Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16

 

 

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दैवासुरसम्पद्विभागयोग-  सोलहवाँ अध्याय

अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग

 

आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16आशापाशशतैर्बद्धाः कामक्रोधपरायणाः।

ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसञ्चयान्‌॥16.12॥

 

आशापाश–इच्छाओं रूपी बन्धन; शतैः-सैकड़ों द्वारा; बद्धाः-बँधे हुए; कामवासना; क्रोध -क्रोधः परायणाः-समर्पित होकर; ईहन्ते – प्रयास करते हैं; काम-वासना; भोग-इन्द्रियतृप्ति; अर्थम् – के लिए; अन्यायेन-अवैध रूप से; अर्थ-धन; सञ्चयान्–संचय करना।

 

सैंकड़ों आशा पाशों और कामनाओं की सैकड़ों फाँसियों से बँधे हुए मनुष्य काम-क्रोध के परायण होकर विषय भोगों के लिए अन्यायपूर्वक धन आदि पदार्थों का संग्रह करने की चेष्टा करते रहते हैं अर्थात सैंकड़ों कामनाओं के बंधनों में पड़ कर मनुष्य काम वासना और क्रोध से प्रेरित होकर या काम और क्रोध के वश में हो कर अवैध ढंग से अन्यायपूर्वक धन संग्रह करने में जुटे रहते हैं। यह सब वे इन्द्रिय तृप्ति के लिए करते हैं॥16.12॥

 

 आशापाशशतैर्बद्धाः – आसुरी सम्पत्ति वाले मनुष्य आशारूपी सैकड़ों पाशों से बँधे रहते हैं अर्थात् उनको इतना धन हो जायगा , इतना मान हो जायगा , शरीर में नीरोगता आ जायगी आदि सैकड़ों आशाओं की फाँसियाँ लगी रहती हैं। आशा की फाँसी से बँधे हुए मनुष्यों के पास लाखों-करोड़ों रुपये हो जायँ तो भी उनका मँगतापन नहीं मिटता । उनकी तो यही आशा रहती है कि सन्तों से कुछ मिल जाय , भगवान से कुछ मिल जाय , मनुष्यों से कुछ मिल जाय। इतना ही नहीं पशु-पक्षी , वृक्ष-लता , पहाड़-समुद्र आदि से भी हमें कुछ मिल जाय। इस प्रकार उनमें सदा खाऊँ-खाऊँ बनी रहती है। ऐसे व्यक्तियों की सांसारिक आशाएँ कभी पूरी नहीं होतीं (गीता 9। 12)। यदि पूरी हो भी जाएं तो भी कुछ फायदा नहीं है क्योंकि यदि वे जीते रहेंगे तो आशावाली वस्तु नष्ट हो जायगी और आशावाली वस्तु रहेगी तो वे मर जायँगे अथवा दोनों ही नष्ट हो जायँगे। जो आशारूपी फाँसी से बँधे हुए हैं वे कभी एक जगह स्थिर नहीं रह सकते और जो इस आशारूपी फाँसी से छूट गये हैं वे मौज से एक जगह रहते हैं – आशा नाम मनुष्याणां काचिदाश्चर्यश्रृङ्खला। यया बद्धाः प्रधावन्ति मुक्तास्तिष्ठन्ति पङ्गुवत्।। कामक्रोधपरायणाः – उनका परम अयन स्थान काम और क्रोध ही होते हैं (टिप्पणी प0 819.3) अर्थात् अपनी कामनापूर्ति करने के लिये और क्रोधपूर्वक दूसरों को कष्ट देने के लिये ही उनका जीवन होता है। कामक्रोध के परायण मनुष्यों का यह निश्चय रहता है कि कामना के बिना मनुष्य जड हो जाता है। क्रोध के बिना उसका तेज भी नहीं रहता। कामना से ही सब काम होता है नहीं तो आदमी काम करे ही क्यों ? कामना के बिना तो आदमी का जीवन ही भार हो जायगा। संसार में काम और क्रोध ही तो सार चीज है। इसके बिना लोग हमें संसार में रहने ही नहीं देंगे। क्रोध से ही शासन चलता है नहीं तो शासन को मानेगा ही कौन ? क्रोध से दबाकर दूसरों को ठीक करना चाहिये नहीं तो लोग हमारा सर्वस्व छीन लेंगे। फिर तो हमारा अपना कुछ अस्तित्व ही नहीं रहेगा आदि। ईहन्ते कामभोगार्थमन्यायेनार्थसंचयान् – आसुरी प्रकृति वाले मनुष्यों का उद्देश्य धन का संग्रह करना और विषयों का भोग करना होता है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये वे बेईमानी , धोखेबाजी , विश्वासघात , टैक्स की चोरी आदि करके दूसरों का हक मारकर मन्दिर , बालक , विधवा आदि का धन दबाकर और इस तरह अनेक अन्यान्य , पाप करके धन का संचय करना चाहते हैं। कारण कि उनके मन में यह बात गहराई से बैठी रहती है कि आजकल के जमाने में ईमानदारी से , न्याय से कोई धनी थोड़े ही हो सकता है । ये जितने धनी हुए हैं सब अन्याय , चोरी , धोखेबाजी करके ही हुए हैं। ईमानदारी से , न्याय से काम करने की जो बात है वह तो कहनेमात्र की है , काम में नहीं आ सकती। यदि हम न्याय के अनुसार काम करेंगे तो हमें दुःख पाना पड़ेगा और जीवनधारण करना मुश्किल हो जायगा। ऐसा उन आसुर स्वभाव वाले व्यक्तियों का निश्चय होता है । जो व्यक्ति न्यायपूर्वक स्वर्ग के भोगों की प्राप्ति के लिये लगे हुए हैं उनके लिये भी भगवान ने कहा है कि उन लोगों की बुद्धि में हमें परमात्मा की प्राप्ति करना है यह निश्चय हो ही नहीं सकता (गीता 2। 44)। फिर जो अन्यायपूर्वक धन कमाकर प्राणों के पोषण में लगे हुए हैं उनकी बुद्धि में परमात्मप्राप्ति का निश्चय कैसे हो सकता है ? परन्तु वे भी यदि चाहें तो परमात्मप्राप्ति का निश्चय करके साधनपरायण हो सकते हैं। ऐसा निश्चय करने के लिये किसी को भी मना नहीं है क्योंकि मनुष्यजन्म परमात्मप्राप्ति के लिये ही मिला है। आसुर स्वभाव वाले व्यक्ति लोभ , क्रोध और अभिमान को लेकर किस प्रकार के मनोरथ किया करते हैं? उसे क्रमशः आगे के तीन श्लोकों में बताते हैं।

 

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