तों के अर्पण किये जाने वाले पुष्पादि को ग्रहण करने वाले, जो मुमुक्षुओं ( जिज्ञासुओ ) के द्वारा जाने जाते हैं
421 उग्रः जिनके भय से सूर्य भी निकलता है, जो रूद्र रूप हैं
422 संवत्सरः जिनमें सब भूत बसते हैं, जो काल रूप से भली प्रकार व्याप्त है
423 दक्षः जो सब कार्य बड़ी शीघ्रता से करते हैं, जो निपुण है
424 विश्रामः मोक्ष देने वाले हैं, जो कल्पांत में अंतिम आश्रय हैं
425 विश्वदक्षिणः जो समस्त कार्यों में कुशल हैं, जो प्राणियों के प्रति उदार हैं
विस्तारः स्थावरस्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम् ।
अर्थोऽनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ॥ ४६ ॥
426 विस्तारः जिनमें समस्त लोक विस्तार पाते हैं, जिनमे जगत का विस्तार होता है
427 स्थावरस्थाणुः स्थावर और स्थाणु हैं, जो पंचतत्वों ( जल , वायु , धरती , आकाश , अग्नि ) रूप में स्थायी रूप में स्थित हैं
428 प्रमाणम् संवितस्वरूप, जो प्रमाण रूप है या जो सत्य हैं
429 बीजमव्ययम् बिना अन्यथाभाव के ही संसार के कारण हैं, जो बीजरूप हैं
430 अर्थः सबसे प्रार्थना किये जाने वाले हैं, जो प्रार्थना योग्य हैं
431 अनर्थः जिनका कोई प्रयोजन नहीं है, जो परमार्थी हैं
432 महाकोशः जिन्हें महान कोष ढकने वाले हैं, जो आनंदमय कोष रूप हैं
433 महाभोगः जिनका सुखरूप महान भोग है, जो सुख राशि हैं
434 महाधनः जिनका भोगसाधनरूप महान धन है, जो भक्त प्रिय हैं
अनिर्विण्णः स्थविष्ठोऽभूर्धर्मयूपो महामखः ।
नक्षत्रनेमिर्नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ॥ ४७ ॥
435 अनिर्विण्णः जिन्हें कोई निर्वेद (उदासीनता) नहीं है, जो भक्त हित के लिए सदैव सजग रहते हैं
436 स्थविष्ठः वैराजरूप से स्थित होने वाले हैं, जो अति स्थूल रूप हैं
437 अभूः अजन्मा, जो सत्तात्मक हैं
438 धर्मयूपः धर्म स्वरुप यूप में जिन्हें बाँधा जाता है, जो धर्म यज्ञ के स्तम्भ हैं
439 महामखः जिनको अर्पित किये हुए मख (यज्ञ) महान हो जाते हैं, जो अनेक यज्ञो के कर्ता हैं
440 नक्षत्रनेमिः सम्पूर्ण नक्षत्रमण्डल के केंद्र हैं, जो चन्द्रमा के समान आनंददायी हैं
441 नक्षत्री चन्द्ररूप, जो शुभ नक्षत्र में देह धारण करने वाले हैं
442 क्षमः समस्त कार्यों में समर्थ, जो क्षमा शील हैं
443 क्षामः जो समस्त विकारों के क्षीण हो जाने पर आत्मभाव से स्थित रहते हैं, दुखकाल में जो भक्तो के द्वारा स्मरण किए जाते हैं
444 समीहनः सृष्टि आदि के लिए सम्यक चेष्टा करते हैं, जो श्रेष्ठ कार्य साधक हैं
यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमम् ॥ ४८ ॥
445 यज्ञः सर्वयज्ञस्वरूप, जो यज्ञरूप हैं
446 इज्यः जो पूज्य हैं, पूजनीय हैं
447 महेज्यः मोक्षरूप फल देने वाले सबसे अधिक पूजनीय, जो महान पूजनीय हैं
448 क्रतुः तद्रूप, जो एक साथ कई क्रियाओं के कर्ता हैं
449 सत्रम् जो विधिरूप धर्म को प्राप्त करता है, जो सत्पुरुषों के रक्षक हैं
450 सतां-गतिः जिनके अलावा कोई और गति नहीं है, जो सज्जनो या साधुजनो के द्वारा जानने के विषय हैं
451 सर्वदर्शी जो प्राणियों के सम्पूर्ण कर्मों को देखते हैं, जो सबको समान भाव से देखते हैं
452 विमुक्तात्मा स्वभाव से ही जिनकी आत्मा मुक्त है, जो बंधन रहित हैं
453 सर्वज्ञः जो सर्व है और ज्ञानरूप है, जो सब कुछ जान ने वाले हैं
454 ज्ञानमुत्तमम् जो प्रकृष्ट, अजन्य, और सबसे बड़ा साधक ज्ञान है, ज्ञानियों में जो श्रेष्ठ ज्ञानी हैं
सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत् ।
मनोहरो जितक्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ॥ ४९ ॥
455 सुव्रतः जिन्होंने शुभ व्रत लिया है, जो श्रेष्ठ व्रत धारी हैं
456 सुमुखः जिनका मुख सुन्दर है
457 सूक्ष्मः शब्दादि स्थूल कारणों से रहित हैं, जो सूक्ष्मस्वरूप हैं
458 सुघोषः मेघ के समान गंभीर घोष वाले हैं, जो श्रेष्ठ वाणी युक्त हैं
459 सुखदः सदाचारियों को सुख देने वाले हैं, जो श्रेष्ठ सुखदायी हैं
460 सुहृत् बिना प्रत्युपकार की इच्छा के ही उपकार करने वाले हैं, जो श्रेष्ठ उपकारकर्ता हैं
461 मनोहरः मन को हरने वाले हैं, जो मन को मोहने वाले हैं
462 जितक्रोधः क्रोध को जीतने वाले, जिन्होंने क्रोध को वशीभूत कर लिया है
463 वीरबाहुः अति विक्रमशालिनी बाहु के स्वामी, जो समर्थ भुजाओ वाले हैं
464 विदारणः अधार्मिकों को विदीर्ण करने वाले हैं , जो नरसिंह रूप से हिरण्यकशिपु का वध करने वाले हैं
स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत् ।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ॥ ५० ॥
465 स्वापनः जीवों को माया से आत्मज्ञानरूप जाग्रति से रहित करने वाले हैं, जो निज भक्तों के लिए धन प्रदाता हैं
466 स्ववशः जगत की उत्पत्ति, स्थिति और लय के कारण हैं, जो स्वजनों ( भक्तों) के वशीभूत रहते हैं
467 व्यापी सर्वव्यापी, जो सर्व व्यापक हैं
468 नैकात्मा जो विभिन्न विभूतियों के द्वारा नाना प्रकार से स्थित हैं, जो सभी जीवों में प्रतिबिम्ब रूप से निवास करते हैं
469 नैककर्मकृत् जो संसार की उत्पत्ति, उन्नति और विपत्ति आदि अनेक कर्म करते हैं, जो अनेक कर्मों के करने वाले हैं
470 वत्सरः जिनमें सब कुछ बसा हुआ है, जो पुत्र प्रदाता है
471 वत्सलः भक्तों के स्नेही, जो भक्तों से प्रेम करने वाले हैं
472 वत्सी वत्सों का पालन करने वाले, जो सबको स्नेह करने वाले हैं
473 रत्नगर्भः रत्न जिनके गर्भरूप हैं, जो गर्भ में रत्न धारण करने वाले हैं या समुद्र रूप हैं
474 धनेश्वरः जो धनों के स्वामी हैं, जो ऐश्वर्यशाली हैं
धर्मगुब्धर्मकृद्धर्मी सदसत्क्षरमक्षरम् ।
अविज्ञाता सहस्रांशुर्विधाता कृतलक्षणः ॥ ५१ ॥
475 धर्मगुप् धर्म का गोपन (रक्षा) करने वाले हैं
476 धर्मकृत् धर्म की मर्यादा के अनुसार आचरण वाले हैं
477 धर्मी धर्मों को धारण करने वाले हैं
478 सत् सत्यस्वरूप परब्रह्म
479 असत् प्रपंचरूप अपर ब्रह्म
480 क्षरम् सर्व भूत, जो प्रलय काल में विनाश करता हैं , दुःख और कष्टों का विनाश करने वाले हैं
481 अक्षरम् कूटस्थ, जो अविनाशी हैं
482 अविज्ञाता वासना को न जानने वाला, जो ज्ञान स्वरुप हैं
483 सहस्रांशुः जिनके तेज से प्रज्वल्लित होकर सूर्य तपता है , जो हजारों किरणों के धारण कर्ता या सूर्य के समान हैं
484 विधाता समस्त भूतों और पर्वतों को धारण करने वाले, जो धारण पोषण करने वाले हैं या जो भाग्य लिखने वाले हैं
485 कृतलक्षणः नित्यसिद्ध चैतन्यस्वरूप, जो चेतन स्वरुप हैं
गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद्गुरुः ॥ ५२ ॥
486 गभस्तिनेमिः जो गभस्तियों (किरणों) के बीच में सूर्यरूप से स्थित हैं, जो सूर्य रूप हैं
487 सत्त्वस्थः जो समस्त प्राणियों में स्थित हैं, जो सतोगुणों से युक्त हैं
488 सिंहः जो सिंह के समान पराक्रमी हैं
489 भूतमहेश्वरः भूतों के महान इश्वर हैं, जो जीवों के स्वामी हैं
490 आदिदेवः जो सब भूतों का ग्रहण करते हैं और देव भी हैं, जो प्रथम देवरूप हैं
491 महादेवः जो अपने महान ज्ञानयोग और ऐश्वर्य से महिमान्वित हैं, जो महान देव स्वरुप हैं
492 देवेशः देवों के ईश हैं
493 देवभृद्गुरुः देवताओं के पालक इन्द्र के भी शासक हैं, जो देवराज इंद्र के भी उपदेशक हैं
उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।
शरीरभूतभृद्भोक्ता कपीन्द्रो भूरिदक्षिणः ॥ ५३ ॥
494 उत्तरः जो संसारबंधन से मुक्त हैं, जो सर्वश्रेष्ठ हैं
495 गोपतिः गौओं के पालक, जो गायों के स्वामी हैं
496 गोप्ता समस्त भूतों के पालक और जगत के रक्षक, जो गायों के रक्षक हैं
497 ज्ञानगम्यः जो केवल ज्ञान से ही जाने जाते हैं, जो ज्ञान के विषय हैं
498 पुरातनः जो काल से भी पहले रहते हैं, जो अति प्राचीन हैं और जो सदैव स्थिर रहने वाले हैं
499 शरीरभूतभृत् शरीर की रचना करने वाले भूतों के पालक, जो सृष्टि के जीवों का भरण पोषण करने वाले हैं
500 भोक्ता पालन करने वाले
501 कपीन्द्रः वानरों के स्वामी, सुग्रीव को जिन्होंने वानरों का राजा बनाया था
502 भूरिदक्षिणः जिनकी बहुत सी दक्षिणाएँ रहती हैं, जो सरल स्वभाव वाले हैं
सोमपोऽमृतपः सोमः पुरुजित्पुरुसत्तमः ।
विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्त्वतांपतिः ॥ ५४ ॥
503 सोमपः जो समस्त यज्ञों में देवतारूप से सोमपान करते हैं, जो सोमलता रस का पान करने वाले हैं
504 अमृतपः आत्मारूप अमृतरस का पान करने वाले, रामावतार में जिन्होंने यज्ञों के द्वारा देवताओं को तृप्त किया था
505 सोमः चन्द्रमा (सोम) रूप से औषधियों का पोषण करने वाले, जो चन्द्रमा के समान आनंद दायी हैं
506 पुरुजित् पुरु अर्थात बहुतों को जीतने वाले, जो अर्जुन के मामा राजा कुन्तिभोज को पराजित करने वाले हैं
507 पुरुसत्तमः विश्वरूप अर्थात पुरु और उत्कृष्ट अर्थात सत्तम हैं, जो पुरुषों में उत्तम हैं
508 विनयः दुष्ट प्रजा को विनय अर्थात दंड देने वाले हैं, जो विनम्र हैं या जो विशेष नीतियों के जानकार हैं
509 जयः सब भूतों को जीतने वाले हैं, जो जयरूप हैं
510 सत्यसन्धः जिनकी संधा अर्थात संकल्प सत्य हैं, जो सत्य प्रतिज्ञा वाले हैं
511 दाशार्हः जो दशार्ह कुल में उत्पन्न हुए, जिन्होंने दर्शाह वंश में जन्म लिया था
512 सात्त्वतां पतिः सात्वतों (वैष्णवों) के स्वामी, जो वैष्णवों का योगक्षेम करने वाले हैं
जीवो विनयितसाक्षी मुकुन्दोमितविक्रमः।
अम्भोनिधिरनन्तात्मा महोदधिशयोन्तकः ।।55।।
513 जीवः- क्षेत्रज्ञरूप से प्राण धारण करने वाले
514 विनयितसाक्षी- प्रजा की विनयिता को साक्षात देखने वाले
515 मुकुन्दः- मुक्ति देने वाले
516 अमितविक्रमः- अतुलनीय विक्रम या शूरवीरता वाले
517 अम्भोनिधिः- देवता, मनुष्य , पितर , असुर ये चारों अम्भ भगवान में रहने वाले
518 अनन्तात्मा- देश काल और वास्तु से अपरिच्छिन्न
519 महोदधिशयः- समस्त भूतों का संहार करके , सम्पूर्ण जगत को जलमय करके समुद्र में शयन करने वाले
520 अन्तकः – भूतों का अंत करने वाले
अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।
आनन्दो नन्दनो नन्दः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ॥ ५६ ॥
521 अजः अजन्मा, जो अविनाशी हैं अर्थात जो अनादि काल से ही सृष्टि में व्याप्त हैं
522 महार्हः मह (पूजा) के योग्य, जो श्रेष्ठ पूजनीय हैं
523 स्वाभाव्यः नित्यसिद्ध होने के कारण स्वभाव से ही उत्पन्न नहीं होते, जो भक्तों के चिंतन योग्य हैं
524 जितामित्रः जो शत्रुओं को जीतने वाले है
525 प्रमोदनः जो अपने ध्यानमात्र से ध्यानियों को प्रमुदित करते हैं, जो सबको प्रमुदित करने वाले हैं
526 आनन्दः आनंदस्वरूप , जो सुखराशि हैं
527 नन्दनः आनंदित करने वाले हैं, जो सबको सुख देने वाले हैं
528 नन्दः सब प्रकार की सिद्धियों से संपन्न, जो ऐश्वर्य शाली हैं
529 सत्यधर्मा जिनके धर्म ज्ञानादि गुण सत्य हैं, जो सत्यधर्मी हैं
530 त्रिविक्रमः जिनके तीन विक्रम (डग) तीनों लोकों में क्रान्त (व्याप्त) हो गए, जो तीनों लोकों को समभाव से देखते हैं
महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाशृङ्गः कृतान्तकृत् ॥ ५७ ॥
531 महर्षिः कपिलाचार्यः जो ऋषि रूप से उत्पन्न हुए कपिल हैं, जो महर्षि कपिल रूपधारी हैं
532 कृतज्ञः कृत (जगत) और ज्ञ (आत्मा) हैं, जो किये हुए को जानने वाले हैं
533 मेदिनीपतिः मेदिनी (पृथ्वी) के पति या स्वामी
534 त्रिपदः जिनके तीन पद या चरण हैं
535 त्रिदशाध्यक्षः जागृत , स्वप्न और सुषुप्ति इन तीन अवस्थाओं के अध्यक्ष, जो देवों के अधिष्ठाता हैं
536 महाशृंगः मत्स्य अवतार, जो महाप्रभुत्व वाले हैं
537 कृतान्तकृत् कृत (जगत) का अंत करने वाले हैं, जो दुष्कृत्यों का शमन करने वाले हैं
महावराहो गोविन्दः सुषेणः कनकाङ्गदी ।
गुह्यो गभीरो गहनो गुप्तश्चक्रगदाधरः ॥ ५८ ॥
538 महावराहः महान हैं और वराह रूप धारी हैं
539 गोविन्दः गो अर्थात वाणी से प्राप्त होने वाले हैं, जो गायों को चराने वाले अर्थात ग्वालरूप हैं
540 सुषेणः जिनकी पार्षदरूप सुन्दर सेना है, जो श्रेष्ठ सेना नायक हैं
541 कनकांगदी जिनके कनकमय (सोने के) अंगद(भुजबन्द) हैं
542 गुह्यः गुहा यानि हृदयाकाश में छिपे हुए हैं, जो परम रहस्यमयी होने के कारण गोपनीय हैं
543 गभीरः जो गंभीर हैं या गंभीर स्वभाव के हैं
544 गहनः कठिनता से प्रवेश किये जाने योग्य हैं, जो गूढ़ ज्ञान के द्वारा ही जाने जाते हैं
545 गुप्तः जो वाणी और मन के अविषय हैं, जो मन और वाणी के विषय नहीं है
546 गदाधरः मन रुपी चक्र और बुद्धि रुपी गदा को लोक रक्षा हेतु धारण करने वाले, जो सुदर्शन चक्र और कौमोदकी नामक गदा को धारण करते हैं
वेधाः स्वाङ्गोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणोऽच्युतः ।
वरुणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ॥ ५९ ॥
547 वेधाः विधान करने वाले हैं, जो प्रियजनों के हित साधक हैं
548 स्वाङ्गः कार्य करने में स्वयं ही अंग हैं, भक्तों को जो अपने समान समझते हैं
549 अजितः अपने अवतारों में किसी से नहीं जीते गए, जो शत्रुओ द्वारा जीते नहीं जा सकते
550 कृष्णः कृष्णद्वैपायन, जिनमें कर्षण ( आकर्षण ) गुण है या जो कृष्णा वर्ण के हैं
551 दृढः जिनके स्वरुप सामर्थ्यादि की कभी च्युति नहीं होती, जो स्थिर हैं
552 संकर्षणोऽच्युतः जो एक साथ ही आकर्षण करते हैं और पद च्युत नहीं होते , जो भक्तों के कष्टों को दूर करते हैं और जो
अविनाशी हैं
553 वरुणः अपनी किरणों का संवरण करने वाले सूर्य हैं, जो वरुण रूप हैं
554 वारुणः वरुण के पुत्र वसिष्ठ या अगस्त्य, जो नन्द को वरुण लोक से लाने वाले हैं
555 वृक्षः वृक्ष के समान अचल भाव से स्थित, जो सहृदय जनो के लिए कल्प वृक्ष के समान हैं
556 पुष्कराक्षः हृदय कमल में चिंतन किये जाते हैं, जो यशोदा द्वारा धमकाए जाने पर नेत्रों में नीर भर लेते हैं
557 महामनाः सृष्टि,स्थिति और अंत ये तीनों कर्म मन से करने वाले, जो उन्नत मन वाले हैं
भगवान् भगहाऽनन्दी वनमाली हलायुधः ।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णुर्गतिसत्तमः ॥ ६० ॥
558 भगवान् सम्पूर्ण छह ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य जिनमें है
559 भगहा संहार के समय ऐश्वर्यादि का हनन करने वाले हैं
560 आनन्दी सुखस्वरूप, जो आत्मानंद में लीन रहने वाले हैं
561 वनमाली वैजयंती नाम की वनमाला धारण करने वाले हैं
562 हलायुधः जो हल को शस्त्र के रूप में धारण करने वाले हैं
563 आदित्यः अदिति के गर्भ से उत्पन्न होने वाले, जो अदिति के पुत्र वामन रूप हैं
564 ज्योतिरादित्यः सूर्यमण्डलान्तर्गत ज्योति में स्थित, जो ज्योतिमान सूर्य से भी अधिक प्रकाश वाले हैं
565 सहिष्णुः शीतोष्णादि द्वंद्वों को सहन करने वाले, जो शरणागत रक्षको में सर्वश्रेष्ठ हैं , सहनशील हैं
566 गतिसत्तमः गति हैं और सर्वश्रेष्ठ हैं
सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।
दिवःस्पृक् सर्वदृग्व्यासो वाचस्पतिरयोनिजः ॥ ६१ ॥
567 सुधन्वा जो इन्द्रियादिमय सुन्दर शारंग धनुष धारण करते हैं
568 खण्डपरशुः जिनका परशु अखंड है, जो परशु नामक अस्त्र धारण करने के कारण परशुराम भी कहलाते हैं
569 दारुणः सन्मार्ग के विरोधियों या दुष्टों के लिए दुखदायी और दारुण (कठोर) हैं
570 द्रविणप्रदः भक्तों को द्रविण (इच्छित धन) देने वाले हैं
571 दिवःस्पृक् दिव (स्वर्ग) का स्पर्श करने वाले हैं, जिन्होंने वामनावतार में विराट रूप से स्वर्ग को भी नाप लिया था
572 सर्वदृग्व्यासः सम्पूर्ण ज्ञानों का विस्तार करने वाले हैं, जो व्यासरूप से सर्वदर्शी हैं
573 वाचस्पतिरयोनिजः विद्या के पति और जननी से जन्म न लेने वाले हैं
त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक् ।
संन्यासकृच्छमः शान्तो निष्ठा शान्तिः परायणम् ॥ ६२ ॥
574 त्रिसामा तीन सामों द्वारा सामगान करने वालों से स्तुति किये जाने वाले हैं
575 सामगः जो ब्रह्मा रूप से सामगान या सामवेद का गान करने वाले हैं
576 सामः जो सामवेद रूप ही हैं
577 निर्वाणम् परमानंदस्वरूप ब्रह्म, जो मोक्ष रूप हैं
578 भेषजम् संसार रूप रोग की औषध, जो औषधि रूप हैं
579 भिषक् संसाररूप रोग या भव सागर से छुड़ाने वाली विद्या अर्थात आत्म तत्त्व का उपदेश देने वाले हैं,
580 संन्यासकृत् मोक्ष के लिए संन्यास की रचना करने वाले हैं
581 शमः सन्यासियों को ज्ञान के साधन शम का उपदेश देने वाले, जो ज्ञान के साधन रूप हैं
582 शान्तः विषयसुखों में अनासक्त रहने वाले, जो सुखों के प्रति उदासीन हैं अर्थात शांत स्वरुप हैं
583 निष्ठा प्रलयकाल में प्राणी सर्वथा जिनमे वास करते हैं
584 शांतिः सम्पूर्ण अविद्या की निवृत्ति
585 परायणम् पुनरावृत्ति की शंका से रहित परम उत्कृष्ट स्थान हैं, जो मोक्ष धाम हैं
शुभाङ्गः शान्तिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ॥ ६३ ॥
586 शुभाङ्गः सुन्दर शरीर धारण करने वाले हैं, जिनके अंग सुन्दर हैं
587 शान्तिदः शान्ति देने वाले हैं
588 स्रष्टा आरम्भ में सब भूतों को रचने वाले हैं, जो सृष्टि के सृजन कर्ता हैं
589 कुमुदः कु अर्थात पृथ्वी में मुदित होने वाले हैं, जो कमल के समान हैं
590 कुवलेशयः कु अर्थात पृथ्वी के वलन करने से जल कुवल कहलाता है उसमे शयन करने वाले हैं,जल में शयन करने वाले
591 गोहितः गौओं के हितकारी हैं
592 गोपतिः गो अर्थात भूमि के पति या स्वामी हैं
593 गोप्ता जगत और भक्तों के रक्षक हैं
594 वृषभाक्षः वृष अर्थात धर्म जिनकी दृष्टि है, जो धर्मरूप नेत्र वाले हैं
595 वृषप्रियः जिन्हें वृष अर्थात धर्म प्रिय है
अनिर्वर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृच्छिवः ।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः ॥ ६४ ॥
596 अनिवर्ती देवासुरसंग्राम से पीछे न हटने वाले हैं, जो कर्मशील हैं
597 निवृतात्मा जिनकी आत्मा स्वभाव से ही विषयों से निवृत्त है, जो विषयों से परे हैं
598 संक्षेप्ता संहार के समय विस्तृत जगत को सूक्ष्मरूप से संक्षिप्त करने वाले हैं, जिन्होंने वेद को संक्षिप्त कर गीता ग्रन्थ में स्थान दिया है
599 क्षेमकृत् प्राप्त हुए पदार्थ की रक्षा करने वाले हैं, जो सृष्टि के कल्याणकर्ता हैं
600 शिवः अपने नामस्मरणमात्र से पवित्र और कल्याण करने वाले हैं
601 श्रीवत्सवक्षाः जिनके वक्षस्थल में श्रीवत्स नामक चिन्ह है
602 श्रीवासः जिनके वक्षस्थल में कभी नष्ट न होने वाली श्री वास करती हैं
603 श्रीपतिः श्री के पति
604 श्रीमतां वरः ब्रह्मादि श्रीमानों में प्रधान हैं, जो देवो में श्रेष्ठहैं
श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमाँल्लोकत्रयाश्रयः ॥ ६५ ॥
605 श्रीदः भक्तों को श्री देते हैं इसलिए श्रीद हैं, जो श्री ( ऐश्वर्य ) प्रदाता हैं
606 श्रीशः जो श्री के ईश हैं
607 श्रीनिवासः जो श्रीमानों में निवास करते हैं, जो शोभा के भण्डार हैं
608 श्रीनिधिः जिनमें सम्पूर्ण श्रियां एकत्रित हैं, जो अतुलित ऐश्वर्य के स्वामी हैं
609 श्रीविभावनः जो समस्त भूतों को विविध प्रकार की श्री देते हैं , जो कर्मानुसार प्राणियों को फल प्रदान करते हैं
610 श्रीधरः जिन्होंने श्री को छाती में धारण किया हुआ हैं
611 श्रीकरः जो स्मरण कर्ता या भक्तों को श्रीयुक्त करने वाले हैं और ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं
612 श्रेयः जिनका स्वरुप कभी न नष्ट होने वाले सुख को प्राप्त कराता है, जो श्रिया रूप हैं
613 श्रीमान् जिनमे श्रियां हैं, जो लक्ष्मी से युक्त हैं
614 लोकत्रयाश्रयः जो तीनों लोकों के एकमात्र आश्रय हैं
स्वक्षः स्वङ्गः शतानन्दो नन्दिर्ज्योतिर्गणेश्वरः ।
विजितात्माऽविधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ॥ ६६ ॥
615 स्वक्षः जिनकी आँखें कमल के समान सुन्दर हैं
616 स्वङ्गः जिनके अंग सुन्दर हैं
617 शतानन्दः जो परमानंद स्वरुप उपाधि भेद से सैंकड़ों प्रकार के हो जाते हैं, जो आनंदमय हैं
618 नन्दिः परमानन्दस्वरूप , जो आनंद प्रदाता है
619 ज्योतिर्गणेश्वरः ज्योतिर्गणों के इश्वर या स्वामी हैं
620 विजितात्मा जिन्होंने आत्मा अर्थात मन को जीत लिया है
621 विधेयात्मा जिनका स्वरुप किसी के द्वारा विधिरूप से नहीं कहा जा सकता, जो किसी के अधीन नहीं हैं
622 सत्कीर्तिः जिनकी कीर्ति सत्य है, जो श्रेष्ठ यशश्वी हैं
623 छिन्नसंशयः जिन्हें कोई संशय नहीं है, जो संशय हीन हैं
उदीर्णः सर्वतश्चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ॥ ६७ ॥
624 उदीर्णः जो सब प्राणियों से उदार है
625 सर्वतश्चक्षुः जो अपने चैतन्यरूप से सबको देखते हैं, जो सब जगह देखने वाले हैं
626 अनीशः जिनका कोई ईश या स्वामी नहीं है
627 शाश्वत-स्थिरः जो नित्य होने पर भी कभी विकार को प्राप्त नहीं होते, जो देश काल आदि में सदा स्थिर भाव से रहते हैं
628 भूशयः लंका जाते समय समुद्रतट पर भूमि पर सोये थे, जो भूमि पर शयन करने वाले हैं
629 भूषणः जो अपने अवतारों से पृथ्वी को भूषित करते रहे हैं, जो जगत के भूषन रूप हैं
630 भूतिः समस्त विभूतियों के कारण हैं, जो सत्ता रूप हैं
631 विशोकः जो शोक से परे हैं, जिन्हें किसी प्रकार का शोक नहीं होता
632 शोकनाशनः जो स्मरणमात्र से भक्तों का शोक नष्ट कर दे, जो दुःखो के हर्ता हैं
अर्चिष्मानर्चितः कुम्भो विशुद्धात्मा विशोधनः ।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ॥ ६८ ॥
633 अर्चिष्मान् जिनकी अर्चियों (किरणों) से सूर्य, चन्द्रादि अर्चिष्मान हो रहे हैं , जो सूर्यरूप हैं
634 अर्चितः जो सम्पूर्ण लोकों में सबके द्वारा अर्चित (पूजित) हैं
635 कुम्भः कुम्भ(घड़े) के समान जिनके उदर में सब वस्तुएं और सम्पूर्ण सृष्टि स्थित हैं
636 विशुद्धात्मा तीनों गुणों से अतीत होने के कारण विशुद्ध आत्मा हैं, जिनकी आत्मा निर्विकार हैं
637 विशोधनः अपने स्मरण मात्र से पापों का नाश करने वाले हैं
638 अनिरुद्धः शत्रुओं द्वारा कभी रोके न जाने वाले, जिनको किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं हैं, जो बाधा रहित हैं
639 अप्रतिरथः जिनका कोई विरुद्ध पक्ष नहीं है, युद्ध में जिनके सामने कोई नहीं टिकता
640 प्रद्युम्नः जिनका दयुम्न (धन) श्रेष्ठ है, जो प्रद्युम्नरूप हैं
641 अमितविक्रमः जिनका विक्रम या पराक्रम अपरिमित है
कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ॥ ६९ ॥
642 कालनेमीनिहा कालनेमि नामक असुर का वध या हनन करने वाले
643 वीरः जो शूर हैं , वीर हैं
644 शौरिः जो शूरकुल में उत्पन्न हुए हैं
645 शूरजनेश्वरः इंद्र आदि शूरवीरों के भी शासक, जो श्रेष्ठ योद्धाओ के नायक हैं
646 त्रिलोकात्मा तीनों लोकों की आत्मा हैं
647 त्रिलोकेशः जिनकी आज्ञा से तीनों लोक अपना कार्य करते हैं, जो तीनों लोकों के स्वामी हैं
648 केशवः ब्रह्मा,विष्णु और शिव नाम की शक्तियां केश हैं उनसे युक्त होने वाले, केशी दैत्य को मारने वाले
649 केशिहा केशी नामक असुर को मारने वाले
650 हरिः अविद्यारूप कारण सहित संसार को हर लेते हैं, जो पापों को हरने वाले हैं
कामदेवः कामपालः कामी कान्तः कृतागमः ।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णुर्वीरोऽनन्तो धनञ्जयः ॥ ७० ॥
651 कामदेवः कामना किये जाते हैं इसलिए काम हैं और देव भी हैं
652 कामपालः कामियों की कामनाओं का पालन करने वाले हैं, जो कामनाओ को पूरा करने वाले हैं
653 कामी पूर्णकाम हैं, जो कामना रूप हैं
654 कान्तः परम सुन्दर देह वाले हैं, जो ब्रह्म का भी अंत करने वाले हैं
655 कृतागमः जिन्होंने श्रुति,स्मृति आदि आगम(शास्त्र) रचे हैं, जो वेदों के प्रादुर्भाव के कारण हैं
656 अनिर्देश्यवपुः जिनका रूप निर्दिष्ट नहीं किया जा सकता, जो जाति व चिह्न से रहित देह वाले हैं
657 विष्णुः जिनकी प्रचुर कांति या तेज़ पृथ्वी और आकाश को व्याप्त करके स्थित है
658 वीरः गति आदि से युक्त हैं, जो श्रेष्ठ वीर हैं
659 अनन्तः देश, काल, वस्तु, सर्वात्मा आदि से अपरिच्छिन्न , जो अनेक गुणों वाले हैं
660 धनञ्जयः अर्जुन के रूप में जिन्होंने दिग्विजय के समय बहुत सा धन जीता था, जो अर्जुन रूप हैं
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृद् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।
ब्रह्मविद् ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ॥ ७१ ॥
661 ब्रह्मण्यः जो तप,वेद,ब्राह्मण और ज्ञान के हितकारी हैं, जो ब्रह्म निष्ठ हैं
662 ब्रह्मकृत् तपादि के करने वाले हैं, हयग्रीव दैत्य का वध कर जिन्होंने वेदों को उस से प्राप्त किया था
663 ब्रह्मा ब्रह्मरूप से सबकी रचना करने वाले हैं, जो सृष्टि के रचयिता रूप हैं
664 ब्रह्म बड़े तथा बढ़ानेवाले हैं, जो आत्मज्ञान रूप हैं
665 ब्रह्मविवर्धनः तपादि को बढ़ाने वाले हैं
666 ब्रह्मविद् वेद तथा वेद के अर्थ को यथावत जानने वाले हैं, जो तत्व या आत्म तत्व के ज्ञाता हैं
667 ब्राह्मणः ब्राह्मण रूप, जो वैदिक धर्म के ज्ञाता और प्रवर्तक हैं
668 ब्रह्मी ब्रह्म के शेषभूत जिनमे हैं, जो ब्रह्म ज्ञान या तत्व के जानकार हैं
669 ब्रह्मज्ञः जो अपने आत्मभूत वेदों को जानते हैं, जो जीव रूप से ब्रह्मा को जानने वाले हैं
670 ब्राह्मणप्रियः जो ब्राह्मणों को प्रिय हैं, ब्राह्मण जिन्हें प्रिय हैं
महाक्रमो महाकर्मा महातेजो महोरगः ।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ॥ ७२ ॥
671 महाक्रमः जिनका डग महान है, जो पाद विन्यास ( पैरों को बढ़ाने वाले ) हैं
672 महाकर्मा जगत की उत्पत्ति जैसे जिनके कर्म महान हैं, जो वृहद धर्म के कर्ता हैं
673 महातेजाः जिनका तेज महान है, जो महान तेजस्वी हैं
674 महोरगः जो महान उरग (वासुकि सर्परूप) है
675 महाक्रतुः जो महान क्रतु (यज्ञ रूप ) है, जो महान यज्ञ करने वाले हैं
676 महायज्वा महान हैं और लोक संग्रह के लिए यज्ञानुष्ठान करने से यज्वा भी हैं
677 महायज्ञः महान हैं और यज्ञ हैं, जो महान जप यज्ञ करने वाले हैं
678 महाहविः महान हैं और हवि हैं, जो महान हवि रूप हैं
स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ॥ ७३ ॥
679 स्तव्यः जिनकी सब स्तुति करते हैं लेकिन ये स्वयं किसी की स्तुति नहीं करते, जो स्तुति करने योग्य हैं
680 स्तवप्रियः जिनकी सभी स्तुति करते हैं, जिन्हें स्तुति ( वंदना ) प्रिय है
681 स्तोत्रम् वह गुण कीर्तन हैं जिससे उन्ही की स्तुति की जाती है, जो स्तोत्र रूप हैं
682 स्तुतिः स्तवन क्रिया, जो गुण कीर्तन करने योग्य हैं
683 स्तोता सर्वरूप होने के कारण स्तुति करने वाले भी स्वयं हैं
684 रणप्रियः जिन्हें रण प्रिय है
685 पूर्णः जो समस्त कामनाओं और शक्तियों से संपन्न हैं, जो पूर्ण कलाओं से युक्त हैं
686 पूरयिता जो केवल पूर्ण ही नहीं हैं बल्कि सबको संपत्ति से पूर्ण करने भी वाले हैं , जो भक्तों की मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं
687 पुण्यः स्मरण मात्र से पापों का क्षय करने वाले हैं, जो पुण्य रूप हैं
688 पुण्यकीर्तिः जिनकी कीर्ति मनुष्यों को पुण्य प्रदान करने वाली है, जो कीर्तिवान हैं
689 अनामयः जो व्याधियों से पीड़ित नहीं होते, जो रोग रहित हैं
मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ॥ ७४ ॥
690 मनोजवः जिनका वेग मन के समान तीव्र है , जो मन की गति के समान वेगवान हैं
691 तीर्थकरः जो चौदह विद्याओं और वेद विद्याओं के कर्ता तथा वक्ता हैं, जो विष्णुरूप हैं
692 वसुरेताः जो सुवर्ण प्रिय ( तेज़ ) वाले हैं
693 वसुप्रदः जो खुले हाथ से धन देते हैं
694 वसुप्रदः जो भक्तों को मोक्षरूप उत्कृष्ट फल देते हैं
695 वासुदेवः वासुदेवजी के पुत्र
696 वसुः जिनमें सब भूत बसते हैं, जो वसुरूप हैं
697 वसुमनाः जो समस्त पदार्थों में और सर्वत्र सामान्य भाव और समान रूप से वास करने वाले हैं
698 हविः जो ब्रह्म को अर्पण किया जाता है, जो हवन रूप हैं
सद्गतिः सत्कृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः ।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ॥ ७५ ॥
699 सद्गतिः जिनकी गति यानी बुद्धि श्रेष्ठ है, जो सद्गति ( मोक्ष ) रूप हैं
700 सत्कृतिः जिनकी जगत की उत्पत्ति आदि कृति श्रेष्ठ है, जो उत्तम क्रिया वाले हैं
701 सत्ता सजातीय, विजातीय भेद से रहित अनुभूति हैं, जो अधिष्ठान रूप हैं
702 सद्भूतिः जो अबाधित और बहुत प्रकार से भासित हैं, जो सद्पुरुषों को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले हैं
703 सत्परायणः सत्पुरुषों के श्रेष्ठ स्थान हैं, सत्य के प्रति जिनकी निष्ठा है
704 शूरसेनः जिनकी सेना शूरवीर है और हनुमान जैसे शूरवीर उनकी सेना में हैं, जो श्रेष्ठ सेना से युक्त हैं
705 यदुश्रेष्ठः यदुवंशियों में प्रधान हैं, श्रेष्ठ हैं
706 सन्निवासः विद्वानों के आश्रय है , सत्पुरुषों में जो आवास रूप हैं
707 सुयामुनः जिनके यमुना सम्बन्धी सुन्दर हैं, यमुना के सुन्दर तट पर गोप सखाओं के मध्य विद्यमान रहने वाले
भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयोऽनलः ।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्ढरोऽथापराजितः ॥ ७६ ॥
708 भूतावासः जिनमें सर्व भूत मुख्य रूप से निवास करते हैं, जो जीवों में आत्मा रूप से निवास करते हैं
709 वासुदेवः जगत को माया से आच्छादित करते हैं और देव भी हैं, जो वसुदेव के पुत्र हैं
710 सर्वासुनिलयः सम्पूर्ण प्राण जिस जीवरूप आश्रय में लीन हो जाते हैं, जो जीवों के अंतिम आश्रय हैं
711 अनलः जिनकी शक्ति और संपत्ति की समाप्ति नहीं है, जो अग्निरूप हैं
712 दर्पहा धर्मविरुद्ध मार्ग में रहने वालों का दर्प नष्ट करते हैं, प्रतिद्वंदियों के घमंड को समाप्त करने वाले
713 दर्पदः धर्म मार्ग में रहने वालों को दर्प (गर्व) देते हैं
714 दृप्तः अपने आत्मारूप अमृत का आस्वादन करने के कारण नित्य प्रमुदित रहते हैं, स्वात्मानन्द में लीन रहने वाले
715 दुर्धरः अथ जिन्हें बड़ी कठिनता से ह्रदय में धारण किया जा सकता है
716 अपराजितः जो किसी से पराजित नहीं होते
विश्वमूर्तिर्महामूर्तिर्दीप्तमूर्तिरमूर्तिमान् ।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ॥ ७७ ॥
717 विश्वमूर्तिः विश्व जिनकी मूर्ति है, जो विश्व रूप हैं
718 महामूर्तिः जिनकी मूर्ति बहुत बड़ी है, जो सत चित आनंद रूप वाले हैं
719 दीप्तमूर्तिः जिनकी मूर्ति दीप्तमति है, जो प्रकाश रूप हैं
720 अमूर्तिमान् जिनकी कोई कर्मजन्य मूर्ति नहीं है , जो विग्रह रहित हैं
721 अनेकमूर्तिः अवतारों में लोकों का उपकार करने वाली अनेकों मूर्तियां धारण करते हैं , जो अनेक रूपों वाले हैं
722 अव्यक्तः जो व्यक्त नहीं होते, जो प्रत्यक्ष नहीं होते
723 शतमूर्तिः जिनकी विकल्पजन्य अनेक मूर्तियां हैं, जो सैंकड़ो रूपों वाले हैं
724 शताननः जो सैंकड़ों मुख वाले है
एको नैकः सवः कः किं यत् तत्पदमनुत्तमम् ।
लोकबन्धुर्लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ॥ ७८ ॥
725 एकः जो सजातीय, विजातीय और बाकी भेदों से शून्य हैं, जो एक रूप हैं
726 नैकः जिनके माया से अनेक रूप हैं
727 सवः वो यज्ञ हैं जिससे सोम निकाला जाता है, जो यज्ञ में सोम रस का पान करने वाले हैं
728 कः सुखस्वरूप, जो ब्रह्मरूप हैं
729 किम् जो विचार करने योग्य है, जो पुरुषार्थ रूप हैं
730 यत् जिनसे सब भूत उत्पन्न होते हैं, जो भक्तों के हितार्थ सर्वत्र विचरण करने वाले हैं
731 तत् जो विस्तार करता है, लीला रचने वाले हैं
732 पदमनुत्तमम् वह पद हैं और उनसे श्रेष्ठ कोई नहीं है इसलिए अनुत्तम भी हैं, जो श्रेष्ठ स्थल कहे जाते हैं
733 लोकबन्धुः जिनमें सब लोक बंधे रहते हैं, जो लोगों को हित अहित का ज्ञान कराने वाले हैं
734 लोकनाथः जो लोकों से याचना किये जाते हैं और उनपर शासन करते हैं, जो सृष्टिवासियों के स्वामी हैं
735 माधवः मधुवंश में उत्पन्न होने वाले हैं, जो लक्ष्मी के पति हैं
736 भक्तवत्सलः जो भक्तों के प्रति स्नेहयुक्त हैं और दया भाव रखने वाले हैं
सुवर्णवर्णो हेमाङ्गो वराङ्गश्चन्दनाङ्गदी ।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरचलश्चलः ॥ ७९ ॥
737 सुवर्णवर्णः जिनका वर्ण सुवर्ण के समान है
738 हेमांगः जिनका शरीर हेम(सुवर्ण) के समान कांतिमान है
739 वराङ्गः जिनके अंग वर अर्थात सुन्दर और श्रेष्ठ हैं
740 चन्दनांगदी जो चंदनों और अंगदों (भुजबन्द) से विभूषित हैं
741 वीरहा धर्म की रक्षा के लिए दैत्यवीरों का हनन करने वाले हैं
742 विषमः जिनके समान कोई नहीं है
743 शून्यः जो समस्त विशेषों से रहित होने के कारण शून्य के समान हैं, जो धर्मो से रहित हैं
744 घृताशीः जिनकी आशिष घृत यानी विगलित हैं, जो आशीषों से रहित हैं
745 अचलः जो किसी भी तरह से विचलित नहीं होते, जो चलायमान नहीं हैं
746 चलः जो वायुरूप से चलते हैं, जो प्राणी रूप से चलायमान हैं
अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक् ।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ॥ ८० ॥
747 अमानी जिन्हें अनात्म वस्तुओं में आत्माभिमान नहीं है, जो अभिमान रहित हैं
748 मानदः जो भक्तों को आदर मान देते हैं, जो भक्तों में अभिमान नहीं आने देते
749 मान्यः जो सबके माननीय पूजनीय हैं, जो सबमे पूजित हैं
750 लोकस्वामी चौदहों लोकों के स्वामी हैं
751 त्रिलोकधृक् तीनों लोकों को धारण करने वाले हैं
752 सुमेधाः जिनकी मेधा ( बुद्धि ) सुन्दर और श्रेष्ठ है
753 मेधजः मेध अर्थात यज्ञ में अन्न ग्रहण करने के लिए उत्पन्न या प्रकट होने वाले हैं
754 धन्यः कृतार्थ हैं, जो पुण्यवान हैं
755 सत्यमेधाः जिनकी मेधा सत्य है
756 धराधरः जो अपने सम्पूर्ण अंशों से या शेष रूप से पृथ्वी को धारण करते हैं
तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकशृङ्गो गदाग्रजः ॥ ८१ ॥
757 तेजोवृषः आदित्यरूप से सदा तेज की वर्षा करते हैं
758 द्युतिधरः द्युति या कांति को धारण करने वाले हैं
759 सर्वशस्त्रभृतां वरः समस्त शस्त्रधारियों में श्रेष्ठ
760 प्रग्रहः भक्तों द्वारा समर्पित किये हुए पुष्पादि या पूजा को भली प्रकार ग्रहण करने वाले हैं
761 निग्रहः अपने अधीन करके सबका निग्रह करते हैं, जो दुष्टों का संहार करने वाले हैं
762 व्यग्रः जिनका नाश नहीं होता, जो भक्तों के प्रति तत्पर रहते हैं
763 नैकशृंगः चार सींगवाले हैं
764 गदाग्रजः मंत्र से पहले ही प्रकट होते हैं
चतुर्मूर्तिश्चतुर्बाहुश्चतुर्व्यूहश्चतुर्गतिः ।
चतुरात्मा चतुर्भावश्चतुर्वेदविदेकपात् ॥ ८२ ॥
765 चतुर्मूर्तिः जिनकी चार मूर्तियां हैं, जो चार मूर्तिरूप ( विराट , हिरण्यगर्भ , तुरीय, ब्रह्म ) हैं
766 चतुर्बाहुः जिनकी चार भुजाएं हैं, जो चार भुजाओं में शंख , चक्र , गदा , पद्म धारण किये हैं
767 चतुर्व्यूहः जिनके चार व्यूह ( शरीर पुरुष , छंद पुरुष , वेद पुरुष व महापुरुष ) हैं
768 चतुर्गतिः जिनके चार आश्रम, चार वर्णों और चारों वेदों ( साम , अथर्व , यजुर , ऋग ) की गति है
769 चतुरात्मा जिनका मन चतुर है,जो चार अन्तः करण वाले हैं अर्थात जिनके(मन ,बुद्धि ,अहंकार,चित्त)राग द्वेष से रहित हैं
770 चतुर्भावः जिनसे धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष पैदा होते हैं,जो चार अवस्थाओं ब्रह्मचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ,संन्यास)में निमग्न हैं
771 चतुर्वेदविद् चारों वेदों को जानने वाले
772 एकपात् जिनका एक पाद है, जो जगत रुपी एक पैर वाले हैं
समावर्तोऽनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ॥ ८३ ॥
773 समावर्तः संसार चक्र को भली प्रकार घुमाने वाले हैं, जो सृष्टि क्रम को चलाने वाले है
774 निवृत्तात्मा जिनका मन विषयों से निवृत्त है, जो विषयों से परे हैं
775 दुर्जयः जो किसी से जीते नहीं जा सकते
776 दुरतिक्रमः जिनकी आज्ञा का उल्लंघन सूर्यादि भी नहीं कर सकते , जिनको भेद पाना दुर्लभ है
777 दुर्लभः दुर्लभ भक्ति से प्राप्त होने वाले हैं, जो कठिन भक्ति से ही मिल पाते हैं
778 दुर्गमः कठिनता से जाने जाते हैं
779 दुर्गः कई विघ्नों से आहत हुए पुरुषों द्वारा और विघ्नों को दूर करने पर भी जो कठिनता से प्राप्त हो पाते हैं
780 दुरावासः जिन्हे बड़ी कठिनता से चित्त में बसाया जाता है, जो ह्रदय में कठिनता से व्यापते हैं
781 दुरारिहा दुष्ट मार्ग में चलने वालों को और दुष्प्रवृत्ति वाले लोगों का का विनाश करने वाले हैं
शुभाङ्गो लोकसारङ्गः सुतन्तुस्तन्तुवर्धनः ।
इन्द्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ॥ ८४ ॥
782 शुभांगः जो शुभ अंगों वाले हैं
783 लोकसारंगः लोकों के सार हैं
784 सुतन्तुः जिनका तंतु ( माया, प्रपंच ) – यह विस्तृत जगत सुन्दर हैं
785 तन्तुवर्धनः उसी तंतु ( माया, प्रपंच ) की वृद्धि करने वाले हैं
786 इन्द्रकर्मा जिनका कर्म इंद्र के कर्म के समान ही है
787 महाकर्मा जिनके कर्म महान हैं
788 कृतकर्मा जिन्होंने धर्म रूप कर्म किया है
789 कृतागमः जिन्होंने वेदरूप आगम बनाया है
उद्भवः सुन्दरः सुन्दो रत्ननाभः सुलोचनः ।
अर्को वाजसनः शृङ्गी जयन्तः सर्वविज्जयी ॥ ८५ ॥
790 उद्भवः जिनका जन्म नहीं होता,आविर्भाव या अवतरण होता है,जो प्रकट होते हैं, जो सृष्टि की उत्पत्ति के कारण हैं
791 सुन्दरः विश्व से बढ़कर सौभाग्यशाली हैं , जो शोभनीय हैं , अति सुन्दर
792 सुन्दः शुभ उंदन (आर्द्रभाव) करते हैं, जो करुणाकर हैं
793 रत्ननाभः जिनकी नाभि रत्न के समान सुन्दर है
794 सुलोचनः जिनके लोचन ( नेत्र ) सुन्दर हैं
795 अर्कः ब्रह्मा आदि पूजनीयों के भी पूजनीय हैं
796 वाजसनः याचकों को वाज (अन्न) देते हैं
797 शृंगी प्रलय समुद्र में सींगवाले मत्स्यविशेष का रूप ले कर पृथ्वी को धारण किया था
798 जयन्तः शत्रुओं को अतिशय से जीतने वाले हैं, जो विजयशील हैं
799 सर्वविज्जयी जो सर्ववित हैं और जयी हैं , जो सबको जीतने वाले हैं
सुवर्णबिन्दुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।
महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधिः ॥ ८६ ॥
800 सुवर्णबिन्दुः जिनके अवयव ( अंग ) सुवर्ण के समान हैं
801 अक्षोभ्यः जो राग द्वेषादि विषय विकारोंऔर देवशत्रुओं से क्षोभित नहीं होते
802 सर्ववागीश्वरेश्वरः ब्रह्मादि समस्त वागीश्वरों के भी इश्वर हैं
803 महाहृदः एक बड़े सरोवर समान हैं, जो महान तीर्थ रूप हैं
804 महागर्तः जिनकी माया गर्त (गड्ढे) के समान दुस्तर है
805 महाभूतः तीनों काल से अनवच्छिन्न (विभाग रहित) स्वरुप हैं,जो जीवों में सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण रूप हैं
806 महानिधिः जो महान हैं और निधि भी हैं, जो श्रेष्ठ सम्पत्तिवान हैं
कुमुदः कुन्दरः कुन्दः पर्जन्यः पावनोऽनिलः ।
अमृतांशोऽमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ॥ ८७ ॥
807 कुमुदः कु (पृथ्वी) को उसका भार उतारते हुए उसे मुदित ( आनंदित ) करते हैं
808 कुन्दरः कुंद या कुंदरू पुष्प के समान शुद्ध या श्रेष्ठ फल देते हैं
809 कुन्दः कुंद के समान सुन्दर अंगवाले हैं, जो कुंद मालाधारी हैं
810 पर्जन्यः पर्जन्य (मेघ) के समान कामनाओं को वर्षा करने वाले और तापनाशक हैं
811 पावनः स्मरणमात्र से पवित्र करने वाले हैं
812 अनिलः जो इल (प्रेरणा करने वाला)से रहित हैं,जिसे किसी प्रेरणा की कोई आवश्यकता नहीं,वायु के समान वेग वाले
813 अमृतांशः अमृत का भोग या पान करने वाले हैं
814 अमृतवपुः जिनका शरीर मरण से रहित है, जो अमर हैं
815 सर्वज्ञः जो सब कुछ जानते हैं
816 सर्वतोमुखः सब ओर नेत्र, शिर और मुख वाले हैं
सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।
न्यग्रोधोऽदुम्बरोऽश्वत्थश्चाणूरान्ध्रनिषूदनः ॥ ८८ ॥
817 सुलभः केवल समर्पित भक्ति से सुखपूर्वक मिल जाने वाले हैं
818 सुव्रतः जो सुन्दर व्रत(भोजन) करते हैं, श्रेष्ठ व्रतधारी
819 सिद्धः जिनकी सिद्धि दूसरे के अधीन नहीं है, जो सिद्ध रूप हैं
820 शत्रुजित् देवताओं के शत्रुओं को जीतने वाले,जिन्होंने षड्विकारों (काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद,मात्सर्य) को जीत लिया है
821 शत्रुतापनः देवताओं के शत्रुओं को तपानेवाले हैं
822 न्यग्रोधः जो नीचे की ओर उगते हैं और सबके ऊपर विराजमान हैं
823 उदुम्बरः अम्बर से भी ऊपर हैं
824 अश्वत्थः श्व अर्थात कल भी रहनेवाला नहीं है, पीपल स्वरुप
825 चाणूरान्ध्रनिषूदनः चाणूर नामक अन्ध्र जाति के वीर को मारने वाले हैं
सहस्रर्चिः सप्तजिह्वः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।
अमूर्तिरनधोऽचिन्त्यो भयकृद्भयनाशनः ॥ ८९ ॥
826 सहस्रार्चिः जिनकी सहस्र अर्चियाँ (किरणें) हैं
827 सप्तजिह्वः उनकी अग्निरूपी सात जिह्वाएँ (काली,कराली,मनोजवा,सुलोहिता,सुधूम्रवर्ण,स्फुर्लिंगिनी,विश्वरूचि)हैं
828 सप्तैधाः जिनकी सात ऐधाएँ हैं अर्थात दीप्तियाँ या समिधाएं हैं
829 सप्तवाहनः सात घोड़े(सूर्य की सात किरणें)जिनके वाहन हैं
830 अमूर्तिः जो मूर्तिहीन हैं , जो निराकार हैं
831 अनघः जिनमें अघ (दुःख) या पाप नहीं है , पापरहित हैं
832 अचिन्त्यः सब प्रमाणों के अविषय हैं, जो चिंतन से भी परे के विषय हैं
833 भयकृत् भक्तों का भय काटने वाले हैं, जो दुष्टों के लिए भय रूप हैं
834 भयनाशनः धर्म का पालन करने वालों और भक्तजनो का भय नष्ट करने वाले हैं
अणुर्बृहत्कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ॥ ९० ॥
835 अणुः जो अत्यंत सूक्ष्म हैं
836 बृहत् जो महान से भी अत्यंत महान हैं, जो वर्धमान हैं अर्थात वृद्धि को प्राप्त होने वाले हैं
837 कृशः जो अस्थूल हैं, जो कृश रूप हैं
838 स्थूलः जो सर्वात्मक हैं, जो अविद्या आदि में स्थूल रूप हैं
839 गुणभृत् जो सत्व, रज और तम गुणों के अधिष्ठाता हैं
840 निर्गुणः जो गुणधर्म से रहित हैं , जो सतोगुण आदि से परे हैं
841 महान् जो अंग, शब्द, शरीर और स्पर्श से रहित हैं और महान हैं, जो सबके द्वारा पूजित हैं
842 अधृतः जो किसी से भी धारण नहीं किये जाते
843 स्वधृतः जो स्वयं अपने आपसे ही धारण किये जाते हैं
844 स्वास्यः जिनका ताम्रवर्ण मुख अत्यंत सुन्दर है, जो वेद रुपी श्वास से शोभित मुख वाले हैं
845 प्राग्वंशः जिनका वंश सबसे पहले हुआ है, जिनकी प्रथम उत्पत्ति हुई है
846 वंशवर्धनः अपने वंशरूप प्रपंच को बढ़ाने अथवा नष्ट करने वाले हैं
भारभृत् कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ॥ ९१ ॥
847 भारभृत् अनंतादिरूप ( शेष नागावतार) से पृथ्वी का भार उठाने वाले हैं
848 कथितः सम्पूर्ण वेदों में जिनका कथन है, जो सर्वश्रेष्ठ कहे गए हैं
849 योगी जो योग विद्या में पारंगत हैं
850 योगीशः जो योगियों के भी ईश्वर( स्वामी ) हैं
851 सर्वकामदः जो सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाले हैं
852 आश्रमः जो संसार रुपी जंगल में भ्रमण करने वाले जीवों के लिए आश्रम के समान हैं
853 श्रमणः जो समस्त अविवेकियों और भक्त विरोधियों को को दुःख देने वाले हैं
854 क्षामः जो कल्प के अंत में सम्पूर्ण प्रजा ( सृष्टि जीवों )को क्षाम अर्थात क्षीण ( स्वयं में लीन )कर लेते हैं
855 सुपर्णः जो संसारवृक्षरूप हैं और जिनके छंद रूप सुन्दर पत्ते हैं, जो वेदरूपी श्रेष्ठ पत्तों के समान हैं
856 वायुवाहनः जिनके भय से वायु चलती है, जो वायु के भी प्रेरक हैं
धनुर्धरो धर्नुवेदो दण्डो दमयिता दमः ।
अपराजितः सर्वसहो नियन्ताऽनियमोऽयमः ॥ ९२ ॥
857 धनुर्धरः जिन्होंने राम के रूप में महान धनुष धारण किया था
858 धनुर्वेदः जो दशरथकुमार धनुर्वेद जानते हैं
859 दण्डः जो दमन करनेवालों के लिए दंड हैं , जो दंड देने वाले हैं
860 दमयिता जो यम और राजा के रूप में प्रजा का दमन करते हैं
861 दमः दण्डकार्य और उसका फल दम, जो दम रूप हैं
862 अपराजितः जो शत्रुओं से पराजित नहीं होते
863 सर्वसहः समस्त कर्मों में समर्थ हैं, जो सबको सहने वाले हैं
864 नियन्ता सबको अपने अपने कार्य में नियुक्त करते हैं , जो सृष्टि के नियमनकर्ता हैं
865 अनियमः जिनके लिए कोई नियम नहीं है, जो नियम आदि से आबद्ध नहीं हैं
866 अयमः जिनके लिए कोई यम अर्थात मृत्यु नहीं है, जो अविनाशी हैं या मृत्यु धर्म से रहित हैं
सत्त्ववान् सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।
अभिप्रायः प्रियार्होऽर्हः प्रियकृत् प्रीतिवर्धनः ॥ ९३ ॥
867 सत्त्ववान् जिनमें शूरता-पराक्रम आदि सत्व हैं
868 सात्त्विकः जिनमें सत्वगुण प्रधानता से स्थित है, जो शुद्ध सात्विक रूप हैं
869 सत्यः जो सत्य स्वरुप हैं
870 सत्यधर्मपरायणः जो सत्य हैं और धर्मपरायण भी हैं , जो सत्य धर्म में तत्पर रहने वाले हैं
871 अभिप्रायः प्रलय के समय संसार जिनके सम्मुख जाता है जो पुरुषार्थ की कामना वालों द्वारा अभिलिषित हैं
872 प्रियार्हः जो प्रिय ईष्ट वस्तु निवेदन करने योग्य है
873 अर्हः जो पूजा के साधनों से पूजनीय हैं, जो पूजने के योग्य हैं
874 प्रियकृत् जो स्तुतिआदि के द्वारा भजने वालों का प्रिय करते हैं, जो भक्तो के लिए सुखकारी हैं
875 प्रीतिवर्धनः जो भजने वालों की प्रीति भी बढ़ाते हैं, जो अपने प्रति भक्तों का प्रेम वर्धन करने वाले हैं
विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग्विभुः ।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ॥ ९४ ॥
876 विहायसगतिः जिनकी गति अर्थात आश्रय आकाश है, जिनकी आकाश में गमन करने की शक्ति हैं
877 ज्योतिः जो स्वयं ही प्रकाशित होते हैं, जो ज्योति स्वरुप हैं
878 सुरुचिः जिनकी रुचि सुन्दर है, जो कांति युक्त हैं
879 हुतभुक् जो अग्नि रूप से यज्ञ की आहुतियों को भोगते हैं
880 विभुः जो सर्वत्र विराजमान हैं और तीनों लोकों के प्रभु हैं, जो सर्व व्यापक हैं
881 रविः जो शृंगारादि रसों को ग्रहण करते हैं
882 विरोचनः जो विविध प्रकार या विशेष प्रकार से सुशोभित होते हैं
883 सूर्यः जो श्री(शोभा) को जन्म देते हैं, जो आकाश चारी सूर्य रूप हैं
884 सविता सम्पूर्ण जगत की (उत्पत्ति) करने वाले हैं या जगतोत्पत्ति के कारणरूप हैं
885 रविलोचनः रवि या सूर्यदेव जिनका लोचन अर्थात नेत्र रूप हैं
अनन्तो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकाधिष्ठानमद्भुतः ॥ ९५ ॥
886 अनन्तः जिनमें नित्य,सर्वगत और देशकालपरिच्छेद का अभाव है, जो विभूतियों से व्याप्त हैं
887 हुतभुक् जो हवन में आहुति रूप से प्राप्य पदार्थो को भोगने वाले या सेवन करने वाले हैं
888 भोक्ता जो जगत का पालन करते हैं, जो खाद्य पदार्थो का सेवन करने वाले हैं
889 सुखदः जो भक्तों को मोक्षरूप सुख देते हैं, सुख दाता हैं
890 नैकजः जो धर्मरक्षा के लिए बारबार जन्म लेते हैं , जो भक्तों से सुशोभित हैं
891 अग्रजः जो सबसे आगे ( पहले )उत्पन्न होता है, हिरण्यगर्भ रूप से जो सृष्टि में प्रथम आये
892 अनिर्विण्णः जिन्हें सर्वकामनाएँ प्राप्त होने के कारण अप्राप्ति का खेद नहीं है
893 सदामर्षी साधुओं और सहृदय लोगो को के लिए क्षमा शील हैं
894 लोकाधिष्ठानम् जिनके आश्रय से तीनों लोक स्थित हैं, जो तीनों लोकों के अधिष्ठाता हैं
895 अद्भुतः जो अपने स्वरुप, शक्ति, व्यापार और कार्य में अद्भुत है
सनात्सनातनतमः कपिलः कपिरप्ययः ।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत्स्वस्ति स्वस्तिभुक्स्वस्तिदक्षिणः ॥ ९६ ॥
896 सनात् काल भी जिनका एक विकल्प ही है, सृष्टि में जो सनातन काल से व्याप्त हैं
897 सनातनतमः जो ब्रह्मादि से भी अत्यंत सनातन हैं, ब्रह्मादि देवताओं के भी आदि कारण हैं
898 कपिलः जो देवहूति के पुत्र कपिल मुनि के रूप में जन्म लेने वाले हैं
899 कपिः जो सूर्यरूप में जल को अपनी किरणों से पीते हैं
900 अप्ययः प्रलयकाल में जगत में विलीन होते हैं, जो अविनाशी हैं
901 स्वस्तिदः भक्तों को स्वस्ति अर्थात मंगल देते हैं, जो कल्याण रूप हैं
902 स्वस्तिकृत् जो स्वस्ति ( मंगल )ही करते हैं
903 स्वस्ति जो परमानन्दस्वरूप हैं
904 स्वस्तिभुक् जो स्वस्ति भोगते हैं और भक्तों की स्वस्ति की रक्षा करते हैं, जो सहृदजनो के पालनकर्ता हैं
905 स्वस्तिदक्षिणः जो स्वस्ति करने में समर्थ हैं, जो शीघ्र कल्याण करने वाले हैं
अरौद्रः कुण्डली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।
शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ॥ ९७ ॥
906 अरौद्रः कर्म, राग और कोप जिनमे ये तीनों रौद्र नहीं हैं, जो अरौद्र रूप हैं
907 कुण्डली सूर्यमण्डल के समान कुण्डल धारण किये हुए हैं, जो कुंडली के धारण करता हैं
908 चक्री सम्पूर्ण लोकों की रक्षा के लिए मनस्तत्त्वरूप सुदर्शन चक्र धारण किया है
909 विक्रमी जिनका डग तथा शूरवीरता समस्त पुरुषों से विलक्षण है, जो पराक्रमी हैं
910 ऊर्जितशासनः जिनका श्रुति-स्मृतिस्वरूप शासन अत्यंत उत्कृष्ट है
911 शब्दातिगः जो शब्द से कहे नहीं कहे जा सकते
912 शब्दसहः समस्त वेद तात्पर्यरूप से जिनका वर्णन करते हैं
913 शिशिरः जो तापत्रय से तपे हुओं के लिए विश्राम का स्थान हैं, सृष्टि के सन्तापनाशक हैं
914 शर्वरीकरः ज्ञानी-अज्ञानी दोनों की शर्वरीयों (रात्रि) के करने वाले हैं, मुक्ति और भोग पदार्थो के प्रदाता हैं
अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणांवरः ।
विद्धत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ॥ ९८ ॥
915 अक्रूरः जिनमे क्रूरता नहीं है, जो सहज प्रकृति के हैं
916 पेशलः जो कर्म, मन, वाणी और शरीर से सुन्दर हैं
917 दक्षः बढ़ा-चढ़ा,शक्तिमान तथा शीघ्र कार्य करने वाला ये तीनों दक्ष जिनमे है, जो कार्य करने में कुशल हैं
918 दक्षिणः जो सहृदय हैं
919 क्षमिणांवरः जो क्षमा करने वाले योगियों आदि में श्रेष्ठ हैं, क्षमावानों में जो श्रेष्ठ हैं
920 विद्वत्तमः जिन्हे सब प्रकार का ज्ञान है और किसी को नहीं है , विद्वानों में जो श्रेष्ठ हैं
921 वीतभयः जिनका संसारिकरूप भय बीत(निवृत्त हो) गया है, जो भय रहित हैं
922 पुण्यश्रवणकीर्तनः जिनका श्रवण और कीर्तन पुण्यकारक है,जो नाम सुमिरन और गुणगान से पुण्य वृद्धि करने वाले हैं
उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः ।
वीरहा रक्षणः सन्तो जीवनः पर्यवस्थितः ॥ ९९ ॥
923 उत्तारणः संसार सागर से पार उतारने वाले हैं, जो मुक्तिदाता हैं
924 दुष्कृतिहा पापनाम की दुष्क्रितयों का हनन करने वाले हैं, जो दुष्टों का विनाश करने वाले हैं
925 पुण्यः अपनी स्मृतिरूप वाणी से सबको पुण्य का उपदेश देने वाले हैं
926 दुःस्वप्ननाशनः दुःस्वप्नों को नष्ट करने वाले हैं
927 वीरहा संसारियों को मुक्ति देकर उनकी गतियों का हनन करने वाले हैं
928 रक्षणः तीनों लोकों की रक्षा करने वाले हैं, जो भक्तों के रक्षक हैं
929 सन्तः सन्मार्ग पर चलने वाले संतरूप हैं
930 जीवनः प्राणरूप से समस्त प्रजा को जीवित रखने वाले हैं, जो जीवन दाता हैं
931 पर्यवस्थितः विश्व को सब ओर से व्याप्त करके स्थित है, जो सृष्टि में सर्वत्र व्याप्त हैं
अनन्तरूपोऽनन्तश्रीर्जितमन्युर्भयापहः ।
चतुरश्रो गभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ॥ १०० ॥
932 अनन्तरूपः जिनके रूप अनंत हैं, जो अनेक रूपों से सृष्टि में व्याप्त हैं
933 अनन्तश्रीः जिनकी श्री अपरिमित है , जो अपार संपत्ति से युक्त हैं
934 जितमन्युः जिन्होंने मन्यु (मन) को वशीभूत कर क्रोध आदि को जीता है
935 भयापहः पुरुषों का संस्कारजन्य भय नष्ट करने वाले हैं, भय को नष्ट करने वाले
936 चतुरश्रः न्याययुक्त , जो कर्मानुसार फल प्रदान करते हैं
937 गभीरात्मा जिनका मन गंभीर है , जो गंभीर स्वभाव वाले हैं
938 विदिशः जो विविध प्रकार के फल देते हैं, जो प्रिय भक्तों को फल प्रदान करते हैं
939 व्यादिशः इन्द्रादि को विविध प्रकार की आज्ञा देने वाले हैं
940 दिशः सबको उनके कर्मों का फल देने वाले हैं
अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मीः सुवीरो रुचिराङ्गदः ।
जननो जनजन्मादिर्भीमो भीमपराक्रमः ॥ १०१ ॥
941 अनादिः जिनका कोई आदि नहीं है
942 भूर्भूवः भूमि के भी आधार है
943 लक्ष्मीः पृथ्वी की लक्ष्मी अर्थात शोभा हैं
944 सुवीरः जो विविध प्रकार से सुन्दर स्फुरण करते हैं, जो श्रेष्ठ वीर हैं
945 रुचिरांगदः जिनकी अंगद(भुजबन्द) कल्याणस्वरूप हैं, सुन्दर बाजूबंद आदि के धारण करता
946 जननः जीवों को उत्पन्न करने वाले हैं
947 जनजन्मादिः जन्म लेनेवाले जीवों की उत्पत्ति के आदि कारण हैं
948 भीमः भय के कारण स्वरुप हैं, जो भीम रूप हैं
949 भीमपराक्रमः जिनका पराक्रम असुरों के भय का कारण होता है, जो भीषण पराक्रमी हैं
आधारनिलयोऽधाता पुष्पहासः प्रजागरः ।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ॥ १०२ ॥
950 आधारनिलयः जो पंचभूतों (पृथ्वी,आकाश,वायु,जल,अग्नि) के भी आधार हैं
951 अधाता जिनका कोई धाता(बनाने वाला) नहीं है, कोई आधार नहीं हैं
952 पुष्पहासः पुष्पों के हास (खिलने)के समान जिनका प्रपंचरूप से विकास होता है
953 प्रजागरः प्रकर्षरूप से जागने वाले हैं, जो सब विषयों के ज्ञाता हैं
954 ऊर्ध्वगः सबसे ऊपर हैं, जो वैकुण्ठ धाम में गमन करने वाले हैं
955 सत्पथाचारः जो स्वयं भी सत्य मार्ग या सत्पथ का अनुसरण करते हैं
956 प्राणदः जो मरे हुओं को जीवित कर सकते हैं, जो प्राण दाता हैं
957 प्रणवः जिनके वाचक ॐ कार का नाम प्रणव है, जो प्रणव स्वरुप हैं
958 पणः जो व्यवहार करने वाले हैं, जो भक्तों से व्यवहारशील हैं
प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत्प्राणजीवनः ।
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्युजरातिगः ॥ १०३ ॥
959 प्रमाणम् जो स्वयं प्रमाणरूप हैं, जो साक्षीरूप हैं
960 प्राणनिलयः जिनमे प्राण अर्थात इन्द्रियां लीन होती है, जो जीवमात्र के प्राण रूप हैं
961 प्राणभृत् जो अन्नरूप से प्राणों का पोषण करते हैं, जगत के जीवों की प्राण रक्षा करते हैं
962 प्राणजीवनः प्राण नामक वायु से प्राणियों को जीवित रखते हैं , जो जीवो के जीवनधार हैं
963 तत्त्वम् तथ्य, अमृत, सत्य ये सब शब्द जिनके वाचक हैं , जो तत्त्व रूप हैं
964 तत्त्वविद् तत्व ( आत्म तत्त्व ) अर्थात स्वरुप को यथावत जानने वाले हैं
965 एकात्मा जो एक आत्मा हैं
966 जन्ममृत्युजरातिगः जो न जन्म लेते हैं न मरते हैं, जो जन्म , मृत्यु , ज़रा आदि विकारों से परे हैं
भूर्भुवःस्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञाङ्गो यज्ञवाहनः ॥ १०४ ॥
967 भूर्भुवःस्वस्तरुः भू,भुवः और स्वः जिनका सार है उनका होमादि करके प्रजा तरती है
968 तारः संसार सागर से तारने वाले हैं, जो भक्तों के उद्धार कर्ता हैं
969 सविताः सम्पूर्ण लोक के उत्पन्न करने वाले हैं, जो जीवों के पिता स्वरुप हैं
970 प्रपितामहः पितामह ब्रह्मा के भी पिता है
971 यज्ञः यज्ञरूप हैं
972 यज्ञपतिः यज्ञों के स्वामी हैं
973 यज्वा जो यजमान रूप से स्थित हैं, जो यज्ञकर्ता हैं
974 यज्ञांगः यज्ञ जिनके अंग हैं
975 यज्ञवाहनः फल हेतु यज्ञों का वहन करने वाले हैं, जो यज्ञों के फलदाता हैं
यज्ञभृद् यज्ञकृद् यज्ञी यज्ञभुग् यज्ञसाधनः ।
यज्ञान्तकृद् यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ॥ १०५ ॥
976 यज्ञभृद् यज्ञ को धारण कर उसकी रक्षा करने वाले हैं
977 यज्ञकृत् जगत के आरम्भ और अंत में यज्ञ करते हैं
978 यज्ञी अपने आराधनात्मक यज्ञों के शेषी हैं, यज्ञ कर्ताओं में जो मुख्य हैं
979 यज्ञभुक् यज्ञ को भोगने वाले हैं
980 यज्ञसाधनः यज्ञ जिनकी प्राप्ति का साधन है
981 यज्ञान्तकृत् यज्ञ के फल की प्राप्ति कराने वाले हैं
982 यज्ञगुह्यम् यज्ञ द्वारा प्राप्त होने वाले, यज्ञ में जिन्हें फलरूप से विद्वान ही जान पाते हैं
983 अन्नम् जो अनन्तस्वरूप हैं
984 अन्नादः अन्न को खाने वाले हैं, जो अन्न प्रदान कर्ता हैं
आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः ।
देवकीनन्दनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ॥ १०६ ॥
985 आत्मयोनिः आत्मा ही योनि है इसलिए वे आत्मयोनि है, जो आत्मरूप से सृष्टि के कारण रूप हैं
986 स्वयंजातः निमित्त कारण भी वही हैं
987 वैखानः जिन्होंने वराह रूप धारण करके पृथ्वी को खोदा था
988 सामगायनः सामगान करने वाले है, जो सामवेद के गायक हैं
989 देवकीनन्दनः देवकी के पुत्र
990 स्रष्टा सम्पूर्ण लोकों के रचयिता हैं
991 क्षितीशः क्षिति अर्थात पृथ्वी के ईश (स्वामी) हैं
992 पापनाशनः पापों का नाश करने वाले हैं
शङ्खभृन्नन्दकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ।
रथाङ्गपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ॥ १०७ ॥
993 शंखभृत् जिन्होंने पांचजन्य नामक शंख धारण किया हुआ है
994 नन्दकी जो नन्दक नामक तलवार धारण करते हैं
995 चक्री जिनकी आज्ञा से संसारचक्र चल रहा है
996 शार्ङ्गधन्वा जिन्होंने शारंग नामक धनुष धारण किया है
997 गदाधरः जिन्होंने कौमोदकी नामक गदा धारण किया हुआ है
998 रथांगपाणिः जिनके हाथ में रथांग अर्थात चक्र है
999 अक्षोभ्यः जिन्हे क्षोभित नहीं किया जा सकता
1000 सर्वप्रहरणायुधः जो सभी आयुधों के धारण कर्ता हैं
वनमाली गदी शार्ङ्गी शङ्खी चक्री च नन्दकी ।
श्रीमान् नारायणो विष्णुर्वासुदेवोऽभिरक्षतु ॥ १०८ ॥
श्री वासुदेवोऽभिरक्षतु ॐ नम इति ।
हे भगवान् नारायण हमारी रक्षा कीजिये ,वही विष्णु भगवान् जिन्होंने वनमाला पहनी है ,जिन्होंने गदा, शंख, खडग और चक्र धारण किया हुआ है वही विष्णु हैं और वही वासुदेव हैं।
फल श्रुति
॥ उत्तरन्यासः ॥
भीष्म उवाच –
भीष्म बोले
इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः ।
नाम्नां सहस्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितम् ॥ १ ॥
इस प्रकार महात्मा केशव के कीर्तनीय एक हजार दिव्य नामों का इस स्तोत्र में गुणगान किया गया है।
य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत् ।
नाशुभं प्राप्नुयात्किंचित्सोऽमुत्रेह च मानवः ॥ २ ॥
जो भगवान विष्णु के हज़ार नामो को नित्य सुनता है या जो गुणगान करता है वह इस लोक में या परलोक में श्रेष्ठ फलों को भोगता है । उसे जीवन में और मृत्यु के बाद भी कभी अशुभता नहीं देखनी पड़ती
वेदान्तगो ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत् ।
वैश्यो धनसमृद्धः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात् ॥ ३ ॥
सहस्रनाम का श्रवण करने से ब्राह्मण वेदांत का जानने वाला , क्षत्रिय विजयी , वैश्य धन से संपन्न और शूद्र सुख पाता है।
धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात् ।
कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी प्राप्नुयात्प्रजाम् ॥ ४ ॥
सहस्रनाम का पाठ करने से धर्मार्थी धर्म प्राप्त करता है , अर्थार्थी अर्थ प्राप्त करता है , कामना वालों की कामना पूर्ती होती है , पुत्रार्थी पुत्र प्राप्त करता है तथा राजा इक्षुक प्रजा को प्राप्त करता है .
भक्तिमान् यः सदोत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः ।
सहस्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत् ॥ ५ ॥
जो भक्तिमान पुरुष सदा उठकर पवित्र और तद्गत चित्त से भगवान वासुदेव के इस सहस्रनाम का कीर्तन करता है ।
यशः प्राप्नोति विपुलं ज्ञातिप्राधान्यमेव च ।
अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयः प्राप्नोत्यनुत्तमम् ॥ ६ ॥
( जो विष्णु सहस्रनाम का नित्य पाठ करता है ) वो महान यश , जाति में प्रधानता , अचल लक्ष्मी , और मोक्ष प्राप्त करता है .
न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्यं तेजश्च विन्दति ।
भवत्यरोगो द्युतिमान्बलरूपगुणान्वितः ॥ ७ ॥
( जो विष्णु सहस्रनाम रोज पढता या सुनता है ) उसे कहीं भय नहीं होता, वह पराक्रम और तेज़ प्राप्त करता है तथा निरोग ( रोगरहित ), कांतिमान ( शोभायुक्त ) , बल , रूप और गुणों से संपन्न होता है ।
रोगार्तो मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्येत बन्धनात् ।
भयान्मुच्येत भीतस्तु मुच्येतापन्न आपदः ॥ ८ ॥
( विष्णु सहस्रनामम रोज सुनने या पाठ करने से ) रोगी रोग से , बंधा हुआ बंधन से , भयभीत भय से और आपत्तिग्रस्त आपत्ति से छूट जाता है।
दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम् ।
स्तुवन्नामसहस्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः ॥ ९ ॥
जो प्राणी भक्तिभाव से भगवान पुरुषोत्तम की सहस्रनामों से सदैव स्तुति करता है वह दुःखों से मुक्त हो जाता है ।
वासुदेवाश्रये मर्त्यो वासुदेवपरायणः ।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम् ॥ १० ॥
जो मनुष्य भगवान वासुदेव का शरणागत होकर उनमें आसक्ति रखता है वह पापमुक्त हो कर सनातन ब्रह्म को प्राप्त करता है ।
न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित् ।
जन्ममृत्युजराव्याधिभयं नैवोपजायते ॥ ११ ॥
वासुदेव के भक्तों का कहीं भी अशुभ नहीं होता तथा उन्हें जन्म , मृत्यु, ज़रा और रोगों का भी भय नहीं रहता ।
इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः ।
युज्येतात्मसुखक्षान्तिश्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः ॥ १२ ॥
जो श्रद्धा भक्ति से इस स्तोत्र का पाठ करता है वह आत्मसुख , शान्ति , लक्ष्मी , बुद्धि, स्मृति , कीर्ति वाला होता है ।
न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः ।
भवन्ति कृत पुण्यानां भक्तानां पुरुषोत्तमे ॥ १३ ॥
पुरुषोत्तम भगवान के पुण्यात्मा भक्तों को क्रोध , मात्सर्य ( दूसरों के गुण में दोष दृष्टि रखना), लोभ और अशुभ बुद्धि नहीं होती।
द्यौः सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः ।
वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानि महात्मनः ॥ १४ ॥
भगवान वासुदेव के बल पराक्रम से ही द्यु लोक ( स्वर्ग ), चन्द्रमा , सूर्य , नक्षत्र समूह , आकाश , दिशा , पृथ्वी , समुद्र स्थिर हैं ।
सुसुरासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसम् ।
जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरम् ॥ १५ ॥
देवता, राक्षस, गन्धर्व, किन्नर आदि चराचर जगत भगवान कृष्ण के वशीभूत हैं ।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्त्वं तेजो बलं धृतिः ।
वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञ एव च ॥ १६ ॥
पांच ज्ञानेन्द्रियाँ , पांच कर्मेन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , सत्व , तेज़ , बल , धृति , क्षेत्र , क्षेत्रज्ञ आदि सभी भगवन वासुदेव के ही रूप हैं ।
सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्पते ।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः ॥ १७ ॥
सब शास्त्रों में आचार ( शौच , स्नान , संध्या , वंदन आदि को ) सर्वोपरि कहा गया है क्यों कि आचार से धर्म और धर्म से भगवान अच्युत फल प्रदान करते हैं।
ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः ।
जङ्गमाजङ्गमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम् ॥ १८ ॥
ऋषि , पितर , देवता , महाभूत , धातु , जंगम , स्थावर जगत की उत्पत्ति भगवान् नारायण से ही है ।
योगो ज्ञानं तथा सांख्यं विद्याः शिल्पादि कर्म च ।
वेदाः शास्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्व जनार्दनात् ॥ १९ ॥
योग, ज्ञान , सांख्य , विद्या , शिल्पादि तथा कर्म , वेद , शास्त्र विज्ञान की उत्पत्ति भगवान् जनार्दन से ही हुई है।
एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकशः ।
त्रींल्लोकान्व्याप्य भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः ॥ २० ॥
भगवान् विष्णु ही जीवों की आत्मा , सृष्टि के भोगकर्ता व शाश्वत हैं। वह महत तत्त्व से उत्पन्न और अनेक जीवों , तीनों लोकों को रच कर उसका उपभोग करते हैं।
इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितम् ।
पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुं सुखानि च ॥ २१ ॥
भगवान् विष्णु के इस स्तोत्र की रचना महर्षि वेद व्यास ने की है। जो मनुष्य इसको श्रेय और सुख की प्राप्ति के लिए पढता है या पढ़ने की इच्छा मात्र करता है ।
विश्वेश्वरमजं देवं जगतः प्रभुमव्ययम् ।
भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवम् ॥ २२ ॥
न ते यान्ति पराभवम् ॐ नम इति ।
जो जीव विश्वेश्वर, अजन्मा और संसार की उत्पत्ति तथा उसके लय के स्थान देव देव पुण्डरीकाक्ष को भजते हैं उनका कभी पराभव नहीं होता अर्थात कभी दुःखों को प्राप्त नहीं होता ।
अर्जुन उवाच –
पद्मपत्रविशालाक्ष पद्मनाभ सुरोत्तम ।
भक्तानामनुरक्तानां त्राता भव जनार्दन ॥ २३ ॥
अर्जुन ने कहा – हे कमल के पत्तों जैसे विशाल नयन या आंखों वाले, हे नाभि में कमल वाले, सभी देवताओं में श्रेष्ठ, जन की रक्षा करने वाले , प्यार करने वाले भक्तों के रक्षक बनिये ।
श्रीभगवानुवाच –
यो मां नामसहस्रेण स्तोतुमिच्छति पाण्डव ।
सोहऽमेकेन श्लोकेन स्तुत एव न संशयः ॥ २४ ॥
भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा-हे पाण्डव (हे अर्जुन), जो मेरे सहस्रनाम से स्तोत्र या स्तुति करने की इच्छा रखता है, वह विष्णु , मैं एक श्लोक से ही स्तुत हो जाता हूँ । इस बात पर कोई शंका नहीं ।
व्यास उवाच –
वासनाद्वासुदेवस्य वासितं भुवनत्रयम् ।
सर्वभूतनिवासोऽसि वासुदेव नमोऽस्तु ते ॥ २५ ॥
श्री वासुदेव नमोऽस्तुत ॐ नम इति ।
तीनों लोकों का अस्तित्त्व अर्थात इनमें सर्वभूतों का (सजीव एवं निर्जीव ) वास, हे वसुदेवनन्दन वासुदेव ! आपके इन जीवों में वास के कारण है । आपको नमन है !
पार्वत्युवाच –
केनोपायेन लघुना विष्णोर्नामसहस्रकम् ।
पठ्यते पण्डितैर्नित्यं श्रोतुमिच्छाम्यहं प्रभो ॥ २६ ॥
पार्वती ने पुछा : स्वामी मैं आपसे वह साधन जानना चाहती हूँ जिसके द्वारा ग्यानी जान आसानी से प्रति दिन भगवान् विष्णु के हजार नाम का पाठ कर सके।
ईश्वर उवाच –
श्रीराम राम रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं राम नाम वरानने ॥२७ ॥
श्रीरामनाम वरानन ॐ नम इति ।
ईश्वर बोले ( शिव जी बोले )- हे पार्वती , यह *राम* नाम सभी आपदाओं को हरने वाला, सभी सम्पदाओं को देने वाला दाता है, सारे संसार को विश्राम/शान्ति प्रदान करने वाला है। इसीलिए मैं इसे बार बार प्रणाम करता हूँ। एक बार राम नाम का जाप, सम्पूर्ण विष्णु सहस्त्रनाम या विष्णु के 1000 नामों के जाप के समतुल्य है ( बराबर है )।
Vishnu Sahasranama Hindi Lyrics
ब्रह्मोवाच –
नमोऽस्त्वनन्ताय सहस्रमूर्तये
सहस्रपादक्षिशिरोरुबाहवे ।
सहस्रनाम्ने पुरुषाय शाश्वते
सहस्रकोटि युगधारिणे नमः ॥ २८ ॥
सहस्रकोटि युगधारिणे ॐ नम इति ।
ब्रह्मा जी बोले , ” सहस्रों रूप , सहस्रों सर , सहस्रों पैर, सहस्रों हाथ , सहस्रों नेत्र ,सहस्रों भुजाओं वाले अनंत प्रभु को मेरा नमस्कार है। उन सनातन शाश्वत पुरुष को नमस्कार है जिनके सहस्र नाम हैं और जिन्होंने इस सृष्टि को सहस्र कोटि युगों से धारण किया हुआ है।
सञ्जय उवाच –
यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः ।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ॥ २९ ॥
संजय बोले – जहाँ योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण हैं और जहाँ गाण्डीवधनुषधारी अर्जुन हैं, वहाँ ही श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है – ऐसा मेरा मत है।
****************
श्रीभगवानुवाच –
अनन्यश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥ ३० ॥
जो अनन्य भक्त मेरा चिन्तन करते हुए मेरी उपासना करते हैं, मुझ में निरन्तर लगे हुए उन भक्तों का योगक्षेम (अप्राप्तकी प्राप्ति और प्राप्त की रक्षा) मैं वहन करता हूँ।
आर्ताः विषण्णाः शिथिलाश्च भीताः
घोरेषु च व्याधिषु वर्तमानाः ।
संकीर्त्य नारायणशब्दमात्रं
विमुक्तदुःखाः सुखिनो भवन्तु ॥ ३२ ॥
जो लोगआपदाओं से घिरे हुए हैं , जो हताश , निराश, परेशान और दुखी हैं , जो भयभीत हैं , जो भयंकर रोगों से ग्रस्त हैं , वे लोग भगवान् विष्णु के नारायण नाम उच्चारण या जाप करने से अपने कष्टों से मुक्त हो जाते हैं और प्रसन्न हो जाते हैं।
कायेन वाचा मनसेंद्रियैर्वा
बुद्ध्यात्मना वा प्रकृतिस्वभावात् ।
करोमि यद्यत् सकलं परस्मै
नारायणायेति समर्पयामि ॥ ३३ ॥
हे नारायण ! मेरे शरीर, मन, वचन, इन्द्रिय, बुद्धि और आत्मा से सोच समझकर या अज्ञानतावश (अपनी प्रकृति अनुरूप) जो भी हो रहा है, वो मैं सर्वस्व आपके श्री चरणोंमें समर्पित करता हूं !
॥ इति श्रीविष्णोर्दिव्यसहस्रनामस्तोत्रं संपूर्णम् ॥
॥ ॐ तत् सत् ॥
Vishnu Sahasranama Hindi Lyrics
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