मुरारी पञ्चरत्नं स्तोत्र हिंदी अर्थ सहित | श्री शंकराचार्य द्वारा रचित श्री मुरारी पंचरत्न स्तोत्रम | Murari Pancharatnam – murāri pañcaratnam | भगवान् के चरणों में प्रीति प्राप्त कराने वाला मुरारी पञ्चरत्न स्तोत्र | भगवान के धाम की प्राप्ति कराने वाला मुरारी पंच रत्न स्तोत्र | Murari Panchratnam Stotra with hindi meaning|मुरारि पञ्च रत्न स्तोत्रम् | Murari Pancha Ratna Stotram In Sanskrit
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मुरारी पंचरत्नम भगवान कृष्ण को समर्पित एक सुंदर संस्कृत स्तोत्र है। इसकी रचना प्राचीन भारत के महान दार्शनिक, धर्मशास्त्री और आध्यात्मिक गुरु श्रद्धेय आदि शंकराचार्य ने की थी। यह स्तोत्र भगवान कृष्ण के दिव्य गुणों की प्रशंसा करता है और उनका आशीर्वाद मांगता है। इस स्तोत्र का प्रत्येक श्लोक ” मूकोऽस्मि तेऽङ्घ्रिकमलं तदतीव धन्यम् ” वाक्य पर समाप्त होता है जिसका अर्थ है ” हे मुरारि (कृष्ण), मैं मूक और अवाक हूँ, आपके चरणकमलों को देखकर अत्यंत धन्य अनुभूत करता हूँ।
यत्सेवनेन पितृमातृसहोदराणां
चित्तं न मोहमहिमा मलिनं करोति ।
इत्थं समीक्ष्य तव भक्तजनान्मुरारे
मूकोऽस्मि तेऽङ्घ्रिकमलं तदतीव धन्यम् ॥ 1 ॥
पितृ, मातृ और सहोदरों ( भाई – बहनों ) की सेवा करने से मन मोह के अहंकार से मुक्त रहता है और भ्रम से अशुद्ध नहीं होता। इस प्रकार आपके भक्तों को देखकर, हे मुरारि (कृष्ण), मैं मूक और अवाक हूँ, आपके चरणकमलों को देखकर अत्यंत धन्य अनुभूत करता हूँ ॥ 1 ॥
( इस श्लोक में, आदि शंकराचार्य व्यक्त करते हैं कि भगवान कृष्ण के चरण कमलों का चिंतन करने से मन शुद्ध होता है और भ्रम दूर होता है। भक्त ध्यान से धन्य और मुक्त अनुभूत करता है। )
ये ये विलग्नमनसः सुखमाप्तुकामाः
ते ते भवन्ति जगदुद्भवमोहशून्याः ।
दृष्ट्वा विनष्टधनधान्यगृहान्मुरारे
मूकोऽस्मि तेऽङ्घ्रिकमलं तदतीव धन्यम् ॥ 2 ॥
जो जो लोग मन की विलग्नता से सुख प्राप्त करना चाहते हैं, वे वे जगत के उद्भव के मोह से शून्य हो जाते हैं। धन, धान्य और गृह के नाश को देखकर, हे मुरारे (कृष्ण), मैं मूक और अवाक हूँ, आपके चरणकमलों को देखकर अत्यंत धन्य अनुभव करता हूँ ॥ 2 ॥
( यह श्लोक आत्म-संतोष और वैराग्य की भावना को दर्शाता है, जहाँ भौतिक संपत्ति के नाश के बावजूद भक्त भगवान के चरणों में सुख पाता है। यहाँ श्रीमद शंकराचार्य जी इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि जो लोग कृष्ण के नाम में अपना मन विसर्जित करते हैं और सुख की तलाश करते हैं, उनके सांसारिक मोहभाव मिट जाते हैं। कृष्ण के चरणों की दृष्टि उन्हें वास्तव में भाग्यशाली बनाती है। )
वस्त्राणि दिग्वलयमावसतिः श्मशाने
पात्रं कपालमपि मुण्डविभूषणानि ।
रुद्रे प्रसादमचलं तव वीक्ष्य शौरे
मूकोऽस्मि तेऽङ्घ्रिकमलं तदतीव धन्यम् ॥ 3 ॥
वस्त्र के रूप में दिशाएं , निवास स्थान के रूप में श्मशान , पात्र के रूप में कपाल और आभूषण के रूप में मुंड धारण करना । हे शौरे (कृष्ण), रुद्र (शिव) के अचल प्रसाद को देखकर, मैं मूक हूँ, आपके चरणकमलों को देखकर अत्यंत धन्य अनुभूत करता हूँ ॥ 3 ॥
( आदि शंकराचार्य वर्णन करते हैं कि कैसे तपस्वी, जो कम से कम कपड़े पहनते हैं और श्मशान घाट में रहते हैं, भगवान शिव (जिन्हें शौरी के नाम से भी जाना जाता है) की कृपा को देखकर संतुष्ट महसूस करते हैं। वे विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हैं कि वे भी कृष्ण के चरणों से धन्य महसूस करते हैं । यह श्लोक आत्म-संतोष और वैराग्य की भावना को दर्शाता है, जहाँ भौतिक संपत्ति के अभाव में भी भक्त भगवान के चरणों में सुख पाता है। )
यत्कीर्तिगायनपरस्य विधातृसूनोः
कौपीनमैणमजिनं विपुलां विभूतिम् ।
स्वस्यार्थ दिग्भ्रमणमीक्ष्य तु सार्वकालं
मूकोऽस्मि तेऽङ्घ्रिकमलं तदतीव धन्यम् ॥ 4 ॥
जो जो विधाता के पुत्र अपने कल्याण के उद्देश्य से केवल कौपीन ( लंगोट ) , हिरण की छाल और जटा धारण किये हुए प्रभु की कीर्ति गान और स्तुति में रमे हुए हर दिशा में भ्रमण करते रहते हैं , हे शौरे (कृष्ण), आपके ऐसे भक्तों को देखकर, मैं मूक और अवाक हूँ, आपके चरणकमलों को देखकर अत्यंत धन्य अनुभूत करता हूँ।
( इस श्लोक में वैराग्य और भक्ति की गहराई को दर्शाया गया है, जहाँ भक्त भगवान के चरणों में अनंत सुख पाता है। आदि शंकराचार्य कृष्ण के नाम की प्रसिद्धि पर आश्चर्य करते हैं , जो सूर्य और चंद्रमा से परे है। यहाँ तक कि यदि कोई लक्ष्यहीन घूमते हुए भी यदि श्रीकृष्ण के चरणों को देखता है, तो यह उसके जीवन में अपार भाग्य लाता है। )
यद्वीक्षणे धृतधियामशनं फलादि
वासोऽपि निर्जिनवने गिरिकन्दरासु ।
वासांसि वल्कलमयानि विलोक्य चैवं
मूकोऽस्मि तेऽङ्घ्रिकमलं तदतीव धन्यम् ॥ 5 ॥
जिनकी दृष्टि में फल आदि भोजन है , जो निर्जन वन में या पर्वत की गुफाओं में वास करते हैं, जो वल्कल (बर्क) से बने वस्त्र पहनते हैं, उन्हें देखकर, मैं मूक और अवाक हूँ, हे मुरारे (कृष्ण), आपके चरणकमलों को देखकर अत्यंत धन्य अनुभूत करता हूँ ॥ 5 ॥
(यह श्लोक साधुओं के जीवन की सादगी और वैराग्य को दर्शाता है और साथ ही यह भी कि कैसे भक्त भगवान के चरणों में अपनी संपूर्णता पाते हैं। )
स्तोत्रं पादाम्बुजस्यैतच्छ्रीशस्य विजितेन्द्रियः ।
पठित्वा तत्पदं याति श्लोकार्थज्ञस्तु यो नरः ॥ 6 ॥
जो भी व्यक्ति भगवान कृष्ण के इस स्तोत्र को श्लोकों को समझ कर और इनके अर्थ को जान कर पढता है तो ऐसा व्यक्ति ज्ञानी बनता है और इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करता है तथा निश्चित रूप से भगवान् के धाम को प्राप्त करता है।
( आदि शंकराचार्य ने यह कहते हुए निष्कर्ष निकाला है कि भक्ति के साथ इस स्तोत्र का पाठ करने से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है। जो इसका अर्थ समझता है वह ज्ञानी और धन्य हो जाता है। )
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