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श्री सीतात्रिजटा संवाद

 

 

दोहा :

जहँ तहँ गईं सकल तब सीता कर मन सोच।
मास दिवस बीतें मोहि मारिहि निसिचर पोच॥11॥

 

तब (इसके बाद) वे सब जहाँ-तहाँ चली गईं।

सीताजी मन में सोच करने लगीं कि एक महीना बीत जाने पर नीच राक्षस रावण मुझे मारेगा॥11॥

 

चौपाई :

त्रिजटा सन बोलीं कर जोरी।

मातु बिपति संगिनि तैं मोरी॥

तजौं देह करु बेगि उपाई।

दुसह बिरहु अब नहिं सहि जाई॥1॥

 

सीताजी हाथ जोड़कर त्रिजटा से बोलीं- हे माता! तू मेरी विपत्ति की संगिनी है।

जल्दी कोई ऐसा उपाय कर जिससे मैं शरीर छोड़ सकूँ। विरह असह्म हो चला है, अब यह सहा नहीं जाता॥1॥11

 

आनि काठ रचु चिता बनाई।

मातु अनल पुनि देहि लगाई॥

सत्य करहि मम प्रीति सयानी।

सुनै को श्रवन सूल सम बानी॥2॥

 

काठ लाकर चिता बनाकर सजा दे। हे माता! फिर उसमें आग लगा दे।

हे सयानी! तू मेरी प्रीति को सत्य कर दे। रावण की शूल के समान दुःख देने वाली वाणी कानों से कौन सुने?॥2॥

 

सुनत बचन पद गहि समुझाएसि।

प्रभु प्रताप बल सुजसु सुनाएसि॥

निसि न अनल मिल सुनु सुकुमारी।

अस कहि सो निज भवन सिधारी3॥

 

सीताजी के वचन सुनकर त्रिजटा ने चरण पकड़कर उन्हें समझाया और प्रभु का प्रताप, बल और सुयश सुनाया।

(उसने कहा-) हे सुकुमारी! सुनो रात्रि के समय आग नहीं मिलेगी। ऐसा कहकर वह अपने घर चली गई॥3॥

 

कह सीता बिधि भा प्रतिकूला।

मिलिहि न पावक मिटिहि न सूला॥

देखिअत प्रगट गगन अंगारा।

अवनि न आवत एकउ तारा॥4॥

 

सीताजी (मन ही मन) कहने लगीं- (क्या करूँ) विधाता ही विपरीत हो गया।

न आग मिलेगी, न पीड़ा मिटेगी। आकाश में अंगारे प्रकट दिखाई दे रहे हैं, पर पृथ्वी पर एक भी तारा नहीं आता॥4॥

 

पावकमय ससि स्रवत न आगी।

मानहुँ मोहि जानि हतभागी॥

सुनहि बिनय मम बिटप असोका।

सत्य नाम करु हरु मम सोका॥5॥

 

चंद्रमा अग्निमय है, किंतु वह भी मानो मुझे हतभागिनी जानकर आग नहीं बरसाता।

हे अशोक वृक्ष! मेरी विनती सुन। मेरा शोक हर ले और अपना (अशोक) नाम सत्य कर॥5॥

 

नूतन किसलय अनल समाना।

देहि अगिनि जनि करहि निदाना॥

देखि परम बिरहाकुल सीता।

सो छन कपिहि कलप सम बीता॥6॥

 

तेरे नए-नए कोमल पत्ते अग्नि के समान हैं। अग्नि दे, विरह रोग का अंत मत कर (अर्थात् विरह रोग को बढ़ाकर सीमा तक न पहुँचा)

सीताजी को विरह से परम व्याकुल देखकर वह क्षण हनुमानजी को कल्प के समान बीता॥6॥

 

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