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हनुमान्-विभीषण संवाद

 

दोहा :

रामायुध अंकित गृह सोभा बरनि न जाइ।

नव तुलसिका बृंद तहँ देखि हरष कपिराई॥5॥

 

वह महल श्री रामजी के आयुध (धनुष-बाण) के चिह्नों से अंकित था, उसकी शोभा वर्णन नहीं की जा सकती।

वहाँ नवीन-नवीन तुलसी के वृक्ष-समूहों को देखकर कपिराज श्री हनुमानजी हर्षित हुए॥5॥

 

चौपाई :

लंका निसिचर निकर निवासा।

इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा॥

मन महुँ तरक करैं कपि लागा।

तेहीं समय बिभीषनु जागा॥1॥

 

लंका तो राक्षसों के समूह का निवास स्थान है। यहाँ सज्जन (साधु पुरुष) का निवास कहाँ?

हनुमानजी मन में इस प्रकार तर्क करने लगे। उसी समय विभीषणजी जागे॥1॥

 

राम राम तेहिं सुमिरन कीन्हा।

हृदयँ हरष कपि सज्जन चीन्हा॥

एहि सन सठि करिहउँ पहिचानी।

साधु ते होइ न कारज हानी॥2॥

 

उन्होंने (विभीषण ने) राम नाम का स्मरण (उच्चारण) किया। हनमान्जी ने उन्हें सज्जन जाना और हृदय में हर्षित हुए।

(हनुमानजी ने विचार किया कि) इनसे हठ करके (अपनी ओर से ही) परिचय करूँगा,

क्योंकि साधु से कार्य की हानि नहीं होती। (प्रत्युत लाभ ही होता है)॥2॥

 

बिप्र रूप धरि बचन सुनाए।

सुनत बिभीषन उठि तहँ आए॥

करि प्रनाम पूँछी कुसलाई।

बिप्र कहहु निज कथा बुझाई॥3॥

 

ब्राह्मण का रूप धरकर हनुमानजी ने उन्हें वचन सुनाए (पुकारा)। सुनते ही विभीषणजी उठकर वहाँ आए।

प्रणाम करके कुशल पूछी (और कहा कि) हे ब्राह्मणदेव! अपनी कथा समझाकर कहिए॥3॥

 

की तुम्ह हरि दासन्ह महँ कोई।

मोरें हृदय प्रीति अति होई॥

की तुम्ह रामु दीन अनुरागी।

आयहु मोहि करन बड़भागी॥4॥

 

क्या आप हरिभक्तों में से कोई हैं? क्योंकि आपको देखकर मेरे हृदय में अत्यंत प्रेम उमड़ रहा है।

अथवा क्या आप दीनों से प्रेम करने वाले स्वयं श्री रामजी ही हैं जो मुझे बड़भागी बनाने (घर-बैठे दर्शन देकर कृतार्थ करने) आए हैं?॥4॥

 

दोहा : 

तब हनुमंत कही सब राम कथा निज नाम।
सुनत जुगल तन पुलक मन मगन सुमिरि गुन ग्राम॥6॥

 

तब हनुमानजी ने श्री रामचंद्रजी की सारी कथा कहकर अपना नाम बताया।

सुनते ही दोनों के शरीर पुलकित हो गए और श्री रामजी के गुण समूहों का स्मरण करके दोनों के मन प्रेम और आनंद में मग्न हो गए॥6॥

 

चौपाई : 

सुनहु पवनसुत रहनि हमारी।

जिमि दसनन्हि महुँ जीभ बिचारी॥

तात कबहुँ मोहि जानि अनाथा।

करिहहिं कृपा भानुकुल नाथा॥1॥

 

(विभीषणजी ने कहा-) हे पवनपुत्र! मेरी रहनी सुनो। मैं यहाँ वैसे ही रहता हूँ जैसे दाँतों के बीच में बेचारी जीभ।

हे तात! मुझे अनाथ जानकर सूर्यकुल के नाथ श्री रामचंद्रजी क्या कभी मुझ पर कृपा करेंगे?॥1॥

 

तामस तनु कछु साधन नाहीं।

प्रीत न पद सरोज मन माहीं॥

अब मोहि भा भरोस हनुमंता।

बिनु हरिकृपा मिलहिं नहिं संता॥2॥

 

मेरा तामसी (राक्षस) शरीर होने से साधन तो कुछ बनता नहीं और न मन में श्री रामचंद्रजी के चरणकमलों में प्रेम ही है,

परंतु हे हनुमान्! अब मुझे विश्वास हो गया कि श्री रामजी की मुझ पर कृपा है, क्योंकि हरि की कृपा के बिना संत नहीं मिलते॥2॥

जौं रघुबीर अनुग्रह कीन्हा।

तौ तुम्ह मोहि दरसु हठि दीन्हा॥

सुनहु बिभीषन प्रभु कै रीती।

करहिं सदा सेवक पर प्रीति॥3॥

 

जब श्री रघुवीर ने कृपा की है, तभी तो आपने मुझे हठ करके (अपनी ओर से) दर्शन दिए हैं।

(हनुमानजी ने कहा-) हे विभीषणजी! सुनिए, प्रभु की यही रीति है कि वे सेवक पर सदा ही प्रेम किया करते हैं॥3॥

 

कहहु कवन मैं परम कुलीना।

कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥

प्रात लेइ जो नाम हमारा।

तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥4॥

 

भला कहिए, मैं ही कौन बड़ा कुलीन हूँ? (जाति का) चंचल वानर हूँ और सब प्रकार से नीच हूँ,

प्रातःकाल जो हम लोगों (बंदरों) का नाम ले ले तो उस दिन उसे भोजन न मिले॥4॥

 

दोहा : 

अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥7॥

 

हे सखा! सुनिए, मैं ऐसा अधम हूँ, पर श्री रामचंद्रजी ने तो मुझ पर भी कृपा ही की है।

भगवान् के गुणों का स्मरण करके हनुमानजी के दोनों नेत्रों में (प्रेमाश्रुओं का) जल भर आया॥7॥

 

चौपाई :

जानतहूँ अस स्वामि बिसारी। फिरहिं ते काहे न होहिं दुखारी॥
एहि बिधि कहत राम गुन ग्रामा। पावा अनिर्बाच्य बिश्रामा॥1॥

 

जो जानते हुए भी ऐसे स्वामी (श्री रघुनाथजी) को भुलाकर (विषयों के पीछे) भटकते फिरते हैं, वे दुःखी क्यों न हों?

इस प्रकार श्री रामजी के गुण समूहों को कहते हुए उन्होंने अनिर्वचनीय (परम) शांति प्राप्त की॥1॥

 

पुनि सब कथा बिभीषन कही।

जेहि बिधि जनकसुता तहँ रही॥

तब हनुमंत कहा सुनु भ्राता।

देखी चहउँ जानकी माता॥2॥

 

फिर विभीषणजी ने, श्री जानकीजी जिस प्रकार वहाँ (लंका में) रहती थीं, वह सब कथा कही।

तब हनुमानजी ने कहा- हे भाई सुनो, मैं जानकी माता को देखता चाहता हूँ॥2॥

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