Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16

 

 

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दैवासुरसम्पद्विभागयोग-  सोलहवाँ अध्याय

अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग

 

आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16एतां दृष्टिमवष्टभ्य नष्टात्मानोऽल्पबुद्धयः।

प्रभवन्त्युग्रकर्माणः क्षयाय जगतोऽहिताः॥16.9॥

 

एताम्-ऐसे; दृष्टिम् – विचार; अवष्टभ्य-देखते हैं; नष्ट-दिशाहीन होकर; आत्मानः-जीवात्माएँ ; अल्पबुद्धयः-अल्पज्ञान; प्रभवन्ति-जन्मते हैं; उग्र-निर्दयी; कर्माणः-कर्म; क्षयाय-विनाशकारी; जगतः-संसार का; अहिताः-शत्रु।

 

ऐसे विचारों पर स्थिर रहते हुए पथ भ्रष्ट आत्माएँ अल्प बुद्धि और क्रूर कृत्यों के साथ संसार के शत्रु के रूप में जन्म लेती हैं और इसके विनाश का जोखिम बनती है अर्थात इस मिथ्या ज्ञान या नास्तिक दृष्टि या नास्तिक बुद्धि का सहारा लेने वाले मनुष्य – जिनका स्वभाव नष्ट हो गया है तथा जिनकी बुद्धि मन्द है, वे घोर कर्म करने वाले क्रूर कर्मी मनुष्य जगत के शत्रु होते हैं और केवल जगत्‌ के नाश के लिए ही समर्थ और उत्पन्न होते हैं  ॥16.9॥

 

  एतां दृष्टिमवष्टभ्य – न कोई कर्तव्य-अकर्तव्य है , न शौचाचार-सदाचार है , न ईश्वर है , न प्रारब्ध है , न पाप-पुण्य है , न परलोक है , न किये हुए कर्मों का कोई दण्डविधान है – ऐसी नास्तिक दृष्टि का आश्रय लेकर वे चलते हैं। नष्टात्मानः – आत्मा कोई चेतन तत्त्व है , आत्मा की कोई सत्ता है – इस बात को वे मानते ही नहीं। वे तो इस बात को मानते हैं कि जैसे कत्था और चूना मिलने से एक लाली पैदा हो जाती है – ऐसी ही भौतिक तत्त्वों के मिलने से एक चेतना पैदा हो जाती है। वह चेतन कोई अलग चीज है – यह बात नहीं है। उनकी दृष्टि में जड ही मुख्य होता है। इसलिये वे चेतन तत्त्व से बिलकुल ही विमुख रहते हैं। चेतनतत्त्व (आत्मा) से विमुख होने से उनका पतन हो चुका होता है। अल्पबुद्धयः – उनमें जो विवेक-विचार होता है वह अत्यन्त ही अल्प , तुच्छ होता है। उनकी दृष्टि केवल दृश्य पदार्थों पर अवलम्बित रहती है कि कमाओ , खाओ , पीओ और मौज करो। आगे भविष्य में क्या होगा ? परलोक में क्या होगा ? ये बातें उनकी बुद्धि में नहीं आतीं। यहाँ अल्पबुद्धि का यह अर्थ नहीं है कि हरेक काम में उनकी बुद्धि काम नहीं करती। सत्यतत्त्व क्या है ? धर्म क्या है ? अधर्म क्या है ? सदाचार-दुराचार क्या है ? और उनका परिणाम क्या होता है ? इस विषय में उनकी बुद्धि काम नहीं करती परन्तु धनादि वस्तुओं के संग्रह में उनकी बुद्धि बड़ी तेज होती है। तात्पर्य यह है कि पारमार्थिक उन्नति के विषय में उनकी बुद्धि तुच्छ होती है और सांसारिक भोगों में फँसने के लिये उनकी बुद्धि बड़ी तेज होती है। उग्रकर्माणः – वे किसी से डरते ही नहीं। यदि डरेंगे तो चोर , डाकू या राजकीय आदमी से डरेंगे। ईश्वर से , परलोक से , मर्यादा से वे नहीं डरते। ईश्वर और परलोक का भय न होने से उनके द्वारा दूसरों की हत्या आदि बड़े भयानक कर्म होते हैं। अहिताः – उनका स्वभाव खराब होने से वे दूसरों का अहित (नुकसान) करने में ही लगे रहते हैं और दूसरों का नुकसान करने में ही उनको सुख होता है। जगतः क्षयाय प्रभवन्ति – उनके पास जो शक्ति है , ऐश्वर्य है , सामर्थ्य है , पद है , अधिकार है वह सब का सब दूसरों का नाश करने में ही लगता है। दूसरों का नाश ही उनका उद्देश्य होता है। अपना स्वार्थ पूरा सिद्ध हो या थोड़ा सिद्ध हो अथवा बिलकुल सिद्ध न हो पर वे दूसरों की उन्नति को सह नहीं सकते। दूसरों का नाश करने में ही उनको सुख होता है अर्थात् पराया हक छीनना , किसी को जान से मार देना – इसी में उनको प्रसन्नता होती है। सिंह जैसे दूसरे पशुओं को मारकर खा जाता है , दूसरों के दुःख की परवाह नहीं करता और राजकीय स्वार्थी अफसर जैसे दस , पचास , सौ रुपयों के लिये हजारों रुपयों का सरकारी नुकसान कर देते हैं । ऐसे ही अपना स्वार्थ पूरा करने के लिये दूसरों का चाहे कितना ही नुकसान हो जाय उसकी वे परवाह नहीं करते। वे आसुर स्वभाव वाले पशु-पक्षियों को मारकर खा जाते हैं और अपने थोड़े से सुख के लिये दूसरों को कितना दुःख हुआ – इसको वे सोच ही नहीं सकते। जहाँ सत्कर्म , सद्भाव और सद्विचार का निरादर हो जाता है वहाँ मनुष्य कामनाओं का आश्रय लेकर क्या करता है ? इसको आगे के श्लोक में बताते हैं।

 

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