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लंका वर्णन, लंकिनी वध, लंका में प्रवेश

 

चौपाई :

नाना तरु फल फूल सुहाए।

खग मृग बृंद देखि मन भाए॥

सैल बिसाल देखि एक आगें।

ता पर धाइ चढ़ेउ भय त्यागें॥4॥

 

अनेकों प्रकार के वृक्ष फल-फूल से शोभित हैं। पक्षी और पशुओं के समूह को देखकर तो वे मन में (बहुत ही) प्रसन्न हुए।

सामने एक विशाल पर्वत देखकर हनुमानजी भय त्यागकर उस पर दौड़कर जा चढ़े॥4॥

 

उमा न कछु कपि कै अधिकाई।

प्रभु प्रताप जो कालहि खाई॥

गिरि पर चढ़ि लंका तेहिं देखी।

कहि न जाइ अति दुर्ग बिसेषी॥5॥

 

शिवजी कहते हैं-) हे उमा! इसमें वानर हनुमान् की कुछ बड़ाई नहीं है। यह प्रभु का प्रताप है, जो काल को भी खा जाता है।

पर्वत पर चढ़कर उन्होंने लंका देखी। बहुत ही बड़ा किला है, कुछ कहा नहीं जाता॥5॥

 

अति उतंग जलनिधि चहुँ पासा।

कनक कोट कर परम प्रकासा॥6॥

 

वह अत्यंत ऊँचा है, उसके चारों ओर समुद्र है। सोने के परकोटे (चहारदीवारी) का परम प्रकाश हो रहा है॥6॥

 

छंद :

कनक कोटि बिचित्र मनि कृत सुंदरायतना घना।
चउहट्ट हट्ट सुबट्ट बीथीं चारु पुर बहु बिधि बना॥
गज बाजि खच्चर निकर पदचर रथ बरूथन्हि को गनै।
बहुरूप निसिचर जूथ अतिबल सेन बरनत नहिं बनै॥1॥

 

विचित्र मणियों से जड़ा हुआ सोने का परकोटा है, उसके अंदर बहुत से सुंदर-सुंदर घर हैं। चौराहे, बाजार, सुंदर मार्ग और गलियाँ हैं, सुंदर नगर बहुत प्रकार से सजा हुआ है। हाथी, घोड़े, खच्चरों के समूह तथा पैदल और रथों के समूहों को कौन गिन सकता है! अनेक रूपों के राक्षसों के दल हैं, उनकी अत्यंत बलवती सेना वर्णन करते नहीं बनती॥1॥

 

बन बाग उपबन बाटिका सर कूप बापीं सोहहीं।
नर नाग सुर गंधर्ब कन्या रूप मुनि मन मोहहीं॥
कहुँ माल देह बिसाल सैल समान अतिबल गर्जहीं।
नाना अखारेन्ह भिरहिं बहुबिधि एक एकन्ह तर्जहीं॥2॥

 

वन, बाग, उपवन (बगीचे), फुलवाड़ी, तालाब, कुएँ और बावलियाँ सुशोभित हैं। मनुष्य, नाग, देवताओं और गंधर्वों की कन्याएँ अपने सौंदर्य से मुनियों के भी मन को मोहे लेती हैं। कहीं पर्वत के समान विशाल शरीर वाले बड़े ही बलवान् मल्ल (पहलवान) गरज रहे हैं। वे अनेकों अखाड़ों में बहुत प्रकार से भिड़ते और एक-दूसरे को ललकारते हैं॥2॥

 

करि जतन भट कोटिन्ह बिकट तन नगर चहुँ दिसि रच्छहीं।
कहुँ महिष मानुष धेनु खर अज खल निसाचर भच्छहीं॥
एहि लागि तुलसीदास इन्ह की कथा कछु एक है कही।
रघुबीर सर तीरथ सरीरन्हि त्यागि गति पैहहिं सही॥3॥

 

भयंकर शरीर वाले करोड़ों योद्धा यत्न करके (बड़ी सावधानी से) नगर की चारों दिशाओं में (सब ओर से) रखवाली करते हैं। कहीं दुष्ट राक्षस भैंसों, मनुष्यों, गायों, गदहों और बकरों को खा रहे हैं। तुलसीदास ने इनकी कथा इसीलिए कुछ थोड़ी सी कही है कि ये निश्चय ही श्री रामचंद्रजी के बाण रूपी तीर्थ में शरीरों को त्यागकर परमगति पावेंगे॥3॥

 

दोहा

पुर रखवारे देखि बहु कपि मन कीन्ह बिचार।
अति लघु रूप धरों निसि नगर करौं पइसार॥3॥

 

नगर के बहुसंख्यक रखवालों को देखकर हनुमानजी ने मन में विचार किया कि अत्यंत छोटा रूप धरूँ

और रात के समय नगर में प्रवेश करूँ॥3||

 

चौपाई : 

मसक समान रूप कपि धरी।

लंकहि चलेउ सुमिरि नरहरी॥

नाम लंकिनी एक निसिचरी।

सो कह चलेसि मोहि निंदरी॥1॥

 

हनुमानजी मच्छड़ के समान (छोटा सा) रूप धारण कर नर रूप से लीला करने वाले भगवान् श्री रामचंद्रजी का स्मरण करके लंका को चले (लंका के द्वार पर) लंकिनी नाम की एक राक्षसी रहती थी। वह बोली- मेरा निरादर करके (बिना मुझसे पूछे) कहाँ चला जा रहा है?॥1॥

 

जानेहि नहीं मरमु सठ मोरा।

मोर अहार जहाँ लगि चोरा॥

मुठिका एक महा कपि हनी।

रुधिर बमत धरनीं ढनमनी॥2॥

 

हे मूर्ख! तूने मेरा भेद नहीं जाना जहाँ तक (जितने) चोर हैं, वे सब मेरे आहार हैं।

महाकपि हनुमानजी ने उसे एक घूँसा मारा, जिससे वह खून की उलटी करती हुई पृथ्वी पर ल़ुढक पड़ी॥2॥

 

पुनि संभारि उठी सो लंका।

जोरि पानि कर बिनय ससंका॥

जब रावनहि ब्रह्म बर दीन्हा।

चलत बिरंच कहा मोहि चीन्हा॥3॥

 

वह लंकिनी फिर अपने को संभालकर उठी और डर के मारे हाथ जोड़कर विनती करने लगी।

(वह बोली-) रावण को जब ब्रह्माजी ने वर दिया था, तब चलते समय उन्होंने मुझे राक्षसों के विनाश की यह पहचान बता दी थी कि॥3॥

 

बिकल होसि तैं कपि कें मारे।

तब जानेसु निसिचर संघारे॥

तात मोर अति पुन्य बहूता।

देखेउँ नयन राम कर दूता॥4॥

 

जब तू बंदर के मारने से व्याकुल हो जाए, तब तू राक्षसों का संहार हुआ जान लेना।

हे तात! मेरे बड़े पुण्य हैं, जो मैं श्री रामचंद्रजी के दूत (आप) को नेत्रों से देख पाई॥4॥

 

दोहा :

तात स्वर्ग अपबर्ग सुख धरिअ तुला एक अंग।
तूल न ताहि सकल मिलि जो सुख लव सतसंग॥4॥

 

हे तात! स्वर्ग और मोक्ष के सब सुखों को तराजू के एक पलड़े में रखा जाए,

तो भी वे सब मिलकर (दूसरे पलड़े पर रखे हुए) उस सुख के बराबर नहीं हो सकते, जो लव (क्षण) मात्र के सत्संग से होता है॥4॥

 

चौपाई : 

प्रबिसि नगर कीजे सब काजा।

हृदयँ राखि कोसलपुर राजा॥

गरल सुधा रिपु करहिं मिताई।

गोपद सिंधु अनल सितलाई॥1॥

 

अयोध्यापुरी के राजा श्री रघुनाथजी को हृदय में रखे हुए नगर में प्रवेश करके सब काम कीजिए।

उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, समुद्र गाय के खुर के बराबर हो जाता है, अग्नि में शीतलता आ जाती है॥1॥

 

गरुड़ सुमेरु रेनु सम ताही।

राम कृपा करि चितवा जाही॥

अति लघु रूप धरेउ हनुमाना।

पैठा नगर सुमिरि भगवाना॥2॥

 

और हे गरुड़जी! सुमेरु पर्वत उसके लिए रज के समान हो जाता है, जिसे श्री रामचंद्रजी ने एक बार कृपा करके देख लिया।

तब हनुमानजी ने बहुत ही छोटा रूप धारण किया और भगवान् का स्मरण करके नगर में प्रवेश किया॥2॥

 

मंदिर मंदिर प्रति करि सोधा।

देखे जहँ तहँ अगनित जोधा॥

गयउ दसानन मंदिर माहीं।

अति बिचित्र कहि जात सो नाहीं॥3॥

 

उन्होंने एक-एक (प्रत्येक) महल की खोज की। जहाँ-तहाँ असंख्य योद्धा देखे। फिर वे रावण के महल में गए।

वह अत्यंत विचित्र था, जिसका वर्णन नहीं हो सकता॥3॥

 

सयन किएँ देखा कपि तेही।

मंदिर महुँ न दीखि बैदेही॥

भवन एक पुनि दीख सुहावा।

हरि मंदिर तहँ भिन्न बनावा॥4॥

 

हनुमानजी ने उस (रावण) को शयन किए देखा, परंतु महल में जानकीजी नहीं दिखाई दीं।

फिर एक सुंदर महल दिखाई दिया। वहाँ (उसमें) भगवान् का एक अलग मंदिर बना हुआ था॥4||

 

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