sundarkand

 

 

Previous    Menu    Next 

 

दूत का रावण को समझाना और लक्ष्मणजी का पत्र देना

 

 

दोहा :

की भइ भेंट कि फिरि गए श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपु दल तेज बल बहुत चकित चित तोर ॥53॥

 

उनसे तेरी भेंट हुई या वे कानों से मेरा सुयश सुनकर ही लौट गए? शत्रु सेना का तेज और बल बताता क्यों नहीं?

तेरा चित्त बहुत ही चकित (भौंचक्का सा) हो रहा है॥53॥

 

चौपाई :

नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसें।

मानहु कहा क्रोध तजि तैसें॥

मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा।

जातहिं राम तिलक तेहि सारा॥1॥

 

(दूत ने कहा-) हे नाथ! आपने जैसे कृपा करके पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना मानिए

(मेरी बात पर विश्वास कीजिए)। जब आपका छोटा भाई श्री रामजी से जाकर मिला,

तब उसके पहुँचते ही श्री रामजी ने उसको राजतिलक कर दिया॥1॥

 

रावन दूत हमहि सुनि काना।

कपिन्ह बाँधि दीन्हें दुख नाना॥

श्रवन नासिका काटैं लागे।

राम सपथ दीन्हें हम त्यागे॥2॥

 

हम रावण के दूत हैं, यह कानों से सुनकर वानरों ने हमें बाँधकर बहुत कष्ट दिए,

यहाँ तक कि वे हमारे नाक-कान काटने लगे। श्री रामजी की शपथ दिलाने पर कहीं उन्होंने हमको छोड़ा॥2॥

 

पूँछिहु नाथ राम कटकाई।

बदन कोटि सत बरनि न जाई॥

नाना बरन भालु कपि धारी।

बिकटानन बिसाल भयकारी॥3॥

 

हे नाथ! आपने श्री रामजी की सेना पूछी, सो वह तो सौ करोड़ मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती।

अनेकों रंगों के भालु और वानरों की सेना है, जो भयंकर मुख वाले, विशाल शरीर वाले और भयानक हैं॥3॥

 

जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा।

सकल कपिन्ह महँ तेहि बलु थोरा॥

अमित नाम भट कठिन कराला।

अमित नाग बल बिपुल बिसाला॥4॥

 

जिसने नगर को जलाया और आपके पुत्र अक्षय कुमार को मारा, उसका बल तो सब वानरों में थोड़ा है।

असंख्य नामों वाले बड़े ही कठोर और भयंकर योद्धा हैं। उनमें असंख्य हाथियों का बल है और वे बड़े ही विशाल हैं॥4॥

 

दोहा : 

द्विबिद मयंद नील नल अंगद गद बिकटासि।
दधिमुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि॥54॥

 

द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद, विकटास्य, दधिमुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्बवान् ये सभी बल की राशि हैं॥54॥

 

चौपाई :

ए कपि सब सुग्रीव समाना।

इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना॥

राम कृपाँ अतुलित बल तिन्हहीं।

तृन समान त्रैलोकहि गनहीं॥1॥

 

ये सब वानर बल में सुग्रीव के समान हैं और इनके जैसे (एक-दो नहीं) करोड़ों हैं, उन बहुत सो को गिन ही कौन सकता है।

श्री रामजी की कृपा से उनमें अतुलनीय बल है। वे तीनों लोकों को तृण के समान (तुच्छ) समझते हैं॥1॥

 

अस मैं सुना श्रवन दसकंधर।

पदुम अठारह जूथप बंदर॥

नाथ कटक महँ सो कपि नाहीं।

जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं॥2॥

 

हे दशग्रीव! मैंने कानों से ऐसा सुना है कि अठारह पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हैं।

हे नाथ! उस सेना में ऐसा कोई वानर नहीं है, जो आपको रण में न जीत सके॥2॥

 

परम क्रोध मीजहिं सब हाथा।

आयसु पै न देहिं रघुनाथा॥

सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला।

पूरहिं न त भरि कुधर बिसाला॥3॥

 

सब के सब अत्यंत क्रोध से हाथ मीजते हैं। पर श्री रघुनाथजी उन्हें आज्ञा नहीं देते।

हम मछलियों और साँपों सहित समुद्र को सोख लेंगे। नहीं तो बड़े-बड़े पर्वतों से उसे भरकर पूर (पाट) देंगे॥3॥

 

मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा।

ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा॥

गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका।

मानहुँ ग्रसन चहत हहिं लंका॥4॥

 

और रावण को मसलकर धूल में मिला देंगे। सब वानर ऐसे ही वचन कह रहे हैं।

सब सहज ही निडर हैं, इस प्रकार गरजते और डपटते हैं मानो लंका को निगल ही जाना चाहते हैं॥4॥

 

दोहा :

सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुँ जीति सकहिं संग्राम॥55॥

 

सब वानर-भालू सहज ही शूरवीर हैं फिर उनके सिर पर प्रभु (सर्वेश्वर) श्री रामजी हैं।

हे रावण! वे संग्राम में करोड़ों कालों को जीत सकते हैं॥55॥

 

चौपाई :

राम तेज बल बुधि बिपुलाई।

सेष सहस सत सकहिं न गाई॥

सक सर एक सोषि सत सागर।

तव भ्रातहि पूँछेउ नय नागर॥1॥

 

श्री रामचंद्रजी के तेज (सामर्थ्य), बल और बुद्धि की अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते।

वे एक ही बाण से सैकड़ों समुद्रों को सोख सकते हैं,

परंतु नीति निपुण श्री रामजी ने (नीति की रक्षा के लिए) आपके भाई से उपाय पूछा॥1॥

 

तासु बचन सुनि सागर पाहीं।

मागत पंथ कृपा मन माहीं॥

सुनत बचन बिहसा दससीसा।

जौं असि मति सहाय कृत कीसा॥2॥

 

उनके (आपके भाई के) वचन सुनकर वे (श्री रामजी) समुद्र से राह माँग रहे हैं,

उनके मन में कृपा भी है (इसलिए वे उसे सोखते नहीं)।

दूत के ये वचन सुनते ही रावण खूब हँसा (और बोला-) जब ऐसी बुद्धि है, तभी तो वानरों को सहायक बनाया है!॥2॥

 

सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई।

सागर सन ठानी मचलाई॥

मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई।

रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई॥3॥

 

स्वाभाविक ही डरपोक विभीषण के वचन को प्रमाण करके उन्होंने समुद्र से मचलना (बालहठ) ठाना है।

अरे मूर्ख! झूठी बड़ाई क्या करता है? बस, मैंने शत्रु (राम) के बल और बुद्धि की थाह पा ली॥3॥

 

सचिव सभीत बिभीषन जाकें।

बिजय बिभूति कहाँ जग ताकें॥

सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी।

समय बिचारि पत्रिका काढ़ी॥4॥

 

जिसके डरपोंक बिभीषण से मंत्री हैं उसके विजय और विभूति कहाँ?

खल रावनके ये वचन सुनकर दूतको बड़ा क्रोध आया। इससे उसने अवसर जानकर लक्ष्मणके हाथकी पत्री निकाली॥

 

रामानुज दीन्हीं यह पाती।

नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती॥

बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन।

सचिव बोलि सठ लाग बचावन॥5॥

 

(और कहा-) श्री रामजी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है। हे नाथ! इसे बचवाकर छाती ठंडी कीजिए।

रावण ने हँसकर उसे बाएँ हाथ से लिया और मंत्री को बुलवाकर वह मूर्ख उसे बँचाने लगा॥5॥

 

दोहा :

बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुल खीस।

राम बिरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस॥56क॥

 

(पत्रिका में लिखा था-) अरे मूर्ख! केवल बातों से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-भ्रष्ट न कर।

श्री रामजी से विरोध करके तू विष्णु, ब्रह्मा और महेश की शरण जाने पर भी नहीं बचेगा॥56 (क)॥

 

की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।

होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग॥56ख॥

 

या तो अभिमान छोड़कर अपने छोटे भाई विभीषण की भाँति प्रभु के चरण कमलों का भ्रमर बन जा।

अथवा रे दुष्ट! श्री रामजी के बाण रूपी अग्नि में परिवार सहित पतिंगा हो जा (दोनों में से जो अच्छा लगे सो कर)॥56 (ख)॥

 

चौपाई : 

सुनत सभय मन मुख मुसुकाई।

कहत दसानन सबहि सुनाई॥

भूमि परा कर गहत अकासा।

लघु तापस कर बाग बिलासा॥1॥

 

पत्रिका सुनते ही रावण मन में भयभीत हो गया, परंतु मुख से (ऊपर से) मुस्कुराता हुआ वह सबको सुनाकर कहने लगा-

जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा करता हो,

वैसे ही यह छोटा तपस्वी (लक्ष्मण) वाग्विलास करता है (डींग हाँकता है)॥1॥

 

कह सुक नाथ सत्य सब बानी।

समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी॥

सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा।

नाथ राम सन तजहु बिरोधा॥2॥

 

शुक (दूत) ने कहा- हे नाथ! अभिमानी स्वभाव को छोड़कर (इस पत्र में लिखी) सब बातों को सत्य समझिए।

क्रोध छोड़कर मेरा वचन सुनिए। हे नाथ! श्री रामजी से वैर त्याग दीजिए॥2॥

 

अति कोमल रघुबीर सुभाऊ।

जद्यपि अखिल लोक कर राऊ॥

मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही।

उर अपराध न एकउ धरिही॥3॥

 

यद्यपि श्री रघुवीर समस्त लोकों के स्वामी हैं, पर उनका स्वभाव अत्यंत ही कोमल है।

मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध वे हृदय में नहीं रखेंगे॥3॥

 

जनकसुता रघुनाथहि दीजे।

एतना कहा मोर प्रभु कीजे॥

जब तेहिं कहा देन बैदेही।

चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही॥4॥

 

जानकीजी श्री रघुनाथजी को दे दीजिए। हे प्रभु! इतना कहना मेरा कीजिए।

जब उस (दूत) ने जानकीजी को देने के लिए कहा, तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी॥4॥

 

नाइ चरन सिरु चला सो तहाँ।

कृपासिंधु रघुनायक जहाँ॥

करि प्रनामु निज कथा सुनाई।

राम कृपाँ आपनि गति पाई॥5॥

 

वह भी (विभीषण की भाँति) चरणों में सिर नवाकर वहीं चला, जहाँ कृपासागर श्री रघुनाथजी थे।

प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और श्री रामजी की कृपा से अपनी गति (मुनि का स्वरूप) पाई॥5॥

 

रिषि अगस्ति कीं साप भवानी।

राछस भयउ रहा मुनि ग्यानी॥

बंदि राम पद बारहिं बारा।

मुनि निज आश्रम कहुँ पगु धारा॥6॥

 

(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी! वह ज्ञानी मुनि था, अगस्त्य ऋषि के शाप से राक्षस हो गया था।

बार-बार श्री रामजी के चरणों की वंदना करके वह मुनि अपने आश्रम को चला गया॥6॥

 

Next Page>>>

 

 

By spiritual talks

Welcome to the spiritual platform to find your true self, to recognize your soul purpose, to discover your life path, to acquire your inner wisdom, to obtain your mental tranquility.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

error: Content is protected !!