BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12 | भक्तियोग ~ अध्याय बारह
अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग
01 – 12 साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का विषय
ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि सन्नयस्य मत्पराः ।
अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते ॥12.6॥
ये-जो; तु–लेकिन; सर्वाणि-समस्त; कर्माणि-कर्म; मयि–मुझे ; सन्नयस्य–समर्पित कर; मत्पराः-मुझे परम लक्ष्य मानते हुए; अनन्येन -अनन्य; एव-निश्चय ही; योगेन-भक्ति युक्त होकर; माम्-मुझको; ध्यायन्तः-ध्यान करते हुए; उपासते-उपासना करते हुए;
परन्तु जो मेरे परायण रहने वाले भक्त जन अपने सभी कर्मों को मुझे समर्पित करते हैं और मुझे ही अपना परम लक्ष्य समझकर मेरी आराधना करते हैं और अनन्य भक्ति भाव से मेरा ध्यान करते हैं अर्थात मुझ सगुणरूप परमेश्वर को ही अनन्य भक्तियोग से निरन्तर चिन्तन करते हुए भजते हैं और मन को मुझमें स्थिर कर अपनी चेतना को मेरे साथ एकीकृत कर देते हैं ॥12.6॥
[ 11वें अध्याय के 55वें श्लोक में भगवान ने अनन्य भक्त के लक्षणों में तीन विध्यात्मक (मत्कर्मकृत् , मत्परमः और मद्भक्तः ) और दो निषेधात्मक (सङ्गवर्जितः और निर्वैरः) पद दिये थे। उन्हीं पदों का संकेत इस श्लोक में इस प्रकार किया गया है – (1) ‘सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य’ पदों से ‘मत्कर्मकृत् ‘ की ओर लक्ष्य है। (2) ‘मत्पराः’ पद से ‘मत्परमः’ का संकेत है। (3) ‘अनन्येनैव योगेन पदोंमें मद्भक्तः’ का लक्ष्य है। (4) भगवान में ही अनन्यतापूर्वक लगे रहने के कारण उनकी कहीं भी आसक्ति नहीं होती अतः वे ‘सङ्गवर्जितः’ हैं। (5) कहीं भी आसक्ति न रहने के कारण उनके मन में किसी के प्रति भी वैर , द्वेष , क्रोध आदि का भाव नहीं रहता इसलिये ‘निर्वैरः’ पद का भाव भी इसी के अन्तर्गत आ जाता है परन्तु भगवान ने इसे महत्त्व देने के लिये आगे 13वें श्लोक में सिद्ध भक्तों के लक्षणों में सबसे पहले ‘अद्वेष्टा’ पद का प्रयोग किया है। अतः साधक को किसी में किञ्चिन्मात्र भी द्वेष नहीं रखना चाहिये]। ‘ये तु सर्वाणि कर्माणि मयि संन्यस्य’ – अब यहाँ से निर्गुणोपासना की अपेक्षा सगुणोपासना की सुगमता बताने के लिये ‘तु’ पद से प्रकरणभेद करते हैं। ‘यद्यपि कर्माणि पद स्वयं’ ही बहुवचनान्त होने से सम्पूर्ण कर्मों का बोध कराता है तथापि इसके साथ ‘सर्वाणि ‘ विशेषण देकर मन , वाणी , शरीर से होने वाले सभी लौकिक (शरीरनिर्वाह और आजीविकासम्बन्धी) एवं पारमार्थिक (जप-ध्यानसम्बन्धी ) शास्त्रविहित कर्मों का समावेश किया गया है (गीता 9। 27)। यहाँ ‘मयि संन्यस्य’ पदों से भगवान का आशय क्रियाओं का स्वरूप से त्याग करने का नहीं है। कारण कि एक तो स्वरूप से कर्मों का त्याग सम्भव नहीं (गीता 3। 5 18। 11)। दूसरे – यदि सगुणोपासक मोहपूर्वक शास्त्रविहित क्रियाओं का स्वरूप से त्याग करता है तो उसका यह त्याग तामस होगा (गीता 18। 7) और यदि दुःखरूप समझकर शारीरिक क्लेश के भय से वह उनका त्याग करता है तो यह त्याग राजस होगा ( गीता 18। 8)। अतः इस रीति से त्याग करने पर कर्मों से सम्बन्ध नहीं छूटेगा। कर्मबन्धन से मुक्त होने के लिये यह आवश्यक है कि साधक कर्मों में ममता , आसक्ति और फलेच्छा का त्याग करे क्योंकि ममता , आसक्ति और फलेच्छा से किये गये कर्म ही बाँधने वाले होते हैं। यदि साधक का लक्ष्य भगवत्प्राप्ति होता है तो वह पदार्थों की इच्छा नहीं करता और अपने आपको भगवान का समझने के कारण उसकी ममता शरीरादि से हटकर एक भगवान में ही हो जाती है। स्वयं भगवान के अर्पित होने से उसके सम्पूर्ण कर्म भी भगवदर्पित हो जाते हैं। भगवान के लिये कर्म करने के विषय में कई प्रकार हैं जिनको गीता में मदर्पण कर्म , मदर्थ कर्म और मत्कर्म नाम से कहा गया है। 1 – ‘मदर्पण कर्म’ उन कर्मों को कहते हैं जिनका उद्देश्य पहले कुछ और हो किन्तु कर्म करते समय अथवा कर्म करने के बाद उनको भगवान के अर्पण कर दिया जाय। 2 – ‘मदर्थ कर्म’ वे कर्म हैं जो आरम्भ से ही भगवान के लिये किये जायँ अथवा जो भगवत्सेवारूप हों। भगवत्प्राप्ति के लिये कर्म करना भगवान की आज्ञा मानकर कर्म करना और भगवान की प्रसन्नता के लिये कर्म करना – ये सभी भगवदर्थ कर्म हैं। 3 – भगवान का ही काम समझकर सम्पूर्ण लौकिक (व्यापार , नौकरी आदि ) और भगवत्सम्बन्धी (जप , ध्यान आदि ) कर्मों को करना ‘मत्कर्म’ है। वास्तव में कर्म कैसे भी किये जायँ उनका उद्देश्य एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही होना चाहिये। उपर्युक्त तीनों ही प्रकारों (मदर्पणकर्म , मदर्थकर्म , मत्कर्म ) से सिद्धि प्राप्त करने वाले साधक का कर्मों से किञ्चिन्मात्र भी सम्बन्ध नहीं रहता क्योंकि उसमें न तो फलेच्छा और कर्तृत्वाभिमान है और न पदार्थों में और शरीर , मन , बुद्धि तथा इन्द्रियों में ममता ही है। जब कर्म करने के साधन शरीर , मन , बुद्धि आदि ही अपने नहीं हैं तो फिर कर्मों में ममता हो ही कैसे सकती है ? इस प्रकार कर्मों से सर्वथा मुक्त हो जाना ही वास्तविक समर्पण है। सिद्ध पुरुषों की क्रियाओं का स्वतः ही समर्पण होता है और साधक पूर्ण समर्पण का उद्देश्य रखकर वैसे ही कर्म करने की चेष्टा करता है जैसे भक्तियोगी अपनी क्रियाओं को भगवान के अर्पण करके कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है ऐसे ही ज्ञानयोगी क्रियाओं को प्रकृति से हुई समझकर अपने को उनसे सर्वथा असङ्ग और निर्लिप्त अनुभव करके कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। ‘मत्पराः ‘ – परायण होने का अर्थ है – भगवान को परमपूज्य और सर्वश्रेष्ठ समझकर भगवान के प्रति समर्पण भाव से रहना। सर्वथा भगवान के परायण होने से सगुण उपासक अपने आपको भगवान का यन्त्र समझता है। अतः शुभ क्रियाओं को वह भगवान के द्वारा करवायी हुई मानता है तथा संसार का उद्देश्य न रहने के कारण उसमें भोगों की कामना नहीं रहती और कामना न रहने के कारण उससे अशुभ क्रियाएँ होती ही नहीं। ‘अनन्येनैव योगेन मां ध्यायन्त उपासते’ – इन पदों में इष्टसम्बन्धी और उपायसम्बन्धी – दोनों प्रकार की अनन्यता का संकेत है अर्थात् उन भक्तों के इष्ट भगवान ही हैं उनके सिवाय अन्य कोई साध्य उनकी दृष्टि में है ही नहीं और उनकी प्राप्ति के लिये आश्रय भी उन्हीं का है। वे भगवत्कृपा से ही साधन की सिद्धि मानते हैं अपने पुरुषार्थ या साधन के बल से नहीं। वे उपाय भी भगवान को मानते हैं और उपेय भी। वे एक भगवान का ही लक्ष्य , ध्येय रखकर उपासना अर्थात् जप , ध्यान , कीर्तन आदि करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी