BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12 | भक्तियोग ~ अध्याय बारह
अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग
01 – 12 साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का विषय
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात् ।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम् ॥12.7॥
तेषाम्-उनका; अहम्-मैं; समुद्धर्ता-उद्धारक; मृत्यु-मृत्यु के; संसार-संसार रूपी; सागरत्-जन्म और मृत्यु के सागर से; भवामि-होता हूँ; न-नहीं; चिरात्-दीर्घ काल; पार्थ-पृथा पुत्र, अर्जुन; मयि–मुझ पर; आवेशित चेतसाम्-चेतना को एकीकृत करने वाले।
हे पार्थ! उन मुझमें चित्त लगाने वाले – मुझमें ही अपना चित्त स्थिर करने वाले – मुझ में ही अपनी चेतना को एकीकृत करने वाले प्रेमी भक्तों को मैं शीघ्र ही जन्म – मृत्यु रूप संसार-समुद्र से पार करा के उनका उद्धार करने वाला होता हूँ अर्थात उनका उद्धार कर देता हूँ॥12.7॥
तेषामहं समुद्धर्ता ৷৷. मय्यावेशितचेतसाम् – जिन साधकों का लक्ष्य , उद्देश्य , ध्येय भगवान ही बन गये हैं और जिन्होंने भगवान में ही अनन्य प्रेमपूर्वक अपने चित्त को लगा दिया है तथा जो स्वयं भी भगवान में ही लग गये हैं उन्हीं के लिये यहाँ ‘मय्यावेशितचेतसाम्’ पद आया है। जैसे समुद्र में जल ही जल होता है ऐसे ही संसार में मौत ही मौत है। संसार में उत्पन्न होने वाली कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जो कभी क्षण भर के लिये भी मौत के थपेड़ों से बचती हो अर्थात् उत्पन्न होने वाली प्रत्येक वस्तु प्रतिक्षण मौत के तरफ ही जा रही है। इसलिये संसार को मृत्यु संसार-सागर कहा गया है। मनुष्य में अनुकूल और प्रतिकूल – दोनों वृत्तियाँ रहती हैं। संसार की घटना , परिस्थिति तथा प्राणीपदार्थों में अनुकूल-प्रतिकूल वृत्तियाँ राग-द्वेष उत्पन्न करके मनुष्य को संसार में बाँध देती हैं (गीता 7। 27)। यहाँ तक देखा जाता है कि साधक भी सम्प्रदाय-विशेष और संत-विशेष में अनुकूल-प्रतिकूल भावना करके राग-द्वेष के शिकार बन जाते हैं जिससे वे संसार-समुद्र से जल्दी पार नहीं हो पाते। कारण कि तत्त्व को चाहने वाले साधक के लिये साम्प्रदायिकता का पक्षपात बहुत बाधक है। सम्प्रदाय का मोहपूर्वक आग्रह मनुष्य को बाँधता है। इसलिये गीता में भगवान ने जगह-जगह इन द्वन्द्वों (राग और द्वेष ) से छूटने के लिये विशेष जोर दिया है (टिप्पणी प0 635.1)।यदि साधक भक्त अपनी सारी अनुकूलताएँ भगवान में कर ले अर्थात् एकमात्र भगवान से ही अनन्य प्रेम का सम्बन्ध जोड़ ले और सारी प्रतिकूलताएँ संसार में कर ले अर्थात् संसार की सेवा करके अनुकूलता की इच्छा से विमुख हो जाय तो वह इस संसार-बन्धन से बहुत जल्दी मुक्त हो सकता है। संसार में अनुकूल और प्रतिकूल वृत्तियों का होना ही संसार में बँधना है।भगवान का यह सामान्य नियम है कि जो जिस भाव से उनकी शरण लेता है उसी भाव से भगवान भी उसको आश्रय देते हैं – ‘ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम् ‘ (गीता 4। 11)। अतः वे कहते हैं कि यद्यपि मैं सब में समभाव से स्थित हूँ – ‘समोऽहं सर्वभूतेषु’ (गीता 9। 29)? तथापि जिनको एकमात्र प्रिय मैं हूँ जो मेरे लिये ही सम्पूर्ण कर्म करते हैं और मेरे परायण होकर नित्यनिरन्तर मेरे ही ध्यान-जप-चिन्तन आदि में लगे रहते हैं – ऐसे भक्तों का मैं स्वयं मृत्यु संसार-सागर से बहुत जल्दी और सम्यक् प्रकार से उद्धार कर देता हूँ (टिप्पणी प0 635.2)। भगवान ने दूसरे श्लोक में सगुण उपासकों को श्रेष्ठ योगी बताया तथा छठे और सातवें श्लोक में यह बात कही कि ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र उद्धार करता हूँ। इसलिये अब भगवान अर्जुन को ऐसा श्रेष्ठ योगी बनने के लिये पहले आठवें श्लोक में समर्पण योगरूप साधन का वर्णन करके फिर नवें , दसवें और ग्यारहवें श्लोक में क्रमशः अभ्यासयोग , भगवदर्थ कर्म और सर्वकर्मफलत्यागरूप साधनों का वर्णन करते हैं – स्वामी रामसुखदास जी