दैवासुरसम्पद्विभागयोग- सोलहवाँ अध्याय
अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग
शास्त्रविपरीत आचरणों को त्यागने और शास्त्रानुकूल आचरणों के लिए प्रेरणा
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥16.21॥
त्रिविधाम् – तीन प्रकार का; नरकस्य-नरक में; इदम् – यह; द्वारम् – द्वार; नाशनम् – विनाश;आत्मन:-आत्मा का; कामः-काम, क्रोध:-क्रोध; तथा-और; लोभ:-लोभ; तस्मात्-इसलिए; एतत्-उन; त्रयम्-तीनों को; त्यजेत्-त्याग देना चाहिए।
काम, क्रोध तथा लोभ- ये तीन प्रकार के नरक के द्वार हैं । ये तीनों आत्मा का नाश करने वाले अर्थात जीवात्मा का पतन करने वाले और उसको अधोगति में ले जाने वाले हैं। इसलिए इन तीनों को त्याग देना चाहिए ॥16.21॥
( सर्व अनर्थों के मूल और नरक की प्राप्ति में हेतु होने से यहाँ काम, क्रोध और लोभ को ‘नरक के द्वार’ कहा है)
कामः क्रोधस्तथा लोभस्त्रिविधं नरकस्येदं द्वारम् – भगवान ने पाँचवें श्लोक में कहा था कि दैवीसम्पत्ति मोक्ष के लिये और आसुरीसम्पत्ति बन्धन के लिये है। तो वह आसुरीसम्पत्ति आती कहाँ से है , जहाँ संसार की कामना होती है। संसार के भोगपदार्थों का संग्रह , मान , बड़ाई, आराम आदि जो अच्छे दिखते हैं उनमें जो महत्त्वबुद्धि या आकर्षण है बस वही मनुष्य को नरकों की तरफ ले जाने वाला है। इसलिये काम , क्रोध , लोभ , मोह , मद और मत्सर – ये ष़ड्रिपु माने गये हैं। इनमें से कहीं पर तीन का , कहीं पर दो का और कहीं पर एक का कथन किया जाता है पर वे सब मिले-जुले हैं , एक ही धातु के हैं। इन सबमें काम ही मूल है क्योंकि कामना के कारण ही आदमी बँधता है (गीता 5। 12)। तीसरे अध्याय के 36वें श्लोक में अर्जुन ने पूछा था कि मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप का आचरण क्यों करता है ? उसके उत्तर में भगवान ने काम और क्रोध – ये दो शत्रु बताये परन्तु उन दोनों में भी ‘एष’ शब्द देकर कामना को ही मुख्य बताया क्योंकि कामना में विघ्न पड़ने पर क्रोध आता है। यहाँ काम , क्रोध और लोभ – ये तीन शत्रु बताते हैं। तात्पर्य है कि भोगों की तरफ वृत्तियों का होना काम है और संग्रह की तरफ वृत्तियों का होना लोभ है। जहाँ काम शब्द अकेला आता है वहाँ उसके अन्तर्गत ही भोग और संग्रह की इच्छा आती है परन्तु जहाँ काम और लोभ – दोनों स्वतन्त्ररूप से आते हैं वहाँ भोग की इच्छा को लेकर काम और संग्रह की इच्छा को लेकर लोभ आता है और इन दोनों में बाधा पड़ने पर क्रोध आता है। जब काम , क्रोध और लोभ – तीनों अधिक बढ़ जाते हैं तब मोह होता है। काम से क्रोध पैदा होता है और क्रोध से सम्मोह हो जाता है (गीता 2। 62 — 63)। यदि कामना में बाधा न पड़े तो लोभ पैदा होता है और लोभ से सम्मोह हो जाता है। वास्तव में यह काम ही क्रोध और लोभ का रूप धारण कर लेता है। सम्मोह हो जाने पर तमोगुण आ जाता है। फिर तो पूरी आसुरी सम्पत्ति आ जाती है। नाशनमात्मनः – काम , क्रोध और लोभ – ये तीनों मनुष्य का पतन करने वाले हैं। जिनका उद्देश्य भोग भोगना और संग्रह करना होता है वे लोग (अपनी समझ से) अपनी उन्नति करने के लिये इन तीनों दोषों को हितकारी मान लेते हैं। उनका यही भाव रहता है कि हम लोग काम आदि से सुख पायेंगे , आराम से रहेंगे , खूब भोग भोगेंगे। यह भाव ही उनका पतन कर देता है। तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् – ये काम , क्रोध आदि नरकों के दरवाजे हैं। इसलिये मनुष्य इनका त्याग कर दे। इनका त्याग कैसे करे ? तीसरे अध्याय के 34वें श्लोक में भगवान ने बताया है कि प्रत्येक इन्द्रिय के विषय में अनुकूलता और प्रतिकूलता को लेकर राग (काम) और द्वेष (क्रोध) स्थित रहते हैं। साधक को चाहिये कि वह इनके वशीभूत न हो। वशीभूत न होने का अर्थ है कि काम , क्रोध , लोभ को लेकर अर्थात् इनके आश्रित होकर कोई कार्य न करे क्योंकि इनके वशीभूत होकर शास्त्र , धर्म और लोकमर्यादा के विरुद्ध कार्य करने से मनुष्यका पतन हो जाता है। अब भगवान काम , क्रोध और लोभ से रहित होने का माहात्म्य बताते हैं ।