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लंका जलाने के बाद हनुमानजी का सीताजी से विदा माँगना और चूड़ामणि पाना

 

 

दोहा :

पूँछ बुझाइ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि।
जनकसुता कें आगें ठाढ़ भयउ कर जोरि॥26॥

 

पूँछ बुझाकर, थकावट दूर करके और फिर छोटा सा रूप धारण कर हनुमानजी श्री जानकीजी के सामने हाथ जोड़कर जा खड़े हुए॥26॥

 

चौपाई : 

मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा।

जैसें रघुनायक मोहि दीन्हा॥

चूड़ामनि उतारि तब दयऊ।

हरष समेत पवनसुत लयऊ॥1॥

 

(हनुमानजी ने कहा-) हे माता! मुझे कोई चिह्न (पहचान) दीजिए, जैसे श्री रघुनाथजी ने मुझे दिया था।

तब सीताजी ने चूड़ामणि उतारकर दी। हनुमानजी ने उसको हर्षपूर्वक ले लिया॥1॥

 

कहेहु तात अस मोर प्रनामा।

सब प्रकार प्रभु पूरनकामा॥

दीन दयाल बिरिदु संभारी।

हरहु नाथ सम संकट भारी॥2॥

 

(जानकीजी ने कहा-) हे तात! मेरा प्रणाम निवेदन करना और इस प्रकार कहना- हे प्रभु! यद्यपि आप सब प्रकार से पूर्ण काम हैं।

(आपको किसी प्रकार की कामना नहीं है), तथापि दीनों (दुःखियों) पर दया करना आपका विरद है (और मैं दीन हूँ) ।

अतः उस विरद को याद करके, हे नाथ! मेरे भारी संकट को दूर कीजिए॥2॥

 

तात सक्रसुत कथा सनाएहु।

बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु॥

मास दिवस महुँ नाथु न आवा।

तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पावा॥3॥

 

हे तात! इंद्रपुत्र जयंत की कथा (घटना) सुनाना और प्रभु को उनके बाण का प्रताप समझाना (स्मरण कराना)।

यदि महीने भर में नाथ न आए तो फिर मुझे जीती न पाएँगे॥3॥

 

कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना।

तुम्हहू तात कहत अब जाना॥

तोहि देखि सीतलि भइ छाती।

पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती॥4॥

 

हे हनुमान्! कहो, मैं किस प्रकार प्राण रखूँ! हे तात! तुम भी अब जाने को कह रहे हो।

तुमको देखकर छाती ठंडी हुई थी। फिर मुझे वही दिन और वही रात!॥4॥

 

दोहा :

जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह।

चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह॥27॥

 

हनुमानजी ने जानकीजी को समझाकर बहुत प्रकार से धीरज दिया और

उनके चरणकमलों में सिर नवाकर श्री रामजी के पास गमन किया॥27॥

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