नारायण उपनिषद् हिंदी अर्थ सहित

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नारायण उपनिषद् हिंदी अर्थ सहित

 

 

नारायणोपनिषद्

 

 

भगवन नारायण के संकल्प मात्र से समष्टिगत प्राण का प्रादुर्भाव हुआ । जो कुछ हो गया और जो कुछ हो रहा है तथा जो होने वाला है, वह सभी कुछ भगवान् नारायण ही हैं। नारायण ही एकमात्र निष्कलंक, निरञ्जन, निर्विकल्प, अनिर्वचनीय और विशुद्ध देव हैं। उनके अतिरिक्त अन्य दूसरा कोई नहीं। जो मनुष्य ऐसा जानता है, वह स्वयं विष्णुमय हो जाता है, वह विष्णु ही हो जाता है।

 

नारायण उपनिषद् का प्रात:काल पाठ करने से रात्रि में किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं। दोनों संध्याओं -प्रातः एवं सायंकाल के समय में इस उपनिषद् का पाठ करने से साधक पूर्व समय (पूर्वजन्म) का भी यदि पापी हो, तो वह पापरहित हो जाता है। मध्याह्न के समय भगवान् भास्कर की ओर अभिमुख होकर पाठ करने से मनुष्य पाँच महापातकों एवं उपपातकों से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है। वह चारों वेदों के पाठ का पुण्यलाभ प्राप्त करता है तथा शरीर का परित्याग कर देने पर अन्तकाल में श्री नारायण के सायुज्य पद को प्राप्त कर लेता है। जो ऐसा जानता है, वह भी श्रीमन्नारायण के सायुज्य पद को पा जाता है ।

 

नारायण उपनिषद् के अनुसार ‘ॐ नमो नारायणाय’ पद भगवान् नारायण के आठ अक्षरों से युक्त मन्त्र है । भगवान् नारायण के इस अष्टाक्षरी मन्त्र का जो भी मनुष्य जप और ध्यान करता है, वह श्रेष्ठतम कीर्ति से युक्त होकर पूर्ण आयुष्य प्राप्त करता है। उसे जीवों का आधिपत्य, स्त्री-पुत्र एवं धन-धान्यादि की वृद्धि तथा गौ-आदि पशुओं का स्वामित्व भी प्राप्त होता है। तदुपरान्त वह अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है। इस प्रणवरूप ‘ॐ’ कार का जप करके योगी-साधक जन्म-मृत्यु रूपी सांसारिक-बन्धनों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस मन्त्र की साधना करने वाला साधक वैकुण्ठ धाम को जाता है। वह वैकुण्ठ धाम पुण्डरीक (हृदय कमल) विज्ञानमय है।

 

 

नारायणोपनिषद

 

 

अथ पुरुषो ह वै नारायणोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति ।

नारायणात्प्राणो जायते ।

मनः सर्वेन्द्रियाणि च ।

खं वायुर्ज्योतिरापः पृथिवी विश्वस्य धारिणी।

नारायणाद्ब्रह्मा जायते ।

नारायणाद्रुद्रो जायते ।

नारायणादिन्द्रो जायते ।

नारायणात्प्रजापतिः प्रजायते ।

नारायणादद्वादशादित्या रुद्रा वसवः सर्वाणि

छन्दांसि नारायणादेव समुत्पद्यन्ते।

नारायणात्प्रवर्तन्ते ।

नारायणे प्रलीयन्ते।

एतदृवेदशिरोऽधीते ॥1

 

उन पुरुषरूप भगवान् नारायण ने संकल्प किया कि ‘मैं’ प्रजा। ( जीवों ) की सृष्टि करूँ । अतः उन्हीं के द्वारा समस्त जीवों की उत्पत्ति हुई । नारायण से समष्टिगत प्राण का प्रादुर्भाव हुआ। उन्हीं के द्वारा मन और समस्त इन्द्रियाँ उत्पन्न हुई। भगवान् नारायण द्वारा ही आकाश, वायु, तेज, जल एवं सम्पूर्ण जगत् को धारण करने वाली पृथ्वी आदि सभी का प्राकट्य हुआ। भगवान् नारायण से ही ब्रह्मा जी प्रादुर्भूत हुए। नारायण से भगवान् रुद्र उत्पन्न होते हैं। नारायण द्वारा ही देवराज इन्द्र प्रकट हुए। नारायण द्वारा प्रजापति का भी प्रादुर्भाव हुआ। नारायण से ही द्वादश आदित्य उत्पन्न हुए। ग्यारह रुद्र, अष्टवसु एवं सम्पूर्ण छन्द भगवान् नारायण से प्रकट हुए। नारायण द्वारा ही प्रेरणा प्राप्त करके सभी अपने-अपने कार्यों में लग जाते हैं तथा भगवान् नारायण में ही अन्त में विलीन हो जाते हैं। ऐसा ही यह ऋग्वेदीय उपनिषद् का कथन है ॥1

 

 

Narayan Upanishad

 

 

अथ नित्यो नारायणः ।

ब्रह्मा नारायणः ।

शिवश्च नारायणः ।

शक्रश्च नारायणः ।

कालश्च नारायणः ।

दिशश्च नारायणः ।

विदिशश्च नारायणः ।

ऊर्ध्वं च नारायणः ।

अधश्च नारायणः ।

अन्तर्बहिश्च नारायणः।

नारायण एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम्।

निष्कलंको निरञ्जनो निर्विकल्पो निराख्यातः

शुद्धो देव एको नारायणो ने द्वितीयोऽस्ति कश्चित् ।

य एवं वेद से विष्णुरेव भवति स विष्णुरेव भवति ।

एतद्यजुर्वेदशिरोऽधीते ॥2

 

भगवान् नारायण ही नित्य (शाश्वत) हैं। ब्रह्माजी भी नारायण हैं। भगवान् शिव एवं देवराज इन्द्र भी नारायण हैं। काल और दिशाएँ भी नारायण हैं। विदिशायें (दिशाओं के मध्य के कोण) भी नारायण है। ऊर्ध्व भी नारायण और अध: भी नारायण है। अन्तः एवं बाह्य भी नारायण हैं। जो कुछ हो गया और जो कुछ हो रहा है तथा जो होने वाला है, वह सभी कुछ भगवान् नारायण ही हैं। नारायण ही एकमात्र निष्कलंक, निरञ्जन, निर्विकल्प, अनिर्वचनीय और विशुद्ध देव हैं। उनके अतिरिक्त अन्य दूसरा कोई नहीं। जो मनुष्य ऐसा जानता है, वह स्वयं विष्णुमय हो जाता है, वह विष्णु ही हो जाता है, ऐसा ही यजुर्वेदीय उपनिषद् का कथन है ॥ 2

 

 

ॐ नमो नारायणाय मंत्र जप का फल 

 

 

ॐ इत्यग्रे व्याहरेत् ।

नम इति पश्चात् ।

नारायणायेत्युपरिष्टात्।

ॐ इत्येकाक्षरम्।

नम इति द्वे अक्षरे।

नारायणायेति पञ्चाक्षराणि।

एतद्वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदम्।

यो ह वै नारायणस्याष्टाक्षरं पदमध्येति ।

अनपब्रुवः सर्वमायुरेति ।

विन्दते प्राजापत्यं रायस्पोषं गौपत्यं

ततोऽमृतत्वमश्नुते ततोऽमृतत्वमश्नुत इति।

एतत्सामवेदशिरोऽधीते॥3

 

सर्वप्रथम आरम्भ में ‘ॐ’ कार का उच्चारण करे, तदुपरान्त बाद में ‘नमः’ शब्द का और फिर अन्त में ‘नारायण’ पद का उच्चारण करे।’ॐ’ यह एक अक्षर है।’नम:’ ये दो अक्षर हैं और ‘नारायणाय’ ये पाँच अक्षर हैं । इस प्रकार यह ‘ॐ नमो नारायणाय’ पद भगवान् नारायण के आठ अक्षरों से युक्त मन्त्र है । भगवान् नारायण के इस अष्टाक्षरी मन्त्र का जो भी मनुष्य जप और ध्यान करता है, वह श्रेष्ठतम कीर्ति से युक्त होकर पूर्ण आयुष्य प्राप्त करता है। उसे जीवों का आधिपत्य, स्त्री-पुत्र एवं धन-धान्यादि की वृद्धि तथा गौ-आदि पशुओं का स्वामित्व भी प्राप्त होता है। तदुपरान्त वह अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है, यही सामवेदीय उपनिषद् का प्रतिपादन है ।। 3

 

 

ॐ नमो नारायणाय मंत्र जाप देता है धन , धान्य , यश , कीर्ति , आयुष्य , अमरत्व और वैकुंठ पद

 

 

प्रत्यगानन्दं ब्रह्मपुरुषं प्रणवस्वरूपम्।

अकार उकारो मकार इति।

ता अनेकधा समभवत्तदेतदोमिति ।

यमुक्त्वा मुच्यते योगी जन्मसंसारबन्धनात्।

ॐ नमो नारायणायेति मन्त्रोपासको वैकुण्ठभुवनं गमिष्यति ।

तदिदं पुण्डरीकं विज्ञानघनं तस्मात्तडिदाभमात्रम्।

ब्रह्मण्यो देवकीपुत्रो ब्रह्मण्यो मधुसूदनः ।

ब्रह्मण्यः पुण्डरीकाक्षो ब्रह्मण्यो विष्णुरच्युत इति ।

सर्वभूतस्थमेकं वै नारायणं कारणपुरुषमकारणं परं ब्रह्मोम्।

एतदथर्वशिरोऽधीते ॥4

 

‘अ’ कार, ‘उ’ कार और ‘म’ कार मात्राओं से युक्त यह प्रत्यक् (ॐ कार) आनन्दमय, ब्रह्मपुरुष प्रणवस्वरूप है। ये भिन्न-भिन्न हैं, इन मात्राओं के सम्मिलित स्वरूप को ‘ॐ’ कहते हैं । इस प्रणवरूप ‘ॐ’ कार का जप करके योगी-साधक जन्म-मृत्यु रूपी सांसारिक-बन्धनों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस मन्त्र की साधना करने वाला साधक वैकुण्ठ धाम को जाता है। वह वैकुण्ठ धाम पुण्डरीक (हृदय कमल) विज्ञानमय है। इस कारण इसका स्वरूप विद्युत् के सदृश परम प्रकाशस्वरूप है । ब्रह्ममय देवकी नन्दन भगवान् श्रीकृष्ण ब्रह्मण्य अर्थात् ब्राह्मण प्रिय हैं। वे ही मधुसूदन पुण्डरीकाक्ष और वे ही विष्णु एवं अच्युत हैं। प्राणि-मात्र में वे भगवान् नारायण ही निवास करते हैं। वे ही कारण पुरुष होते हुए भी कारण रहित हैं। वे ही परब्रह्म हैं। विद्वज्जन अथर्ववेदीय ॐकार रूपी इस शिरोभाग (सारभाग) का अध्ययन करते हैं ॥4

 

 

Narayan Upanishad with hindi meaning

 

 

प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति ।

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।

तत्सायं-प्रातरधीयानः पापोऽपापो भवति ।

माध्यंदिनमादित्याभिमुखोऽधीयानः

पञ्चमहापातकोपपात-कात्प्रमुच्यते ।

सर्ववेदपारायणपुण्यं लभते ।

नारायणसायुज्यमवाप्नोति

श्रीमन्नारायणसायुज्यमवाप्नोति य एवं वेद ॥5

 

इस उपनिषद् का प्रात:काल पाठ करने से रात्रि में किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं। दोनों संध्याओं -प्रातः एवं सायंकाल के समय में इस उपनिषद् का पाठ करने से साधक पूर्व समय (पूर्वजन्म) का भी यदि पापी हो, तो वह पापरहित हो जाता है। मध्याह्न के समय भगवान् भास्कर की ओर अभिमुख होकर पाठ करने से मनुष्य पाँच महापातकों एवं उपपातकों से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है। वह चारों वेदों के पाठ का पुण्यलाभ प्राप्त करता है तथा शरीर का परित्याग कर देने पर अन्तकाल में श्री नारायण के सायुज्य पद को प्राप्त कर लेता है। जो ऐसा जानता है, वह भी श्रीमन्नारायण के सायुज्य पद को पा जाता है ॥ 5

 

 

नारायण उपनिषद पढ़ने का फल 

 

इस उपनिषद् का प्रात:काल पाठ करने से रात्रि में किये हुए पाप नष्ट हो जाते हैं। दोनों संध्याओं -प्रातः एवं सायंकाल के समय में इस उपनिषद् का पाठ करने से साधक पूर्व समय (पूर्वजन्म) का भी यदि पापी हो, तो वह पापरहित हो जाता है। मध्याह्न के समय भगवान् भास्कर की ओर अभिमुख होकर पाठ करने से मनुष्य पाँच महापातकों एवं उपपातकों से सदैव के लिए मुक्त हो जाता है। वह चारों वेदों के पाठ का पुण्यलाभ प्राप्त करता है तथा शरीर का परित्याग कर देने पर अन्तकाल में श्री नारायण के सायुज्य पद को प्राप्त कर लेता है। जो ऐसा जानता है, वह भी श्रीमन्नारायण के सायुज्य पद को पा जाता है ॥

 

ॐ नमो नारायणाय मंत्र जप का फल 

 

इस प्रणवरूप ‘ॐ’ कार का जप करके योगी-साधक जन्म-मृत्यु रूपी सांसारिक-बन्धनों से मुक्ति प्राप्त कर लेता है। ‘ॐ नमो नारायणाय’ इस मन्त्र की साधना करने वाला साधक वैकुण्ठ धाम को जाता है। वह वैकुण्ठ धाम पुण्डरीक (हृदय कमल) विज्ञानमय है। ‘ॐ नमो नारायणाय’ पद भगवान् नारायण के आठ अक्षरों से युक्त मन्त्र है । भगवान् नारायण के इस अष्टाक्षरी मन्त्र का जो भी मनुष्य जप और ध्यान करता है, वह श्रेष्ठतम कीर्ति से युक्त होकर पूर्ण आयुष्य प्राप्त करता है। उसे जीवों का आधिपत्य, स्त्री-पुत्र एवं धन-धान्यादि की वृद्धि तथा गौ-आदि पशुओं का स्वामित्व भी प्राप्त होता है। तदुपरान्त वह अमृतत्व को प्राप्त हो जाता है।

 

 

 

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