Bhagwad Gita Chapter 12

 

 

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BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12 | भक्तियोग ~ अध्याय बारह

अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग

 

13 – 20  भगवत्‌-प्राप्त पुरुषों के लक्षण

 

 

Bhagavad Gita chapter 12ये तु धर्म्यामृतमिदं यथोक्तं पर्युपासते।

श्रद्धाना मत्परमा भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः॥12.20॥

 

 

ये-जो; तु-लेकिन; धर्म-बुद्धिरूपी; अमृतम्-अमृता; इदम्-इस; यथा-जिस प्रकार से; उक्तम्-कहा गया; पर्युपासते-अनन्य भक्ति; श्रद्धाना:-श्रद्धा के साथ; मत्परमा:-मुझ परमात्मा को परम लक्ष्य मानते हुए; भक्ताः-भक्तजन; ते-वे; अतीव-अत्यधिक; मे-मेरे; प्रिया:-प्रिय।।

 

 

परन्तु जो श्रद्धायुक्त मनुष्य मेरे परायण होकर इस ऊपर कहे हुए धर्ममय अमृत को निष्काम प्रेमभाव से सेवन करते हैं अर्थात इस अमृत रूपी ज्ञान का आदर करते हैं और मुझमें विश्वास करते हैं तथा निष्ठापूर्वक मुझे अपना परम लक्ष्य मानकर मुझ पर समर्पित होते हैं, वे भक्त मुझको अतिशय प्रिय हैं॥12.20॥

(वेद, शास्त्र, महात्मा और गुरुजनों के तथा परमेश्वर के वचनों में प्रत्यक्ष के सदृश विश्वास का नाम ‘श्रद्धा’ है)

 

ये तु – यहाँ ये पद से भगवान ने उन साधक भक्तों का संकेत किया है जिनके विषय में अर्जुन ने पहले श्लोक में प्रश्न करते हुए ये पद का प्रयोग किया था। उसी प्रश्न के उत्तर में भगवान ने दूसरे श्लोक में सगुण की उपासना करने वाले साधकों को अपने मत में (ये और ते पदों से ) ‘युक्ततमाः’ बताया था। फिर उसी सगुण-उपासना के साधन बताये और फिर सिद्ध भक्तों के लक्षण बताकर अब उसी प्रसङ्ग का उपसंहार करते हैं। यहाँ ये पद उन परम श्रद्धालु भगवत्परायण साधकों के लिये आया है। जो सिद्ध भक्तों के लक्षणों को आदर्श मानकर साधन करते हैं। ‘तु’ पद का प्रयोग प्रकरण को अलग करने के लिये किया जाता है। यहाँ सिद्ध भक्तों के प्रकरण से साधक भक्तों के प्रकरण को अलग करने के लिये ‘तु’ पद का प्रयोग हुआ है। इस पद से ऐसा प्रतीत होता है कि सिद्ध भक्तों की अपेक्षा साधक भक्त भगवान को विशेष प्रिय हैं। श्रद्दधानाः – भगवत्प्राप्ति हो जाने के कारण सिद्ध भक्तों के लक्षणों में श्रद्धा की बात नहीं आयी क्योंकि जब तक नित्यप्राप्त भगवान का अनुभव नहीं होता तभी तक श्रद्धा की जरूरत रहती है। अतः इस पद को श्रद्धालु साधक भक्तों का ही वाचक मानना चाहिये। ऐसे श्रद्धालु भक्त भगवान के धर्ममय अमृतरूप उपदेश को (जो भगवान ने 13वें से 19वें श्लोक तक कहा है) भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से अपने में उतारने की चेष्टा किया करते हैं। यद्यपि भक्ति के साधन में श्रद्धा और प्रेम का तथा ज्ञान के साधन में विवेक का महत्त्व होता है तथापि इससे यह नहीं समझना चाहिये कि भक्ति के साधन में विवेक का और ज्ञान के साधन में श्रद्धा का महत्त्व नहीं है। वास्तव में श्रद्धा और विवेक की सभी साधनों में बड़ी आवश्यकता है। विवेक होने से भक्तिसाधन में तेजी आती है। इसी प्रकार शास्त्रों में तथा परमात्मतत्त्व में श्रद्धा होने से ही ज्ञानसाधन का पालन हो सकता है। इसलिये भक्ति और ज्ञान दोनों ही साधनों में श्रद्धा और विवेक सहायक हैं। मत्परमाः – साधक भक्तों का सिद्ध भक्तों में अत्यन्त पूज्यभाव होता है। उनकी सिद्ध भक्तों के गुणों में श्रेष्ठ बुद्धि होती है। अतः वे उन गुणों को आदर्श मानकर आदरपूर्वक उनका अनुसरण करने के लिये भगवान के परायण होते हैं। इस प्रकार भगवान का चिन्तन करने से और भगवान पर ही निर्भर रहने से वे सब गुण उनमें स्वतः आ जाते हैं। भगवान ने ग्यारहवें अध्याय के 55वें श्लोक में ‘मत्परमः’ पद से और इसी (बारहवें ) अध्याय के छठे श्लोक में ‘मत्पराः’ पद से अपने परायण होने की बात विशेषरूप से कह कर अन्त में पुनः उसी बात को इस श्लोक में ‘मत्परमाः’ पद से कहा है। इससे सिद्ध होता है कि भक्तियोग में भगवत्परायणता मुख्य है। भगवत्परायण होने पर भगवत्कृपा से अपने आप साधन होता है और असाधन (साधन के विघ्नों ) का नाश होता है। ‘धर्म्यामृतमिदं यथोक्तम्’ – सिद्ध भक्तोंके उनतालीस लक्षणोंके पाँचों प्रकरण धर्ममय अर्थात् धर्म से ओत-प्रोत हैं। उनमें किञ्चिन्मात्र भी अधर्म का अंश नहीं है। जिस साधन में साधन-विरोधी अंश सर्वथा नहीं होता? वह साधन अमृततुल्य होता है। पहले कहे हुए लक्षण समुदाय के धर्ममय होने से तथा उसमें साधन-विरोधी कोई बात न होने से ही उसे धर्म्यामृत संज्ञा दी गयी है। साधन में साधन-विरोधी कोई बात न होते हुए भी जैसा पहले कहा गया है ठीक वैसा का वैसा धर्ममय अमृत का सेवन तभी सम्भव है जब साधक का उद्देश्य किञ्चिन्मात्र भी धन , मान , बड़ाई , आदर , सत्कार , संग्रह , सुख-भोग आदि न होकर एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही हो। प्रत्येक प्रकरण में सब लक्षण धर्म्यामृत हैं। अतः साधक जिस प्रकरण के लक्षणों को आदर्श मानकर साधन करता है उसके लिये वही धर्म्यामृत है। धर्म्यामृत के जो अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः ৷৷. आदि लक्षण बताये गये हैं , वे आंशिकरूप से साधकमात्र में रहते हैं और इनके साथ-साथ कुछ दुर्गुण-दुराचार भी रहते हैं। प्रत्येक प्राणी में गुण और अवगुण दोनों ही रहते हैं फिर भी अवगुणों का तो सर्वथा त्याग हो सकता है पर गुणों का सर्वथा त्याग नहीं हो सकता। कारण कि साधन और स्वभाव के अनुसार सिद्ध पुरुष में गुणों का तारतम्य तो रहता है परन्तु उनमें गुणों की कमीरूप अवगुण किञ्चिन्मात्र भी नहीं रहता। गुणों में न्यूनाधिकता रहने से उनके पाँच विभाग किये गये हैं परन्तु अवगुण सर्वथा त्याज्य हैं । अतः उनका विभाग हो ही नहीं सकता। साधक सत्सङ्ग तो करता है पर साथ ही साथ कुसङ्ग भी होता रहता है। वह संयम तो करता है पर साथ ही साथ असंयम भी होता रहता है। वह साधन तो करता है पर साथ ही साथ असाधन भी होता रहता है। जब तक साधन के साथ असाधन अथवा गुणों के साथ अवगुण रहते हैं तब तक साधक की साधना पूर्ण नहीं होती। कारण कि असाधन के साथ साधन अथवा अवगुणों के साथ गुण उनमें भी पाये जाते हैं जो साधक नहीं है। इसके सिवाय जब तक साधन के साथ असाधन अथवा गुणों के साथ अवगुण रहते हैं तब तक साधक में अपने साधन अथवा गुणों का अभिमान रहता है जो आसुरी सम्पत्ति का आधार है। इसलिये धर्म्यामृत का यथोक्त सेवन करने के लिये कहा गया है। तात्पर्य यह है कि इसका ठीक वैसा ही पालन होना चाहिये जैसा वर्णन किया गया है। अगर धर्म्यामृत के सेवन में दोष (असाधन ) भी साथ रहेंगे तो भगवत्प्राप्ति नहीं होगी। अतः इस विषय में साधक को विशेष सावधान रहना चाहिये। यदि साधन में किसी कारणवश आंशिकरूप से कोई दोषमय वृत्ति उत्पन्न हो जाय तो उसकी अवहेलना न करके तत्परता से उसे हटाने की चेष्टा करनी चाहिये। चेष्टा करने पर भी न हटे तो व्याकुलतापूर्वक प्रभु से प्रार्थना करनी चाहिये। जितने सद्गुण , सदाचार , सद्भाव आदि हैं वे सब के सब सत् (परमात्मा ) के सम्बन्ध से ही होते हैं। इसी प्रकार दुर्गुण , दुराचार , दुर्भाव आदि सब असत के सम्बन्ध से ही होते हैं। दुराचारी से दुराचारी पुरुष में भी सद्गुण-सदाचार का सर्वथा अभाव नहीं होता क्योंकि सत् (परमात्मा )का अंश होने के कारण जीवमात्र का सत से  नित्यसिद्ध सम्बन्ध है। परमात्मा से सम्बन्ध रहने के कारण किसी न किसी अंश में उसमें सद्गुण-सदाचार रहेंगे ही। परमात्मा की प्राप्ति होने पर असत से सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है और दुर्गुण , दुराचार , दुर्भाव आदि सर्वथा नष्ट हो जाते हैं। सद्गुण , सदाचार , सद्भाव भगवान की सम्पत्ति है। इसलिये साधक जितना ही भगवान के सम्मुख अथवा भगवत्परायण होता जायगा उतने ही अंश में स्वतः सद्गुण , सदाचार , सद्भाव प्रकट होते जायँगे और दुर्गुण , दुराचार , दुर्भाव नष्ट होते जायँगे। राग-द्वेष , हर्ष-शोक , काम क्रोध आदि अन्तःकरण के विकार हैं धर्म नहीं (गीता 13। 6)। धर्मी के साथ धर्म का नित्य-सम्बन्ध रहता है। जैसे सूर्यरूप धर्मी के साथ उष्णतारूप धर्म का नित्य-सम्बन्ध रहता है जो कभी मिट नहीं सकता। अतः धर्मी के बिना धर्म तथा धर्म के बिना धर्मी नहीं रह सकता। काम-क्रोधादि विकार साधारण मनुष्य में भी हर समय नहीं रहते । साधन करने वाले में कम होते रहते हैं और सिद्ध पुरुष में तो सर्वथा ही नहीं रहते। यदि ये विकार अन्तःकरण के धर्म होते तो हर समय एकरूप से रहते और अन्तःकरण (धर्मी) के रहते हुए कभी नष्ट नहीं होते। अतः ये अन्तःकरण के धर्म नहीं बल्कि आगन्तुक (आने-जाने वाले ) विकार हैं। साधक जैसे-जैसे अपने एकमात्र लक्ष्य भगवान की ओर बढ़ता है वैसे ही वैसे राग-द्वेषादि विकार मिटते जाते हैं और भगवान को प्राप्त होने पर उन विकारों का अत्यन्ताभाव हो जाता है। गीता में जगह-जगह भगवान ने ‘तयोर्न वशमागच्छेत्’ (3। 34) ‘रागद्वेषवियुक्तैः’ (2। 64) ‘रागद्वेषौ व्युदस्य’ (18। 51) आदि पदों से साधकों को इन रागद्वेषादि विकारोंका सर्वथा त्याग करने के लिये कहा है। यदि ये (रागद्वेषादि) अन्तःकरण के धर्म होते तो अन्तःकरणके रहते हुए इनका त्याग असम्भव होता और असम्भव को सम्भव बनाने के लिये भगवान आज्ञा भी कैसे दे सकते थे ? गीता में सिद्ध महापुरुषों को राग-द्वेषादि विकारों से सर्वथा मुक्त बताया गया है। जैसे इसी अध्याय के तेरहवें श्लोक से 19वें श्लोक तक जगहजगह भगवान्ने सिद्ध भक्तोंको रागद्वेषादि विकारोंसे सर्वथा मुक्त बताया है। इसलिये भी ये विकार ही सिद्ध होते हैं अन्तःकरण के धर्म नहीं। असत से सर्वथा विमुख होने से उन सिद्ध महापुरुषों में ये विकार लेशमात्र भी नहीं रहते। यदि अन्तःकरण में ये विकार बने रहते तो फिर वे मुक्त किससे होते जिसमें ये विकार लेशमात्र भी नहीं हैं । ऐसे सिद्ध महापुरुष के अन्तःकरण के लक्षणों को आदर्श मानकर भगवत्प्राप्ति के लिये उनका अनुसरण करने के लिये भगवान ने उन लक्षणों को यहाँ ‘धर्म्यामृतम्’ के नाम से सम्बोधित किया है। पर्युपासते – साधक भक्तों की दृष्टि में भगवान के प्यारे सिद्ध भक्त अत्यन्त श्रद्धास्पद होते हैं। भगवान की तरफ स्वाभाविक आकर्षण (प्रियता) होने के कारण उनमें दैवी सम्पत्ति अर्थात् सद्गुण (भगवान के होने से ) स्वाभाविक ही आ जाते हैं। फिर भी साधकों का उन सिद्ध महापुरुषों के गुणों के प्रति स्वाभाविक आदरभाव होता है और वे उन गुणों को अपने में उतारने की चेष्टा करते हैं। यही साधक भक्तों द्वारा उन गुणों का अच्छी तरह से सेवन करना उनको अपनाना है। इसी अध्याय के तेरहवें से उन्नीसवें श्लोक तक सात श्लोकों में ‘धर्म्यामृत’ का जिस रूप में वर्णन किया गया है उसका ठीक उसी रूप में श्रद्धापूर्वक अच्छी तरह सेवन करने के अर्थ में यहाँ पर्युपासते पद प्रयुक्त हुआ है। अच्छी तरह सेवन करने का तात्पर्य यही है कि साधक में किञ्चिन्मात्र भी अवगुण नहीं रहने चाहिये। जैसे साधक में सम्पूर्ण प्राणियों के प्रति करुणा का भाव पूर्णरूप से भले ही न हो पर उसमें किसी प्राणी के प्रति अकरुणा (निर्दयता ) का भाव बिलकुल भी नहीं रहना चाहिये। साधकों में ये लक्षण साङ्गोपाङ्ग नहीं होते । इसीलिये उनसे इनका सेवन करनेके लिये कहा गया है। साङ्गोपाङ्ग लक्षण होने पर वे सिद्ध की कोटि में आ जायँगे। साधक में भगवत्प्राप्ति की तीव्र उत्कण्ठा और व्याकुलता होने पर उसके अवगुण अपने आप नष्ट हो जाते हैं क्योंकि उत्कण्ठा और व्याकुलता अवगुणों का खा जाती है तथा उसके द्वारा साधन भी अपने आप होने लगता है। इस कारण उसको भगवत्प्राप्ति जल्दी और सुगमता से हो जाती है। भक्तास्तेऽतीव मे प्रियाः – भक्तिमार्ग पर चलने वाले भगवदाश्रित साधकों के लिये यहाँ ‘भक्ताः’ पद प्रयुक्त हुआ है। भगवान ने ग्यारहवें अध्याय के 53वें श्लोक में वेदाध्ययन , तप , दान , यज्ञ आदि से अपने दर्शन की दुर्लभता बताकर 54वें श्लोक में अनन्यभक्ति से अपने दर्शन की सुलभता का वर्णन किया। फिर 55वें श्लोक में अपने भक्त के लक्षणों के रूप में अनन्यभक्ति के स्वरूप का वर्णन किया। इस पर अर्जुन ने इसी (बारहवें ) अध्याय के पहले श्लोक में यह प्रश्न किया कि सगुण-साकार के उपासकों और निर्गुण-निराकार के उपासकों में श्रेष्ठ कौन है ? भगवान ने दूसरे श्लोक में इस प्रश्न के उत्तर में (सगुण-साकार की उपासना करने वाले ) उन साधकों को श्रेष्ठ बताया जो भगवान में मन लगाकर अत्यन्त श्रद्धापूर्वक उनकी उपासना करते हैं। यहाँ उपसंहार में उन्हीं साधकों के लिये ‘भक्ताः’ पद आया है। उन साधक भक्तों को भगवान अपना अत्यन्त प्रिय बताते हैं। सिद्ध भक्तों को प्रिय और साधकों को अत्यन्त प्रिय बताने के दो कारण इस प्रकार हैं – (1) सिद्ध भक्तों को तो तत्त्व का अनुभव अर्थात् भगवत्प्राप्ति हो चुकी है किन्तु साधक भक्त भगवत्प्राप्ति न होने पर भी श्रद्धापूर्वक भगवान के परायण होते हैं। इसलिये वे भगवान को अत्यन्त प्रिय होते हैं। (2) सिद्ध भक्त भगवान के बड़े पुत्र के समान हैं। मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। परन्तु साधक भक्त भगवान के छोटे , अबोध बालक के समान हैं – बालक सुत सम दास अमानी।। (मानस 3। 43। 4) छोटा बालक स्वाभाविक ही सबको प्रिय लगता है। इसलिये भगवान को भी साधक भक्त अत्यन्त प्रिय हैं। (3) सिद्ध भक्त को तो भगवान अपने प्रत्यक्ष दर्शन देकर अपने को ऋणमुक्त मान लेते हैं पर साधक भक्त तो (प्रत्यक्ष दर्शन न होने पर भी) सरल विश्वासपूर्वक एकमात्र भगवान के आश्रित होकर उनकी भक्ति करते हैं। अतः उनको अभी तक अपने प्रत्यक्ष दर्शन न देनेके कारण भगवान अपने को उनका ऋणी मानते हैं और इसीलिये उनको अपना अत्यन्त प्रिय कहते हैं।

 

 

इस प्रकार ॐ तत् सत् – इन भगवन्नामोंके उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवादमें भक्तियोग नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।12।। 

 

श्रीकृष्णार्जुनसंवादे भक्तियोगो नाम द्वादशोऽध्यायः ॥12॥

 

 

 

 

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