Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16

 

 

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दैवासुरसम्पद्विभागयोग-  सोलहवाँ अध्याय

अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग

 

आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम्‌।

इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम्‌॥16.13॥

 

इदम् – यह; अद्य-आज; मया – मेरे द्वारा; लब्धाम्-प्राप्त; इमम्-इसे; प्राप्स्ये-मैं प्राप्त करूँगा; मनोरथम – इच्छित; इदम् – यह; अस्ति-है; इदम् – यह; अपि-भी; मे-मेरा; भविष्यति-भविष्य में; पुनः – फिर; धनम्-धन;

 

आसुरी व्यक्ति सोचता है-“मैंने आज इतनी संपत्ति प्राप्त कर ली है और अब मैं इससे अपनी इन कामनाओं की पूर्ति कर सकूँगा। यह सब मेरी है और कल मेरे पास इससे भी अधिक धन होगा ” अर्थात आसुरी मनुष्य सदैव यही सोचा करता है कि आज मैंने यह प्राप्त कर लिया , आज मैंने इतनी वस्तुएं प्राप्त कर ली और अब मैं इस से अपने इस मनोरथ को पूरा करूंगा , आज मेरे पास इतना धन है और भविष्य में इस से भी अधिक धन होगा ॥16.13॥

 

इदमद्य मया लब्धमिमं प्राप्स्ये मनोरथम् – आसुरी प्रकृति वाले व्यक्ति लोभ के परायण होकर मनोरथ करते रहते हैं कि हमने अपने उद्योग से , बुद्धिमानी से , चतुराई से , होशियारी से , चालाकी से इतनी वस्तुएँ तो आज प्राप्त कर लीं , इतनी और प्राप्त कर लेंगे। इतनी वस्तुएँ तो हमारे पास हैं इतनी और वहाँ से आ जायेंगीं। इतना धन व्यापार से आ जायगा। हमारा बड़ा लड़का इतना पढ़ा हुआ है । अतः इतना धन और वस्तुएँ तो उसके विवाह में आ ही जायेंगीं। इतना धन टैक्स की चोरी से बच जायेगा , इतना जमीन से आ जायेगा , इतना मकानों के किराये से आ जायेगा , इतना ब्याज का आ जायेगा आदि आदि। इदमस्तीदमपि मे भविष्यति पुनर्धनम् – जैसे-जैसे उनका लोभ बढ़ता जाता है वैसे ही वैसे उनके मनोरथ भी बढ़ते जाते हैं। जब उनका चिन्तन बढ़ जाता है तब वे चलते-फिरते हुए , काम-धंधा करते हुए , भोजन करते हुए , मल-मूत्र का त्याग करते हुए और यदि नित्यकर्म (पाठ-पूजा-जप आदि) करते हैं तो उसे करते हुए भी धन कैसे बढ़े ? इसका चिन्तन करते रहते हैं। इतनी दुकानें , मिल , कारखाने तो हमने खोल दिये हैं , इतने और खुल जाएं। इतनी गायें , भैंसे , भेड़ , बकरियाँ आदि तो हैं ही , इतनी और हो जाएं। इतनी जमीन तो हमारे पास है पर यह बहुत थोड़ी है , किसी तरह से और मिल जाय तो बहुत अच्छा हो जायगा। इस प्रकार धन आदि बढ़ाने के विषय में उनके मनोरथ होते हैं। जब उनकी दृष्टि अपने शरीर तथा परिवार पर जाती है तब वे उस विषय में मनोरथ करने लग जाते हैं कि अमुक-अमुक दवाएं सेवन करने से शरीर ठीक रहेगा। अमुक-अमुक चीजें इकट्ठी कर ली जाएं तो हम सुख और आराम से रहेंगे। एयरकण्डीशन वाली गा़ड़ी मँगवा लें जिससे बाहर की गरमी न लगे। ऊन के ऐसे वस्त्र मँगवा लें जिससे सरदी न लगे। ऐसा बरसाती कोट या छाता मँगवा लें जिससे वर्षा से शरीर गीला न हो। ऐसे-ऐसे गहने-कपड़े और श्रृंगार आदि की सामग्री मँगवा लें जिससे हम खूब सुन्दर दिखायी दें आदि आदि। ऐसे मनोरथ करते-करते उनको यह याद नहीं रहता कि हम बूढ़े हो जायँगे तो इस सामग्री का क्या करेंगे ? और मरते समय यह सामग्री हमारे क्या काम आयेगी । अन्त में इस सम्पत्ति का मालिक कौन होगा ? बेटा तो कपूत है अतः वह सब नष्ट कर देगा। मरते समय यह धन-सम्पत्ति खुद को दुःख देगी। इस सामग्री के लोभ के कारण ही मुझे बेटा-बेटी से डरना पड़ता है और नौकरों से डरना पड़ता है कि कहीं ये लोग हड़ताल न कर दें। प्रश्न – दैवीसम्पत्ति को धारण करके साधन करने वाले साधक के मन में भी कभी-कभी व्यापार आदि के कार्य को लेकर (इस श्लोक की तरह) इतना काम हो गया , इतना काम करना बाकी है और इतना काम आगे हो जायगा , इतना पैसा आ गया है और इतना वहाँ पर टैक्स देना है आदि स्फुरणाएँ होती हैं। ऐसी ही स्फुरणाएँ जडता का उद्देश्य रखने वाले आसुरीसम्पत्ति वालों के मन में भी होती हैं तो इन दोनों की वृत्तियों में क्या अन्तर हुआ ? उत्तर – दोनों की वृत्तियाँ एक सी दिखने पर भी उनमें बड़ा अन्तर है। साधक का उद्देश्य परमात्मप्राप्ति का होता है । अतः वह उन वृत्तियों में तल्लीन नहीं होता परन्तु आसुरी प्रकृति वालों का उद्देश्य धन इकट्ठा करने और भोग भोगने का रहता है । अतः वे उन वृत्तियों में ही तल्लीन होते हैं। तात्पर्य यह है कि दोनों के उद्देश्य भिन्न-भिन्न होने से दोनों में बड़ा भारी अन्तर है।

 

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