Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16

 

 

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दैवासुरसम्पद्विभागयोग-  सोलहवाँ अध्याय

अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग

 

फलसहित दैवी और आसुरी संपदा का कथन

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16तेजः क्षमा धृतिः शौचमद्रोहोनातिमानिता।

भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत॥16.3॥

 

तेजः-शक्ति; क्षमा – क्षमाः धृतिः-धैर्य; शौचम्-पवित्रता; अद्रोहः-दूसरों के प्रति ईर्ष्याभाव से मुक्ति; न नहीं; अतिमानिता–प्रतिष्ठा की इच्छा से मुक्त; भवन्ति हैं; सम्पदम्-गुण; दैवीम् दिव्य स्वभाव; अभिजातस्य-से संपर्क; भारत-हे भरतपुत्र।

 

तेज (प्रभाव), क्षमा, धैर्य, शरीर की शुद्धि, किसी में भी वैर या शत्रु भाव का न रहना और मान – सम्मान को न चाहना, गर्व का अभाव , हे भरतवंशी अर्जुन ! ये सभी दैवी सम्पदा या दैवीय गुणों को प्राप्त हुए मनुष्य के लक्षण हैं ॥16.3॥

(श्रेष्ठ पुरुषों की उस शक्ति का नाम ‘तेज’ है कि जिसके प्रभाव से उनके सामने विषयासक्त और नीच प्रकृति वाले मनुष्य भी प्रायः अन्यायाचरण से रुककर उनके कथनानुसार श्रेष्ठ कर्मों में प्रवृत्त हो जाते हैं)

 

    तेजः – महापुरुषों का सङ्ग मिलने पर उनके प्रभाव से प्रभावित होकर साधारण पुरुष भी दुर्गुण-दुराचारों का त्याग करके सद्गुण-सदाचारों में लग जाते हैं। महापुरुषों की उस शक्ति को ही यहाँ ‘तेज’ कहा है। ऐसे तो क्रोधी आदमी को देखकर भी लोगों को उसके स्वभाव के विरुद्ध काम करने में भय लगता है परन्तु यह क्रोधरूप दोष का तेज है। साधक में दैवी सम्पत्ति के गुण प्रकट होने से उसको देखकर दूसरे लोगों के भीतर स्वाभाविक ही सौम्यभाव आते हैं अर्थात् उस साधक के सामने दूसरे लोग दुराचार करने में लज्जित होते हैं , हिचकते हैं और अनायास ही सद्भावपूर्वक सदाचार करने लग जाते हैं। यही उन दैवीसम्पत्ति वालों का तेज (प्रभाव) है। क्षमा – बिना कारण अपराध करने वाले को दण्ड देने की सामर्थ्य रहते हुए भी उसके अपराध को सह लेना और उसको माफ कर देना क्षमा (टिप्पणी प0 798) है। यह क्षमा  ‘ मोह , ममता , भय और स्वार्थ ‘ को लेकर भी की जाती है जैसे – पुत्र के अपराध कर देने पर पिता उसे क्षमा कर देता है तो यह क्षमा ‘मोह-ममता’ को लेकर होने से शुद्ध नहीं है। इसी प्रकार किसी बलवान एवं क्रूर व्यक्ति के द्वारा हमारा अपराध किये जाने पर हम भयवश उसके सामने कुछ नहीं बोलते तो यह क्षमा ‘भय ‘ को लेकर है। हमारी धन-सम्पत्ति की जाँच-पड़ताल करने के लिये इंस्पेक्टर आता है तो वह हमें धमकाता है , अनुचित भी बोलता है और उसका ठहरना हमें बुरा भी लगता है तो भी स्वार्थहानि के भय से हम उसके सामने कुछ नहीं बोलते तो यह क्षमा ‘स्वार्थ’ को लेकर है। पर ऐसी क्षमा वास्तविक क्षमा नहीं है। वास्तविक क्षमा तो वही है जिसमें हमारा अनिष्ट करने वाले को यहाँ और परलोक में भी किसी प्रकार का दण्ड न मिले – ऐसा भाव रहता है। क्षमा माँगना भी दो रीति से होता है (1) हमने किसी का अपकार किया तो उसका दण्ड हमें न मिले – इस भय से भी क्षमा माँगी जाती है परन्तु इस क्षमा में स्वार्थ का भाव रहनेसे यह ऊँचे दर्जे की क्षमा नहीं है। (2) हमसे किसी का अपराध हुआ तो अब यहाँ से आगे उम्रभर ऐसा अपराध फिर कभी नहीं करूँगा – इस भावसे जो क्षमा माँगी जाती है वह अपने सुधार की दृष्टि को लेकर होती है और ऐसी क्षमा माँगने से ही मनुष्य की उन्नति होती है। मनुष्य क्षमा को अपने में लाना चाहे तो कौन सा उपाय करे ? यदि मनुष्य अपने लिये किसी से किसी प्रकार के सुख की आशा न रखे और अपना अपकार करने वाले का बुरा न चाहे तो उसमें क्षमाभाव प्रकट हो जाता है। धृतिः – किसी भी अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति में विचलित न होकर अपनी स्थिति में कायम रहने की शक्ति का नाम धृति (धैर्य) है (गीता 18। 33)। वृत्तियाँ सात्त्विक होती हैं तो धैर्य ठीक रहता है और वृत्तियाँ राजसी-तामसी होती हैं तो धैर्य वैसा नहीं रहता। जैसे बद्रीनारायण के रास्ते पर चलने वाले के लिये कभी गरमी , चढ़ाई आदि प्रतिकूलताएँ आती हैं और कभी ठण्डक, उतराई आदि अनुकूलताएँ आती हैं पर चलने वाले को उन प्रतिकूलताओं और अनूकूलताओं को देखकर ठहरना नहीं है प्रत्युत हमें तो बद्रीनारायण पहुँचना है – इस उद्देश्य से धैर्य और तत्परतापूर्वक चलते रहना है। ऐसे ही साधक को अच्छी-मन्दी वृत्तियों और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों की ओर देखना ही नहीं चाहिये। इनमें उसे धीरज धारण करना चाहिये क्योंकि जो अपना उद्देश्य सिद्ध करना चाहता है वह मार्ग में आने वाले सुख और दुःख को नहीं देखता – मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम्।। (भर्तृहरिनीतिशतक) शौचम् – बाह्यशुद्धि एवं अन्तःशुद्धि का नाम शौच है (टिप्पणी प0 799.1)। परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य रखने वाला साधक बाह्यशुद्धि का भी खयाल रखता है क्योंकि बाह्यशुद्धि रखने से अन्तःकरण की शुद्धि स्वतः होती है और अन्तःकरण शुद्ध होने पर बाह्यअशुद्धि उसको सुहाती नहीं। इस विषय पर पतञ्जलि महाराज ने कहा है – शौचात् स्वाङ्गजुगुप्सा परैरसंसर्गः। (योगदर्शन 2। 40) शौच से साधक की अपने शरीर में घृणा अर्थात् अपवित्र-बुद्धि और दूसरों से संसर्ग न करने की इच्छा होती है। तात्पर्य यह है कि अपने शरीर को शुद्ध रखने से शरीर की अपवित्रता का ज्ञान होता है। शरीर की अपवित्रता का ज्ञान होने से सम्पूर्ण शरीर इसी तरह के हैं – इसका बोध होता है। इस बोध से दूसरे शरीरों के प्रति जो आकर्षण होता है उसका अभाव हो जाता है अर्थात् दूसरे शरीरों से सुख लेने की इच्छा मिट जाती है। बाह्यशुद्धि चार प्रकार से होती है (1) शारीरिक (2) वाचिक (3) कौटुम्बिक और (4) आर्थिक। (1) शारीरिक शुद्धि – प्रमाद , आलस्य , आरामतलबी , स्वाद-शौकीनी आदि से शरीर अशुद्ध हो जाता है और इनके विपरीत कार्यतत्परता , पुरुषार्थ , उद्योग , सादगी आदि रखते हुए आवश्यक कार्य करने पर शरीर शुद्ध हो जाता है। ऐसे ही जल , मृत्ति का आदि से भी शारीरिक शुद्धि होती है। (2) वाचिक शुद्धि – झूठ बोलने , कड़ुआ बोलने , व्यर्थ बकवाद करने , निन्दा करने , चुगली करने आदि से वाणी अशुद्ध हो जाती है। इन दोषों से रहित होकर सत्य , प्रिय एवं हितकारक आवश्यक वचन बोलना (जिससे दूसरों की पारमार्थिक उन्नति होती हो और देश , ग्राम , मोहल्ले , परिवार , कुटुम्ब आदि का हित होता हो ) और अनावश्यक बात न करना – यह वाणी की शुद्धि है। (3) कौटुम्बिक शुद्धि – अपने बाल-बच्चों को अच्छी शिक्षा देना जिससे उनका हित हो , वही आचरण करना , कुटुम्बियों का हम पर जो न्याययुक्त अधिकार है उसको अपनी शक्ति के अनुसार पूरा करना , कुटुम्बियों में किसी का पक्षपात न करके सबका समानरूप से हित करना – यह कौटुम्बिक शुद्धि है। (4) आर्थिक शुद्धि – न्याययुक्त , सत्यतापूर्वक , दूसरों के हित का बर्ताव करते हुए जिस धन का उपार्जन किया गया है उसको यथाशक्ति अरक्षित , अभावग्रस्त , दरिद्री , रोगी , अकालपीड़ित , भूखे आदि आवश्यकता वालों को देने से एवं गौ , स्त्री , ब्राह्मणों की रक्षा में लगाने से द्रव्य की शुद्धि होती है। त्यागी , वैरागी , तपस्वी , सन्त-महापुरुषों की सेवा में लगाने से एवं सद्ग्रन्थों को सरल भाषा में छपवाकर कम मूल्य में देने से तथा उनका लोगों में प्रचार करने से धन की महान शुद्धि हो जाती है। परमात्मप्राप्ति का ही उद्देश्य हो जाने पर अपनी (स्वयं की) शुद्धि हो जाती है। स्वयं की शुद्धि होने पर शरीर , वाणी , कुटुम्ब , धन आदि सभी शुद्ध एवं पवित्र होने लगते हैं। शरीर आदि के शुद्ध हो जाने से वहाँ का स्थान , वायुमण्डल आदि भी शुद्ध हो जाते हैं। बाह्यशुद्धि और पवित्रता का खयाल रखने से शरीर की वास्तविकता अनुभव में आ जाती है जिससे शरीर से अंहता-ममता छोड़ने में सहायता मिलती है। इस प्रकार यह साधन भी परमात्मप्राप्ति में निमित्त बनता है। अद्रोहः – बिना कारण अनिष्ट करने वाले के प्रति भी अन्तःकरण में बदला लेने की भावना का न होना ‘अद्रोह ‘ (टिप्पणी प0 799.2) है। साधारण व्यक्ति का कोई अनिष्ट करता है तो उसके मन में अनिष्ट करने वाले के प्रति द्वेष की एक गाँठ बँध जाती है कि मौका पड़ने पर मैं इसका बदला ले ही लूँगा किन्तु जिसका उद्देश्य परमात्मप्राप्ति का है उस साधक का कोई कितना ही अनिष्ट क्यों न करे उसके मन में अनिष्ट करने वाले के प्रति बदला लेने की भावना ही पैदा नहीं होती। कारण कि कर्मयोग का साधक सबके हित के लिये कर्तव्यकर्म करता है , ज्ञानयोग का साधक सबको अपना स्वरूप समझता है और भक्तियोग का साधक सबमें अपने इष्ट भगवान को समझता है। अतः वह किसी के प्रति कैसे द्रोह कर सकता है ? – निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध।।(मानस 7। 112 ख) नातिमानिता – एक मानिता होती है और एक अतिमानिता होती है। सामान्य व्यक्तियों से मान चाहना ‘मानिता’ है और जिनसे हमने शिक्षा प्राप्त की , जिनका आदर्श ग्रहण किया और ग्रहण करना चाहते हैं उनसे भी अपना मान , आदर-सत्कार चाहना ‘अतिमानिता’ है। इन मानिता और अतिमानिता का न होना ‘नातिमानिता’ है। स्थूल दृष्टि से मानिता के दो भेद होते हैं – (1) सांसारिक मानिता – धन , विद्या , गुण , बुद्धि , योग्यता , अधिकार , पद , वर्ण , आश्रम आदि को लेकर दूसरों की अपेक्षा अपने में एक श्रेष्ठता का भाव होता है कि मैं साधारण मनुष्यों की तरह थोड़े ही हूँ । मेरा कितने लोग आदर-सत्कार करते हैं । वे आदर करते हैं तो यह ठीक ही है क्योंकि मैं आदर पाने योग्य ही हूँ – इस प्रकार अपने प्रति जो मान्यता होती है वह सांसारिक ‘मानिता’ कहलाती है। (2) पारमार्थिक मानिता – प्रारम्भिक साधनकाल में जब अपने में कुछ दैवीसम्पत्ति प्रकट होने लगती है तब साधक को दूसरों की अपेक्षा अपने में कुछ विशेषता दिखती है। साथ ही दूसरे लोग भी उसे परमात्मा की ओर चलने वाला साधक मानकर उसका विशेष आदर करते हैं और साथ ही साथ ये साधन करने वाले हैं , अच्छे सज्जन हैं – ऐसी प्रशंसा भी करते हैं। इससे साधक को अपने में विशेषता मालूम देती है पर वास्तव में यह विशेषता अपने साधन में कमी होने के कारण ही दिखती है। यह विशेषता दिखना ‘पारमार्थिक मानिता’ है। जब तक अपने में व्यक्तित्व (एकदेशीयता , परिछिन्नता) रहता है तभी तक अपने में दूसरों की अपेक्षा विशेषता दिखायी दिया करती है परन्तु ज्यों-ज्यों व्यक्तित्व मिटता चला जाता है त्यों ही त्यों साधक का दूसरों की अपेक्षा अपने में विशेषता का भाव मिटता चला जाता है। अन्त में इन सभी मानिताओं का अभाव होकर साधक में दैवीसम्पत्ति का गुण ‘नातिमानिता’ प्रकट हो जाती है। दैवीसम्पत्ति के जितने सद्गुण-सदाचार हैं उनको पूर्णतया जाग्रत् करने का उद्देश्य तो साधक का होना ही चाहिये। हाँ , प्रकृति (स्वभाव) की भिन्नता से किसी में किसी गुण की कमी तो किसी में किसी गुण की कमी रह सकती है परन्तु वह कमी साधक के मन में खटकती रहती है और वह प्रभु का आश्रय लेकर अपने साधन को तत्परता से करते रहता है । अतः भगवत्कृपा से वह कमी मिटती जाती है। कमी ज्यों-ज्यों मिटती जाती है त्यों-त्यों उत्साह और उस कमी के उत्तरोत्तर मिटने की सम्भावना भी बढ़ती जाती है। इससे दुर्गुण-दुराचार सर्वथा नष्ट होकर सद्गुण-सदाचार अर्थात् दैवीसम्पत्ति प्रकट हो जाती है। भवन्ति सम्पदं दैवीमभिजातस्य भारत – भगवान कहते हैं कि हे अर्जुन ! ये सभी दैवीसम्पत्ति को प्राप्त हुए मनुष्यों के लक्षण हैं। परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य होने पर ये दैवीसम्पत्ति के लक्षण साधक में स्वाभाविक ही आने लगते हैं। कुछ लक्षण पूर्वजन्मों के संस्कारों से भी जाग्रत् होते हैं परन्तु साधक इन गुणों को अपने नहीं मानता और न उनको अपने पुरुषार्थ से उपार्जित ही मानता है प्रत्युत गुणों के आने में वह भगवान की ही कृपा मानता है। कभी खयाल करने पर साधक के मन में ऐसा विचार होता है कि मेरे में पहले तो ऐसी वृत्तियाँ नहीं थीं , ऐसे सद्गुण नहीं थे फिर ये कहाँ से आ गये तो ये सब भगवान की कृपा से ही आये हैं – ऐसा अनुभव होने से उस साधक को दैवीसम्पत्ति का अभिमान नहीं आता।साधक को दैवीसम्पत्ति के गुणों को अपने नहीं मानना चाहिये क्योंकि यह देव – परमात्मा की सम्पत्ति है , व्यक्तिगत (अपनी) किसी की नहीं है। यदि व्यक्तिगत होती तो यह अपने में ही रहती , किसी अन्य व्यक्ति की नहीं रहती। इसको व्यक्तिगत मानने से ही अभिमान आता है। अभिमान आसुरी-सम्पत्ति का मुख्य लक्षण है। अभिमान की छाया में ही आसुरी-सम्पत्ति का मुख्य लक्षण है। अभिमान की छाया में ही आसुरी-सम्पत्ति के सभी अवगुण रहते हैं। यदि दैवीसम्पत्ति से आसुरीसम्पत्ति (अभिमान) पैदा हो जाय तो फिर आसुरीसम्पत्ति कभी मिटेगी ही नहीं परन्तु दैवीसम्पत्ति से आसुरीसम्पत्ति कभी पैदा नहीं होती प्रत्युत दैवीसम्पत्ति के गुणों के साथ-साथ आसुरीसम्पत्ति के जो अवगुण रहते हैं उनसे ही गुणों का अभिमान पैदा होता है अर्थात् साधन के साथ कुछ-कुछ असाधन रहने से ही अभिमान आदि दोष पैदा होते हैं। जैसे किसी को सत्य बोलने का अभिमान होता है तो उसके मूल में वह सत्य के साथ-साथ असत्य भी बोलता है जिसके कारण सत्य का अभिमान आता है। तात्पर्य यह है कि दैवीसम्पत्ति के गुणों को अपना मानने से एवं गुणों के साथ अवगुण रहने से ही अभिमान आता है। सर्वथा गुण आने पर गुणों का अभिमान हो ही नहीं सकता। यहाँ ‘दैवीसम्पत्ति’ कहने का तात्पर्य है कि यह भगवान की सम्पत्ति है। अतः भगवान का सम्बन्ध होने से , उनका आश्रय लेने से शरणागत भक्त में यह स्वाभाविक ही आती है। जैसे शबरी के प्रसङ्ग में रामजीने कहा है -‘नवधा भगति कहउँ तोहिं पाहीं। सावधान सुनु धरु मन माहीं।। नव महुँ एकउ जिन्ह कें होई। नारि पुरुष सचराचर कोई।। सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरें। सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें।। ‘(मानस 3। 35 — 36) मनुष्य , देवता , भूत-पिशाच , पशु-पक्षी , नारकीय जीव , कीट-पतङ्ग , लता-वृक्ष आदि जितने भी स्थावर-जङ्गम प्राणी हैं उन सबमें अपनी-अपनी योनि के अनुसार मिले हुए शरीरों के रुग्ण एवं जीर्ण हो जाने पर भी मैं जीता रहूँ , मेरे प्राण बने रहें – यह इच्छा बनी रहती है (टिप्पणी प0 801)। इस इच्छा का होना ही आसुरीसम्पत्ति है। त्यागी-वैरागी साधक में भी प्राणों के बने रहने की इच्छा रहती है परन्तु उसमें प्राणपोषणबुद्धि , इन्द्रियलोलुपता नहीं रहती क्योंकि उसका उद्देश्य परमात्मा होता है न कि शरीर और संसार। जब साधक भक्त का भगवान में प्रेम हो जाता है तब उसको भगवान प्राणों से भी प्यारे लगते हैं। प्राणों का मोह न रहने से उसके प्राणों का आधार केवल भगवान हो जाते हैं। इसलिये वह भगवान को प्राणनाथ , प्राणेश्वर , प्राणप्रिय आदि सम्बोधनों से पुकारता है। भगवान का वियोग न सहने से उसके प्राण भी छूट सकते हैं। कारण कि मनुष्य जिस वस्तु को प्राणों से भी बढ़कर मान लेता है उसके लिये यदि प्राणों का त्याग करना पड़े तो वह सहर्ष प्राणों का त्याग कर देता है जैसे – पतिव्रता स्त्री पति को प्राणों से भी बढ़कर (प्राणनाथ) मानती है तो उसका प्राण , शरीर , वस्तु , व्यक्ति आदि में मोह नहीं रहता। इसीलिये पति के मरने पर वह उसके वियोग में प्रसन्नतापूर्वक सती हो जाती है। तात्पर्य यह हुआ कि जब केवल भगवान में अनन्य प्रेम हो जाता है तो फिर प्राणों का मोह नहीं रहता। प्राणों का मोह न रहने से आसुरीसम्पत्ति सर्वथा मिट जाती है और दैवीसम्पत्ति स्वतः प्रकट हो जाती है। इसी बात का संकेत गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ने इस प्रकार किया है – प्रेम भगति जल बिनु रघुराई। अभिअंतर मल कबहुँ न जाई।। (मानस 7। 49। 3) अब तक एक परमात्मा का ही उद्देश्य रखने वालों की दैवीसम्पत्ति बतायी परन्तु सांसारिक भोग भोगना और संग्रह करना ही जिनका उद्देश्य है ऐसे प्राणपोषणपरायण लोगों की कौन सी सम्पत्ति होती है ? इसे अब आगे के श्लोक में बताते हैं।

 

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