Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16

 

 

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दैवासुरसम्पद्विभागयोग-  सोलहवाँ अध्याय

अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग

 

फलसहित दैवी और आसुरी संपदा का कथन

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुष्यमेव च।

अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्‌॥16.4॥

 

दम्भ:-पाखंड; दर्पः- घमंड ; अभिमान:-गर्व; च-और; क्रोध:-क्रोध; पारुष्यम्-कठोर; एव-निश्चय ही; च-और; अज्ञानम्-अज्ञानता; च-और; अभिजातस्य-से सम्पन्न; पार्थ-पृथापुत्र अर्थात अर्जुन; सम्पदम्-गुण; आसुरीम् आसुरी।।

 

हे पार्थ ! दम्भ या पाखण्ड करना, घमण्ड करना, अभिमान या गर्व करना, क्रोध करना, निष्ठुरता या कठोरता रखना, कठोर वाणी और अविवेक या अज्ञान का होना भी – ये सभी आसुरी सम्पदा को प्राप्त हुए या आसुरी गुणों से युक्त मनुष्य के लक्षण हैं॥16.4॥

 

  दम्भः – मान , बड़ाई , पूजा , ख्याति आदि प्राप्त करने के लिये अपनी वैसी स्थिति न होने पर भी वैसी स्थिति दिखाने का नाम दम्भ है। यह दम्भ दो प्रकार से होता है (1) सद्गुण-सदाचारों को लेकर – अपने को धर्मात्मा , साधक , विद्वान , गुणवान आदि प्रकट करना अर्थात् अपने में वैसा आचरण न होने पर भी अपने में श्रेष्ठ गुणों को लेकर वैसा आचरण दिखाना , थोड़ा होने पर भी ज्यादा दिखाना , भोगी होने पर भी अपने को योगी दिखाना आदि दिखावटी भावों और क्रियाओं का होना – यह सद्गुण-सदाचारों को लेकर दम्भ है। (2) दुर्गुण-दुराचारों को लेकर – जिसका आचरण , खान-पान स्वाभाविक अशुद्ध नहीं है – ऐसा व्यक्ति भी जिनके आचरण , खान-पान अशुद्ध हैं – ऐसे दुर्गुणी-दुराचारी लोगों में जाकर उनको राजी करके अपनी इज्जत जमाने के लिये , मान-आदर आदि प्राप्त करने के लिये, अपने मन में बुरा लगने पर भी वैसा आचरण , खान-पान कर बैठता है – यह दुर्गुण-दुराचारों को लेकर दम्भ है। तात्पर्य यह है कि जब मनुष्य प्राण , शरीर , धन , सम्पत्ति , आदर , महिमा आदि को प्रधानता देने लगता है तब उसमें दम्भ आ जाता है। दर्पः – घमण्ड का नाम दर्प है। धन-वैभव , जमीन-जायदाद , मकान-परिवार आदि ममता वाली चीजों को लेकर अपने में जो बड़प्पन का अनुभव होता है वह ‘दर्प ‘ है। जैसे – मेरे पास इतना धन है , मेरा इतना बड़ा परिवार है , मेरा इतना राज्य है , मेरे पास इतनी जमीन-जायदाद है , मेरे पीछे इतने आदमी हैं , मेरी आवाज के पीछे इतने आदमी बोलते हैं , मेरे पक्ष में बहुत आदमी हैं , धन-सम्पत्ति-वैभव में मेरी बराबरी कौन कर सकता है ? मेरे पास ऐसे-ऐसे पद हैं – अधिकार हैं , संसार में मेरा कितना यश – प्रतिष्ठा हो रही है , मेरे बहुत अनुयायी हैं , मेरा सम्प्रदाय कितना ऊँचा है , मेरे गुरुजी कितने प्रभावशाली हैं आदि आदि। अभिमानः – अहंता वाली चीजों को लेकर अर्थात् स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीर को लेकर अपने में जो बड़प्पन का अनुभव होता है उसका नाम ‘अभिमान’ है (टिप्पणी प0 802.1)। जैसे – मैं जाति-पाति में कुलीन हूँ , मैं वर्ण-आश्रम में ऊँचा हूँ , हमारी जाति में हमारी प्रधानता है , गाँवभर में हमारी बात चलती है अर्थात् हम जो कह देंगे उसको सभी मानेंगे , हम जिसको सहारा देंगे उस आदमी के विरुद्ध चलने में सभी लोग भयभीत होंगे और हम जिसके विरोधी होंगे उसका साथ देने में भी सभी लोग भयभीत होंगे , राजदरबार में भी हमारा आदर है इसलिये हम जो कह देंगे उसे कोई टालेगा नहीं , हम न्याय-अन्याय जो कुछ भी करेंगे उसको कोई टाल नहीं सकता , उसका कोई विरोध नहीं कर सकता , मैं बड़ा विद्वान् हूँ ; मैं अणिमा , महिमा , गरिमा आदि सिद्धियों को जानता हूँ इसलिये सारे संसार को उथल-पुथल कर सकता हूँ आदिआदि। क्रोधः – दूसरों का अनिष्ट करने के लिये अन्तःकरण में जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है उसका नाम क्रोध है। मनुष्य के स्वभाव के विपरीत कोई काम करता है तो उसका अनिष्ट करने के लिये अन्तःकरण में उत्तेजना होकर जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है वह क्रोध है। क्रोध और क्षोभ में अन्तर है। बच्चा उद्दण्डता करता है , कहना नहीं मानता तो माता-पिता उत्तेजना में आकर उसको ताड़ना करते हैं – यह उनका क्षोभ (हृदय की हलचल) है , क्रोध नहीं। कारण कि उनमें बच्चे का अनिष्ट करने की भावना होती ही नहीं प्रत्युत बच्चे के हित की भावना होती है परंतु यदि उत्तेजना में आकर दूसरे का अनिष्ट , अहित करके उसे दुःख देने में सुख का अनुभव होता है तो यह क्रोध है। आसुरी प्रकृति वालों में यही क्रोध होता है।क्रोध के वशीभूत होकर मनुष्य न करने योग्य काम भी कर बैठता है जिसके फलस्वरूप स्वयं उसको पश्चात्ताप करना पड़ता है। क्रोधी व्यक्ति उत्तेजना में आकर दूसरों का अपकार तो करता है पर क्रोध से स्वयं उसका अपकार कम नहीं होता क्योंकि अपना अनिष्ट किये बिना क्रोधी व्यक्ति दूसरे का अनिष्ट कर ही नहीं सकता। इसमें भी एक मर्म की बात है कि क्रोधी व्यक्ति जिसका अनिष्ट करता है उसका किन्हीं दुष्कर्मों का जो फल भोगरूप से आने वाला है वही होता है अर्थात् उसका कोई नया अनिष्ट नहीं हो सकता परंतु क्रोधी व्यक्ति का दूसरे का अनिष्ट करने की भावना से और अनिष्ट करने से नया पापसंग्रह हो जायगा तथा उसका स्वभाव भी बिगड़ जायगा। यह स्वभाव उसे नरकों में ले जाने का कारण बन जायगा और वह जिस योनि में जायगा वहीं उसे दुःख देगा। क्रोध स्वयं को ही जलाता है (टिप्पणी प0 802.2)। क्रोधी व्यक्ति की संसार में अच्छी ख्याति नहीं होती प्रत्युत निन्दा ही होती है। खास अपने घर के आदमी भी क्रोधी से डरते हैं। इसी अध्याय के 21वें श्लोक में भगवान ने क्रोध को नरकों का दरवाजा बताया है। जब मनुष्य के स्वार्थ और अभिमान में बाधा पड़ती है तब क्रोध पैदा होता है। फिर क्रोध से सम्मोह , सम्मोह से स्मृति-विभ्रम , स्मृति-विभ्रम से बुद्धिनाश और बुद्धिनाश से मनुष्य का पतन हो जाता है (गीता 2। 62 — 63)। पारुष्यम् – कठोरता का नाम ‘पारुष्य’ है। यह कई प्रकार का होता है जैसे – शरीर से अकड़कर चलना , टेढ़े चलना – यह शारीरिक पारुष्य है। नेत्रों से टेढ़ा-मेढ़ा देखना – यह नेत्रों का पारुष्य है। वाणी से कठोर बोलना जिससे दूसरे भयभीत हो जाएँ – यह वाणी का पारुष्य है। दूसरों पर आफत , संकट , दुःख आने पर भी उनकी सहायता न करके राजी होना आदि जो कठोर भाव होते हैं यह हृदय का पारुष्य है। जो शरीर और प्राणों के साथ एक हो गये हैं – ऐसे मनुष्यों को यदि दूसरों की क्रिया , वाणी बुरी लगती है तो उसके बदले में वे उनको कठोर वचन सुनाते हैं , दुःख देते हैं और स्वयं राजी होकर कहते हैं कि आपने देखा कि नहीं मैंने उसके साथ ऐसा कड़ा व्यवहार किया कि उसके दाँत खट्टे कर दिये । अब वह मेरे साथ बोल सकता है क्या । यह सब व्यवहार का पारुष्य है।स्वार्थबुद्धि की अधिकता रहने के कारण मनुष्य अपना मतलब सिद्ध करने के लिये अपनी क्रियाओं से दूसरों को कष्ट होगा , उन पर कोई आफत आयेगी – इन बातों पर विचार ही नहीं कर सकता। हृदय में कठोर भाव होने से वह केवल अपना मतलब देखता है और उसके मन , वाणी , शरीर , बर्ताव आदि सब जगह कठोरता रहती है। स्वार्थभाव की बहुत ज्यादा वृत्ति बढ़ती है तो वह हिंसा आदि भी कर बैठता है जिससे उसके स्वभाव में स्वाभाविक ही क्रूरता आ जाती है। क्रूरता आने पर हृदय में सौम्यता बिलकुल नहीं रहती। सौम्यता न रहने से उसके बर्ताव में लेन-देन में स्वाभाविक ही कठोरता रहती है। इसलिये वह केवल दूसरों से रुपये ऐंठने , दूसरों को दुःख देने आदि में लगा रहता है। इनके परिणाम में मुझे सुख होगा या दुःख – इसका वह विचार ही नहीं कर सकता। अज्ञानम् – यहाँ अज्ञान नाम अविवेक का है। अविवेकी पुरुषों को सत्असत् , सार-असार , कर्तव्य-अकर्तव्य आदि का बोध नहीं होता। कारण कि उनकी दृष्टि नाशवान पदार्थों के भोग और संग्रह पर ही लगी रहती है। इसलिये (परिणाम पर दृष्टि न रहने से) वे यह सोच ही नहीं सकते कि ये नाशवान पदार्थ कब तक हमारे साथ रहेंगे और हम कब तक इनके साथ रहेंगे। पशुओं की तरह केवल प्राण-पोषण में ही लगे रहने के कारण वे क्या कर्तव्य है और क्या अकर्तव्य है – इन बातों को नहीं जान सकते और न जानना ही चाहते हैं। वे तात्कालिक संयोगजन्य सुख को ही सुख मानते हैं और शरीर तथा इन्द्रियों के प्रतिकूल संयोग को ही दुःख मानते हैं। इसलिये वे उद्योग तो सुख के लिये ही करते हैं पर परिणाम में उनको पहले से भी अधिक दुःख मिलता है (टिप्पणी प0 803.1)। फिर भी उनको चेत नहीं होता कि इसका हमारे लिये नतीजा क्या होगा ? वे तो मान-बड़ाई , सुख-आराम , धन-सम्पत्ति आदि के प्रलोभन में आकर न करने लायक काम भी करने लग जाते हैं जिनका नतीजा उनके लिये तथा दुनिया के लिये भी बड़ा अहितकारक होता है। अभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम् – हे पार्थ ! ये सब आसुरी सम्पत्ति (टिप्पणी प0 803.2) को प्राप्त हुए मनुष्यों के लक्षण हैं। मरणधर्मी शरीर के साथ एकता मानकर मैं कभी मरूँ नहीं , सदा जीता रहूँ और सुख भोगता रहूँ – ऐसी इच्छा वाले मनुष्य के अन्तःकरण में ये लक्षण होते हैं। 18वें अध्याय के 40वें श्लोक में भगवान ने कहा है कि कोई भी साधारण प्राणी प्रकृति के गुणों के सम्बन्ध से सर्वथा रहित नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि प्रत्येक जीव परमात्मा का अंश होते हुए भी प्रकृति के साथ सम्बन्ध लेकर ही पैदा होता है। प्रकृति के साथ सम्बन्ध का तात्पर्य है – प्रकृति के कार्य शरीर में मैं-मेरे का सम्बन्ध (तादात्म्य) और पदार्थों में ममता , आसक्ति तथा कामना का होना। शरीर में मैं-मेरे का सम्बन्ध ही आसुरीसम्पत्ति का मूलभूत लक्षण है। जिसका प्रकृति के साथ मुख्यता से सम्बन्ध है उसी के लिये यहाँ कहा गया है कि वह आसुरीसम्पत्ति को प्राप्त हुआ है। प्रकृति के साथ सम्बन्ध जीव का अपना माना हुआ है। अतः वह जब चाहे इस सम्बन्ध का त्याग कर सकता है। कारण कि जीव (आत्मा) चेतन तथा निर्विकार है और प्रकृति जड तथा प्रतिक्षण परिवर्तनशील है इसलिये चेतन का जड से सम्बन्ध वास्तव में है नहीं केवल मान रखा है। इस सम्बन्ध को छोड़ते ही आसुरीसम्पत्ति सर्वथा मिट जाती है। इस प्रकार मनुष्य में आसुरीसम्पत्ति को मिटाने की पूरी योग्यता है। तात्पर्य है कि आसुरी सम्पत्ति को प्राप्त होते हुए भी वह प्रकृति से अपना सर्वथा सम्बन्धविच्छेद करके आसुरीसम्पत्ति को मिटा सकता है। प्राणों में मनुष्य का ज्यों-ज्यों मोह होता जाता है त्यों ही त्यों आसुरीसम्पत्ति अधिक बढ़ती जाती है। आसुरीसम्पत्ति के अत्यधिक बढ़ने पर मनुष्य अपने प्राणों को रखने के लिये और सुख भोगने के लिये दूसरों का नुकसान भी कर देता है। इतना ही नहीं दूसरों की हत्या कर देने में भी वह नहीं हिचकता।मनुष्य जब अस्थायी को स्थायी मान लेता है तब आसुरीसम्पत्ति के दुर्गुण-दुराचारों के समूह के समूह उसमें आ जाते हैं। तात्पर्य है कि असत का सङ्ग होने से असत् आचरण , असत् भाव और दुर्गुण बिना बुलाये तथा बिना उद्योग किये अपने आप आते हैं जो मनुष्य को परमात्मा से विमुख करके अधोगति में ले जाने वाले हैं। अब भगवान दैवी और आसुरी – दोनों प्रकार की सम्पत्तियों का फल बताते हैं।

 

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