Bhagwad Gita Chapter 12

 

 

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BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12 | भक्तियोग ~ अध्याय बारह

अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग

 

13 – 20  भगवत्‌-प्राप्त पुरुषों के लक्षण

 

 

Bhagavad Gita chapter 12समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानापमानयोः।

शीतोष्णसुखदुःखेषु समः सङ्‍गविवर्जितः॥12.18॥

तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येन केनचित्‌।

अनिकेतः स्थिरमतिर्भक्तिमान्मे प्रियो नरः॥12.19॥

 

 

समः-समान; शत्रौ – शत्रु में; च – और; मित्रे – मित्र में; च-भी; तथा – उसी प्रकार; मान अपमानयो – मान अपमान में; शीत उष्ण- सर्दी गर्मी; सुख-सुख में; दुःखेषु-दुख में; समः-समभाव; सङ्‍गविवर्जितः- सब प्रकार की कुसंगतियों से मुक्त; तुल्य-जैसा; निन्दा स्तुतिः-निंदा और प्रशंसा; मौनी-मौन; सन्तुष्ट:-तृप्त; येन केनचित्–किसी प्रकार से; अनिकेतः-घर गृहस्थी के प्रति ममतारहित; स्थिर – दृढ़; मतिः-बुद्धि; भक्तिमान्-भक्ति में लीन; मे – मेरा; प्रियः-प्रिय; नरः-मनुष्य।

 

 

जो मित्रों और शत्रुओं के लिए एक समान है अर्थात मित्र और शत्रु को एक समान ही समझता हैं और उनसे एक समान ही व्यवहार करता हैं  , मान और अपमान, शीत और ग्रीष्म, अनुकूलता और प्रतिकूलता , सुख तथा दुख में समभाव रहते हैं, वे मुझे अति प्रिय हैं। जो सभी प्रकार के कुसंग से मुक्त रहते हैं। जो अपनी प्रशंसा और निंदा को एक जैसा समझते हैं, जो सदैव मौन और चिन्तन में लीन रहते हैं , जो मिल जाए उसमें संतुष्ट रहते हैं, घर-गृहस्थी में आसक्ति और ममता नहीं रखते अर्थात जिस किसी प्रकार से भी शरीर का निर्वाह होने में सदा ही संतुष्ट है और रहने के स्थान या निवास स्थान में ममता और आसक्ति से रहित है , जिनकी बुद्धि दृढ़तापूर्वक मुझमें स्थिर रहती है और जो मेरे प्रति भक्ति भाव से परिपूर्ण रहते हैं, वे स्थिरबुद्धि भक्तिमान पुरुष मुझे अत्यंत प्रिय है। श्रीकृष्ण भक्तों की दस अन्य विशेषताओं का वर्णन करते हैं।।12.18-12.19।।

 

  समः शत्रौ च मित्रे च – यहाँ भगवान ने भक्त में व्यक्तियों के प्रति होने वाली समता का वर्णन किया है। सर्वत्र भगवद्बुद्धि होने तथा राग-द्वेष से रहित होने के कारण सिद्ध भक्त का किसी के भी प्रति शत्रु-मित्र का भाव नहीं रहता। लोग ही उसके व्यवहार में अपने स्वभाव के अनुसार अनुकूलता या प्रतिकूलता को देखकर उसमें मित्रता या शत्रुता का आरोप कर लेते हैं। साधारण लोगों का तो कहना ही क्या है , सावधान रहने वाले साधकों का भी उस सिद्ध भक्त के प्रति मित्रता और शत्रुता का भाव हो सकता है परंतु भक्त अपने आप में सदैव पूर्णतया सम रहता है। उसके हृदय में कभी किसी के प्रति शत्रु-मित्र का भाव उत्पन्न नहीं होता। मान लिया जाय कि भक्त के प्रति शत्रुता और मित्रता का भाव रखने वाले दो व्यक्तियों में धन के बँटवारे से सम्बन्धित कोई विवाद हो जाय और उसका निर्णय कराने के लिये वे भक्त के पास जाएं तो भक्त धन का बँटवारा करते समय शत्रुभाव वाले व्यक्ति को कुछ अधिक और मित्रभाव वाले व्यक्ति को कुछ कम धन देगा। यद्यपि भक्त के इस निर्णय (व्यवहार ) में विषमता दिखती है तथापि शत्रुभाव वाले व्यक्ति को इस निर्णय में समता दिखायी देगी कि इसने पक्षपात रहित बँटवारा किया है। अतः भक्त के इस निर्णय में विषमता (पक्षपात ) दिखने पर भी वास्तव में यह (समता को उत्पन्न करने वाला होने से ) समता ही कहलायेगी। उपर्युक्त पदों से यह भी सिद्ध होता है कि सिद्ध भक्त के साथ भी लोग (अपने भाव के अनुसार ) शत्रुता-मित्रता का व्यवहार करते हैं और उसके व्यवहार से अपने को उसका शत्रु-मित्र मान लेते हैं। इसीलिये उसे यहाँ शत्रु-मित्र से रहित न कहकर शत्रु-मित्र में सम कहा गया है। तथा मानापमानयोः – मान-अपमान परकृत क्रिया है जो शरीर के प्रति होती है। भक्त की अपने कहलाने वाले शरीर में न तो अहंता होती है न ममता। इसलिये शरीर का मान-अपमान होने पर भी भक्त के अन्तःकरण में कोई विकार (हर्ष-शोक) पैदा नहीं होता। वह नित्य-निरन्तर समता में स्थित रहता है। शीतोष्णसुखदुःखेषु समः – इन पदों में दो स्थानों पर सिद्ध भक्त की समता बतायी गयी है – (1) शीत-उष्ण में समता अर्थात् इन्द्रियों का अपने-अपने विषयों से संयोग होने पर अन्तःकरण में कोई विकार न होना। (2) सुख-दुःख में समता अर्थात् धनादि पदार्थों की प्राप्ति या अप्राप्ति होने पर अन्तःकरण में कोई विकार न होना। शीतोष्ण शब्द का अर्थ सरदी-गरमी होता है। सरदी-गरमी त्वगिन्द्रिय के विषय हैं। भक्त केवल त्वगिन्द्रिय के विषयों में ही सम रहता हो – ऐसी बात नहीं है। वह तो समस्त इन्द्रियों के विषयों में सम रहता है। अतः यहाँ शीतोष्ण शब्द समस्त इन्द्रियों के विषयों का वाचक है। प्रत्येक इन्द्रिय का अपने-अपने विषय के साथ संयोग होने पर भक्त को उन (अनुकूल या प्रतिकूल) विषयों का ज्ञान तो होता है पर उसके अन्तःकरण में हर्ष-शोकादि विकार नहीं होते। वह सदा सम रहता है। साधारण मनुष्य धनादि अनुकूल पदार्थों की प्राप्ति में सुख तथा प्रतिकूल पदार्थों की प्राप्ति में दुःख का अनुभव करते हैं परन्तु उन्हीं पदार्थों के प्राप्त होने अथवा न होने पर सिद्ध भक्त के अन्तःकरण में कभी किञ्चिन्मात्र भी राग-द्वेष , हर्षशोकादि विकार नहीं होते। वह प्रत्येक परिस्थिति में सम रहता है। सुख-दुःख में सम रहने तथा सुख-दुःख से रहित होने – दोनों का गीता में एक ही अर्थ में प्रयोग हुआ है। सुख-दुःख की परिस्थिति अवश्यम्भावी है । अतः उससे रहित होना सम्भव नहीं है। इसलिये भक्त अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थितियों मे सम रहता है। हाँ , अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर अन्तःकरण में जो हर्ष-शोक होते हैं उनसे रहित हुआ जा सकता है। इस दृष्टि से गीता में जहाँ सुख-दुःख में सम होने की बात आयी है , वहाँ सुख-दुःख की परिस्थिति में सम समझना चाहिये और जहाँ सुख-दुःख से रहित होने की बात आयी है वहाँ (अनुकूल तथा प्रतिकूल परिस्थिति की प्राप्ति से होने वाले) हर्ष-शोक से रहित समझना चाहिये। सङ्गविवर्जितः – ‘सङ्ग’ शब्द का अर्थ सम्बन्ध (संयोग ) तथा आसक्ति दोनों ही होते हैं। मनुष्य के लिये यह सम्भव नहीं है कि वह स्वरूप से सब पदार्थों का सङ्ग अर्थात् सम्बन्ध छोड़ सके क्योंकि जब तक मनुष्य जीवित रहता है तब तक शरीर-मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ उसके साथ रहती ही हैं। हाँ , शरीर से भिन्न कुछ पदार्थों का त्याग स्वरूप से किया जा सकता है। जैसे किसी व्यक्ति ने स्वरूप से प्राणीपदार्थों का सङ्ग छो़ड़ दिया पर उसके अन्तःकरण में अगर उनके प्रति किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति बनी हुई है तो उन प्राणीपदार्थों से दूर होते हुए भी वास्तव में उसका उनसे सम्बन्ध बना हुआ ही है। दूसरी ओर अगर अन्तःकरण में प्राणीपदार्थों की किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति नहीं है तो पास रहते हुए भी वास्तव में उनसे सम्बन्ध नहीं है। अगर पदार्थों का स्वरूप से त्याग करने पर ही मुक्ति होती तो मरने वाला हरेक व्यक्ति मुक्त हो जाता क्योंकि उसने तो अपने शरीर का भी त्याग कर दिया परन्तु ऐसी बात है नहीं। अन्तःकरण में आसक्ति के रहते हुए शरीर का त्याग करने पर भी संसार का बन्धन बना रहता है। अतः मनुष्य को सांसारिक आसक्ति ही बाँधने वाली है न कि सांसारिक प्राणीपदार्थों का स्वरूप से सम्बन्ध। आसक्ति को मिटाने के लिये पदार्थों का स्वरूप से त्याग करना भी एक साधन हो सकता है किंतु खास जरूरत आसक्ति का सर्वथा त्याग करने की ही है। संसार के प्रति यदि किञ्चिन्मात्र भी आसक्ति है तो उसका चिन्तन अवश्य होगा। इस कारण वह आसक्ति साधक को क्रमशः कामना , क्रोध , मूढ़ता आदि को प्राप्त कराती हुई उसे पतन के गर्त में गिराने का हेतु बन सकती है (गीता 2। 62 63)। भगवान ने दूसरे अध्याय के 59वें श्लोक में ‘परं दृष्ट्वा निवर्तते ‘ पदों से भगवत्प्राप्ति के बाद आसक्ति की सर्वथा निवृत्ति की बात कही है। भगवत्प्राप्ति से पहले भी आसक्ति की निवृत्ति हो सकती है पर भगवत्प्राप्ति के बाद तो आसक्ति सर्वथा निवृत्त हो ही जाती है। भगवत्प्राप्त महापुरुष में आसक्ति का सर्वथा अभाव होता ही है परन्तु भगवत्प्राप्ति से पूर्व साधनावस्था में आसक्ति का सर्वथा अभाव होता ही नहीं – ऐसा नियम नहीं है। साधनावस्था में भी आसक्ति का सर्वथा अभाव होकर साधक को तत्काल भगवत्प्राप्ति हो सकती है। (गीता 5। 21 16। 22)। आसक्ति न तो परमात्मा के अंश शुद्ध चेतन में रहती है और न जड (प्रकृति ) में ही। वह जड और चेतन के सम्बन्धरूप मैंपन की मान्यता में रहती है। वही आसक्ति बुद्धि , मन , इन्द्रियों और विषयों (पदार्थों ) में प्रतीत होती है। अगर साधक के मैंपन की मान्यता में रहने वाली आसक्ति मिट जाय तो दूसरी जगह प्रतीत होने वाली आसक्ति स्वतः मिट जायगी। आसक्ति का कारण अविवेक है। अपने विवेक को पूर्णतया महत्त्व न देने से साधक में आसक्ति रहती है। भक्त में अविवेक नहीं रहता। इसलिये वह आसक्ति से सर्वथा रहित होता है। अपने अंशी भगवान से विमुख होकर भूल से संसार को अपना मान लेने से संसार में राग हो जाता है और राग होने से संसार में आसक्ति हो जाती है। संसार से माना हुआ अपनापन सर्वथा मिट जाने से बुद्धि सम हो जाती है। बुद्धि के सम होने पर स्वयं आसक्ति रहित हो जाता है। मार्मिक बात – वास्तव में जीवमात्र की भगवान के प्रति स्वाभाविक अनुरक्ति (प्रेम) है। जब तक संसार के साथ भूल से माना हुआ अपनेपन का सम्बन्ध है तब तक वह अनुरक्ति प्रकट नहीं होती बल्कि संसार में आसक्ति के रूप में प्रतीत होती है। संसार की आसक्ति रहते हुए भी वस्तुतः भगवान की अनुरक्ति मिटती नहीं। अनुरक्ति के प्रकट होते ही आसक्ति (सूर्य का उदय होने पर अंधकार की तरह ) सर्वथा निवृत्त हो जाती है। ज्यों-ज्यों संसार से विरक्ति होती है त्यों ही त्यों भगवान में अनुरक्ति प्रकट होती है। यह नियम है कि आसक्ति को समाप्त कर के विरक्ति स्वयं भी उसी प्रकार शान्त हो जाती है जिस प्रकार लकड़ी को जलाकर अग्नि। इस प्रकार आसक्ति और विरक्ति के न रहने पर स्वतःस्वाभाविक अनुरक्ति (भगवत्प्रेम ) का स्रोत प्रवाहित होने लगता है। इसके लिये किञ्चिन्मात्र भी कोई उद्योग नहीं करना पड़ता। फिर भक्त सब प्रकार से भगवान के पूर्ण समर्पित हो जाता है। उसकी सम्पूर्ण क्रियाएँ भगवान की प्रियता के लिये ही होती हैं। उससे प्रसन्न होकर भगवान उस भक्त को अपना प्रेम प्रदान करते हैं। भक्त उस प्रेम को भी भगवान के ही प्रति लगा देता है। इससे भगवान और आनन्दित होते हैं तथा पुनः उसे प्रेम प्रदान करते हैं। भक्त पुनः उसे भगवान के प्रति लगा देता है। इस प्रकार भक्त और भगवान के बीच प्रतिक्षण वर्धमान प्रेम के आदान-प्रदान की यह लीला चलती रहती है। तुल्यनिन्दास्तुतिः – निन्दा-स्तुति मुख्यतः नाम की होती है। यह भी परकृत क्रिया है। लोग अपने स्वभाव के अनुसार भक्त की निन्दा या स्तुति किया करते हैं। भक्त में अपने कहलाने वाले नाम और शरीर में लेशमात्र भी अहंता और ममता नहीं होती। इसलिये निन्दा-स्तुति का उस पर लेशमात्र भी असर नहीं पड़ता। भक्त का न तो अपनी स्तुति या प्रशंसा करने वाले के प्रति राग होता है और न निन्दा करने वाले के प्रति द्वेष ही होता है। उसकी दोनों में ही समबुद्धि रहती है। साधारण मनुष्यों के भीतर अपनी प्रशंसा की कामना रहा करती है इसलिये वे अपनी निन्दा सुनकर दुःख का और स्तुति सुनकर सुख का अनुभव करते हैं। इसके विपरीत (अपनी प्रशंसा न चाहने वाले ) साधक पुरुष निन्दा सुनकर सावधान होते हैं और स्तुति सुनकर लज्जित होते हैं परन्तु नाम में किञ्चिन्मात्र भी अपनापन न होने के कारण सिद्ध भक्त इन दोनों भावों से रहित होता है अर्थात् निन्दा-स्तुति में सम होता है। हाँ , वह भी कभी-कभी लोकसंग्रह के लिये साधक की तरह (निन्दा में सावधान तथा स्तुति में लज्जित होने का ) व्यवहार कर सकता है। भक्त की सर्वत्र भगवद्बुद्धि होने के कारण भी उसका निन्दास्तुति करने वालों में भेदभाव नहीं होता। ऐसा भेदभाव न रहने से ही यह प्रतीत होता है कि वह निन्दा-स्तुति में सम है। भक्त के द्वारा अशुभ कर्म तो हो ही नहीं सकते और शुभकर्मों के होने में वह केवल भगवान को ही हेतु मानता है। फिर भी उसकी कोई निन्दा या स्तुति करे तो उसके चित्त में कोई विकार पैदा नहीं होता। मौनी – सिद्ध भक्त के द्वारा स्वतः स्वाभाविक भगवत्स्वरूप का मनन होता रहता है इसलिये उसको मौनी अर्थात् मननशील कहा गया है। अन्तःकरण में आने वाली प्रत्येक वृत्ति में उसको ‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता 7। 19) सब कुछ भगवान् ही हैं – यही दिखता है। इसलिये उसके द्वारा निरन्तर ही भगवान का मनन होता है। यहाँ मौनी पद का अर्थ वाणी का मौन रखने वाला नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा मानने से वाणी के द्वारा भक्ति का प्रचार करने वाले भक्त पुरुष भक्त ही नहीं कहलायेंगे। इसके सिवाय अगर वाणी का मौन रखने मात्र से भक्त होना सम्भव होता तो भक्त होना बहुत ही आसान हो जाता और ऐसे भक्त अंसख्य बन जाते किंतु संसार में भक्तों की संख्या अधिक देखने में नहीं आती। इसके सिवाय आसुर स्वभाव वाला दम्भी व्यक्ति भी हठपूर्वक वाणी का मौन रख सकता है परन्तु यहाँ भगवत्प्राप्त सिद्ध भक्त के लक्षण बताये जा रहे हैं। इसलिये यहाँ मौनी पद का अर्थ भगवत्स्वरूपका मनन करने वाला ही मानना युक्तिसंगत है।संतुष्टो येन केनचित् – दूसरे लोगों को भक्त ‘संतुष्टो येन केनचित्’ अर्थात् प्रारब्धानुसार शरीरनिर्वाह के लिये जो कुछ मिल जाय उसी में संतुष्ट दिखता है परन्तु वास्तव में भक्त की संतुष्टि का कारण कोई सांसारिक पदार्थ , परिस्थिति आदि नहीं होती। एकमात्र भगवान में ही प्रेम होने के कारण वह नित्य-निरन्तर भगवान में ही ही संतुष्ट रहता है। इस संतुष्टि के कारण वह संसार की प्रत्येक अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में सम रहता है क्योंकि उसके अनुभव में प्रत्येक अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भगवान के मङ्लमय विधान से ही आती है। इस प्रकार प्रत्येक परिस्थिति में नित्य-निरन्तर संतुष्ट रहने के कारण उसे ‘संतुष्टो येन केनचित्’ कहा गया है। अनिकेतः – जिनका कोई निकेत अर्थात् वासस्थान नहीं है वे ही अनिकेत हों – ऐसी बात नहीं है। चाहे गृहस्थ हों या साधुसंन्यासी जिनकी अपने रहने के स्थान में ममता-आसक्ति नहीं है वे सभी अनिकेत हैं। भक्त का रहने के स्थान में और शरीर (स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीर ) में लेशमात्र भी अपनापन एवं आसक्ति नहीं होती। इसलिये उसको ‘अनिकेतः’ कहा गया है। स्थिरमतिः – भक्त की बुद्धि में भगवत्तत्त्व की सत्ता और स्वरूप के विषय में कोई संशय अथवा विपर्यय (विपरीत ज्ञान ) नहीं होता। अतः उसकी बुद्धि भगवत्तत्त्व के ज्ञान से कभी किसी अवस्था में विचलित नहीं होती। इसलिये उसको ‘स्थिरमतिः’ कहा गया है। भगवत्तत्त्व को जानने के लिये उसको कभी किसी प्रमाण या शास्त्रविचार , स्वाध्याय आदि की जरूरत नहीं रहती क्योंकि वह स्वाभाविक रूप से भगवत्तत्त्व में तल्लीन रहता है। स्थिरबुद्धि होने में कामनाएँ ही बाधक होती हैं (गीता 2। 44)। अतः कामनाओं के त्याग से ही स्थिरबुद्धि होना सम्भव है (गीता 2। 55)। अन्तःकरण में सांसारिक (संयोगजन्य ) सुख की कामना रहने से संसार में आसक्ति हो जाती है। यह आसक्ति संसार को असत्य या मिथ्या जान लेने पर भी मिटती नहीं जैसे – सिनेमा में दिखने वाले दृश्य (प्राणी-पदार्थों ) को मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है अथवा जैसे भूतकाल की बातों को याद करते समय मानसिक दृष्टि के सामने आने वाले दृश्य को मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है। अतः जब तक भीतर में सांसारिक सुख की कामना है तब तक संसार को मिथ्या मानने पर भी संसार की आसक्ति नहीं मिटती। आसक्ति से संसार की स्वतन्त्र सत्ता दृढ़ होती है। सांसारिक सुख की कामना मिटने पर आसक्ति स्वतः मिट जाती है। आसक्ति मिटने पर संसार की स्वतन्त्र सत्ता का अभाव हो जाता है और एक भगवत्तत्त्व में बुद्धि स्थिर हो जाती है। भक्तिमान्मे प्रियो नरः – ‘भक्तिमान् ‘ पद में भक्ति शब्द के साथ नित्ययोग के अर्थ में ‘मतुप्’ प्रत्यय है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य में स्वाभाविकरूप से भक्ति (भगवत्प्रेम ) रहती है। मनुष्य से भूल यही होती है कि वह भगवान को छोड़कर संसार की भक्ति करने लगता है। इसलिये उसे स्वाभाविक रहने वाली भगवद्भक्ति का रस नहीं मिलता और उसके जीवन में नीरसता रहती है। सिद्ध भक्त हरदम भक्तिरस में तल्लीन रहता है। इसलिये उसको ‘भक्तिमान्’ कहा गया है। ऐसा भक्तिमान् मनुष्य भगवान को प्रिय होता है। ‘नरः’ पद देने का तात्पर्य है कि भगवान को प्राप्त करके जिसने अपना मनुष्य-जीवन सफल (सार्थक ) कर लिया है वही वास्तव में नर (मनुष्य ) कहलाने योग्य है। जो मनुष्य-शरीर को पाकर सांसारिक भोग और संग्रह में ही लगा हुआ है वह नर (मनुष्य ) कहलाने योग्य नहीं है। [इन दो श्लोकों में भक्त के सदा-सर्वदा समभाव में स्थित रहने की बात कही गयी है। शत्रु-मित्र , मान-अपमान , शीत-उष्ण , सुख-दुःख और निन्दा-स्तुति – इन पाँचों द्वन्द्वों में समता होने से ही साधक पूर्णतः समभाव में स्थित कहा जा सकता है।] प्रकरणसम्बन्धी विशेष बात- भगवान ने पहले प्रकरण के अन्तर्गत 13वें- 14वें श्लोकों में सिद्ध भक्तों के लक्षणों का वर्णन करके अन्त में ‘यो मद्भक्तः स मे प्रियः’ कहा । दूसरे प्रकरण के अन्तर्गत 15वें श्लोक के अन्त में ‘यः स च मे प्रियः’ कहा । तीसरे प्रकरण के अन्तर्गत 16वें श्लोक के अन्त में ‘यो मद्भक्तः स मे प्रियः’ कहा । चौथे प्रकरण के अन्तर्गत 17वें श्लोक के अन्त में ‘भक्तिमान् यः स म प्रियः’ कहा और अन्तिम पाँचवें प्रकरण के अन्तर्गत 18वें – 19वें श्लोकों के अन्त में ‘भक्तिमान् मे प्रियो नरः’ कहा। इस प्रकार भगवान ने पाँच बार अलग-अलग ‘मे प्रियः’ पद देकर सिद्ध भक्तों के लक्षणों को पाँच भागों में विभक्त किया है। इसलिये सात श्लोकों में बताये गये सिद्ध भक्तों के लक्षणों को एक ही प्रकरण के अन्तर्गत नहीं समझना चाहिये। इसका मुख्य कारण यह है कि यदि यह एक ही प्रकरण होता तो एक लक्षण को बार-बार न कहकर एक ही बार कहा जाता और ‘मे प्रियः’ पद भी एक ही बार कहे जाते। पाँचों प्रकरणों के अन्तर्गत सिद्ध भक्तों के लक्षणों में राग-द्वेष और हर्ष-शोक का अभाव बताया गया है। जैसे पहले प्रकरण में ‘निर्ममः’ पद से राग का , ‘अद्वेष्टा’ पद से द्वेष का और सम दुःख-सुखः पद से हर्ष-शोक का अभाव बताया गया है। दूसरे प्रकरण में ‘हर्षामर्षभयोद्वेगैः’ पद से राग-द्वेष और हर्ष-शोक का अभाव बताया गया है। तीसरे प्रकरण में ‘अनपेक्षः’ पद से राग का , ‘उदासीनः’ पद से द्वेष का और ‘गतव्यथः’ पद से हर्ष-शोक का अभाव बताया गया है। चौथे प्रकरण में ‘न काङ्क्षति’ पदों से राग का , ‘न द्वेष्टि’ पदों से द्वेष का और ‘न हृष्यति’ तथा ‘न शोचति’ पदों से हर्ष-शोक का अभाव बताया गया है। अन्तिम पाँचवें प्रकरण में ‘सङ्गविवर्जितः’ पद से राग का ‘संतुष्टः’ पद से एकमात्र भगवान में ही सन्तुष्ट रहने के कारण द्वेष का और ‘शीतोष्णसुखदुःखेषु समः’ पदों से हर्ष-शोक का अभाव बताया गया है। अगर सिद्ध भक्तों के लक्षण बताने वाला (सात श्लोकों का ) एक ही प्रकरण होता तो सिद्ध भक्त में राग-द्वेष , हर्षशोकादि विकारों के अभाव की बात कहीं शब्दों से और कहीं भाव से बार-बार कहने की जरूरत नहीं होती। इसी तरह 14वें और 19वें श्लोक में ‘सन्तुष्टः’ पद का तथा 13वें श्लोक में ‘समदुःखसुखः’ और 18वें श्लोक में ‘शीतोष्णसुखदुःखेषु समः’ पदों का भी सिद्ध भक्तों के लक्षणों में दो बार प्रयोग हुआ है जिससे (सिद्ध भक्तों के लक्षणों का एक ही प्रकरण मानने से ) पुनरुक्ति का दोष आता है। भगवान के वचनों में पुनरुक्ति का दोष आना सम्भव ही नहीं। अतः सातों श्लोकों के विषय को एक प्रकरण न मानकर अलग-अलग पाँच प्रकरण मानना ही युक्तिसंगत है। इस तरह पाँचों प्रकरण स्वतन्त्र (भिन्न-भिन्न) होने से किसी एक प्रकरण के भी सब लक्षण जिसमें हों वही भगवान का प्रिय भक्त है। प्रत्येक प्रकरण में सिद्ध भक्तों के अलग-अलग लक्षण बताने का कारण यह है कि साधनपद्धति , प्रारब्ध , वर्ण , आश्रम , देश , काल , परिस्थिति आदि के भेद से सब भक्तों की प्रकृति (स्वभाव ) में परस्पर थोड़ा-बहुत भेद रहा करता है। हाँ ! राग-द्वेष , हर्षशोकादि विकारों का अत्यन्ताभाव एवं समता में स्थिति और समस्त प्राणियों के हित में रति सबकी समान ही होती है। साधक को अपनी रुचि , विश्वास , योग्यता , स्वभाव आदि के अनुसार जो प्रकरण अपने अनुकूल दिखायी दे उसी को आदर्श मानकर उसके अनुसार अपना जीवन बनाने में लग जाना चाहिये। किसी एक प्रकरण के भी यदि पूरे लक्षण अपने में न आयें तो भी साधक को निराश नहीं होना चाहिये। फिर सफलता अवश्यम्भावी है। पीछे के सात श्लोकों में भगवान ने सिद्ध भक्तों के कुल उनतालीस ( 39 ) लक्षण बताये। अब आगे के श्लोक में भगवान अर्जुन के प्रश्न का स्पष्ट रीति से उत्तर देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

12.19

तुल्यनिन्दास्तुतिः – निन्दा-स्तुति मुख्यतः नाम की होती है। यह भी परकृत क्रिया है। लोग अपने स्वभाव के अनुसार भक्त की निन्दा या स्तुति किया करते हैं। भक्त में अपने कहलाने वाले नाम और शरीर में लेशमात्र भी अहंता और ममता नहीं होती। इसलिये निन्दा-स्तुति का उस पर लेशमात्र भी असर नहीं पड़ता। भक्त का न तो अपनी स्तुति या प्रशंसा करने वाले के प्रति राग होता है और न निन्दा करने वाले के प्रति द्वेष ही होता है। उसकी दोनों में ही समबुद्धि रहती है। साधारण मनुष्यों के भीतर अपनी प्रशंसा की कामना रहा करती है इसलिये वे अपनी निन्दा सुनकर दुःख का और स्तुति सुनकर सुख का अनुभव करते हैं। इसके विपरीत (अपनी प्रशंसा न चाहने वाले ) साधक पुरुष निन्दा सुनकर सावधान होते हैं और स्तुति सुनकर लज्जित होते हैं परन्तु नाम में किञ्चिन्मात्र भी अपनापन न होने के कारण सिद्ध भक्त इन दोनों भावों से रहित होता है अर्थात् निन्दा-स्तुति में सम होता है। हाँ , वह भी कभी-कभी लोकसंग्रह के लिये साधक की तरह (निन्दा में सावधान तथा स्तुति में लज्जित होने का ) व्यवहार कर सकता है। भक्त की सर्वत्र भगवद्बुद्धि होने के कारण भी उसका निन्दास्तुति करने वालों में भेदभाव नहीं होता। ऐसा भेदभाव न रहने से ही यह प्रतीत होता है कि वह निन्दा-स्तुति में सम है। भक्त के द्वारा अशुभ कर्म तो हो ही नहीं सकते और शुभकर्मों के होने में वह केवल भगवान को ही हेतु मानता है। फिर भी उसकी कोई निन्दा या स्तुति करे तो उसके चित्त में कोई विकार पैदा नहीं होता। मौनी – सिद्ध भक्त के द्वारा स्वतः स्वाभाविक भगवत्स्वरूप का मनन होता रहता है इसलिये उसको मौनी अर्थात् मननशील कहा गया है। अन्तःकरण में आने वाली प्रत्येक वृत्ति में उसको ‘वासुदेवः सर्वम्’ (गीता 7। 19) सब कुछ भगवान् ही हैं – यही दिखता है। इसलिये उसके द्वारा निरन्तर ही भगवान का मनन होता है। यहाँ मौनी पद का अर्थ वाणी का मौन रखने वाला नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा मानने से वाणी के द्वारा भक्ति का प्रचार करने वाले भक्त पुरुष भक्त ही नहीं कहलायेंगे। इसके सिवाय अगर वाणी का मौन रखने मात्र से भक्त होना सम्भव होता तो भक्त होना बहुत ही आसान हो जाता और ऐसे भक्त अंसख्य बन जाते किंतु संसार में भक्तों की संख्या अधिक देखने में नहीं आती। इसके सिवाय आसुर स्वभाव वाला दम्भी व्यक्ति भी हठपूर्वक वाणी का मौन रख सकता है परन्तु यहाँ भगवत्प्राप्त सिद्ध भक्त के लक्षण बताये जा रहे हैं। इसलिये यहाँ मौनी पद का अर्थ भगवत्स्वरूपका मनन करने वाला ही मानना युक्तिसंगत है।संतुष्टो येन केनचित् – दूसरे लोगों को भक्त ‘संतुष्टो येन केनचित्’ अर्थात् प्रारब्धानुसार शरीरनिर्वाह के लिये जो कुछ मिल जाय उसी में संतुष्ट दिखता है परन्तु वास्तव में भक्त की संतुष्टि का कारण कोई सांसारिक पदार्थ , परिस्थिति आदि नहीं होती। एकमात्र भगवान में ही प्रेम होने के कारण वह नित्य-निरन्तर भगवान में ही ही संतुष्ट रहता है। इस संतुष्टि के कारण वह संसार की प्रत्येक अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति में सम रहता है क्योंकि उसके अनुभव में प्रत्येक अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भगवान के मङ्लमय विधान से ही आती है। इस प्रकार प्रत्येक परिस्थिति में नित्य-निरन्तर संतुष्ट रहने के कारण उसे ‘संतुष्टो येन केनचित्’ कहा गया है। अनिकेतः – जिनका कोई निकेत अर्थात् वासस्थान नहीं है वे ही अनिकेत हों – ऐसी बात नहीं है। चाहे गृहस्थ हों या साधुसंन्यासी जिनकी अपने रहने के स्थान में ममता-आसक्ति नहीं है वे सभी अनिकेत हैं। भक्त का रहने के स्थान में और शरीर (स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीर ) में लेशमात्र भी अपनापन एवं आसक्ति नहीं होती। इसलिये उसको ‘अनिकेतः’ कहा गया है। स्थिरमतिः – भक्त की बुद्धि में भगवत्तत्त्व की सत्ता और स्वरूप के विषय में कोई संशय अथवा विपर्यय (विपरीत ज्ञान ) नहीं होता। अतः उसकी बुद्धि भगवत्तत्त्व के ज्ञान से कभी किसी अवस्था में विचलित नहीं होती। इसलिये उसको ‘स्थिरमतिः’ कहा गया है। भगवत्तत्त्व को जानने के लिये उसको कभी किसी प्रमाण या शास्त्रविचार , स्वाध्याय आदि की जरूरत नहीं रहती क्योंकि वह स्वाभाविक रूप से भगवत्तत्त्व में तल्लीन रहता है। स्थिरबुद्धि होने में कामनाएँ ही बाधक होती हैं (गीता 2। 44)। अतः कामनाओं के त्याग से ही स्थिरबुद्धि होना सम्भव है (गीता 2। 55)। अन्तःकरण में सांसारिक (संयोगजन्य ) सुख की कामना रहने से संसार में आसक्ति हो जाती है। यह आसक्ति संसार को असत्य या मिथ्या जान लेने पर भी मिटती नहीं जैसे – सिनेमा में दिखने वाले दृश्य (प्राणी-पदार्थों ) को मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है अथवा जैसे भूतकाल की बातों को याद करते समय मानसिक दृष्टि के सामने आने वाले दृश्य को मिथ्या जानते हुए भी उसमें आसक्ति हो जाती है। अतः जब तक भीतर में सांसारिक सुख की कामना है तब तक संसार को मिथ्या मानने पर भी संसार की आसक्ति नहीं मिटती। आसक्ति से संसार की स्वतन्त्र सत्ता दृढ़ होती है। सांसारिक सुख की कामना मिटने पर आसक्ति स्वतः मिट जाती है। आसक्ति मिटने पर संसार की स्वतन्त्र सत्ता का अभाव हो जाता है और एक भगवत्तत्त्व में बुद्धि स्थिर हो जाती है। भक्तिमान्मे प्रियो नरः – ‘भक्तिमान् ‘ पद में भक्ति शब्द के साथ नित्ययोग के अर्थ में ‘मतुप्’ प्रत्यय है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य में स्वाभाविकरूप से भक्ति (भगवत्प्रेम ) रहती है। मनुष्य से भूल यही होती है कि वह भगवान को छोड़कर संसार की भक्ति करने लगता है। इसलिये उसे स्वाभाविक रहने वाली भगवद्भक्ति का रस नहीं मिलता और उसके जीवन में नीरसता रहती है। सिद्ध भक्त हरदम भक्तिरस में तल्लीन रहता है। इसलिये उसको ‘भक्तिमान्’ कहा गया है। ऐसा भक्तिमान् मनुष्य भगवान को प्रिय होता है। ‘नरः’ पद देने का तात्पर्य है कि भगवान को प्राप्त करके जिसने अपना मनुष्य-जीवन सफल (सार्थक ) कर लिया है वही वास्तव में नर (मनुष्य ) कहलाने योग्य है। जो मनुष्य-शरीर को पाकर सांसारिक भोग और संग्रह में ही लगा हुआ है वह नर (मनुष्य ) कहलाने योग्य नहीं है। [इन दो श्लोकों में भक्त के सदा-सर्वदा समभाव में स्थित रहने की बात कही गयी है। शत्रु-मित्र , मान-अपमान , शीत-उष्ण , सुख-दुःख और निन्दा-स्तुति – इन पाँचों द्वन्द्वों में समता होने से ही साधक पूर्णतः समभाव में स्थित कहा जा सकता है।] प्रकरणसम्बन्धी विशेष बात- भगवान ने पहले प्रकरण के अन्तर्गत 13वें- 14वें श्लोकों में सिद्ध भक्तों के लक्षणों का वर्णन करके अन्त में ‘यो मद्भक्तः स मे प्रियः’ कहा । दूसरे प्रकरण के अन्तर्गत 15वें श्लोक के अन्त में ‘यः स च मे प्रियः’ कहा । तीसरे प्रकरण के अन्तर्गत 16वें श्लोक के अन्त में ‘यो मद्भक्तः स मे प्रियः’ कहा । चौथे प्रकरण के अन्तर्गत 17वें श्लोक के अन्त में ‘भक्तिमान् यः स म प्रियः’ कहा और अन्तिम पाँचवें प्रकरण के अन्तर्गत 18वें – 19वें श्लोकों के अन्त में ‘भक्तिमान् मे प्रियो नरः’ कहा। इस प्रकार भगवान ने पाँच बार अलग-अलग ‘मे प्रियः’ पद देकर सिद्ध भक्तों के लक्षणों को पाँच भागों में विभक्त किया है। इसलिये सात श्लोकों में बताये गये सिद्ध भक्तों के लक्षणों को एक ही प्रकरण के अन्तर्गत नहीं समझना चाहिये। इसका मुख्य कारण यह है कि यदि यह एक ही प्रकरण होता तो एक लक्षण को बार-बार न कहकर एक ही बार कहा जाता और ‘मे प्रियः’ पद भी एक ही बार कहे जाते। पाँचों प्रकरणों के अन्तर्गत सिद्ध भक्तों के लक्षणों में राग-द्वेष और हर्ष-शोक का अभाव बताया गया है। जैसे पहले प्रकरण में ‘निर्ममः’ पद से राग का , ‘अद्वेष्टा’ पद से द्वेष का और सम दुःख-सुखः पद से हर्ष-शोक का अभाव बताया गया है। दूसरे प्रकरण में ‘हर्षामर्षभयोद्वेगैः’ पद से राग-द्वेष और हर्ष-शोक का अभाव बताया गया है। तीसरे प्रकरण में ‘अनपेक्षः’ पद से राग का , ‘उदासीनः’ पद से द्वेष का और ‘गतव्यथः’ पद से हर्ष-शोक का अभाव बताया गया है। चौथे प्रकरण में ‘न काङ्क्षति’ पदों से राग का , ‘न द्वेष्टि’ पदों से द्वेष का और ‘न हृष्यति’ तथा ‘न शोचति’ पदों से हर्ष-शोक का अभाव बताया गया है। अन्तिम पाँचवें प्रकरण में ‘सङ्गविवर्जितः’ पद से राग का ‘संतुष्टः’ पद से एकमात्र भगवान में ही सन्तुष्ट रहने के कारण द्वेष का और ‘शीतोष्णसुखदुःखेषु समः’ पदों से हर्ष-शोक का अभाव बताया गया है। अगर सिद्ध भक्तों के लक्षण बताने वाला (सात श्लोकों का ) एक ही प्रकरण होता तो सिद्ध भक्त में राग-द्वेष , हर्षशोकादि विकारों के अभाव की बात कहीं शब्दों से और कहीं भाव से बार-बार कहने की जरूरत नहीं होती। इसी तरह 14वें और 19वें श्लोक में ‘सन्तुष्टः’ पद का तथा 13वें श्लोक में ‘समदुःखसुखः’ और 18वें श्लोक में ‘शीतोष्णसुखदुःखेषु समः’ पदों का भी सिद्ध भक्तों के लक्षणों में दो बार प्रयोग हुआ है जिससे (सिद्ध भक्तों के लक्षणों का एक ही प्रकरण मानने से ) पुनरुक्ति का दोष आता है। भगवान के वचनों में पुनरुक्ति का दोष आना सम्भव ही नहीं। अतः सातों श्लोकों के विषय को एक प्रकरण न मानकर अलग-अलग पाँच प्रकरण मानना ही युक्तिसंगत है। इस तरह पाँचों प्रकरण स्वतन्त्र (भिन्न-भिन्न) होने से किसी एक प्रकरण के भी सब लक्षण जिसमें हों वही भगवान का प्रिय भक्त है। प्रत्येक प्रकरण में सिद्ध भक्तों के अलग-अलग लक्षण बताने का कारण यह है कि साधनपद्धति , प्रारब्ध , वर्ण , आश्रम , देश , काल , परिस्थिति आदि के भेद से सब भक्तों की प्रकृति (स्वभाव ) में परस्पर थोड़ा-बहुत भेद रहा करता है। हाँ ! राग-द्वेष , हर्षशोकादि विकारों का अत्यन्ताभाव एवं समता में स्थिति और समस्त प्राणियों के हित में रति सबकी समान ही होती है। साधक को अपनी रुचि , विश्वास , योग्यता , स्वभाव आदि के अनुसार जो प्रकरण अपने अनुकूल दिखायी दे उसी को आदर्श मानकर उसके अनुसार अपना जीवन बनाने में लग जाना चाहिये। किसी एक प्रकरण के भी यदि पूरे लक्षण अपने में न आयें तो भी साधक को निराश नहीं होना चाहिये। फिर सफलता अवश्यम्भावी है। पीछे के सात श्लोकों में भगवान ने सिद्ध भक्तों के कुल उनतालीस ( 39 ) लक्षण बताये। अब आगे के श्लोक में भगवान अर्जुन के प्रश्न का स्पष्ट रीति से उत्तर देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी 

 

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