Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16

 

 

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दैवासुरसम्पद्विभागयोग-  सोलहवाँ अध्याय

अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग

 

आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16काममाश्रित्य दुष्पूरं दम्भमानमदान्विताः।

मोहाद्‍गृहीत्वासद्ग्राहान्प्रवर्तन्तेऽशुचिव्रताः॥16.10॥

 

कामम्-कामवासना; आश्रित्य-प्रश्रय लेकर; दुष्पूरम्-अतृप्ति; दम्भ-अहंकार; मान- अभिमान , मद- गर्व ; अन्विता:-मिथ्या प्रतिष्ठा से भ्रमित; मोहात्-मोह; गृहीत्वा – आकर्षित होकर; असत्-अस्थायी; ग्रहान्-वस्तुओं को ; प्रवर्तन्ते-पनपते हैं; अशुचिव्रताः-अशुभ संकल्प के साथ।

 

अतृप्त काम वासनाओं, पाखंड से पूर्ण , मद और अभिमान में डूबे हुए आसुरी प्रवृति वाले मनुष्य अपने मिथ्या सिद्धांतों से चिपके रहते हैं। इस प्रकार से वे भ्रमित होकर भ्रष्ट आचरणों और दुराग्रहों को धारण करके अशुभ और अशुद्ध संकल्प के साथ इस संसार में काम करते और विचरते रहते हैं॥16.10॥

 

काममाश्रित्य दुष्पूरम् – वे आसुरी प्रकृति वाले कभी भी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेते हैं। जैसे कोई मनुष्य भगवान का , कोई कर्तव्य का , कोई धर्म का , कोई स्वर्ग आदि का आश्रय लेता है । ऐसे ही आसुर प्राणी कभी पूरी न होने वाली कामनाओं का आश्रय लेते हैं। उनके मन में यह बात अच्छी तरह से जँची हुई रहती है कि कामना के बिना आदमी पत्थर जैसा हो जाता है , कामना के आश्रय के बिना आदमी की उन्नति हो ही नहीं सकती । आज जितने आदमी ‘नेता , पण्डित , धनी’ आदि हो गये हैं वे सब कामना के कारण ही हुए हैं। इस प्रकार ‘कामना के आश्रित रहने वाले’ भगवान को , परलोक को , प्रारब्ध आदि को नहीं मानते। अब उन कामनाओं की पूर्ति किन के द्वारा करें ? उसके साथी (सहायक) कौन हैं ? तो बताते हैं – दम्भमानमदान्विताः। वे दम्भ , मान और मद से युक्त रहते हैं अर्थात् वे उनकी कामनापूर्ति के बल हैं। जहाँ जिनके सामने जैसा बनने से अपना मतलब सिद्ध होता हो अर्थात् धन , मान , बड़ाई , पूजा-प्रतिष्ठा , आदर-सत्कार , वाह-वाह आदि मिलते हों वहाँ उनके सामने वैसा ही अपने को दिखाना ‘दम्भ’ है। अपने को बड़ा मानना , श्रेष्ठ मानना ‘मान’ है। हमारे पास इतनी विद्या , बुद्धि , योग्यता आदि है – इस बात को लेकर नशा सा आ जाना ‘मद’ है। वे सदा दम्भ , मान और मद में सने हुए रहते हैं , तदाकार रहते हैं। अशुचिव्रताः – उनके व्रत-नियम बड़े अपवित्र होते हैं । जैसे – इतने गाँव में , इतने गायों के बाड़ों में आग लगा देनी है , इतने आदमियों को मार देना है आदि। ये वर्ण , आश्रम , आचारशुद्धि आदि सब ढकोसलाबाजी है । अतः किसी के भी साथ खाओ-पीओ। हम कथा आदि नहीं सुनेंगे । हम तीर्थ , मन्दिर आदि स्थानों में नहीं जाएंगे – ऐसे उनके व्रत-नियम होते हैं। ऐसे नियमों वाले डाकू भी होते हैं। उनका यह नियम रहता है कि बिना मारपीट किये ही कोई वस्तु दे दे तो वे लेंगे नहीं। जब तक चोट नहीं लगायेंगे , घाव से खून नहीं टपकेगा तब तक हम उसकी वस्तु नहीं लेंगे आदि। मोहाद् गृहीत्वासद्ग्राहान् – मूढ़ता के कारण वे अनेक दुराग्रहों को पकड़े रहते हैं। तामसी बुद्धि को लेकर चलना ही मूढ़ता है (गीता 18। 32)। वे शास्त्रों की , वेदों की , वर्णाश्रमों की और कुलपरम्परा की मर्यादा को नहीं मानते प्रत्युत इनके विपरीत चलने में , इनको भ्रष्ट करने में ही वे अपनी बहादुरी , अपना गौरव समझते हैं। वे अकर्तव्य को ही कर्तव्य और कर्तव्य को ही अकर्तव्य मानते हैं , हित को ही अहित और अहित को ही हित मानते हैं , ठीक को ही बेठीक और बेठीक को ही ठीक मानते हैं। इस असद्विचारों के कारण उनकी बुद्धि इतनी गिर जाती है कि वे यह कहने लग जाते हैं कि माता-पिता का हमारे पर कोई ऋण नहीं है। उनसे हमारा क्या सम्बन्ध है ? झूठ , कपट , जालसाजी करके भी धन कैसे बचे आदि उनके दुराग्रह होते हैं। सत्कर्म , सद्भाव और सद्विचारों के अभाव में उन आसुरी प्रकृति वालों के नियम , भाव और आचरण किस उद्देश्य को लेकर और किस प्रकार के होते हैं ? अब उनको आगे के दो श्लोकों में बताते हैं।

 

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