BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12 | भक्तियोग ~ अध्याय बारह
अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग
01 – 12 साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का विषय
क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ।
अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते ॥12.5॥
क्लेशः-कष्ट; अधिकतरः-भरा होना; तेषाम्-उन; अव्यक्त-अव्यक्त के प्रति; आसक्त-अनुरक्त; चेतसाम्-मन वालों का; अव्यक्ता -अव्यक्त की ओर; हि-वास्तव में ; गतिः-प्रगति; दुःखम्-दुख के साथ; देहवद्धिः-देहधारी के द्वारा; अवाप्यते-प्राप्त किया जाता है।
जिन लोगों का मन भगवान के अव्यक्त रूप पर आसक्त होता है उनके लिए भगवान की अनुभूति का मार्ग अतिदुष्कर और कष्टों से भरा होता है। अर्थात उन अव्यक्त सच्चिदानन्दघन निराकार ब्रह्म में आसक्त चित्त वाले पुरुषों ( साधकों ) के साधन में कठोर परिश्रम और अत्यंत कष्ट तथा क्लेश है क्योंकि अव्यक्त रूप की उपासना देहधारी जीवों अर्थात देहाभिमानियों के लिए अत्यंत दुष्कर होती है और उनके द्वारा अव्यक्तविषयक गति दुःखपूर्वक तथा कठिनता से प्राप्त की जाती है॥12.5॥
‘क्लेशोऽधिकतरस्तेषामव्यक्तासक्तचेतसाम् ‘ – अव्यक्त में आसक्त चित्त वाले – इस विशेषण से यहाँ उन साधकों की बात कही गयी है जो निर्गुण उपासना को श्रेष्ठ तो मानते हैं पर जिनका चित्त निर्गुण तत्त्व में आविष्ट नहीं हुआ है। तत्त्व में आविष्ट होने के लिये साधक में तीन बातों की आवश्यकता होती है – रुचि , विश्वास और योग्यता। शास्त्रों और गुरुजनों के द्वारा निर्गुण तत्त्व की महिमा सुनने से जिनकी (निराकार में आसक्त चित्त वाला होने और निर्गुण उपासना को श्रेष्ठ मानने के कारण ) उसमें कुछ रुचि तौ पैदा हो जाती है और वे विश्वासपूर्वक साधन आरम्भ भी कर देते हैं परन्तु वैराग्य की कमी और देहाभिमान के कारण जिनका चित्त तत्त्व में प्रविष्ट नहीं होता – ऐसे साधकों के लिये यहाँ ‘अव्यक्तासक्तचेतसाम्’ पद का प्रयोग हुआ है। भगवान ने छठे अध्याय के 27वें-28वें श्लोकों में बताया है कि ब्रह्मभूत अर्थात् ब्रह्म में अभिन्न भाव से स्थित साधक को सुख-पूर्वक ब्रह्म की प्राप्ति होती है परन्तु यहाँ इस श्लोक में ‘क्लेशः अधिकतरः’ पदों से यह स्पष्ट किया है कि इन साधकों का चित्त ब्रह्मभूत साधकों की तरह निर्गुण तत्त्व में सर्वथा तल्लीन नहीं हो पाया है। अतः उन्हें अव्यक्त में आविष्ट चित्त वाला न कहकर आसक्त चित्त वाला कहा गया है। तात्पर्य यह है कि इन साधकों की आसक्ति तो देह में होती है पर अव्यक्त की महिमा सुनकर वे निर्गुणोपासना को ही श्रेष्ठ मानकर उसमें आसक्त हो जाते हैं जबकि आसक्ति देह में ही हुआ करती है अव्यक्त में नहीं। 13वें अध्याय के 5वें श्लोक में ‘अव्यक्तम्’ पद प्रकृति के अर्थ में आया है तथा और भी कई जगह वह प्रकति के लिये ही प्रयुक्त हुआ है परन्तु यहाँ ‘अव्यक्तासक्तचेतसाम्’ पद में अव्यक्त का अर्थ प्रकृति नहीं बल्कि निर्गुण-निराकार ब्रह्म है। कारण यह है कि इसी अध्याय के पहले श्लोक में अर्जुन ने ‘त्वाम्’ पद से सगुण साकार स्वरूप के और ‘अव्यक्तम्’ पद से निर्गुण निराकार स्वरूप के विषय में ही प्रश्न किया है। उपासना का विषय भी परमात्मा ही है न कि प्रकृति क्योंकि प्रकृति और प्रकृति का कार्य तो त्याज्य है। इसलिये उसी प्रश्न के उत्तर में भगवान ने अव्यक्त पद का (व्यक्त रूप के विपरीत ) निर्गुण-निराकार स्वरूप के अर्थ में ही प्रयोग किया है। अतः यहाँ प्रकृति का प्रसङ्ग न होने के कारण ‘अव्यक्त’ पद का अर्थ प्रकृति नहीं लिया जा सकता। 9वें अध्याय के चौथे श्लोक में ‘अव्यक्तमूर्तिना’ पद सगुण-निराकार स्वरूप के लिये आया है। ऐसी दशा में यह प्रश्न हो सकता है कि यहाँ भी ‘अव्यक्तासक्तचेतसाम्’ पद का अर्थ सगुण निराकार में आसक्त चित्त वाले पुरुष ही क्यों न ले लिया जाय परन्तु ऐसा अर्थ भी नहीं लिया जा सकता क्योंकि इसी अध्याय के पहले श्लोक में अर्जुन के प्रश्न में ‘त्वाम्’ पद सगुण-साकार के लिये और ‘अव्यक्तम्’ पद के साथ ‘अक्षरम्’ पद निर्गुण-निराकार के लिये आया है। ब्रह्म क्या है ? अर्जुन के इस प्रश्न के उत्तर में 8वें अध्याय के तीसरे श्लोक में भगवान बता चुके हैं कि परम अक्षर ब्रह्म है अर्थात् वहाँ भी ‘अक्षरम्’ पद निर्गुण-निराकार के लिये ही आया है। इसलिये अर्जुन ने ‘अव्यक्तम्’ , ‘अक्षरम्’ पदों से जिस निर्गुण ब्रह्म के विषय में प्रश्न किया था उसी के उत्तर में यहाँ (अक्षर विशेषण होने से ) अव्यक्त पद से निर्गुण-निराकार ब्रह्म ही लेना चाहिये सगुण-निराकार नहीं। ‘क्लेशोऽधिकतरः’ पद का भाव यह है कि जिन साधकों का चित्त निर्गुण तत्त्व में तल्लीन नहीं होता – ऐसे निर्गुण उपासकों को देहाभिमान के कारण अपनी साधना में विशेष कष्ट अर्थात् कठिनाई होती है (टिप्पणी प0 631)। गौणरूप से इस पद का भाव यह है कि साधना की प्रारम्भिक अवस्था से लेकर अन्तिम अवस्था तक के सभी निर्गुण उपासकों को सगुण उपासकों से अधिक कठिनाई होती है। विशेष बात- अब सगुण उपासना की सुगमताओं और निर्गुण उपासना की कठिनताओं का विवेचन किया जाता है – सगुण उपासना की सुगमताएँ 1 – सगुण उपासना में उपास्य तत्त्व के सगुण साकार होने के कारण साधक के मन-इन्द्रियों के लिये भगवान के स्वरूप , नाम , लीला , कथा आदि का आधार रहता है। भगवान के परायण होने से उसके मन-इन्द्रियाँ भगवान के स्वरूप एवं लीलाओं के चिन्तन , कथा-श्रवण , भगवत्सेवा और पूजन में अपेक्षाकृत सरलता से लग जाते हैं (गीता 8। 14)। इसलिये उसके द्वारा सांसारिक विषय चिन्तन की सम्भावना कम रहती है। 2 – सांसारिक आसक्ति ही साधन में क्लेश देती है परन्तु सगुणोपासक इसको दूर करने के लिये भगवान की ही आश्रित रहता है। वह अपने में भगवान का ही बल मानता है। बिल्ली का बच्चा जैसे माँ पर निर्भर रहता है – ऐसे ही यह साधक भी भगवान पर निर्भर रहता है। भगवान ही उसकी सँभाल करते हैं (गीता 9। 22)। ‘सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा। भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा।। करउँ सदा तिन कै रखवारी। जिमि बालक राखइ महतारी।। ‘ (मानस 3। 43। 2 3) अतः उसकी सांसारिक आसक्ति सुगमता से मिट जाती है। 3 – ऐसे उपासकों के लिये गीता में भगवान ने ‘नचिरात्’ आदि पदों से शीघ्र ही अपनी प्राप्ति बतायी है (गीता 12। 7)।4 सगुण उपासकों के अज्ञानरूप अन्धकार को भगवान ही मिटा देते हैं (गीता 10। 11)। 5 – उनका उद्धार भगवान करते हैं (गीता 12। 7)। 6 – ऐसे उपासकों में यदि कोई सूक्ष्म दोष रह जाता है तो (भगवान पर निर्भर होने से ) सर्वज्ञ भगवान कृपा कर के उसको दूर कर देते हैं (गीता 18। 58? 66)। 7 – ऐसे उपासकों की उपासना भगवान की ही उपासना है। भगवान सदा-सर्वदा पूर्ण हैं ही। अतः भगवान की पूर्णता में किञ्चिन्मात्र भी संदेह न रहने के कारण उनमें सुगमता से श्रद्धा हो जाती है। श्रद्धा होने से वे नित्य निरन्तर भगवत्परायण हो जाते हैं। अतः भगवान ही उन उपासकों को बुद्धियोग प्रदान करते हैं जिससे उन्हें भगवत्प्राप्ति हो जाती है (गीता 10। 10)। 8 – ऐसे उपासक भगवान को परम कृपालु मानते हैं। अतः उनकी कृपा के आश्रय से वे सब कठिनाइयों को पार कर जाते हैं। यही कारण है कि उनका साधन सुगम हो जाता है और भगवत्कृपा के बल से वे शीघ्र ही भगवत्प्राप्ति कर लेते हैं (गीता 18। 56 58)। 9 – मनुष्य में कर्म करने का अभ्यास तो रहता ही है (गीता 3। 5) इसलिये भक्त को अपने कर्म भगवान के प्रति करने में केवल भाव ही बदलना पड़ता है , कर्म तो वे ही रहते हैं। अतः भगवान के लिये कर्म करने से भक्त कर्मबन्धन से सुगमतापूर्वक मुक्त हो जाता है (गीता 18। 46)। 10 – हृदय में पदार्थों का आदर रहते हुए भी यदि वे प्राणियों की सेवा में लग जाते हैं तो उन्हें पदार्थों का त्याग करने में कठिनाई नहीं होती। सत्पात्रों के लिये पदार्थों के त्याग में तो और भी सुगमता है। फिर भगवान के लिये तो पदार्थों का त्याग बहुत ही सुगमता से हो सकता है। 11 – इस साधन में विवेक और वैराग्य की उतनी आवश्यकता नहीं है जितनी प्रेम और विश्वास की है। जैसे कौरवों के प्रति द्वेषवृत्ति रहते हुए भी द्रौपदी के पुकारने मात्र से भगवान प्रकट हो जाते थे (टिप्पणी प0 633.1) क्योंकि वह भगवान को अपना मानती थी। भगवान तो अपने साथ भक्त के प्रेम और विश्वास को ही देखते हैं , उसके दोषों को नहीं। भगवान के साथ अपनापन का सम्बन्ध जो़ड़ना उतना कठिन नहीं (क्योंकि भगवान की ओर से अपनापन स्वतःसिद्ध है ) जितना कि पात्र बनना कठिन है। निर्गुण उपासना की कठिनताएँ 1 – निर्गुण उपासना में उपास्य तत्त्व के निर्गुण निराकार होने के कारण साधक के मन इन्द्रियों के लिये कोई आधार नहीं रहता। आधार न होने तथा वैराग्य की कमी के कारण इन्द्रियों के द्वारा विषय-चिन्तन की अधिक सम्भावना रहती है। 2 – देह में जितनी अधिक आसक्ति होती है साधन में उतना ही अधिक क्लेश मालूम देता है। निर्गुणोपासक उसे विवेक के द्वारा हटाने की चेष्टा करता है। विवेक का आश्रय लेकर साधन करते हुए वह अपने ही साधन बल को महत्त्व देता है। बँदरी का छोटा बच्चा जैसे (अपने बल पर निर्भर होने से ) अपनी माँ को पकड़े रहता है और अपनी पकड़ से ही अपनी रक्षा मानता है – ऐसे ही यह साधक अपने साधन के बल पर अपनी उन्नति मानता है (गीता 18। 51 — 53)। इसीलिये श्रीरामचरितमानस में भगवान ने इसको अपने समझदार पुत्र की उपमा दी है – ‘मोरें प्रौढ़ तनय सम ग्यानी। बालक सुत सम दास अमानी।।’ (3। 43। 4)3 – ज्ञानयोगियों के द्वारा लक्ष्य प्राप्ति के प्रसङ्ग में चौथे अध्याय के 39वें श्लोक में ‘अचिरेण’ पद तत्त्व ज्ञान के अनन्तर शान्ति की प्राप्ति के लिये आया है न कि तत्त्वज्ञान की प्राप्ति के लिये। 4 – निर्गुण उपासक तत्त्वज्ञान की प्राप्ति स्वयं करते हैं (गीता 13। 34)। 5 – ये अपना उद्धार (निर्गुणतत्त्व की प्राप्ति ) स्वयं करते हैं (गीता 5। 24)। 6 – ऐसे उपासकों में यदि कोई कमी रह जाती है तो उस कमी का अनुभव उनको विलम्ब से होता है और कमी को ठीक-ठीक पहचानने में भी कठिनाई होती है। हाँ , कमी को ठीक-ठीक पहचान लेने पर ये भी उसे दूर कर सकते हैं। 7 – चौथे अध्याय के 34वें और 13वें अध्याय के 7वें श्लोक में भगवान ने ज्ञान योगियों को ज्ञान प्राप्ति के लिये गुरु की उपासना की आज्ञा दी है। अतः निर्गुण उपासना में गुरु की आवश्यकता भी है किंतु गुरु की पूर्णता का निश्चित पता न होने पर अथवा गुरु के पूर्ण न होने पर स्थिर श्रद्धा होने में कठिनाई होती है तथा साधन की सफलता में भी विलम्ब की सम्भावना रहती है। 8 – ऐसे उपासक उपास्य तत्त्व को निर्गुण , निराकार और उदासीन मानते हैं। अतः उन्हें भगवान की कृपा का वैसा अनुभव नहीं होता। वे तत्त्वप्राप्ति में आने वाले विघ्नों को अपनी साधना के बल पर ही दूर करने में कठिनाई का अनुभव करते हैं। फलस्वरूप तत्त्व की प्राप्ति में भी उन्हें विलम्ब हो सकता है। 9 – ज्ञानयोगी अपनी क्रियाओं को सिद्धान्ततः प्रकृति के अर्पण करता है किन्तु पूर्ण विवेक जाग्रत होने पर ही उसकी क्रियाएँ प्रकृति के अर्पण हो सकती हैं। यदि विवेक की किञ्चिन्मात्र भी कमी रही तो क्रियाएँ प्रकृति के अर्पण नहीं होंगी और साधक कर्तृत्वाभिमान रहने से कर्मबन्धन में बँध जायगा। 10 – जब तक साधक के चित्त में पदार्थों का किञ्चिन्मात्र भी आदर तथा अपने कहलाने वाले शरीर और नाम में अहंता-ममता है तब तक उसके लिये पदार्थों को मायामय समझकर उनका त्याग करना कठिन होता है। 11 – यह साधक पात्र बनने पर ही तत्त्व को प्राप्त कर सकेगा। पात्र बनने के लिये विवेक और तीव्र वैराग्य की आवश्यकता होगी जिनको आसक्ति रहते हुए प्राप्त करना कठिन है। ‘अव्यक्ता हि गतिर्दुःखं देहवद्भिरवाप्यते’ – देही , देहभृत् आदि पदों का अर्थ साधारणतया देहधारी पुरुष लिया जाता है। प्रसङ्गानुसार इनका अर्थ जीव और आत्मा भी लिया जाता है। यहाँ ‘देहवद्भिः’ (टिप्पणी प0 633.2) पद का अर्थ देहाभिमानी मनुष्य लेना चाहिये क्योंकि निर्गुण उपासकों के लिये इसी श्लोक के पूर्वार्ध में ‘अव्यक्तासक्तचेतसाम्’ पद आया है जिससे यह प्रतीत होता है कि वे निर्गुण उपासना को श्रेष्ठ तो मानते हैं परन्तु उनका चित्त देहाभिमान के कारण निर्गुण तत्त्व में आविष्ट नहीं हुआ है। देहाभिमान के कारण ही उन्हें साधन में अधिक क्लेश होता है। निर्गुण उपासना में देहाभिमान ही मुख्य बाधा है – ‘देहाभिमानिनि सर्वे दोषाः प्रादुर्भवन्ति’ – इस बाधा की ओर ध्यान दिलाने के लिये ही भगवान ने ‘देहवद्भिः’ पद दिया है। इस देहाभिमान को दूर करने के लिये ही (अर्जुन के पूछे बिना ही ) भगवान ने 13वाँ और 14वाँ अध्याय कहा है। उनमें भी 13वें अध्याय का प्रथम श्लोक देहाभिमान मिटानेके लिये ही कहा गया है। ब्रह्म के निर्गुण निराकार स्वरूप की प्राप्ति को यहाँ ‘अव्यक्ताः गतिः’ कहा गया है। साधारण मनुष्यों की स्थिति व्यक्त अर्थात् देह में होती है। इसलिये उन्हें अव्यक्त में स्थित होने में कठिनाई का अनुभव होता है। यदि साधक अपने को देह वाला न माने तो उसकी अव्यक्त में सुगमता और शीघ्रतापूर्वक स्थिति हो सकती है।