Surdas bhramar geet

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सूरदास द्वारा रचित भ्रमर गीत हिंदी अर्थ सहित

भ्रमर गीत वस्तुतः भागवत पुराण में वर्णित है जिसमे गोपियों ने उद्धव को भ्रमर की संज्ञा दी है और उन्हें ज्ञान का उपदेश सुनाने पर उलाहना भी दी है । गोपियों ने ज्ञान मार्गी उद्धव को प्रेम मार्ग का उपासक बना दिया । उसी परिप्रेक्ष्य में अपनी ही काव्यात्मक शैली में सूरदास जी ने गोपियों और उद्धव के मध्य एक मीठी नोक झोंक और उलाहना  भरे भ्रमर गीत नामक काव्य की रचना की है जो यहाँ प्रस्तुत है । प्रत्येक पद एक विशेष राग पर आधारित है । 

 

 

Surdas bhramar geet

अब कै राखि लेहु भगवान।

हौं अनाथ बैठ्यो द्रुम डरिया, पारधी साधे बान।

ताकैं डर मैं भाज्यौ चाहत, ऊपर ढुक्यौ सचान।

दुहूँ भाँति दुख भयौ आनि यह, कौन उबारै प्रान?

सुमिरत ही अहि डस्यौ पारधी, कर छूट्यौ संधान।

सूरदास सर लग्यौ सचानहिं, जय-जय कृपानिधान।।

यह पद सूरदास द्वारा रचित ‘सूरसागर’ से लिए गए हैं, इसमें सूरदास जी ने भगवान से अपनी रक्षा के लिए प्रार्थना की है और खुद को संकटग्रस्त और असहाय बताकर भगवान की कृपा प्राप्त करने की आकांक्षा व्यक्त की है। 

सूरदास जी कहते हैं कि हे प्रभु! इस बार मेरी रक्षा कर लीजिए। मैं घोर संकट में फंसा हूँ। मेरी स्थिति तो उस पक्षी की तरह है, जो किसी व्यक्ति की डाली पर बैठा हो और नीचे शिकारी उस पर तीर चलाना चाहता हो और ऊपर बाज उस पर झपट्टा मारने के लिए तैयार बैठा हो। वृक्ष पर बैठे किसी भी पक्षी के लिए यह दोनों तरह की स्थितियां बेहद कष्टकारी हो सकती हैं। उसकी स्थिति आगे कुआं-पीछे खाई जैसी है। यदि वह उड़कर जाने की कोशिश करेगा तो बाज उस पर झपट्टा मार लेगा और यदि वह पेड़ पर ही बैठा रहेगा तो शिकारी अपने तीर से उसका शिकार कर लेगा। ऐसी स्थिति में उसे अपने प्राण बचाने वाला कोई नहीं दिखाई देता है तो वह स्वयं को अनाथ महसूस करता है और अपनी रक्षा के लिए प्रभु का स्मरण करता है। उसकी पुकार सुनकर प्रभु अपनी माया रचते हैं, जिसके कारण शिकारी जब बाण चला रहा होता है तो अचानक उसे कहीं से आकर एक सांप डस लेता है, जिससे शिकारी का निशाना चूक जाता है और तीर पक्षी को न लगकर ऊपर बाज को लग जाता है। इससे पक्षी का संकट दोनों तरफ से टल जाता है। अर्थात भक्त (पक्षी के रूप में) भगवान् से प्रार्थना करता है कि हे भगवान्! इस बार मेरी रक्षा कीजिए । मैं अनाथ (संसाररूपी) वृक्ष की डाल पर बैठा हूँ । नीचे से (मायारूपी) शिकारी ने मेरे ऊपर बाण साध रखा है । उसके डर से मैं भागना चाहता हूँ तो ऊपर मुझ पर झपट पड़ने के लिए (विषय-वासनारूपी) बाज मँडरा रहा है । अब दोनों ओर से मेरे ऊपर यह संकट उपस्थित हुआ है ।। ऐसे समय में मेरे प्राणों की रक्षा कौन कर सकता है? तब (पक्षीरूपी) भक्त ने भगवान् का स्मरण किया । तत्काल उन्होंने (ज्ञानरूपी) सर्प को भेज दिया। जिसने आकर शिकारी को डस लिया, जिससे उसके हाथ से धनुष की डोरी पर चढ़ा बाण छूट गया, जो जाकर बाज को लगा । इस प्रकार शिकारी और बाज दोनों मर गए (अर्थात् ज्ञान के द्वारा माया-मोह और समस्त विषय-विकार नष्ट हो गए), जिससे भक्त दोनों ओर से संकट से बच गया । हे दया के भण्डार भगवान्! आपकी जय हो । सूरदास जी कहते हैं कि हे कृपा निधान! जिस तरह आपने उस पक्षी की रक्षा की, उसी तरह आप मेरे ऊपर भी कृपा करो और मुझे संकट की इस घड़ी से निकाल लो। हे प्रभु! हे कृपा निधान! हे दयानिधान! बार मेरी रक्षा करो, आप की सदा ही जय हो। यहां पर सूरदास जी स्वयं को संकट में होने का कारण जन्म मरण के चक्कर में फंसे रहने को मानते हैं और वह जन्म मरण रूपी संकट में फंसे हैं जहाँ उन्हें मोह माया रुपी बाज और शिकारी चारों तरफ से घेरे हुए हैं, ऐसे में मैं प्रभु से रक्षा की गुहार करते हैं ताकि उन्हें प्रभु जन्म मरण के इस संकट से मुक्ति दिलायें। इस पद में सूरदास जी ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण को अत्यधिक कृपालु बताया है । उनकी दृष्टि में श्रीकृष्ण अपने भक्त को विकट परिस्थिति में भी मृत्यु से मुक्ति दिलाने में समर्थ हैं । इसीलिए वे उनसे मुक्ति की प्रार्थना करते हैं ।

 राग सारंग

पहिले करि परनाम नंद सों समाचार सब दीजो।
और वहाँ वृषभानु गोप सों जाय सकल सुधि लीजो॥
श्रीदामा आदिक सब ग्वालन मेरे हुतो भेंटियो।
सुख-संदेस सुनाय हमारो गोपिन को दुख मेटियो॥
मंत्री इक बन बसत हमारो ताहि मिले सचु पाइयो।
सावधान ह्वै मेरे हूतो ताही माथ नवाइयो॥
सुन्दर परम किसोर बयक्रम चंचल नयन बिसाल।
कर मुरली सिर मोरपंख पीताम्बर उर बनमाल॥
जनि डरियो तुम सघन बनन में ब्रजदेवी रखवार।
बृन्दावन सो बसत निरंतर कबहुँ न होत नियार॥
उद्धव प्रति सब कही स्यामजू अपने मन की प्रीति।
सूरदास किरपा करि पठए यहै सकल ब्रज रीति॥१॥

सूरदास जी के द्वारा रचित यह भ्रमर गीत सार का पहला पद है, इस पद के माध्यम से सूरदास जी ने बताया है की श्री कृष्ण को अपने माता-पिता और गोपिकाओं की याद आ गई है और इसी कारण वह अपने ज्ञानी सखा उद्धव को दूत बनाकर ब्रजवासियों और प्रियजनों की कुशल क्षेम ज्ञात करने के लिए भेज रहे हैं और उद्धव वहाँ पहली बार जा रहें हैं तो वहाँ की रीति-नीति से उन्हें अवगत करा रहे हैं। श्री कृष्ण बृजवासियों को छोड़कर मथुरा के राज – वैभव और तड़क – भड़क में थोड़े समय के लिए फंसे अवश्य लेकिन ब्रजवासियों की मधुर स्मृतियाँ रह – रह कर उन्हें कोंचती रहीं । इधर उनके परम मित्र उद्धव अपने ज्ञान गर्व में चूर हैं और प्रेम और भक्ति की महत्ता को नगण्य समझते हैं । श्री कृष्ण ब्रजवासियों का समाचार ज्ञात करने के बहाने उद्धव के ह्रदय में गोपियों की प्रेम भक्ति को उत्पन्न करना चाहते हैं । अतः उद्धव के ज्ञान – स्फीत व्यक्तित्व को विगलित करने के उद्देश्य से उन्हें ब्रज भेज रहे हैं ।

सूरदास जी ने लिखा है श्री कृष्ण उद्धव को समझाते हैं कि ब्रज पहुँचने पर तुम सबसे पहले नंद बाबा को प्रणाम करके सब समाचार कह देना। नंद यहां एक तो श्री कृष्ण के पिता हैं और इसलिए पूज्य हैं और दूसरे वहां के राजा हैं और सबसे अधिक प्रतिष्ठित व्यक्ति हैं। उन्हें प्रणाम करना स्वभाविकता और औपचारिक्ता दोनों की दृष्टि से ही उपर्युक्त है और उसके बाद सारे समाचार दे देना। पहले तो यह बताना कि आप कौन हैं फिर श्री कृष्ण की व्यस्तता का कारण बताना अर्थात राज कार्य की जटिलता के कारण गोकुल आने की असमर्थता बताना। ये सब बात होने के बाद राधा के पिता वृषभानु गोप के पास जाकर उनके सम्पूर्ण कुशल क्षेम पता करना। मेरी ओर से श्री दामा (सुदामा) आदि से मिलकर स्नेह से प्रणाम करना और साथ ही गोपियों को हमारा सुख संदेश अर्थात कुशल समाचार सुनाकर उनके विरह जन्य दुःख संताप को दूर करना। वहां वन में हमारा एक मंत्री रहता है यहां मंत्री का अभिप्राय राधा से है। श्री कृष्ण कहते हैं कि उनसे मिलकर सुख प्राप्त करना जब तुम उसके सम्मुख जाओ तो हमारी ओर से मस्तक नवाकर प्रणाम करना। श्री कृष्ण का उद्धव को सावधान करने का कारण यही है कि वह कहीं राधा से मिलकर भ्रम में न पड़ जाय क्योंकि वह उनका ही वेश धारण करके वहां विचरती रहती हैं। श्री कृष्ण कहते हैं कि हमारा वह मंत्री अत्यंत सुंदर एवं किशोरावस्था का है । उसके नेत्र चंचल और बड़े बड़े हैं। वह हाथ में मुरली सिर पर मोर पंख शरीर पर पीतांबर और हृदय में अर्थात गले में वनमाला धारण करता है। श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं कि हमारा  मंत्री अत्यंत सघन वन में निवास करता है। तुम जाकर उससे मिलना और वन में जाने से मत डरना क्योकि वहां ब्रजदेवी सबकी रक्षा करती हैं। इसलिए चिंता का कोई कारण नहीं है। वह ब्रजदेवी सदा वृन्दावन में निवास करती हैं और वहां से कभी पृथक नहीं होती इस प्रकार श्री कृष्ण ने उद्धव से अपने मन की समस्त प्रेममयी स्थिती का स्पष्टीकरण किया। सूरदास जी कहते हैं कि इस प्रकार श्री कृष्ण ने कृपा करके उद्धव को सारी ब्रजरीति समझाकर ब्रज भेजा और उनसे कहा कि वह इसी प्रकार का व्यवहार करे। ब्रह्म के दो रूप हैं एक रस रूप एवं दूसरा ऐश्वर्य रूप । उद्धव ने श्री कृष्ण का ऐश्वर्य रूप देखा था । श्री कृष्ण चाहते थे कि वह उनके दस रूपों को भी देखे । तभी उन्होंने उद्धव को ब्रज भेजा क्योंकि वह वहां सदा रस रूप मे निवास करते हैं। कृष्ण भक्तों ने राधा को कृष्ण का अविभक्त अंग स्वीकार किया गया है। कृष्ण एवं राधा एक ही आदि शक्ति के दो रूप हैं इसलिए परस्पर अभिन्न हैं।भक्ति की चर्मावस्था में भक्त और भगवान में कोई अंतर् नहीं आता। भक्त भगवान का स्वरूप धारण कर लेता है। राधा भी श्री कृष्ण का स्वरूप धारण कर लेती है। ऐसी अवस्था को प्राप्त हो गई है। “राधा माधव, माधव राधा राधा भेल मधाई” और उद्धव भी ब्रज में राधा के इसी रुप के दर्शन किये तभी तो वह मथुरा लौटकर श्री कृष्ण से कहते हैं कि ” ब्रजभानु में एक अच्म्भ्यो देख्यो मोर मुकुट पीताम्बर धोर तुम गाइन सम पेख्यो। “

राग सोरठ

कहियो नंद कठोर भए।
हम दोउ बीरै डारि पर घरै मानो थाती सौंपि गए।।

तनक-तनक तैं पालि बड़े किए बहुतै सुख दिखराए।
गोचारन को चलत हमारे पीछै कोसक धाए।।

ये बसुदेव देवकी हमसों कहत आपने जाए।
बहुरि बिधाता जसुमतिजू के हमहिं न गोद खिलाए।।

कौन काज यह राज, नगर को सब सुख सों सुख पाए ।
सूरदास ब्रज समाधान करूं आंजू काल्हि हम आए।। 2

इस पद में कृष्ण उद्धव को ब्रज जाने से पहले नंद बाबा के लिए जो कह रहे हैं उसका वर्णन इस पद में किया गया है।

कृष्ण उद्धव को समझाते हुए कह रहे हैं कि हे उद्धव ! तुम नंद बाबा से कहना कि वो इतने कठोर क्यों हो गए हैं? हम दोनों भाइयों को अर्थात कृष्ण और बलदाऊ को पराये घर अर्थात मथुरा में भेज कर इस प्रकार अलग हो गए जैसे कोई किसी की धरोहर को लौटाकर एकदम से निश्चिंत हो जाता है और पुनः उसकी कोई खोज खबर नही लेता। कहने का तातपर्य यह है कि हम दोनों भाइयों के प्रति उनका अनुराग ही नहीं रह गया है। जब हम दोनों छोटे-छोटे थे तब उन्होंने हमारा पालन पोषण किया था । पाल पोस कर उन्होंने हम दोनों को अनेक सुख प्रदान किये थे। किन्तु आज उन्हें न जाने क्या हो गया है जो हमें इस प्रकार विस्मरण कर बैठे हैं? जब हम गाय चराने के लिए वन को जाते थे तो वह हमें छोड़ने के लिए कोष भर कर हमारे पीछे दौड़े आते थे । तब तो हमारे साथ इतना स्नेह था किन्तु अब न जाने उन्हें क्या हो गया है? यहां वसुदेव और देवकी हमें आत्मज कहते हैं अपना पुत्र कहते हैं । ये लोग हमें ब्रह्म समझ बैठे हैं और कहते हैं कि यशोदा माता ने हमें अपनी गोद में नहीं खिलाया। श्री कृष्ण आगे कहते हैं कि हमने इस नगर के सम्पूर्ण सुखों को भली प्रकार भोग लिया है हमारे लिए यह सुख भोग व्यर्थ है क्योंकि ब्रज के सुखों की तुलना में ये जो सुख है वह महत्वहीन है कोई मूल्य नहीं। सूरदास जी कह रहें हैं कि श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं कि तुम ब्रजवासियों को हमारा कुशल समाचार कह देना और उनको संतावना देते हुए कहना कि हम आज कल में ही अर्थात शीघ्र ही वृन्दावन आकर उनसे मिलेंगे।

 राग बिलावल

तबहिं उपंगसुत आय गए।
सखा सखा कछु अंतर नाही भरि-भरि अंक लए।।
अति सुंदर तन स्याम सरीखो देखत हरि पछताने।
एसे को वैसी बुधि होती ब्रज पठवै तब आने।।
या आगे रस-काव्य प्रकासे जोग-वचन प्रगटावै।
सुर ज्ञान दृढ़ याके हिरदय जुवतिन जोग सिखावै।। 3

श्री कृष्ण ब्रज को याद करते हुए मग्न हैं और उसी समय उद्धव का आगमन होता है । इसी बात को इस पद में सूरदास जी ने बताया है।

श्री क्रृष्ण ब्रज की सुधि में निमग्न हैं, और किसी को ब्रज भेजना चाहते हैं। कृष्ण ब्रज की स्मृतियों में भाव विभोर हो रहे थे और उसी समय वहाँ उद्धव आ गए। दोनों में शारीरिक रूप से दृष्टिगत अंतर नहीं हो रहा है और दोनों परस्पर स्नेह पूर्वक आलिंगन बद्ध हो गये। एक दूसरे से स्नेहपूर्वक मिले। उद्धव का शरीर अत्यं सुंदर और श्री कृष्ण के समान श्यामदूती वाला था। ये देखकर श्री कृष्ण मन ही मन पछताये कि यदि शारीरिक सौंदर्य के साथ बुद्धि और विवेक भी होता तो कितना अच्छा होता अर्थात इसकी बुद्धि ज्ञान पर आधारित न होकर प्रेम मार्गीय भक्ति भावना पर आधारित होती तो उत्तम था और इसीलिए उन्होंने उद्धव को किसी अन्य कारण हेतु ब्रज भेजने का निश्चय किया क्योंकि वहां जाने पर ही इनकी योगमार्ग बुद्धि का संस्कार होना सम्भव था और तभी यह प्रेमानुराग भक्ति का भली-भाँति परिपालन कर सके। यदि इनके आगे प्रेम से सनी हुयी वाणी सुनाएँ तो ये अयोग्य नीरस चर्चा करने लगेंगे और इस प्रकार पक्का प्रेम पूर्ण श्रोताओं को इनकी योग पूर्ण चर्चा उबा देगी क्योंकि इनके ह्रृदय में ज्ञान अर्थात योगमार्गी आसन इतने दृढ हैं कि यदि इन्हें ब्रज भी भेजा जाये तो ये ब्रजवासियों को भी योग की शिक्षा दीक्षा देना प्रारम्भ कर देंगे। किन्तु सम्भव है वहां गोपियों के अनन्य प्रेमानुराग को देखकर इनका योग खंडित हो जाए और यह प्रेममार्गी महत्ता स्वीकार करके उसे अपना लें।

राग विलावल 

हरि गोकुल की प्रीति चलाई।
सुनहु उपंगसुत मोहिं न बिसरत ब्रजवासी सुखदाई।।
यह चित होत जाऊँ मैं, अबही, यहाँ नहीं मन लागत।
गोप सुग्वाल गाय बन चारत अति दुख पायो त्यागत।।
कहँ माखन-चोरी? कह जसुमति ‘पूत जेब’ करि प्रेम।
सूर स्याम के बचन सहित सुनि व्यापत अपन नेम।।4

श्री कृष्ण उद्धव से ब्रजवासियों की प्रेम की चर्चा करते हुए चित्रित किये गए हैं। और उद्धव के आ जाने पर उनके सम्मुख ही श्री कृष्ण ने गोकुल का प्रेम प्रसंग छेड़ दिया है।

श्री कृष्ण उद्धव के आ जाने के बाद उन्हें गोकुल के प्रेम कथा का वर्णन करते हुए कहते हैं। हे उद्धव ! सुनो ब्रजवासी और उनके प्रति मेरा प्रेम भुलाये नहीं भूलता वे मेरे में सदा के लिए बसे रहते हैं। वे मेरे मन में सदैव बसे रहते हैं क्योंकि उन्होंने मुझे अपने प्रेम से सदा सुख पहुंचाया है और इसी कारण मेरा मन यहाँ नहीं लगता। इच्छा होती है कि मैं झट से वहां चला जाऊँ । वहाँ जाकर गोप ग्वालाओं के साथ वन में गाये चराने जाया करता था। उनसे बिछड़ते समय मुझे अति दुःख हुआ था । हे उद्धव! आज भी मुझे गोकुल की कई बातें स्मरण हो आती हैं। न तो अब वह माखन चोरी है और न ही अब माता यशोदा के समान अत्यंत आग्रह करके यह कहने वाली है कि बेटा यह खा ले।
सूरदास जी कहते है कि श्री कृष्ण से युक्त वस्तुओं को सुनकर भी उद्धव अपने नियम साधना में निमग्न रहे उनका मन अपने योग मार्ग के विधि विधान में डूबा रहा। श्री कृष्ण के प्रेम मार्ग को महत्व न देकर उन्होंने इसे हेय समझा । योग मार्गी उद्धव का प्रेम मार्ग में ध्यान न देना स्वाभाविक ही था क्योंकि उनकी दृष्टि में प्रेम भावना सांसारिक मोह मात्र ही था। जिसका तिरस्कार करना ही उचित है।

राग रामकली

जदुपति लख्यो तेहि मुसकात।
कहत हम मन रही जोई सोइ भई यह बात।।
बचन परगट करन लागे प्रेम-कथा चलाय।
सुनहु उध्दव मोहिं ब्रज की सुधि नहीं बिसराय।।
रैनि सोवत, चलत, जागत लगत नहिं मन आन।
नंद जसुमति नारि नर ब्रज जहाँ मेरो प्रान।।
कहत हरि सुनि उपंगसुत ! यह कहत हो रसरीति।
सूर चित तें टरति नाही राधिका की प्रीति।।

श्री कृष्ण उद्धव से ब्रज के विषय में बात- चीत कर रहे हैं।

उद्धव श्री कृष्ण की प्रेम दुर्बलता को देखकर मुस्कुरा पड़ते हैं। यह मुस्कराहट उद्धव के सैद्धांतिक विषय की सफल अभिव्यिक्ति थी। जिसे कृष्ण ने ताड लिया। फलतः श्री कृष्ण ने उन्हें उलझाते हुए अपने प्रेम का मोह और खोलकर रखा जिसे पिछले पद में मंत्री पद से संकेतित किया गया है। उस राधिका का नाम रति निष्ठा के साथ श्री कृष्ण ने लिया है। जिससे उद्धव का गर्व पूरे आयाम के साथ अपने कर्त्तव्य का आरम्भ पाता है। श्री कृष्ण ने उद्धव को प्रेम प्रसंग की चर्चा में उद्धव को मुस्कुराते हुए देख लिया वो अपने मन में सोचने लगे कि हमने उद्धव के विषय में जो धारणा विकसित की थी वह सत्य प्रमाणित हो रही है क्योंकि उद्धव का मुस्कुराना यह स्पष्ट करता है कि वह दृढ योग मार्गी हैं। इतना होने पर भी श्री कृष्ण ने अपने मन के भावों को हृदय में दबाए रखा और पुनः ब्रजवासियों के प्रेम प्रसंग की चर्चा प्रारम्भ कर दी और वे कहने लगे कि , ” हे उद्धव ! वह ब्रज की स्मृति को भुला पाने में सर्वथा असमर्थ हैं । रात्रि में सोते समय , दिन में जागते समय और दर-दर घूमते समय में ब्रज की स्मृति में ही डूबा रहता हूँ । मेरा मन अन्यत्र कहीं नही लगता। जहां ब्रज में नंद बाबा, यशोदा माता तथा अन्य नर नारियाँ अर्थात गोप गोपिकाएं निवास करती हैं वहीं उन्हीं के पास मेरे प्राण रहते हैं। मैं सदैव उनकी स्मृति में खोया रहता हूँ । ऐसा लगता है कि मेरे उनके अतिरिक्त कोई अस्तित्व ही नहीं है। हे उद्धव!  सुनों मैं तुम्हारे सम्मुख प्रेम की रीति का वर्णन करता हूँ । मेरे हृदय से राधा की प्रीति क्षण भर के लिए दूर नहीं हो पाती । प्रेम की रीति ही ऐसी है कि प्रेमी निरन्तर अपने प्रेमी के स्थान में निमग्न रहे । मैं यहां राधा से दूर हूँ किंतु वस्तुतः मैं उसे क्षण भर के लिए विस्तृत नहीं कर पाता है।”

उपरोक्त पद में कृष्ण अत्यंत लाघव के साथ राधा को सम्पूर्ण गोपिकाओं में अनन्य स्थान की अधिकारिणी घोषित करते हुए उसके प्रति अपनी अनन्य प्रीति की व्यंजना कर रहे है।

राग सारंग

सखा? सुनों मेरी इक बात।
वह लतागन संग गोरिन सुधि करत पछितात।।
कहाँ वह वृषभानु तन या परम् सुंदर गात।
सरति आए रासरस की अधिक जिय अकुलात।।
सदा हित यह रहत नाहीं सकल मिथ्या-जात।
सूर प्रभू यह सुनौ मोसों एक ही सों नात।।6

इस पद में गोपियों के द्वारा उद्धव की तुलना श्वान अर्थात कुत्ते से की जा रही है।

एक गोपी दूसरी गोपी कहती है कि आज तक कर प्रयत्न क्ररके भी कोई कुत्ते की पूँछ को सीधा नहीं कर पाया और इसका कारण क्या बताया? इसका कारण यह है कि पूँछ का स्वभाव सदा टेढ़ा है और स्वभाव को बदला नहीं जा सकता और इसलिए अब इसे सीधा नहीं किया जा सकता। एक और उदाहरण देते हुए कहती हैं कि कौआ जन्म से ही न खाने योग्य पदार्थ को खाना प्रारम्भ कर देता है। कौआ अभक्षी को भी अर्थात खाने व न खाने योग्य पदार्थ को भी खाना प्रारम्भ कर देता है और पूरे जीवन इस स्वभाव को नहीं छोड़ता । तुम्हीं  बताओ कि धोने से काले कंबल का रंग उतर सकता है क्या? जैसे सांप है वह दूसरों को डसने का काम करता है लेकिन दूसरों को डसने से उसका पेट नहीं भरता क्योंकि उसके पेट में तो कुछ जाता ही नहीं फिर भी उसका स्वभाव पड़ गया है डसना और इसलिए वह इसे छोड़ता नहीं और ऐसे ही यह उद्धव हैं । दूसरों को दुखी करना इनका स्वभाव बन गया है। इन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं है कि इनके व्यवहार का क्या परिणाम होगा? बस ये तो ऐसे ही हैं अर्थात दूसरों को दुखी करना इनका स्वभाव बन गया है । इन्हें इसी बात में आनंद मिलता है।

राग टोड़ी

उद्धव ! यह मन निश्चय जानो।
मन क्रम बच मैं तुम्हें पठावत ब्रज को तुरत पलानों।।
पूरन ब्रम्ह, सकल अबिनासी ताके तुम हौ ज्ञाता।
रेख न रूप, जाति, कुल नाहीं जाके नहिं पितु माता।।
यह मत दै गोपिन कहँ आवहु बिनह-नदी में भासति।
सूर तुरत यह जसस्य कहौ तुम ब्रम्ह बिना नहिं आसति।।7

उद्धव को श्री कृष्ण शीघ्र ही ब्रज प्रस्थान करने को कह रहे हैं, जो बार-बार ब्रह्म की रट लगाते रहते हैं।

श्री कृष्ण उद्धव से कहते हैं कि हे उद्धव ! तुम अपने मन में यह निश्चय जान लो कि मैं सम्पूर्ण सद्भावना एवं मन वचन कर्म के साथ ब्रज भेज रहा हूँ। इसलिए तुम तुरंत वहां के लिए प्रस्थान करो। कवि का यह भाव है कि कृष्ण सच्चे हृदय से उद्धव को ब्रज जाने को कह रहे हैं। इससे उन्हें दो कार्यों की सिद्धि अभीष्ट है। एक तो उन्हें वहां का कुशल समाचार प्राप्त हो जाएगा और दूसरा गोपियों के अनन्य प्रेम को परखकर ज्ञान गर्वित उद्धव प्रेम के सरल व सीधे मार्ग को पहचान सकेंगे और प्रेम का महत्व जान सकेंगे। कृष्ण उद्धव से कहते हैं कि तुम्हारा ब्रह्म पूर्ण, अनीश्वर और अखंड रूप है और तुम्हें ऐसे अविनाशी ब्रह्म का पूर्ण ज्ञान प्राप्त है। तुम्हारे ब्रह्म की न तो कोई रूप रेखा है न ही कोई कुलवंश है और न ही उसके कोई माता पिता हैं। तुम्हारा ब्रह्म अखंड अनादि, अजर, अमर और पूर्ण है । वह सब प्रकार के सांसारिक संबंधों से अछूता और स्वतंत्र है । इसलिए कृपा करके तुम अपना यह ब्रह्म ज्ञान ब्रज पल्ल्वियों को सुनाकर आओ। तुम वहां सीधा जाकर उन गोपियों को समझा बुझा कर आना क्योंकि वे मेरे विरह में निमग्न होकर विरह की नदी में डूब रहीं हैं। तुम तुरंत उनसे  जाकर कहो कि ब्रह्म के बिना जीवन में मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती। वह ब्रह्म ही जीवन का सार तत्व है। तुम जाकर यह समझाओ कि प्रेम भाव त्यागकर अविनाशी ब्रह्म का ध्यान करें और उसी में अपनी समस्त शक्ति लगा दे तभी उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हो सकेगी अन्यथा नहीं।

राग नट

उद्धव ! बेगि ही ब्रज जाहु।
सुरति सँदेस सुनाय मेटो बल्लभिन को दाहु।।
काम पावक तूलमय तन बिरह-स्वास समीर।
भसम नाहिं न होन पावत लोचनन के नीर।।
अजौ लौ यहि भाँति ह्वै है कछुक सजग सरीर।
इते पर बिनु समाधाने क्यों धरैं तिय धीर।।
कहौं कहा बनाय तुमसों सखा साधु प्रबीन?
सुर सुमति बिचारिए क्यों जियै जब बिनु मीन।।8

श्री कृष्ण उद्धव को शीघ्र ही ब्रज जाने को कह रहे हैं या निर्देश दे रहे हैं और उन्हें कह रहे हैं की वह विरह में संतप्त गोपियों को तसल्ली दें।

श्री कृष्ण कहते हैं कि हे उद्धव! तुम शीघ्र ही ब्रज चले जाओ और वहां जाकर ब्रज की नारियों को या संतप्त गोपियों को सांत्वना दो । जिससे उनके चित्त में स्थित विरह जन्य पीड़ा समाप्त हो सके। रुई के समान कोमल शरीर कामाग्नि में प्रज्वलित हो रहे हैं। विरह आदि के कारण उनकी तीव्र साँसे वायु के समान उनकी कामाग्नि को और भी भड़का रही हैं। परन्तु उनके नेत्रों से होने वाली आंसुओं की वर्षा के कारण उनके शरीर कामाग्नि में जलने से बच गए हैं अर्थात गोपियाँ रो-रो कर अपने हृदय में स्थित विरह के ताप को हल्का कर लेती हैं और इस प्रकार उनका जीवन नष्ट होने से बच जाता है। श्री कृष्ण कहते हैं कि हे उद्धव ! इसी कारण उनके शरीर में अब भी सजगता सी है किन्तु इस सजगता का सदा बना रहना कठिन है इसलिए यदि शीघ्र उन्हें ढाँढस न बंधाया गया तो उनके लिए धैर्य धारण करना कठिन हो जायेगा। हे सखा! अब मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ और किस प्रकार बताकर कहूँ । तुम स्वयं ही साधू स्वभाव के और विवेकशील हो इसलिए मेरे मन के भावों को समझ लेना तुम्हारे लिए कोई कठिन कार्य नहीं। तुम अपने विवेकशक्ति के बल पर स्वयं ही विचार करो कि बिना जल के मछलियाँ किस प्रकार जीवित रह सकती हैं? अर्थात जैसे जल से विलग होकर मछली का जीवन नहीं चल सकता उसी प्रकार मेरे बिना गोपिकाओं का जीवन भी चलना कठिन है। मैं ही उनका सर्वस्व हूँ अतः तुम शीघ्र ही जाकर उन्हें मेरा संदेश सुनाकर सांत्वना दो।

 राग सारंग

पथिक ! संदेसों कहियो जाय।
आवैंगे हम दोनों भैया, मैया जनि अकुलाय।।
याको बिलग बहुत हम मान्यो जो कहि पठयो धाय।
कहँ लौं कीर्ति मानिए तुम्हारी बड़ो कियो पय प्याय।।
कहियो जाय नंदबाबा सों, अरु गहि जकरयो पाय।
दोऊ दुखी होन नहिं पावहि धूमरि धौरी गाय।।
यद्धपि मथुरा बिभव बहुत है तुम बिनु कछु न सुहाय।
सूरदास ब्रजवासी लोगनि भेंटत हृदय जुड़ाय।। 9

उद्धव ब्रज के लिये प्रस्थान करने वाले हैं। उसी समय श्री कृष्ण उद्धव से कह रहे हैं।

श्री कृष्ण उध्दव से कहते हैं कि हे पथिक ! हे उद्धव ! तुम ब्रज जाकर कहना कि हम दोनों भाई ब्रज में सबसे मिलने शीघ्र ही आएंगे, उनसे कहना वो ज्यादा व्याकुल न हों। उनको जाकर के कहना कि उन्होंने जो माता देवकी को धाय कहके संदेस भेजा है उसका हमने बहुत बुरा माना है और उनसे ये भी कहना कि हे माता ! तुम्हारी कीर्ति का कहाँ तक वर्णन करूँ । वह तुम ही हो जिसने अपना दूध पिलाकर इतना बड़ा किया है। हे उद्धव ! तुम नंद बाबा से उनके चरण पकड़कर कहना कि वह गायों का ध्यान रखें। मेरी काली और सफेद गायें मेरे बिना दुःखी न होने पाएं। श्री कृष्ण के कहने का भाव यह है कि नंद बाबा हमारे आदरणीय हैं। यद्यपि उनके चरण पकड़कर उन्हें यथोचित आदर और सम्मान देना अनिवार्य है। यद्यपि मथुरा नगरी में अपार गौरव और सुख प्राप्त है लेकिन आपके बिना हमें यहां कुछ भी नहीं सुहाता । एक तरफ तो यह वैभव है और दूसरी तरफ आपका स्नेह। सूरदास जी कहते हैं कि श्री कृष्ण के हृदय को तभी सांत्वना  और संतोष प्राप्त होता है जब वो ब्रजवासियों के मध्य में होते हैं अर्थात हमें ब्रजवासियों से मिलकर ही वास्तविकता की या ज्ञान की अनुभूति होती है।

राग सारंग 

नीके रहियो जसुमति मैया।
आवैंगे दिन चारि पांच में हम हलधर दोउ भैया।।
जा दिन तें हम तुमतें बिछुरे काहु न कहयों ‘कन्हैया’।
कबहुँ प्रात न कियो कलेवा, साँझ न पीन्ही धैया।।
बंसी बेनु संभारि राखियो और अबेर सबेरो।
मति लै जाय चुराय राधिका कछुक खिलौनों मेरो।
कहियो जाय नंदबाबा सों निष्ट बिठुर जिय कीन्हों।
सूर स्याम पहुँचाय मधुपुरी बहुरि सँदेस न लीन्हों।।10

श्री कृष्ण उद्धव के ब्रज प्रस्थान के समय माता यशोदा के लिए संदेश कह रहें और नंद बाबा को निष्ठुर कह रहे हैं।

श्री कृष्ण कहते हैं कि हे उद्धव ! तुम माता यशोदा से कहना कि वे भली- भांति और हँसी-खुशी से रहें। हमारे लिए चिंतित या व्याकुल न हों।  हम दोनों भाई अर्थात मैं और बलराम चार पांच दिन में अर्थात शीघ्र ही वहां ब्रज में आकर सबसे मिलेंगे। नंद बाबा से कहना कि जिस दिन से हम उनसे विलग् हुए हैं , हमें प्यार से किसी ने कन्हैया भी नहीं कहा और हमने वहाँ से आने के बाद न कभी प्रातः कालीन नाश्ता किया है न ही गाय के थन से निकला हुआ ताजा ताजा दूध ही पिया है। हे उद्धव ! माता से यह भी कहना कि वह बंशी आदि मेरे सभी खिलौने संभाल कर रखें ताकि राधिका अवसर पाकर उनके सारे खिलौने चुराकर न ले जाए। हे उद्धव ! तुम हमारे नंद बाबा से कहना कि उन्होंने तो हमारी ओर से अपना हृदय बिलकुल ही निष्ठुर और कठोर कर लिया है। वह जब से हमें मथुरा छोड़कर गए हैं, न तो हमारी खोज खबर ली और न तो किसी के हाथ से कोई संदेश ही भिजवाया है।

राग कल्याण

उद्धव मन अभिलाष बढ़ायो।
जदुपति जोग जानि जिय साँचो नयन अकास चढ़ायो॥
नारिन पै मोको पठवत हौ कहत लिखावन जोग।
मनहीं मन अब करत प्रसंसा है मिथ्या सुख-भोग॥
आयसु मानि लियो सिर ऊपर प्रभु-आज्ञा परमान।
सूरदास प्रभु पठवत गोकुल मैं क्यों कहौं कि आन॥११॥

श्री कृष्ण की बातें सुन कर उद्धव ज्ञान – गर्व में फूल उठे । और ब्रज जाने के लिए उद्धत हुए ।

श्री कृष्ण के प्रेम भाव को जान कर उद्धव जी अपने मन में अनेक आनंद की अभिलाषाएं बढ़ाने लगे । तात्पर्य यह है कि परोक्ष रूप में अपने ज्ञान की महिमा को जान कर वे बहुत ही प्रसन्न हुए । अब श्री कृष्ण के द्वारा प्रतिपादित योग मार्ग को ही मन में सच्चा समझ कर उद्धव जी गर्वित होकर आकाश की ओर देखने लगे । उद्धव जी को यह आभास हो गया कि हमारा यह ज्ञान मार्ग ही सच्चा है । इसी से श्री कृष्ण हमें गोपियों को योग की बातें सिखाने के लिए ब्रजमंडल भेज रहे हैं और वे इस बात की मन ही मन प्रशंसा करने लगे कि श्री कृष्ण ने भी स्वतः संसार के सुख भोग को मिथ्या मान लिया। उद्धव जी ने यह सोच कर श्री कृष्ण की आज्ञा को शिरोधार्य कर लिया । चूंकि श्री कृष्ण उनके सखा और स्वामी दोनों थे अतः स्वामी की आज्ञा को प्रमाण मान लिया । सूरदास के शब्दों में उद्धव का कथन है कि स्वामी श्री कृष्ण यदि मुझे जान बूझ कर ब्रज भेजना चाहते हैं तो मैं उनकी बातों का खंडन कर के दूसरी बातें क्यों करूँ। आशय यह है कि उद्धव ने यही समझा कि श्री कृष्ण ज्ञान मार्ग के पोषक हैं और उन्हें ज्ञान का अधिकारी समझ कर ही गोपियों के पास भेजना चाहते हैं ।

राग सारंग

सुनियो एक सँदेसो ऊधो तुम गोकुल को जात।
ता पाछे तुम कहियो उनसों एक हमारी बात॥
मात-पिता को हेत जानि कै कान्ह मधुपुरी आए।
नाहिंन स्याम तिहारे प्रीतम, ना जसुदा के जाए॥
समुझौ बूझौ अपने मन में तुम जो कहा भलो कीन्हो।
कह बालक, तुम मत्त ग्वालिनी सबै आप-बस कीन्हो॥
और जसोदा माखन-काजै बहुतक त्रास दिखाई।
तुमहिं सबै मिलि दाँवरि दीन्ही रंच[१] दया नहिं आई॥
अरु वृषभानसुता जो कीन्ही सो तुम सब जिय जानो।
याही लाज तजी ब्रज मोहन अब काहे दुख मानो?
सूरदास यह सुनि सुनि बातैं स्याम रहे सिर नाई।
इत कुब्जा उत प्रेम ग्वालिनी कहत न कछु बनि आई॥१२॥

जब कुब्जा ने यह सुना कि उद्धव श्री कृष्ण के कहने पर गोपियों को सन्देश ले कर ब्रज जा रहे हैं तो उसने उद्धव को अपने महल बुला लिया और कहा कि कृष्ण के सन्देश के बाद मेरा भी एक सन्देश दे देना । हे उद्धव ! तुम तो गोकुल जा रहे हो अतः एक सन्देश मेरा भी लेते जाओ । जब तुम कृष्ण का सन्देश गोपियों को दे देना तब उनसे एक हमारी बात भी कह देना । उनसे यह कहना कि माता – पिता ( देवकी और वासुदेव ) के प्रेम को जान कर ही श्री कृष्ण मथुरा आये थे । तुम्हें जानना चाहिए कि न तो श्री कृष्ण तुम्हारे प्रियतम हैं और न वो यशोदा के पुत्र ही हैं । यदि तुम ऐसा समझती हो तो यह तुम्हारा भ्रम है । जरा तुम अपने मन में यह सोचो और विचार करो कि तुमने श्री कृष्ण के साथ क्या भला किया ? कौन सा अच्छा व्यव्हार किया । कहाँ तुम मस्त अहीरनी और कहाँ वे श्री कृष्ण । अबोध बालक ! फिर भी तुमने उन्हें वश में कर लिया था । यही नहीं माता यशोदा ने तुच्छ मक्खन के लिए श्री कृष्ण को बहुत कष्ट दिया और तुम सब गोपियों ने मिलकर उन्हें बाँधने के लिए रस्सी लाकर दी उन्हें कष्ट देने में भी तुम्हारा भी बहुत बड़ा हाथ था । जरा विचार करो तुमेह ऐसा करने में थोड़ी भी दया नहीं आयी । छोटे बच्चे के लिए दया प्रदर्शित करने के बजाय तुमने उन्हें रस्सी से बंधवाया । इसके साथ ही राधा ने जो उनके साथ व्यव्हार किया उसे तुम अच्छी तरह जानती हो । तात्पर्य यह है कि राधा ने भी मानिनी के रूप में श्री कृष्ण को बहुत परेशान किया । मान करने पर भी जल्दी नहीं मानती थी । ये ही सब कारण थे जिस से लज्जित हो कर श्री कृष्ण ने ब्रज मंडल को त्याग दिया । अब ब्रज त्याग देने पर तुम सब दुखी क्यों होती हो ? तात्पर्य यह है कि यदि तुमने उनके साथ इस प्रकार व्यवहार ना किया होता तो श्री कृष्ण ब्रज मंडल छोड़ कर यहाँ क्यों आते ? कुब्जा की इस प्रकार की उलाहना पूर्ण बातें सुन कर श्री कृष्ण ने अपना मस्तक झुका लिया और दुविधा में पड़ गए । श्री कृष्ण की मानसिक स्थिति ऐसी विचित्र हो गयी कि उनसे कुछ कहते न बना क्योंकि इधर कुब्जा का प्रेम था उधर गोपियों का प्रेमाकर्षण । वास्तव में यह उनकी असमंजस की स्थिति थी ।

उद्धव का ब्रज में आना

राग मलार

कोऊ आवत है तन स्याम।
वैसेइ पट, वैसिय रथ-वैठनि, वैसिय है उर दाम॥
जैसी हुतिं उठि तैसिय दौरीं छाँड़ि सकल गृह-काम।
रोम पुलक, गदगद भई तिहि छन सोचि अंग अभिराम॥
इतनी कहत आय गए ऊधो, रहीं ठगी तिहि ठाम।
सूरदास प्रभु ह्याँ क्यों आवै बंधे कुब्जा-रस स्याम॥१३॥

उद्धव को दूर से आते देख कर गोपियों को ऐसा लगा मानो श्री कृष्ण ही यहाँ पधार रहे हों । लेकिन जब समीप से देखा तो प्रतीत हुआ कि ये कृष्ण नहीं उद्धव हैं । उद्धव को देखने पर उन्हें बड़ी निराशा हुयी।

कोई गोपी किसी गोपी से कह रही है – हे सखी ! श्याम वर्ण का कोई इधर आ रहा है । ( ऐसा लगता है कि श्री कृष्ण यहाँ पधार रहे हैं ) क्योंकि उसी तरह का इसका पीताम्बर है और रथ पर बैठने का ढंग भी वैसा ही है । तात्पर्य यह है कि जैसे श्री कृष्ण अक्रूर के साथ रथ पर बैठ कर मथुरा गए थे तो इसी मुद्रा में रथ में बैठे हुए थे और उनके वक्ष स्थल पर वैजयंती की माला भी उसी प्रकार की है अर्थात श्री कृष्ण की भांति ये भी माला धारण किये हैं । गोपियाँ उस व्यक्ति को देखकर जिस अवस्था में थीं उसी अवस्था में अपने घर के सब काम – काज छोड़ कर दौड़ पड़ीं और उस व्यक्ति के सुन्दर अंग को श्री कृष्ण जैसा विचार कर रोमांचित और गदगद हो गयीं तथा हर्षातिरेक में डूब गयीं । उद्धव को जब वे सब दूर से देख कर यही कह रही थीं कि श्री कृष्ण पधार रहे हैं तो उसी बीच इतना कहते ही उद्धव जी आ गए । श्री कृष्ण के स्थान पर उद्धव जी को देख कर गोपियों को इतनी अधिक निराशा हुयी और उनका विषाद इतना बढ़ गया कि वे जड़वत जहाँ थीं उसी स्थान पर ठगी जैसी रह गयीं और यही सोचने लगीं कि भला कुब्जा के प्रेम पाश में बंधे हुए श्री कृष्ण यहाँ क्यों आने लगे ? निराशा की झलक सूर के कई पदों में दृष्टिगत होती है ।

उद्धव का ब्रज में दिखाई पड़ना

राग मलार

है कोई वैसीई अनुहारि।
मधुबन ते इत आवत, सखि री! चितौ तु नयन निहारि॥
माथे मुकुट, मनोहर कुंडल, पीत बसन रुचिकारि।
रथ पर बैठि कहत सारथि सों ब्रज-तन[१] बाँह पसारि॥
जानति नाहिंन पहिचानति हौं मनु बीते जुग चारि।
सूरदास स्वामी के बिछुरे जैसे मीन बिनु वारि॥१४॥

रथारूढ़ मथुरा से आते हुए उद्धव को दूर से देख कर गोपियाँ अनुमान करती हैं कि मानो श्री कृष्ण ही चले आ रहे हैं ।

हे सखी ! कोई श्री कृष्ण की सी आकृति का प्रतीत हो रहा है अर्थात जैसी श्री कृष्ण की आकृति है वैसी ही उसकी भी आकृति है । यह मथुरा से इधर ही आ रहा है । उसे भर नेत्रों से ध्यानपूर्वक देखो । उसके मस्तक पर मुकुट , कानों में सुन्दर कुण्डल हैं और वह अपने शरीर पर सुन्दर पीताम्बर धारण किये हुए हैं । वह रथ पर बैठ कर ब्रज की ओर अपने हाथ फैलाकर अपने सारथि से कुछ कह रहा है । व्यंजना यह है कि वह हम लोगों की ही चर्चा कर रहा है । हे सखी ! यद्यपि मैं उसे जानती नहीं परन्तु वह कुछ परिचित सा लगता है और ऐसा लगता है कि इसे देखे चार युग बीत गए । केवल आकृति को देख कर ही परिचित लग रहा है परन्तु यह कौन है ? इसको विस्तृत रूप से नहीं जानते । सूरदास के शब्दों में होने स्वामी कृष्ण से बिछड़ जाने पर गोपियाँ उसी प्रकार व्याकुलमना हैं जैसे जल बिन मछली ।

राग सोरठ

देखो नंदद्वार रथ ठाढ़ो।
बहुरि सखी सुफलकसुतआयो पज्यो सँदेह उर गाढ़ो॥
प्रान हमारे तबहिं गयो लै अब केहि कारन आयो।
जानति हौं अनुमान सखी री! कृपा करन उठि धायो।

इतने अंतर आय उपंगसुत तेहि छन दरसन दीन्हो।
तब पहिंचानि सखा हरिजू को परम सुचित तन कीन्हो॥
तब परनाम कियो अति रुचि सों और सबहि कर जोरे।
सुनियत रहे तैसेई देखे परम चतुर मति-भोरे।
तुम्हरो दरसन पाय आपनो जन्म सफल करि जान्यो।
सूर ऊधो सों मिलत भयो सुख ज्यों झख पायो पान्यो॥१५॥

उद्धव जी का रथ नन्द के द्वार पर पहुंचा तो गोपियों को यह संदेह हुआ कि कहीं पुनः अक्रूर जी न आ गए हों क्योंकि एक बार वे कंस के कहने पर ब्रजमंडल आये थे और अपने साथ कृष्ण और बलराम को अपने रथ पर बैठा कर मथुरा ले गए थे ।

हे सखी ! देखो तो नन्द के दरवाज़े पर एक रथ खड़ा है , लगता है , पुनः अक्रूर जी आ गए हैं क्योंकि वे पहले भी एक बार आये थे और कृष्ण और बलराम को अपने रथ पर बैठा कर ले गए थे । आज मेरे मन में इस प्रकार का बहुत बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया है । उस समय तो वे हमारे प्राण ले गए थे ( प्राण स्वरूप कृष्ण और बलराम को हमसे छीन कर हमें निष्प्राण बना गए ) अब किस लिए आये हैं ? अब हमारे पास क्या बचा है जो उसे लेने पुनः पधारे हैं ? हे सखी ! मैं अनुभव कर रही हूँ कि शायद वे मेरे ऊपर कृपा करने को दौड़ पड़े हैं ( व्यंग पूर्ण तात्पर्य यह है कि वे अब पुनः हमे चोट पहुंचने के लिए यहाँ तक आये हैं ) इतना परस्पर गोपियाँ सोच रही थीं कि उसी बीच तत्क्षण उद्धव ने आ कर गोपियों को दर्शन दिया और गोपियाँ श्री कृष्ण के मित्र उद्धव को पहचान कर मन और शरीर दोनों से प्रसन्न हुईं । भारतीय मर्यादा और शिष्टाचार के अनुरूप गोपियों ने उन्हें प्रणाम किया और प्रेमपूर्वक सबों ने अपने हाथ जोड़े ( हाथ जोड़कर उनका सत्कार किया ) और कहने लगीं कि जैसा हम लोग आपके सम्बन्ध में सुनते रहे वैसा ही आपको बुद्धि में कुशल और ह्रदय से भोले – भाले रूप में रखा । तुम्हारे दर्शन पाकर हम लोग धन्य हो गए और अपने जन्म को सार्थक और सफल समझा । सफल इसलिए समझती हैं कि आप हमारे प्रियतम कृष्ण के मित्र हैं ; सम्बन्ध भावना के कारण जो सुख उन्हें देखने पर मिलता था वही सुख आपको देखकर मिला । सूरदास के शब्दों में उद्धव से मिलकर गोपियों को उसी प्रकार का सुख आपको देख कर मिला जैसे पानी के बिना संतप्त मछलियां पानी पीकर सुखी हो जाती हैं । कृष्ण के वियोग ज्वाला में संतप्त गोपियों को उद्धव को देखने पर अपार सुख मिला ( श्री कृष्ण से मिलने की एक बलवती आशा मानस में उत्पन्न हुयी )

राग सोरठ 

कहौ कहाँ तें आए हौ।
जानति हौं अनुमान मनो तुम जादवनाथ पठाए हौ॥
वैसोइ बरन, बसन पुनि वैसेइ, तन भूषन सजि ल्याए हौ।
सरबसु लै तब संग सिधारे अब कापर पहिराए हौ॥
सुनहु, मधुप! एकै मन सबको सो तो वहाँ लै छाए हौ।
मधुबन की मानिनी मनोहर तहँहिं जाहु जहँ भाए हौ॥
अब यह कौन सयानप? ब्रज पर का कारन उठि धाए हौ।
सूर जहाँ लौं ल्यामगात हैं जानि भले करि पाए हौ॥१६॥

इसमें गोपियों ने व्यंग पूर्ण वाणी द्वारा यह व्यक्त किया है कि उद्धव जी कहाँ से आये हैं और यहाँ आने का उनका प्रयोजन क्या है ?

हे उद्धव ! यह तो बताइये कि आप कहाँ से पधारे हैं ? हमें तो ऐसा लगता है कि तुम्हें यादवनाथ ने मानो यहाँ भेजा है । तुम्हारा वर्ण और वस्त्र ( पीताम्बर ) भी वैसा ही है जैसा कि कृष्ण का है और तुम अपने शरीर पर आभूषण भी उन्हीं की भांति सज्जित किये हुए हो । आशय यह है कि इसी रूप रंग वाले श्री कृष्ण ने एक बार हम लोगों को धोखा दिया था । शायद उसी वेश में हमें दुबारा ठगने के लिए उन्होंने तुम्हें भेजा है । श्री कृष्ण तो इसके पूर्व हमारा सब कुछ ले कर चले गए अब किसे ले जाने के लिए तुम भेजे गए हो ? तात्पर्य यह है कि श्री कृष्ण हम सब के मन को तो पहले ही ले बैठे थे अब बचा ही क्या है जो दुबारा लेने तुम्हें भेजा है ? हे भ्रमर ! सच बात तो यह है कि हमारे पास तो एक ही मन था उसे लेकर वे मथुरा चले गए वहीँ विराजमान हो गए । अब दूसरा मन हमारे पास कहाँ है ? अब ऐसी स्थिति में यहाँ तुम्हारा प्रयोजन सिद्ध न होगा अतः उत्तम यही होगा कि तुम मथुरा कि उन मानिनी मनोहर सुंदरियों के पास जाओ तुम प्रिय हो ( यहाँ मानिनी मनोहर कुब्जा के प्रति स्पष्ट व्यंग है ) अब तुम्हारी यह कौन सी चतुराई है कौन सी बुद्धिमानी है कि तुम ब्रज में दौड़े चले आये ? भला , ब्रज में आने का तुम्हारा क्या कारण है ? सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! हम तो जितने भी श्याम शरीर वाले हैं सब को भली भांति जानती है अर्थात तुम धोखे में न रहो कि हम तुम्हारे स्वभाव से अनभिज्ञ हैं , सत्य तो यह है कि श्याम शरीर वाले अक्रूर , कृष्ण और तुम सभी धोखेबाज और प्रवंचक हैं । तुम जैसे लोग विश्वसनीय नहीं हैं ।

राग नट

ऊधो को उपदेस सुनौ किन कान दै?
सुंदर स्याम सुजान पठायो मान दै॥ध्रुव॥
कोउ आयो उत तायँ जितै नँदसुवन सिधारे।
वहै बेनु-धुनि होय मनो आए नँदप्यारे॥
धाई सब गलगाजि कै ऊधो देखे जाय।
लै आईं ब्रजराज पै हो, आनँद उर न समाय॥
अरघ आरती, तिलक, दूब दधि माथे दीन्ही।

कंचन-कलस भराय आनि परिकरमा कीन्हीं॥
गोप-भीर आँगन भई मिलि बैठे यादवजात।
जलझारी आगे धरी, हो, बूझति हरि-कुसलात॥
कुसल-छेम बसुदेव, कुसल देवी कुवजाऊ।
कुसल-छेम अक्रूर, कुसल नीके बलदाऊ॥
पूछि कुसल गोपाल की रहीं सकल गहि पाय।
प्रेम-मगन ऊधो भए, हो. देखत व्रज को भाय॥
मन मन ऊधो कहै यह न बूझिय गोपालहि।
ब्रज को हेतु बिसारि जोग सिखवत ब्रजबालहि॥
पाती बाँचि न आवई रहे नयन जल पूरि।
देखि प्रेम गोपीन को, हो ज्ञान-गरब गयो दूरि॥
तब इत उत बहराय नीर नयनन में सोख्यो।
ठानी कथा प्रबोध बोलि सब गुरू समोख्यो॥
जो ब्रत मुनिवर ध्यावही पर पावहिं नहिं पार।
सो ब्रत सीखो गोपिका, हो, छाँड़ि विषय-विस्तार॥
सुनि ऊधो के बचन रहीं नीचे करि तारे।
मनो सुधा सों सींचि आनि विषज्वाला जारे॥
हम अबला कह जानहीं जोग-जुगुति की रीति।
नँदनंदन ब्रत छाँड़ि कै, हो, को लिखि पूजै भीति?
अबिगत, अगह, अपार, आदि अवगत है सोई।
आदि निरंजन नाम ताहि रंजै सब कोई॥

नासिका-अग्र है तहाँ ब्रह्म को बास।
अबिनासी बिनसै नहीं, हो, सहज ज्योति-परकास॥
घर लागै’औघूरि कहे मन कहा बँधावै।
अपनो घर परिहरे कहो को घरहि बतावै?
मूरख जादवजात हैं हमहिं सिखावत जोग।
हमको भूली कहत हैं हो, हम भूली किधौं लोग?
गोपिहु ते भयो अंध ताहि दुहुं लोचन ऐसे!
ज्ञाननैन जो अंध ताहि सूझै धौं कैसे?
बूझै निगम बोलाइ कै, कहै वेद समुझाय।
आदि अंत जाके नहीं, हो, कौन पिता को माय?
चरन नहीं भुज नहीं, कहौ, ऊखल किन बाँधो?
नैन नासिका मुख नहीं चोरि दधि कौन खाँधो[९]?
कौन खिलायो गोद में, किन कहे तोतरे बैन?
ऊधो ताको न्याव है, हो, जाहि न सूझै नैन॥
हम बूझति सतभाव न्याव तुम्हरे मुख साँचो।
प्रेम-नेम रसकथा कहौ कंचन की काँचो॥
जो कोउ पावै सीस दै[११] ताको कीजै नेम।
मधुप हमारी सौं कहो, हो, जोग भलो किधौं प्रेम॥
प्रेम प्रेम सों होय प्रेम सों पारहि जैए।
प्रेस बँध्यो संसार, प्रेम परमारथ पैए॥

एकै निहचै प्रेम को जीवन-मुक्ति रसाल।
साँचो निहचै प्रेम को, हो, जो मिलिहैं नँदलाल।
सुनि गोपिन को प्रेम नेम ऊधो को भूल्यो।
गावत गुन-गोपाल फिरत कुंजन में फूल्यो॥
छन गोपिन के पग धरै, धन्य तिहारो नेम।
धाय धाय द्रुम भेंटहीं, हो, ऊधो छाके प्रेम॥
धनि गोपी, धनि गोप, धन्य सुरभी बनचारी।
धन्य, धन्य! सो भूमि जहाँ बिहरे बनवारी॥
उपदेसन आयो हुतो मोहिं भयो उपदेस।
ऊधो जदुपति पै गए, हो, किए गोप को बेस॥
भूल्यो जदुपति नाम, कहते गोपाल गोसाँई।
एक बार ब्रज जाहु देहु गोपिन दिखराई॥
गोकुल को सुख छाँड़ि कै कहाँ बसे हौ आय।
कृपावंत हरि जानि कै, हो, ऊधो पकरे पाय॥
देखत ब्रज को प्रेम नेम कछु नाहिंन भावै।
उमड़्यो नयननि नीर बात कछु कहत न आवै॥
सूर स्याम भूतल गिरे, रहे नयन जल छाय।
पोंछि पीतपट सों कह्यो, ‘आए जोग सिखाय’?॥१७॥

उद्धव के आगमन पर सभी गोपियाँ शोर मचाती हुई उनके पास पहुँच गयीं और ऐसे शोर गुल में उद्धव जी अपना जो ज्ञान अलापते थे वह सुनाई नहीं पड़ता था । इस पर किसी गोपी ने कहा कि हे सखियों ! उद्धव जी जो कुछ कह रहे हैं उसे ध्यानपूर्वक क्यों नहीं सुनती ? क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि इन्हें श्यामसुंदर ने बहुत सम्मानपूर्वक यहाँ भेजा है । अरे ! ये तो वहां से यहाँ आये हैं जिधर हमारे श्री कृष्ण गए थे । बंशी की ध्वनि भी उसी तरह हो रही है जैसे श्री कृष्ण किया करते थे । ऐसा लगता है मानो प्रियतम श्री कृष्ण आ गए हों । उसकी बातों को सुन कर सभी गोपियाँ आनन्दोन्मत्त होकर उधर की ओर दौड़ पड़ीं और जाकर देखा कि उद्धव जी आ गए हैं । वे सब उद्धव जी को नन्द जी के पास ले आयीं और उन्हें देख कर वे सब फूली नहीं समातीं । उन सबों ने उद्धव को अर्घ्य दिया , उनकी आरती उतारी और मस्तक पर दूब और दही का टीका लगाया । यही नहीं , स्वर्ण – घट को जल से भर कर के उनकी परिक्रमा की । उद्धव के आगमन का समाचार मिलते ही नन्द के आँगन में गोपों की बहुत बड़ी भीड़ हो गयी । गोपों के आने पर उद्धव जी ने सबसे भेंट की और बैठ गए । गोपियों ने उद्धव के समक्ष जल पात्र रख दिया और कृष्ण का समाचार ( कुशल – क्षेम ) पूछने लगीं। वे सब वासुदेव, कुब्जादेवी , अक्रूर , बलराम और श्री कृष्ण का सम्यक रूपेण कुशल क्षेम पूछकर उद्धव जी के चरणों को पकड़ कर बैठ गयीं । गोपियों की ऐसी प्रेम – विह्वलता और ब्रजवासियों के ऐसे भाव को देखकर उद्धव जी प्रेम मग्न हो गए क्योंकि उन्हें यह आशा नहीं थी कि ब्रज वासियों का प्रेम इस कोटि का होगा। वे मन ही मन कहने लगे कि श्री कृष्ण की यह बात समझ में नहीं आती कि वे ब्रज प्रेम को भुला कर ब्रज बालाओं को योग की शिक्षा देना चाहते हैं । उद्धव से पट्टी पढ़ाते नहीं बन रहा क्योंकि उनके नेत्र आंसुओं से भर गए हैं । गोपियों की प्रेम दशा देख कर और  उनकी अटल भक्ति और प्रेम के समक्ष उनके ज्ञान का गर्व नष्ट हो गया । उन्होंने किसी तरह इधर – उधर की बातें बातों द्वारा अपने को बहलाया और अपने नेत्रों के आंसुओं को सुखाया । इसके पश्चात सब को बुलाकर गुरु की भांति सहेज रखे ज्ञान के उपदेश को बताना आरम्भ किया । उद्धव ने कहा , हे गोपियों ! तुम सब विषय वासना के प्रपंच को त्याग कर उस व्रत का अर्थात परब्रह्म के चिंतन का पालन करो । उस व्रत को सीखो जिसे श्रेष्ठ मुनिगण सदैव मनन किया करते हैं और जिस ब्रह्म का वे पार नहीं पाते । उद्धव की ऐसी बातें सुन कर गोपियों की पुतलियां नीचे हो गयीं अर्थात सबने अपनी आँखों को झुका लिया । उनकी मनोदशा ऐसी लता के समान हो गयी जिसे पहले अमृत से सींच कर पुनः विष की ज्वाला से दग्ध कर दिया गया हो। उद्धव ने पहले तो मीठी – मीठी बातें की और ऐसी अमृत मयी वाणी द्वारा उन्हें शीतल किया । अब ऐसी कटुताभरी वाणी अर्थात ज्ञानोपदेश की ऐसी बातों से उनके मानस को संतप्त कर दिया । गोपियों ने उद्धव का उत्तर देते हुए कहा कि हम सब अबला और सामान्य स्त्रियां हैं और योग की युक्तियों को क्या जाने अर्थात योग की गंभीर बातों को क्या समझें ? भला श्री कृष्ण के व्रत और उनके प्रेम को छोड़ कर कौन दीवार पर चित्र बना कर उसकी पूजा करे । हम सब तो कृष्ण के रूप की उपासिका हैं । आपके निर्गुण ब्रह्म की कौन उपासना करे ? हे उद्धव ! तुम्हार ब्रह्म तो अज्ञेय , अग्राह्य , अपार आदि रूपों में सर्वप्रथम जाना गया है और जिसका नाम तो आदि निरंजन अर्थात मायारहित है , पर उसे प्रसन्न रखने की सब चेष्टा करते हैं । दूसरे शब्दों में सुख और दुःख के विकारों से रहित है उसे कैसे प्रसन्न किया जाये ? इस ब्रह्म का स्थान तो नेत्र और नाक के अग्रभाग में है अर्थात त्रिकुटी में रहता है । यह तो अविनाशी है और इसका कभी नाश नहीं होता । यह सहज ज्योति या ब्रह्म प्रकाश रूप है । भला हम लोगों का मन वहां कैसे टिक सकता है ? वह तो घूम फिर कर अपने ठिकाने लगता है अर्थात बलात यदि इसे ब्रह्मोपासना की ओर लगाते हैं तो यह घूम फिर कर श्री कृष्ण के प्रेम में ही तन्मय हो जाता है । इस भटकाव की स्थिति में इस मन का अन्यत्र जाना संभव नहीं है । भला कोई अपना घर छोड़कर दूसरों को अपना घर कहाँ बतावैं ? भाव यह है कि श्री कृष्णोपासना को त्याग कर अपना सच्चा उपास्य किसे कहें ? अतः उसकी दशा तो उस ग्रह – विहीन की भांति हो जाएगी जो इधर – उधर भटकेगा । उद्धव जी तो मूर्ख हैं जो हमें योग की शिक्षा देते हैं । वे हमें भ्रमित बताते हैं अर्थात अज्ञानी समझते हैं , परन्तु हमें तो ऐसा लगता है कि लोग ही भूले हैं – हम भ्रमित नहीं हैं । हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि उद्धव के इस प्रकार दोनों ही नेत्र गोपियों से भी अधिक अंधे हो गए हैं । उन्हें इन दोनों नेत्रों से सुझाई नहीं पड़ता  ठीक ही है , जो ज्ञान नेत्र से अंधे हैं , जिनकी वाह्य आँखों के साथ ही ह्रदय की भी आँखें फूट चुकी हैं , उन्हें कैसे दिखाई पड़ेगा ? जिनके चारों नेत्र फूट गए हैं , उन्हें क्या ज्ञात होगा ? ये तो शास्त्रोक्त बातों को समझाते हैं । शास्त्रों का प्रमाण देते हैं और समझा कर वेदों की बातें हमसे कहते हैं । वेदों का साक्ष्य मानते हैं लेकिन हम इनसे पूछती हैं कि जिस ब्रह्म के आदि और अंत का पता नहीं है उसके माता – पिता कौन हैं ? भला यह तो बताओ कि जिसके चरण और मुख नहीं हैं उसे ओखली में किसने बाँधा ?  बिना चरण के वह कैसे बांधा गया और नेत्र , नासिका और मुखविहीन उसने दही कैसे चुरा कर खाया ? अर्थात हमारे कृष्ण ने साकार रूप में ही सभी लीलाएं कीं , वह निराकार नहीं है । यही नहीं , उन्हें किसने गोद में खिलाया और किसने तोतली वाणी का प्रयोग किया ? दूसरे शब्दों में यदि वह निराकार है तो उन्हें यशोदा ने अपनी गोद में कैसे खिलाया और उन्होंने अपनी तोतली वाणी में कैसे नन्द – यशोदा आदि को रिझाया ? हे उद्धव ! ये बातें तो उसके लिए उचित प्रतीत होंगीं जिसे नेत्रों से दिखाई नहीं पड़ता अर्थात जो अज्ञानी एवं जड़ हैं । लेकिन हम तो सहज भाव से पूछती हैं और इसका सच्चा न्याय तो तुम्हारे मुख से है । इसकी सच्चाई का निरूपण तो तुम्हारे ऊपर छोड़ा गया है अर्थात तुम इसका क्या न्याय करते हो ? हमारा कथन यह है कि हमने प्रेम ( प्रेम कथा ) और तुम्हारे नियम ( योग ) में कौन स्वर्ण ( अधिक कीमती ) है और कौन कांच ( नगण्य ) है ? अरे , योग तथा नियम कि साधना तो उसके किये करनी चाहिए जिसे सर देकर भी प्राप्त किया जा सके अर्थात कठिन साधना से जो मिल सके , लेकिन तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म कि बात ही भिन्न है , उसे सर देकर भी प्राप्त नहीं किया जा सकता । पुनः गोपियाँ उद्धव से पूछती हैं , तुम्हें सौगंध है , यह बताएं कि योग और प्रेम में कौन उत्तम है ? किसकी साधना सहज साध्य है? वास्तव में प्रेम तो प्रेम से होता है अर्थात प्रेम मार्ग के अवलंब से प्रेम की प्राप्ति होती है और प्रेम मार्ग से ही भवसागर से पार लगा जा सकता है । देखा जाये तो सारा जगत प्रेम के बंधन में बँधा है । यहाँ सब प्रेम का नाता है और प्रेम से ही मोक्ष की प्राप्ति होती है । निश्चय ही एकमात्र प्रेम से ही रसमय जीवन का मोक्ष प्राप्त होता है । मोक्ष सदृश आनंदमय जीवन की प्राप्ति होती है । सच्चे और अटल प्रेम से ही नन्दलाल की प्राप्ति भी होगी । गोपियों की ऐसी अटल भक्ति और प्रेम को जानकार उद्धव को अपना नियम और योग मार्ग भूल गया और वे श्री कृष्ण के गुणों को गाते हुए कुंजों में आनंद मग्न घूमने लगे । वे क्षण में गोपियों के चरण पकड़ते और कहते कि हे गोपियों ! तुम्हारा यह प्रेम धन्य है , तुम महान हो , और कभी प्रेमोन्मत्त होकर दौड़ – दौड़ कर ब्रजमंडल के वृक्षों को भेंटने लगते। यहाँ कृष्ण के सम्बन्ध भाव से वे वृक्षों को आलिंगित करते थे और कहते गोपियाँ धन्य हैं, गोप धन्य हैं और वन में चरने वाली ये गायें धन्य हैं और वह ब्रजभूमि भी धन्य और महान  है जहाँ श्री कृष्ण विचरण करते रहे । मैं तो यहाँ गोपियों को ज्ञान का उपदेश देने आया था , किन्तु इसके विपरीत आज गोपियों के प्रेम का उपदेश मुझे मिला । अर्थात मैं ज्ञानोन्माद में भ्रमित था , लेकिन गोपियों के सच्चे मार्ग से मुझे शांति मिली । इस प्रकार उद्धव जी गोप वेश में श्री कृष्ण के पास मथुरा गए और वहां वे श्री कृष्ण के यदुपति नाम को भूल गए तथा उन्हें ‘ गोपाल गोसाईं ‘ कहने लगे । वे श्री कृष्ण से कहने लगे कि आप एक बार पुनः ब्रज जाकर गोपियों को दर्शन दें । तुम भला गोकुल के ऐसे सुख को छोड़ कर यहाँ कहाँ आ कर बस गए ? इतना कह कर श्री कृष्ण को भक्त वत्सल जान कर उनके चरणों को उद्धव जी ने पकड़ लिया । वे मन ही मन अपने ज्ञान गर्व से अत्यंत लज्जित हुए । उद्धव को अब ब्रज प्रेम को देखते हुए अपनी योग साधना अच्छी नहीं लगती । वे प्रेम में इतने गदगद हो गए कि उनके नेत्रों में प्रेमाश्रु भर गया और उनसे कुछ कहते न बना । उनकी वाणी रुक गयी । वे प्रेम विह्वल अवस्था में श्री कृष्ण के समक्ष पृथ्वी पर गिर पड़े । श्री कृष्ण ने अपने पीताम्बर से उनके प्रेमाश्रुओं को पोछा और व्यंग्य गर्भित वाणी में कहा । गोपियों को योग सीखा आये ?

राग धनाश्री

हमसों कहत कौन की बातें?
सुनि ऊधो! हम समुझत नाहीं फिरि पूँछति हैं तातें॥
को नृप भयो कंस किन मार्‌यो को वसुद्यौ-सुत आहि?
यहाँ हमारे परम मनोहर जीजतु हैं मुख चाहि॥
दिनप्रति जात सहज गोचारन गोप सखा लै संग।
बासरगत रजनीमुख[२] आवत करत नयन-गति पंग॥
को ब्यापक पूरन अबिनासी, को बिधि-बेद-अपार?
सूर बृथा बकवाद करत हौ या ब्रज नंदकुमार॥१८॥

इस पद में गोपियाँ उद्धव को बेवकूफ बना रही हैं । वे जानबूझ कर उनसे पूछती हैं और कहती हैं कि जिनकी चर्चा तुम यहाँ कर रहे हो , वे कौन हैं ?

हे उद्धव ! तुम हमसे किनकी बात कर रहे हो ? हम तो जानती नहीं कि तुम क्या कह रहे हो ? हमारी समझ में तुम्हारी बातें नहीं आ रही हैं , इसलिए हम तुमसे पुनः पूछ रही हैं कि मथुरा में कौन राजा हुआ और किसने कंस को मारा अर्थात तुम जो यह बता रहे हो कि श्री कृष्ण मथुरा के राजा हैं और उन्होंने कंस का वध किया यह हमारे लिए भ्रमात्मक है । यह भी नहीं जानती कि वासुदेव का पुत्र कौन है ? क्योंकि हमारे यहाँ तो श्री कृष्ण विराजमान हैं और हम ऐसे मनोहर श्री कृष्ण के मुख को नित्य प्रति देख कर जीती हैं उनका यह रूप हमें प्राणों से भी अधिक प्रिय है । वे आज भी नित्य अपने गोपमित्रों के साथ सहज भाव से वन में गाय चराने जाया करते हैं और दिन के समाप्त होने पर वे संध्या के समय वन से लौटते हैं और हमारे नेत्रों को स्तब्ध कर देते हैं । श्री कृष्ण की ऐसी मुद्रा को देखकर स्तब्ध हो जाते हैं । उन्हें हम सब अपलक देखते रह जाते हैं । हमारी समझ में नहीं आता कि कौन व्यापक , पूर्ण और अविनाशी ब्रह्म है और कौन ब्रह्मा और वेद के लिए अपार है । कौन है जिसका पार ब्रह्मा और वेद नहीं पा पाते ?  सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि तुम व्यर्थ ही बकवास व्यर्थ की बातें कर रहे हो । अरे इस ब्रज में तो नित्य नंदकुमार का दर्शन होता है अर्थात तुम जिस कृष्ण की चर्चा कर रहे हो , वे कोई और हैं क्योंकि हमारे श्री कृष्ण तो यहाँ सदैव विराजमान हैं ।

राग सारंग

तू अलि! कासों कहत बनाय?
बिन समुझे हम फिरि बूझति हैं एक बार कहौ गाय॥
किन वै गवन कीन्हों सकटनि चढ़ि सुफलकसत के संग।
किन वै रजक लुटाइ बिबिध पट पहिरे अपने अंग?
किन हति चाप निदरि गज मार्‌यो किन वै मल्ल मथि जाने?
उग्रसेन बसुदेव देवकी किन वै निगड़ हठि भाने?
तू काकी है करत प्रसंसा, कौने घोष[३] पठायो?
किन मातुल बधि लयो जगत जस कौन मधुपुरी छायो?
माथे मोरमुकुट बनगुंजा, मुख मुरली-धुनि बाजै।
सूरदास जसोदानंदन गोकुल कह न बिराजै ॥१९॥

प्रस्तुत पद में गोपियों ने व्यंग्य गर्भित वाणी में उद्धव का उपहास किया है । उद्धव जी निर्गुण ब्रह्म की उपासना पर बल दे रहे हैं । गोपियों की उपासना की यह पद्दति सर्वथा अमान्य है । वे श्री कृष्ण के अतिरिक्त और किसी को नहीं जानतीं ।

हे भ्रमर ! ( उद्धव से अभिप्राय है ) तुम किस से बना – बना कर कह रहे हो – हम तो इसे समझ नहीं पा रहे हैं अतः हम पुनः तुमसे पूछ रहे हैं कि आप अपने ब्रह्म की महिमा एक बार गाकर और उसका गुणानुवाद कर के हमें बताओ । यहाँ गाने की व्यंजना भ्रमर की गुनगुनाहट से है । हमें तुम यह तो बताओ कि अक्रूर के साथ रथ पर बैठ कर मथुरा की ओर किसने प्रस्थान किया और वे कौन थे जिन्होंने मथुरा में धोबी के वस्त्रों को लुटा कर अपने शरीर पर राजसी वस्त्रों को धारण किया ? किसने कंस के सुरक्षित धनुष को तोड़ा और कंस के कुवलयापीड़ नामक हाथी का निरादर कर के मारा ? ऐसे बलशाली हाथी के दांतों को तोड़कर उसका वध किया। यही नहीं , किसने मुष्टिक और चाणूर नाम के पहलवानों को मारा ? भला यह तो बताओ किसने उग्रसेन कंस के पिता , वसुदेव और देवकी की बेड़ियाँ हठ पूर्वक तोड़ीं ? तुम किसकी प्रशंसा कर रहे हो ? और अहीरों की इस बस्ती में तुम्हें किसने भेजा है ? किसने अपने मामा कंस का वध कर के संसार में यश प्राप्त किया और किसकी प्रभुता और धाक समस्त मथुरा में छायी हुयी है ? कौन मथुरा में बहुचर्चित है ? यहाँ गोकुल में तो  मस्तक पर मयूर मुकुट और गले में वन की गुंजा की माला धारण किये हुए मुख से मुरली की ध्वनि निकालते हुए बताओ तो जरा क्या यशोदानन्दन श्री कृष्ण चंद्र विराजमान नहीं हैं? तात्पर्य यह है कि ब्रज में तो सर्वत्र जन – जन में श्री कृष्ण का रूप छाया हुआ है , फिर आप इस निर्गुण का सन्देश किसके लिए लाये हैं और इसे कौन ग्रहण करेगा ?

राग सारंग

हम तो नंदघोष की वासी।
नाम गोपाल, जाति कुल गोपहि, गोप गोपाल-उपासी॥
गिरिवरधारी, गोधनचारी, बृन्दावन – अभिलासी।
राजा नंद, जसोदा रानी, जलधि नदी जमुना सी॥
प्रान हमारे परम मनोहर कमलनयन सुखरासी।
सूरदास प्रभु कहौं कहाँ लौं अष्ट महासिधि दासी॥२०॥

गोपियाँ नन्द गाँव की निवासिनी होने में गर्व का अनुभव करती हैं । चूंकि श्री कृष्ण ने इसी गाँव में गोपियों के साथ नाना प्रकार की लीलाएं रचीं । इसी से यहाँ गोपियाँ अष्ट सिद्धियों से बढ़ कर आनद का अनुभव करती हैं ।

गोपियों का कथन है कि हम सब का यह परम सौभाग्य हैं कि हम नंदगाव अर्थात गोकुल की निवासिनी हैं । हमारा नाम गोपाल ( गायों को पालने वाली ) हमारी जाति और कुल भी गोप ( अहीर ) हैं । गोप होने के कारण गोपाल ( श्री कृष्ण ) की उपासिका हैं । हमारे कृष्ण तो गोवर्धन को उठाने वाले , गायों को चराने वाले और वृन्दावन के प्रेमी हैं । हमारे संकट में ये गोवर्धन पर्वत उठा कर हमारी रक्षा करते हैं और गायों को चरा कर हम लोगों में पशु प्रेम उत्पन्न करते हैं । यही नहीं , वे वृन्दावन की प्राकृतिक सुषमा के प्रेमी हैं । उनमें मात्रा – भूमि के प्रति अनन्य अनुराग भी है । हमारे राजा तो नन्द और रानी यशोदा जी हैं । यहाँ प्रवाहित होने वाली यमुना तो हमारे लिए समुद्र के समान है । हमारे प्राण तो अत्यंत सौंदर्यशाली कमल नेत्र , आनंद राशि श्री कृष्ण हैं । कहाँ तक कहें उनके सुख के समक्ष आठों सिद्धियां भी दासी हैं । आठों सिद्धियों का सुख भी कृष्ण के सुख के समक्ष नगण्य है ।

राग केदार

गोकुल सबै गोपाल-उपासी।
जोग-अंग साधत जे उधो ते सब बसत ईसपुर कासी।।
यध्दपि हरि हम तजि अनाथ करि तदपि रहति चरननि रसरासो।
अपनी सीतलताहि न छाँड़त यध्दपि है ससि राहु-गरासी।।
का अपराध जोग लिखि पठवत प्रेम भजन तजि करत उदासी।
सूरदास ऐसी को बिरहनि माँ गति मुक्ति तजे गुनरासी ?21

उद्धव के ज्ञानोपदेश योग साधना की ज्ञान की बातें सुनकर गोपियाँ उद्धव के ज्ञान के विरोध में श्री क्रृष्ण के प्रति प्रेम साधना की प्रतिष्ठा कर रही हैं।

हे उद्धव ! गोकुल में सभी नर नारी उस गोपाल के उपासक हैं, श्री कृष्ण के उपासक हैं। हे उद्धव ! जो लोग तुम्हारे इस अष्टांग योग की साधना करने वाले हैं, वे यहां नहीं रहते वे सब शिव नगरी में निवास करते हैं अर्थात काशी में निवास करते हैं। यद्यपि श्री कृष्ण ने हमें त्याग दिया है और अनाथ कर दिया है फिर भी हम उनके चरणों के रूप राशि में ही रत हैं । उनमें हमारा अनुराग और प्रेम है । जिस प्रकार चन्द्रमा राहु के द्वारा ग्रसित हो जाने पर भी अपना जो स्वभाविक गुण है सीतलता प्रदान करने वाला उसे नहीं छोड़ता है। उसी प्रकार श्री कृष्ण भले ही हमें त्याग दें किन्तु हम अपना स्वभाविक धर्म नहीं छोड़ेंगे। ये जो मन है उनके चरणों में ही ध्यानस्थ रहेगा । हम समझ नही पातीं कि हमारे किस अपराध के दंड के रुप में कृष्ण ने हमारे लिए योग का संदेश लिख भेजा है। वे हमें इस प्रकार हरि भजन को छोड़ कर संसार से विरक्त हो जाने को कहना चाहते हैं। सूरदास जी कहते हैं कि यहां ब्रज में ऐसी कौन विरहणी है जो गुणों की खान को छोड़कर अर्थात श्री कृष्ण के प्रति प्रेम के सम्मुख गोपियों के लिए निर्गुण की उपासना से प्राप्त मुक्ति का कोई महत्व नहीं है हम सबके लिए तो कृष्ण प्रेम प्राण के समान हैं।

राग धनाश्री

जीवन मुँहचाही को नीको।
दरस परस दिन रात करति है कान्ह पियारे पी को।।
नयनन मूंदी-मूंदी किन देखौ बंध्यो ज्ञान पोथी को।
आछे सुंदर स्याम मनोहर और जगत सब फीको।।
सुनौ जोग को कालै कीजै जहाँ ज्यान है जी को ?
खाटी मही नहीं रूचि मानै सूर खबैया घी को।।22

उद्धव के द्वारा गोपियों को निर्गुण का उपदेश सुनाये जाने के बाद गोपियाँ चुप नहीं रहतीं वरन अनेक प्रकार से अपने प्रेम मार्ग की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करती हुई उद्धव से कह रही हैं।

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! अपने प्रीतम को अच्छा लगने वाली जो प्रेमिका है उसका जीवन ही अच्छा है। अर्थात सफल है। प्रीतम के मन में समाने के कारण वह जीवन संसार के फल को भोग लेता है इसलिए उसी का जीवन अच्छा है। उसी का जीवन सफल है। कुब्जा से ईर्ष्या का भाव प्रकट करती हुई गोपियाँ कहती हैं, जीवन तो उस कुब्जा का सफल है क्योंकि वह कृष्ण की अति प्रिय प्रेमिका है वह अपने प्रीतम कन्हैया का प्रतिदिन दर्शन करती हैं, उनको स्पर्श करती है और स्पर्श से उसे आनंद भी प्राप्त होता है। हे उद्धव ! ऐसा कौन है जिसने आँखें मूँद-मूँद करके पुस्तक के ज्ञान को प्राप्त कर लिया हो अर्थात आँखें खोलकर अध्ययन से ही ज्ञान को प्राप्त किया जा सकता है। उसी प्रकार प्रियतम के पास रहने से दर्शन और स्पर्श से ही जीवन सफल नहीं होता । यह तो तभी सम्भव है जब प्रेम की रीति से परिचित हो और प्रियतम को रिझाने में समर्थ हो । इसलिये कुब्जा को श्री कृष्ण के पास रहकर भी , उनका प्रतिदिन दर्शन करके भी, उनका स्पर्श प्राप्त करके भी इतना सुख और आनंद प्राप्त नहीं होता क्योंकि वह प्रेम करने की उचित रीति से परिचित नहीं है क्योंकि जीवन तो सफल तभी होगा जब प्रेम की रीति से सुपरिचित हो और प्रियतम को रिझाने में समर्थ। हे उद्धव ! हम तुम्हारे योग को लेकर क्या करें? यह हमारे किसी काम का नहीं क्योंकि इससे तो हमें प्राणहीन का भय है। योग साधना पर अमल करने से हमें अपने प्राण प्रिय से कृष्ण से बिछुड़ना पड़ेगा और यदि हम उनसे बिछड़ गए तो उनके बिना हमारा जीवित रहना सम्भव नहीं है और इसीलिए तुम्हारे इस योग को अपना लेने में प्राणों की हानि का भय है। सूरदास जी कहते हैं कि जिस प्रकार कोई व्यक्ति जो शुद्ध घी का प्रयोग करता है वह व्यक्ति खट्टी छाछ से प्रसन्न नहीं हो सकता उसी प्रकार श्री कृष्ण के प्रेमामृत का पान करने वाला यह जो हमारा हृदय है आपके योग की नीरस बातें सुनकर आनंदित नही होगा।

राग काफी

आयो घोष बड़ो व्योपारी।
लादी खेप गुन ज्ञान-जोग की ब्रज में आन उतारी।।
फाटक दैकर हाटक माँगत भौरे निपट सुधारि।
धुर ही तें खोटो खायो है लये फिरत सिर भारि।।
इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अजानी ?
अपनों दूध छाँड़ि को पीवै खार कूप को पानी।।
ऊधो जाहु सबार यहाँ तें बेगि गहरु जनि लावौ।
मुँहमाँग्यो पैहो सूरज प्रभु साहुहि आनि दिखावौ।।23

निर्गुण ब्रह्म की उपासना की शिक्षा देने आये उद्धव को गोपियाँ खरी खोटी सुनाती हुई आपस में चर्चा करते हुए कह रही हैं।

गोपियाँ आपस में बात करती हुई कहती हैं कि आज अहीरों की बस्ती में एक बड़ा व्यापारी आया हुआ है। उसने ज्ञान और योग के गुणों से युक्त अपनी जो गठरी है वो लाकर ब्रज में उतार दी है। उसने हमें तो बिलकुल भोला और अज्ञानी समझ लिया है। वह फटकन के समान जो तत्व हीन पदार्थ है , जो भूसा है , जो बेकार का कूड़ा कचरा है वह देकर के उसके बदले में सोना चाहता है अर्थात सोने के समान बहुमूल्य श्री कृष्ण को मांग लिया है। ऐसा लगता है इसने आरम्भ से ही लोगों को ठगा है तभी तो इस भारी बोझ को सिर पर लिए घूम रहा है। इस व्यपारी का जो सामान है वह बिलकुल व्यर्थ है और इसी कारण यह बिक नहीं रहा है और इसे हानि उठानी पड़ रही है। इसका सामान कोई भी नहीं खरीद रहा और इसलिए इसे अपने इस भारी बोझ को लादकर इधर उधर भटकना पड़ रहा है। यहां हम में से ऐसी कौन नासमझ है और अज्ञानी है जो इसका माल खरीद कर धोखा खा जाएगी। आज तक ऐसा मूर्ख हमने कहीं नहीं देखा है जो अपना दूध छोड़कर और खारे जल के जो कुँए का पानी है उसे वह पिये और गोपियाँ अंत में कहती हैं, हे उद्धव ! तुम शीघ्र ही यहां से चले जाओ ! बिना देर किये तुम शीघ्र मथुरा चले जाओ और जो तुम्हारा महाजन है , तुम्हारा जो बड़ा सेठ है , यदि तुम हमसे लाकर मिला दोगे, हमारा दर्शन करा दोगे तो तुम्हें मुँह माँगा पुरस्कार प्राप्त होगा अर्थात जो भी तुम मांगोगे वह हम तुम्हें दे देंगे।

राग काफी

जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहे।
यह व्योपार तिहारो ऊधो ! ऐसोई फिरि जैहै।।
जापै लै आए हौ मधुकर ताके उर न समैहै।
दाख छाँड़ि कै कटुक निम्बौरी को अपने मुख खैहै ?
मूरी के पातन के केना को मुक्ताहल दैहै।
सूरदास प्रभु गुनहि छाँड़ि कै को निर्गुन निबैहै ?।।24

गोपियाँ उद्धव के ज्ञान योग को निःसार बताकर उन पर गंभीर व्यंग्य करती हैं और कह रही हैं।

हे उद्धव ! तुम्हारा ये ज्ञान योग रूपी ठगी और धूर्तता का मार्ग है वह ब्रज में नहीं बिक पायेगा। यह सौदा यहां से इसी प्रकार लौटा दिया जाता है , यहां इसे कोई नहीं खरीदेगा। हे मधुकर ! तुम यह सामान जिसके लिए इतने दूर तक आये हो , यहाँ पर यह किसी को पसंद नहीं आएगा और किसी के हृदय में नहीं समा पयेगा। ऐसा कौन मुर्ख होगा जो अपने अंगूर के दानों को छोड़कर नीम के कड़वे फल निबोरी को खायेगा और मूली के पत्तों के बदले में तुम्हें मोतियों के दाने कौन देगा? गोपियाँ यह कहना चाहती हैं कि तुम्हारा ये जो ब्रह्म है वो निर्गुण ब्रह्म है । वह नीम के फल के समान कड़वा और मूली के पत्ते के समान फीका है अर्थात तुच्छ है त्याज्य है और हमारे श्री कृष्ण जो हैं वो अंगूर के समान मधुर और मोतियों के समान बहुमूल्य हैं । इसीलिए हम ऐसे मूर्ख नही हैं जो कृष्ण को छोड़कर के तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की साधना करें अर्थात ऐसा कौन मूर्ख है जो सम्पूर्ण गुणों के भंडार सगुण रूपी कृष्ण को छोड़कर तुम्हारे गुणहीन निर्गुण ब्रह्म के साथ निर्वाह करे या उसकी साधना करे।

राग नट

आये जोग सिखावन पाँड़े।
परमारथि पुराननि लादे ज्यों बनजारे टांडे।।
हमरी गति पति कमलनयन की जोग सिखै ते राँडें।
कहौ, मधुप, कैसे समायँगे एक म्यान दो खाँडे।।
कहु षटपद, कैसे खैयतु है हाथिन के संग गाड़े।
काहे जो झाला लै मिलवत, कौन चोर तुम डाँड़े।।
सूरदास तीनों नहिं उपजत धनिया, धान कुम्हाड़े।।25

इस पद्य में उद्धव के ज्ञान योग की शिक्षा से गोपियाँ नाराज और उदास हैं। उन्होंने उद्धव के ज्ञान की खिल्ली उड़ाई है । गोपियों के अनुसार उद्धव मात्र ज्ञान के भार को ढोते फिर रहे हैं उन्हें व्यावहारिक जीवन का अनुभव नहीं हैं ।

हे उद्धव ! तुम पंडित के समान उसी प्रकार हमें जोग सिखाने के लिए आ गए जिस प्रकार बंजारे लोग अपने सिर पर माल लादे-लादे बेचने के लिए घूमते फिरते हैं । तुम भी उन्हीं के समान परमार्थ की शिक्षा देने वाले , पुराणों के ज्ञान के बोझ को अपने सिर पर लादे-लादे फिर रहे हो । तुम योग को सिखाने वाले पंडे के समान अपने परमार्थ रूपी पुरानी बासी वस्तु को लिए फिरते हो और हमारे ऊपर मढ़ना चाहते हो। हमारी गति तो अपने पति के साथ है और हमारे पति है कमल नयन श्री कृष्ण जो हमें शरण और प्रतिष्ठा देने वाले हैं । यह योग हमारे लिए नहीं है । यह योग तो उनके लिए है जो विधवा और अनाथ हैं । हमारे पति अभी जीवित हैं । अतः हमारे लिए योग विकार की और बेकार की वस्तु है। हे उद्धव ! तुम्हीं बताओ कि एक ही म्यान में दो तलवारें कैसे समा सकती हैं? जिस प्रकार एक म्यान में दो तलवार नहीं समा सकती हैं उसी प्रकार हमारे लिए योग सीखना भी बेकार है क्योंकि योग की साधना हमारे लिए असम्भव है । हमारे हृदय में तो श्री कृष्ण समाये हुए हैं। इसमें योग नहीं समा सकता। इसमें तो तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की समाई नहीं हो सकती। हे भ्रमर ! हे उद्धव ! हमें बताओ कि हाथी के साथ गन्ने को किस प्रकार खाया जा सकता है क्योंकि हाथी तो एक ही बार में अनेक गन्ने खा जाता है । जिस प्रकार हाथी के साथ गन्ना खाने में मनुष्य कोई होड़ या स्पर्धा नहीं कर सकता उसी प्रकार हम अबला नारियों के लिए योग मार्ग की कठिन और दुरूह साधना करना कठिन है। हे उद्धव ! बिना दूध, रोटी और घी खाये केवल हवा के भक्षण से अर्थात तुम्हारा ये प्राणायाम और योग  करने से किसकी भूख मिट सकती है अर्थात कोई जीवित नही रह सकता अर्थात जिस प्रकार यह असम्भव है कि केवल प्राणायाम से भूख मिट जाय उसी प्रकार हमारे लिए भी योग की साधना करना असम्भव है। गोपियाँ कह रही हैं कि तुम किस वजह से यह बातें बना बना के व्यर्थ की बकवास कर रहे हो आखिर हमने ऐसी कौन सी चोरी की है जिसका तुम हमें दण्ड देने आये । वास्तव में तुम स्वयं चोर हो क्योंकि जो हमारे सर्वस्व हैं वे है कृष्ण और वे हमारे हृदय में विराजमान हैं। तुम उन्हें हमसे छीनकर ले जाने के लिए आये हो । तुम अच्छी प्रकार जानते हो कि धनिया , धान और काशीफल इन तीनों की खेती एक स्थान पर होना सम्भव नहीं है अर्थात असंभव है। इसीलिए हमारे लिए श्री कृष्ण को छोड़कर तुम्हारे परब्रह्म को स्वीकार करना असम्भव है।

राग बिलावल

ए अलि ! कहा जोग में नीको ?
तजि रसरीति नंदनंदन की सिखवन निर्गुन फीको।।
देखत सुनत नाहि कछु स्रवननि, ज्योति-ज्योति करि ध्यावत।
सुंदर स्याम दयालु कृपानिधि कैसे हौ बिसरावत ?
सुनि रसाल मुरली-सुर की धुनि सोइ कौतुक रस भूलै।
अपनी भुजा ग्रीव पर मैले गोपिन के सुख फूलै।।
लोककानि कुल को भ्र्म प्रभु मिलि-मिलि कै घर बन खेली।
अब तुम सुर खवावन आए जोग जहर की बेली।।

ए अलि ! कहा जोग में नीको ?
तजि रसरीति नंदनंदन की सिखवन निर्गुन फीको।।
देखत सुनत नाहि कछु स्रवननि, ज्योति-ज्योति करि ध्यावत।
सुंदर स्याम दयालु कृपानिधि कैसे हौ बिसरावत ?
सुनि रसाल मुरली-सुर की धुनि सोइ कौतुक रस भूलै।
अपनी भुजा ग्रीव पर मैले गोपिन के सुख फूलै।।
लोककानि कुल को भ्र्म प्रभु मिलि-मिलि कै घर बन खेली।
अब तुम सुर खवावन आए जोग जहर की बेली।।26

इस पद में गोपियाँ उद्धव के योग के उपदेश से खिन्न हो गई हैं और खिन्न होकर प्रतिक्रिया दे रही हैं।

गोपियाँ खिन्न होकर उद्धव को भौंरे की आड़ लेकर अर्थात भौंरे के माध्यम से उद्धव को खरी-खोटी सुना रही हैं। वे उद्धव कहती हैं कि हे भ्रमर ! तुम्हारे निर्गुण में कौन सी खासियत है? कौन सी विशेष बढ़िया बात है ? जो तुम नंद लाल की रस पद्धति को छुड़ाकर हमें नीरस निर्गुण फीका दिखाई दे रहे हो। ऐ भौंरे ! जोग में तुम उन नजरों को न तो देख पाते हो , न बात कर पाते हो , बस ज्योति-ज्योति कहकर दौड़ पड़ते हो। हमारे श्याम सुंदर तो अत्यंत दयालु हैं , दया के सागर हैं । हम उन्हें कैसे भुला सकती हैं ? हमारे कन्हैया की मधुर मुरली की धुन सुनकर तो देवता और मुनि लोग भी उसे सुनने के लिए कौतुकवश अपना तन-मन भुला बैठे थे। जब कन्हैया अपनी भुजा हमारे कंधों पर रख देते थे तो हमारा मन खिल उठता था और हम लोग लोक लाज और कुल की मर्यादा छोड़कर प्रभु के साथ घर में वन में खेलती रहती थीं और अब तुम हमको योग रूपी विष की लता खिलाने आ गए हो अर्थात यह तुम्हारा योग का उपदेश हमारे लिए विष के समान प्राण घातक है और कृष्ण का प्रेम हमारे लिए मधुर और जीवन दायक हैं।

राग मलार

हमरे कौन जोग व्रत साधै ?
मृगत्वच, भस्म अधारी, जटा को को इतनौ अवराधै ?
जाकी कहूँ थाह नहिं पैए , अगम , अपार , अगाधै।
गिरिधर लाल छबीले मुख पर इते बाँध को बाँधै ?
आसन पवन बिभूति मृगछाला ध्याननि को अवराधै ?
सूरदास मानिक परिहरि कै राख गाँठि को बाँधै ?।।

यहाँ गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि सुंदर कृष्ण को छोड़कर निर्गुण ब्रह्म की साधना करना असम्भव है।

योग साधना की कठिनाइयों, बाहरी बंधनों और प्रयत्न की आलोचना करते हुए गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! हमारे यहां तुम्हारे योग व्रत की साधना कौन करे? मृगछाला , भस्म, उधारी आदि वस्तुओं को इकट्ठा करता कौन फिरे और फिर अपने सिर पर जटा कौन बांधे? तुम्हारा ब्रह्म तो ऐसा है जिसकी कहीं भी थाह नहीं पाई जा सकती । जो अगम है , अपार है , अथाह है। फिर इतनी मुसीबतें मोल लेकर कौन तुम्हारे ब्रह्म की साधना करता फिरे ? फिर ऐसे ब्रह्म को कैसे प्राप्त किया जा सकता है?इसलिए ये सब प्रयत्न करना व्यर्थ है। हमारे सुंदर सलोने कृष्ण के छबीले मुख का दर्शन करने के लिए आसन, प्राणायाम, भस्म, मृगछाला आदि को एकत्र करना और फिर उसका ध्यान करना इन सब बातों की बिल्कुल जरूरत नहीं पड़ती। वे कहना चाहते हैं कि जब तुम्हारे ब्रह्म का ध्यान करने के लिए इन सारी वस्तुओं को जुटाना आवश्यक है तो ऐसा कौन होगा जो इन प्रपंचों में पड़कर के उनकी साधना करता फिरे उसकी आराधना करता फिरे? ऐसा कौन मूर्ख है जो अपने माणिक्य को त्यागकर राख को उसकी गांठ में बांधे ? हमारे कृष्ण तो मणि के समान अमूल्य है और तुम्हारा ब्रह्म राख के समान तुच्छ है।

राग धनाश्री

हम तो दुहूँ भॉँति फल पायो।
को ब्रजनाथ मिलै तो नीको , नातरु जग जस गायो।।
कहँ बै गोकुल की गोपी सब बरनहीन लघुजाती।
कहँ बै कमला के स्वामी संग मिल बैठीं इक पाँती।।
निगमध्यान मुनिञान अगोचर , ते भए घोषनिवासी।
ता ऊपर अब साँच कहो धौ मुक्ति कौन की दासी ?
जोग-कथा, पा लोगों ऊधो , ना कहु बारंबार।
सूर स्याम तजि और भजै जो ताकी जननी छार।।28

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! कृष्ण प्रेम का फल तो हमें दोनों ही प्रकार से प्राप्त हो जाएगा।

यदि हमारे इस विरह के अंत में ब्रजनाथ श्री कृष्ण मिल जाए तो बहुत अच्छी बात है और यदि नहीं भी मिल पाते है तो मरने के बाद सारा संसार हमारा यश गान करेगा। गोपियों ने श्री कृष्ण के प्रेम में एकनिष्ठ भाव को अपनाया है। हमारे और श्री कृष्ण की समानता ही नहीं है।कहाँ तो हम गोकुल की गोपियाँ जो वर्णहीन लघु जाति की हैं अर्थात नीच कुल और नीच जाति में जन्म लेने वाली हैं और कहाँ वे लक्ष्मीपति ब्रह्म स्वरूप श्री कृष्ण हैं। ये तो हमारा परम् सौभाग्य है कि हमने उनसे प्रेम किया । हमें यह अवसर मिला और उन्होंने भी हमें प्रेम के योग्य समझा और हम उनके साथ एक पंक्ति में बैठ सकी अर्थात उन्होंने हमें समानता का दर्जा दिया। जिन भगवान का ध्यान वेद भी करते हैं जिन्हें ज्ञानी मुनि भी प्रयत्न करने पर प्राप्त नहीं कर पाते। जो मुनियों के लिए भी अगोचर हैं वे भगवान हम अहीरों की बस्ती में आकर रहे। अब आप हमें ये बताओ कि मुक्ति किसकी दासी है ? यदि मुक्ति ब्रह्म की दासी है तो वह ब्रह्म कृष्ण हैं। हे उद्धव ! हम आपके पाँव पड़ते हैं, अपने इस योग की कथा को बार-बार हमें न सुनाओ। सूरदास जी के अनुसार गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव! जो कृष्ण को त्यागकर किसी और की उपासना करता है,  उसकी जन्म देने वाली माता भी धिक्कार के योग्य है।

राग कान्हरो

पूरनता इन नयनन पूरी।
तुम जो कहत स्रवननि सुनि समुझत, ये यही दुख मरति बिसूरी।।
हरि अन्तर्यामी सब जानत बुद्धि विचारत बचन समूरी।
वै रस रूप रतन सागर निधि क्यों मनि पाय खवावत धूरी।।
रहु रे कुटिल , चपल , मधु , लम्पट , कितब सँदेस कहत कटु कूरी।
कहँ मुनिध्यान कहाँ ब्रजयुवती ! कैसे जाट कुलिस करि चूरी।।
देखु प्रगट सरिता, सागर, सर, सीतल सुभग स्वाद रूचि रूरी।
सूर स्वातिजल बसै जिय चातक चित्त लागत सब झूरी।।29

इस पद में गपियाँ उद्धव के ज्ञानोपदेश को सुनकर नाराज और खीझी हुई हैं।

हे उद्धव ! तुमने जो पूर्ण ब्रह्म का वर्णन किया है उसकी पूर्णता हमारी नेत्रों में पूरी तरह नहीं समा पाती अर्थात वह हमें जँचती नहीं है । तुमने ब्रह्म की पूर्णता के बारे में हमें जो-जो बातें कही हैं वह हम इन कानों से सुनकर समझने की कोशिश कर रही हैं। प्रयास कर रहीं हैं परन्तु हमारी आखें दुखने लगती हैं और बिलख- बिलख कर व्याकुल हुयी जा रही है । इस बिलखने के दो कारण हो सकते हैं । एक यह कि इन्हें तुम्हारे द्वारा वर्णित ब्रह्म की पूर्णता कहीं भी नजर नहीं आती अथवा दूसरा यह भ्रम है कि कहीं हम तुम्हारी बातों में आकर श्री कृष्ण को न छोड़ दें और तुम्हारे ब्रह्म को न स्वीकार कर लें। गोपियाँ कहती हैं कि सभी को यह पता है कि भगवान अन्तर्यामी हैं । बुद्धि द्वारा इस बात पर विचार करने पर हमें भी तुम्हारा यह कथन सत्य प्रतीत होता है। इस बात पर विशवास होने लगता है किन्तु हमारे कृष्ण तो प्रेम रूप और रत्नों के सागर हैं। रत्न तो मूल्यवान हैं । ऐसे माणिक को प्राप्त कर लेने पर तुम हमें धूल के समान तुच्छ अपने निर्गुण ब्रह्म को अपना लेने का उपदेश क्यों दे रहे हो? तुम्हारा यह उपदेश व्यर्थ ही जाएगा क्योंकि हम अपना धर्म बदलने वाले नहीं हैं। भ्रमर को सम्बोधित करती हुई उद्धव को खरी-खोटी सुनाते हुए कहती हैं कि अरे छली चंचल, रस के लोभी धूर्त भौंरे ठहर, तू हमें ऐसा योग का कटु सन्देश क्यों सुना रहा है? हमें यह तो बता कि कहाँ मुनियों की ब्रह्म विषयक कठोर साधना और कहाँ हम कोमलांगी ब्रज की युवतियां। क्या तुझे कहीं भी समानता दिखाई देती है? क्या कठोर वज्र को तोड़कर चकनाचूर करना सम्भव है ? नहीं न ! उसी प्रकार हमारे लिए भी इस योग को करना असम्भव है। संसार में सरिता, सागर, तालाब का जल मीठा निर्मल और शीतल होता है । यह देखकर भी स्वाति जल के प्रेमी चातक के हृदय में तो स्वाति नक्षत्र के समय जो जल उपलब्ध होता है उसी के प्रति प्रेम होता है। वह उसी का पान करके जी को शांत करता है । अन्य जो जल के स्त्रोत हैं उनसे प्राप्त जल भले ही शीतल और मधुर हो परन्तु उस चातक के लिए वह नीरस और व्यर्थ हैं । ठीक इसी प्रकार तुम्हारा ब्रह्म अवश्य ही मुक्ति देने वाला हो सकता है किंतु हमें तो केवल श्री क्रृष्ण/विष्णु प्रिय लगते हैं । हमें तो मुक्ति नहीं चाहिए । हमें तो कृष्ण चाहिए । अतः तुम्हारे ब्रह्म को स्वीकार नहीं कर सकते हैं।

राग धनाश्री

कहतें हरि कबहूँ न उदास।
राति खवाय पिवाय अधरस क्यों बिसरत सो ब्रज को बास।।
तुमसों प्रेम कथा को कहिबो मनहुं काटिबो घास।
बहिरो तान-स्वाद कहँ जानै, गूंगो-बात-मिठास।
सुनु री सखी, बहुरि फिरि ऐहैं वे सुख बिबिध बिलास।
सूरदास ऊधो अब हमको भयो तेरहों मास।।30

इस पद में गूंगे बहरों का उदाहरण देते हुए गोपियाँ उद्धव को विरह की व्यथा गान सुना रही हैं।

हमारे प्रभु श्री कृष्ण हमसे कभी भी उदास अथवा उदासीन नहीं हो सकते हैं क्योंकि उन्हें ब्रज भूमि में बिताया हुआ समय अभी भी भूल नहीं पाया है क्योंकि वे जब हमारे पास थे तो हमने उन्हें प्रेमपूर्वक माखन खिलाया था और प्रेम की अवस्था में हमने अपने अधरों से अमृत रस का पान कराया था । इसीलिए वे इस ब्रज भूमि में अपना निवास कभी भी भुला नही पाएंगे लेकिन तुम्हारे सामने तो इस प्रेम कथा का  वर्णन करना घास काटने के समान है अर्थात तुमसे इस का बखान करने का मतलब तुमसे माथा पच्ची करना है क्योंकि तुम इसके महत्व को कभी भी नहीं जान सकते हो । तुम्हारी स्थिति तो उस भौंरे के समान है जो संगीत के उतार- चढ़ाव से विस्मृत मधुर तानों का स्वाद नहीं जानता और गूंगा व्यक्ति प्रेमालाप से उपलब्ध रस को ग्रहण नहीं कर सकता। या तो तुम बहरे हो या गूंगे हो अर्थात या तो तुम्हारी गति उस बहरे मनुष्य के समान है अथवा गूंगे व्यक्ति के समान। भला बहरा संगीत के आनंद को क्या जानेगा और गूंगा वाणी के माधुर्य को क्या समझेगा । एक गोपी अपनी दूसरी सखी से कहती है कि हे सखी ! सुनो क्या हमारे जीवन में वही सुख क्या फिर कभी आएगा ? क्या कभी हमारे श्री कृष्ण पुनः ब्रज आएंगे और हमारे साथ वही प्रेम क्रीड़ाएं करेंगे? अब तो उनके आने का समय भी आ गया है। सूरदास जी कहते हैं कि गोपी अपनी सखी से कह रही हैं कि अब तो उनके आने का समय भी आ गया है क्योंकि जितनी अवधि के लिये वह मथुरा गए थे वह अवधि समाप्त हो रही है और इसलिए हमें आशा है कि वे शीघ्र ही लौटकर वह आएंगे।

राग धनाश्री

तेरो बुरो न को मानै।

रस की बात मधुप नीरस सुनु , रसिक होत सो जानै।।

दादुर बसै निकट कमलन के जन्म न रस पहिचानै ।

अलि अनुराग उड़न मन बांध्यो कहे सुनत नहि कानै।।

सरिता चलै मिलन सागर को कूल मूल द्रुम भानै।

कायर बकै लोह तें भाजै लरै जो सूर बखानै ।।31

इसमें उद्धव और गोपियों के दृष्टिकोण का निरूपण किया गया है । गोपियाँ श्री कृष्ण प्रेम की महत्ता का गान करती हैं और उद्धव निर्गुण के महत्त्व बखानने में लगे हैं ।

उद्धव को भ्रमर के रूप में सम्बोधित करती हुई गोपियाँ व्यंग्य गर्भित शैली में कह रही हैं – हे नीरस भ्रमर ! तेरी बातों का कोई बुरा नहीं मानता है क्योंकि सभी जानते हैं कि तुम शुष्क ह्रदय हो और प्रेम की बातों का महत्त्व क्या जानो । अरे नीरस भ्रमर ! यदि तुम सरस होते , रसज्ञ होते तो रस अर्थात प्रेम की बातों को ग्रहण करते परन्तु तुमसे तो रस अर्थात प्रेम की चर्चा करना ही बेकार है । रस की बात तो रसज्ञ ही जानते हैं अर्थात प्रेम की बात तो प्रेमी ही जानते हैं । यद्यपि मेढक जल में कमलों के निकट निवास करता है लेकिन वह जीवन पर्यन्त रस अर्थात कमलों के मकरंद का सुख नहीं ले पाता । वह रस क्या वस्तु है वह जान ही नहीं पाता किन्तु कमल के रस लोभी भौरों ने उसके निकट उड़ने में ही अपने मन को बाँध रखा है । कमल के निकट रहने वाला मेढक कमला के मकरंद का आस्वादन जीवन भर नहीं कर पाता किन्तु वन में रहने वाला भ्रमर कमल के प्रेम में उड़ कर उसके पास पहुंचने में ही अपने मन को लगा देता है और कहने सुन ने पर भी मर्यादा की परवाह नहीं करता । प्रेमोद्रेक की स्थिति यह है कि नदी अपने किनारे के वरीखों कि परवाह न करते हुए उन्हें तोड़ती हुयी अपने प्रियतम समुद्र से मिलने चल पड़ती है । युद्ध स्थल में जो कायर होता है वह तो मात्रा प्रलाप करता है और योद्धाओं के हथियार देखकर भाग जाता है लेकिन जो लड़ता है वही वीर कहलाता है । 

राग धना श्री

घर ही के बाढ़े रावरे
नाहीं मीत वियोग बस परे अनवउगे अली बावरे !
भुख मरि जाय चरै नहि तिनुका सिंह को यहै स्वभाव रे !
स्रवन सुधा – मुरली के पोषे , जोग – जहर न खवाव रे !
ऊधो हमहि सीख का दैहो ? हरि बिनु अनत न ठाँव रे !
सूरदास कहाँ लै कीजै थाही नदिया नाव रे।।32।।

गोपियाँ उद्धव के प्रलाप को सुनकर क्रुद्ध हो गयीं और कहने लगीं कि उद्धव जी अपने ज्ञान का जितना ढिंढोरा पीट रहे हैं , उतना वो है नहीं । इसमें गोपियों कि श्री कृष्ण के प्रति एक निष्ठता और प्रेम कि अनन्यता का प्रदर्शन हुआ है ।

( उद्धव के प्रति गोपियों का व्यंग्य कथन ) हे उद्धव ! तुम अपने घर पर ही अपने ज्ञान की थोथी बातों का बढ़ – चढ़ कर भले ही बखान कर लो , किन्तु जब दूसरे के समक्ष पहुंचोगे तो पता चलेगा कि तुम्हारे ज्ञान की कितनी गहराई है अर्थात हम गंवार गोपियों के बीच में ही तुम अपने ज्ञान का प्रलाप करने वाले हो । हे मित्र ! अभी तुम वियोग के फेर में पड़े नहीं हो । अभी तुमने वियोग की पीड़ा का अनुभव किया नहीं है । हे पागल भ्रमर ! ( हे अज्ञानी उद्धव ! ) जब हमारी स्थिति में पड़ोगे तो तुम्हें भी ऐसी वियोग पीड़ा सहनी पड़ेगी । कहा जाता है कि सिंह का यह स्वभाव है कि मांस न मिलने पर वह कभी घास नहीं चरेगा , भले ही वह भूखा मर जाये । उसी प्रकार श्री कृष्ण के दर्शन न होने पर भले ही हम लोग उनके वियोग में मर जाएं लेकिन किसी नए की उपासना नहीं करेंगी । तुम्हें मालूम होना चाहिए कि ये हमारे कान श्री कृष्ण की मुरली की ध्वनि रुपी सुधा ( अमृत ) से पोषित हैं । उन्होंने अपनी मुरली की अनुपम धुन से हमारे कानों को आनंदित किया है । अब उन्हीं कानों को अपनी योग साधना विषयक कटु वाणी ( जहरीली बातों ) से पीड़ित मत करो । कहाँ मुरली की मधुर ध्वनि और कहाँ तुम्हारी कटु योग वार्ता । दोनों में कितना अंतर है । हे उद्धव ! तुम हमें क्या शिक्षा दोगे। हम तो तुम्हारी बातों को भली भांति समझती हैं । हमारे लिए तो एकमात्र श्री कृष्ण की ही शरण है । श्री कृष्ण के बिना हमारा अन्यत्र कोई स्थान या शरण नहीं है । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं – हे उद्धव ! हम ठहरी हुयी नदी के लिए आपकी योग रुपी नाव को लेकर क्या करेंगीं अर्थात जिस संसार की गहराई के बारे में हम जान चुकी हैं । यह संसार कितना छिछला है इसे पार करना कौन सी मुश्किल बात है ?  उसे पार करने के लिए आपकी योग चर्चा रुपी नाव की क्या आवश्यकता है ? अरे नाव तो गहरी नदी में चलाई जाती है । जब संसार को बिना योग – साधना से ही पार किया जा सकता है तो योग रुपी नाव को ग्रहण करने की क्या आवश्यकता है ? यह योग रुपी नाव तो तुम जैसे योगियों के लिए अधिक उपयोगी है , हम गोपियों के लिए श्री कृष्ण की भक्ति और प्रेम अत्यंत महत्त्व पूर्ण है ।

राग मलार

स्याममुख देखे ही परतीति।
जो तुम कोटि जतन करि सिखवत जोग ध्यान की रीति॥
नाहिंन कछू सयान ज्ञान में यह हम कैसे मानैं।
कहौ कहा कहिए या नभ को कैसे उर में आनैं॥
यह मन एक, एक वह मूरति, भृंगकीट सम माने।
सूर सपथ दै बूझत ऊधो यह ब्रज लोग सयाने॥३३॥

गोपियाँ श्री कृष्ण के समक्ष किसी को भी मानने के लिए तैयार नहीं हैं । उद्धव जी गोपियों को योग की बलात शिक्षा देना चाहते हैं लेकिन गोपियों का आग्रह है कि श्याम सुन्दर के सौंदर्य पूर्ण मुखमण्डल को देख लेने पर औरों के प्रति विश्वास नहीं होता ।

उद्धव के प्रति गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! तुम जो हमें अतिशय यत्न पूर्वक योगाभ्यास की रीतियाँ सिखा रहे हो वह हमारे लिए बेकार है क्योंकि हमें तो श्री कृष्ण के मुख को देख लेने पर ही इसमें विश्वास हो सकता है । हमारा विश्वास श्री कृष्ण के मुख सौंदर्य के प्रति है अन्यों के लिए हमारे मानस में किसी प्रकार का विश्वास नहीं है । तुम हमें ज्ञान की शिक्षा दे रहे हो परन्तु तुम्हारी इस ज्ञान शिक्षा में भी हमें चालाकी का आभास हो रहा रहा है । हम यह कैसे स्वीकार कर लें कि तुम बिना किसी प्रयोजन के हमें ज्ञान की बातें सिखा रहे हो । तुम चालाकी से हमें निर्गुण ब्रह्मोपासना में प्रवृत्त कर के श्री कृष्ण की भक्ति के प्रति उदासीन करना चाहते हो । यह तो बताओ कि इस असीम आकाश ( शून्य ; ब्रह्म ) के सम्बन्ध में क्या कहा जाये अर्थात आकाश की भांति शून्य इस ब्रह्म के सम्बन्ध में क्या कहा जाये? कैसे इसका निरूपण किया जाये ? और किस प्रकार इस अनंत आकाश को समेट कर अपने छोटे से ह्रदय में बसा लें । यह ब्रह्म आकाश की भांति शून्य और अनंत है । अतः मानस के लिए अग्राह्य और अगम्य है । उद्धव जी ! हमारा मन भी एक है और श्याम सुन्दर की मूर्ति भी एक ही है । अतः भृंगी कीड़े की भांति दोनो एक ह्रदय हो गए हैं । जैसे भृंगी कीट किसी कीड़े को पकड़ कर उस अपने अनुरूप बना लेता है ठीक उसी प्रकार श्री कृष्ण ने भृंगी कीट की भांति हमें अपने रंग में रंग लिया । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! ब्रज के चतुर लोग तुमसे सौगंध पूर्वक पूछना चाहते हैं कि जब दोनों अर्थात जब हमारा मन और श्री कृष्ण दोनों एक ही रंग में रंग गए हैं तो योग साधना की ओर कैसे जा सकते हैं ?33

राग धनाश्री

लरिकाई को प्रेम, कहौ अलि, कैसे करिकै छूटत?
कहाँ कहौं ब्रजनाथ-चरित अब अँतरगति यों लूटत॥
चंचल चाल मनोहर चितवनि, वह मुसुकानि मंद धुनि गावत।
नटवर भेस नंदनंदन को वह बिनोद गृह बन तें आवत॥
चरनकमल की सपथ करति हौं यह सँदेस मोहिं बिष सम लागत।
सूरदास मोहि निमिष न बिसरत मोहन सूरति सोवत जागत॥३४॥

इसमें गोपियों ने श्री कृष्ण के प्रति अपने बचपन के सहचर्य जनित प्रेम भाव को व्यक्त किया है ।

हे उद्धव ! कृष्ण के प्रति हमारा यह प्रेम भाव आकस्मिक नहीं है बल्कि इसका उदय बचपन से हुआ है । अतः बचपन का प्रेम कैसे छूट सकता है ? ब्रजनाथ श्रीकृष्ण के चरित्र की क्या विशेषताएं रही हैं उन्हें तुम्हें कैसे बताऊँ , उनकी ये विशेषताएं हमारी चित्तवृत्ति को आज भी अभिभूत कर लेती हैं । आज भी जब हम उनके चरित्र की याद करते हैं तो हमारा मानस भाव मग्न हो जाता है । उनकी चंचल गति , सुन्दर चितवन, वह मुस्कराहट तथा मंद – मंद स्वरों से जब वह गाते थे , उनके गाने का ढंग । यही नहीं जब वे नटवर वेश में नाना प्रकार के विनोद करते हुए वन से घर लौटते थे तो हमारा मन श्री कृष्ण की उस मुद्रा पर मोहित हो जाता था । हम उनके कमलवत चरणों की शपथ खा कर कहती हैं कि यह योग का संदेश , योगशास्त्र विषयक ज्ञान श्री कृष्ण की उस रूप माधुरी के सामने विष के समान दुःखद प्रतीत हो रहा है । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! हम सोते – जागते किसी भी अवस्था में श्री कृष्ण की वह माधुर्य पूर्ण मूर्ति अर्थात उनका सुखद स्वरूप एक क्षण के लिए भी नहीं भूल पाते। हमारा मन सदैव उसी रूप माधुरी में डूबा रहता है ।

राग सोरठ

अटपटि बात तिहारी ऊधो सुनै सो ऐसी को है?
हम अहीरि अबला सठ, मधुकर! तिन्हैं जोग कैसे सोहै?
बूचिहि[१] खुभी आँधरी काजर, नकटी पहिरै बेसरि।
मुँडली पाटी पारन चाहै, कोढ़ी अंगहि केसरि॥
बहिरी सों पति मतो करै सो उतर कौन पै पावै?
ऐसो न्याव है ताको ऊधो जो हमैं जोग सिखावै॥
जो तुम हमको लाए कृपा करि सिर चढ़ाय हम लीन्हे ।
सूरदास नरियर जो बिष को करहिं बंदना कीन्हे ॥३५॥

इसमें गोपियों ने उद्धव की बातों को अत्यंत बेढंगा और अनुपयुक्त समझकर व्यंग्य गर्भित शैली में उनकी कटु आलोचना की है । उद्धव ने जो पात्रता और अपात्रता का ध्यान दिए बिना योग की शिक्षा दी है उसे गोपियों ने सर्वथा अग्राह्य माना है ।

हे उद्धव ! ऐसी कौन है जो तुम्हारी यह अटपटी वाणी सुने अर्थात तुम जो योग साधना की शिक्षा दे रहे हो वह यहाँ किसी के पल्ले नहीं पड़ेगी । अटपटी बात यह है कि हम सब अहीरनी और और अबला हैं । ऐसी स्थिति में हे शठ भ्रमर ! हे अज्ञानी और जड़ उद्धव ! योग साधना हमें कैसे शोभा दे सकती है ? हमें कैसे अच्छी लग सकती है ? भला यह तो बताओ कि जिसके कान कटे हैं वह लौंग नामक कर्णाभूषण कैसे ग्रहण करेगी ? अंधी स्त्री काजल कैसे लगाएगी ? नकटी स्त्री नथ कैसे धारण करेगी ? ये सब वस्तुएं ऐसी स्त्रियों के लिए व्यर्थ हैं और असंभव हैं। तुम्हारे योग की साधना भी हमारे लिए उसी प्रकार की है । सोचो जो मुंडी है जिसके सर पर बाल ही नहीं हैं वह केश कैसे संवारेगी ? उसके केश संवारना संभव नहीं । तुम्हारी बातें तो ऐसी हैं जैसे कोढ़ी के अंग में केसर लगाना । भला कोढ़ी के अंग में जिसके अंग गलित हैं केसर कहाँ लगाई जा सकती है ? उसमें केसर लगाने की पात्रता कहाँ है ? और यह उसी प्रकार है जैसे किसी बहरी स्त्री का पति उस से किसी प्रकार की सलाह ले तो उसे उत्तर कौन देगा अर्थात जब उस बहरी स्त्री को प्रश्न सुनाई ही नहीं पड़ेगा तो तो वो उत्तर या सलाह कैसे देगी । उसी प्रकार तुम्हारी इन बातों को सुनने के लिए हमारे कान बहरे हैं अतः तुम्हें कोई उत्तर नहीं मिलेगा । हमें जो योग की शिक्षा देना चाहेगा उसकी स्थिति इसी प्रकार की होगी । तुम जो हमारे लिए उपहार स्वरूप यह योग लाये हो उसे हमने शोरोधार्य कर लिया लेकिन हमारे लिए यह विषैले नारियल के समान है जिसे दूर से प्रणाम करते बनता है । अर्थात तुम जो सन्देश लाये हो उसे हम वंदनीय समझती हैं लेकिन जो आपकी योग साधना का उपदेश है वो अग्राह्य है ।

राग विहागरो

बरु वै कुब्जा भलो कियो।
सुनि सुनि समाचार ऊधो मो कछुक सिरात हियो॥
जाको गुन, गति, नाम, रूप हरि, हार्‌यो फिरि न दियो।
तिन अपनो मन हरत न जान्यो हँसि हँसि लोग जियो॥
सूर तनक चंदन चढ़ाय तन ब्रजपति बस्य कियो।
और सकल नागरि नारिन को दासी दाँव लियो॥३६॥

इसमें कुब्जा के प्रति श्री कृष्ण के ऐसे प्रेम भाव को देख कर गोपियों ने उन्हें उलाहना दी है । एक समय श्री कृष्ण ने सभी चतुर नारियों का मन हर लिया । आज स्थिति यह है कि वे स्वयं कुब्जा द्वारा ठगे गए हैं ।

हे उद्धव ! बल्कि कुब्जा ने श्री कृष्ण के साथ अच्छा व्यवहार किया है अर्थात उसने अत्यंत सोच विचार कर उनसे बदला लिया है । कुब्जा के ऐसे व्यवहार समाचार सुन – सुन कर हम लोगों का ह्रदय कुछ शीतल हो गया । हम सबको अत्यंत प्रसन्नता हुयी कि आखिर मिली तो उन्हें कोई एक खिलाड़िन । अभी तक तो यही देखती रही कि श्री कृष्ण ने जिसके गुण , नाम और रूप को हर लिया था उसे कभी वापस नहीं किया । हम सब गोपियों के गुण, गति , नाम और रूप को उन्होंने हर लिया और सब परेशान हैं लेकिन अभी तक वे इन्हें लौटा न सके । अब इन्हें भी कोई जोड़ कि मिल गयी है । कुब्जा ने इनके मन को ऐसा हरण किया है कि अभी तक उस ईव प् नहीं सके हैं अर्थात गोपियों के प्रेम को भूल कर श्री कृष्ण अब कुब्जा के प्रेम में वशीभूत हो गए हैं । लोग श्री कृष्ण की ऐसी दशा पर हँसते हैं और सोचते हैं कि बनते बड़े चालाक थे किन्तु आज कुब्जा के आगे इनकी कोई चालाकी नहीं चल सकीय । जरा देखिये तो थोड़ा सा चन्दन लगा कर श्री कृष्ण को अपने कब्जे में कर लिया और उन्हें मालूम भी नहीं हुआ कि उनका मन कैसे अपहृत हो गया । उसकी सामान्य सी सेवा से वे पराजित हो गए और उसे अपना सब कुछ दे दिया । इसके विपरीत हम लोग जीवन भर उनकी सेवा करती रहीं उनके एक वंशी स्वर के पीछे दौड़ पड़ती थीं । परन्तु उन्होंने कभी भी अपना मन हमें नहीं सौंपा । अब हम लोगों को प्रसन्नता है कि मथुरा की सब कुलीन और श्रेष्ठ स्त्रियों का बदला उस दासी कुब्जा ने ले लिया । उस से इनका कोई दांव नहीं लग सका । मथुरा की ऐसी नारियों को छोड़ कर श्री कृष्ण ने कुब्जा से प्रेम किया अर्थात एक नगण्य दासी से प्रेम किया यह लज्जास्पद बात है ।36

राग सारंग

हरि काहे के अंतर्यामी?
जौ हरि मिलत नहीं यहि औसर, अवधि बतावत लामी॥
अपनी चोप जाय उठि बैठे और निरस बेकामी?
सो कह पीर पराई जानै जो हरि गरुड़ागामी॥
आई उघरि प्रीति कलई सी जैसे खाटी आमी।
सूर इते पर अनख मरति हैं, उधो पीवत मामी॥३७॥

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! तुम जो यह कहते हो कि हरि अंतर्यामी हैं , सब के ह्रदय में व्याप्त हैं यह हम कैसे मान लें ? वे जब हमसे मिलते नहीं – ऐसी वियोगावस्था में भी जब वे हमें दर्शन नहीं देते और अपने आने की लम्बी अवधि बताते हैं तो उन्हें अंतर्यामी की संज्ञा कैसे दी जा सकती है ? वे तो अपनी उमंग में स्वेच्छा से मथुरा जा कर छा गए । हम लोगों ने तो उन्हें वहां जाने के लिए कहा नहीं था । अब क्या देखती हूँ कि वहां जाते ही उन्होंने अपनी सारी सहृदयता ही भुला दी और नीरस तथा निष्कामी बन गए और योगियों की तरह निष्कामना की बात करने लगे । भला वे दूसरों की पीड़ा का अनुभव क्या कर सकते हैं जो सदैव गरुड़ की सवारी किया करते हैं । जो कभी सामान्य लोगों की भाँति भूतल पर पैर ही नहीं रखते वे भूतल पर रहने वालों की पीड़ा क्या समझेंगे ? परन्तु अब उनके झूठे प्रेम का रहस्योद्घाटन उसी प्रकार हो गया है जैसे किसी बर्तन की काली पर खट्टा आम रगड़ देने पर उसका वास्तविक रंग उभर कर आ जाता है । मथुरा जाने पर ही पता लग गया कि श्री कृष्ण का हम लोगों के प्रति कितना प्रेम था । वस्तुतः यह वियोग उनके प्रेम को कसने कि सच्ची कसौटी है । हे उद्धव ! हम सब यहाँ इतने पर भी दुःख से कुढ़ती रहती हैं कि वे अब भी सीधे सीधे मना करते हैं कि हम तुम सबों से अलग नहीं हैं अर्थात यह नहीं मानते कि उनका प्रेम सर्वथा झूठा और बनावटी है । 37

राग सारंग 

बिलग जनि मानहु, ऊधो प्यारे!
वह मथुरा काजर की कोठरि जे आवहिं ते कारे॥
तुम कारे, सुफलकसुत कारे, कारे मधुप भँवारे।
तिनके संग अधिक छबि उपजत कमलनैन मनिआरे॥
मानहु नील माट तें काढ़े लै जमुना ज्यों पखारे।
ता गुन स्याम भई कालिंदी सूर स्याम-गुन न्यारे॥३८॥

इस पद में गोपियों ने श्री कृष्ण , अक्रूर , उद्धव और भ्रमर के श्याम वर्ण पर व्यंग्योक्ति द्वारा गहरी चोट की है ।

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं हे प्यारे उद्धव ! तुम हमारी बातों का बुरा मत मानना । हमारी समझ में यह मथुरा नगरी काली कोठरी के समान है क्योंकि वहां से जो भी आते हैं सभी काले लगते हैं अर्थात तुम्हारी मथुरा नगरी कपटी पुरुषों की नगरी है और वहां से जो भी आते हैं सभी कपटी प्रवृत्ति के लगते हैं । इसका प्रमाण यह है कि तुम भी वहीँ से आये हो और काले हो तथा कपटी जैसी बातें करते हो । अक्रूर भी हमें काले लगे क्योंकि अपने कपट आचरण से कृष्ण और बलराम को फुसलाकर यहाँ से ले गए और वहां का भ्रमणशील भौंरा भी काला है । उसके कपट की बात प्रकट है कि वह कहीं टिकता नहीं है । सभी पुष्पों का रस लेता है और किसी के साथ सच्चे प्रेम का निर्वाह नहीं करता । इतने कालों के बीच सबसे भयंकर मणिधारी सर्प के समान श्री कृष्ण की शोभा बढ़ जाती है । इन काले ह्रदय वालों में श्री कृष्ण सबसे बढ़ कर कपटी सिद्ध हुए हैं । ये उस मणिधारी भयंकर जहरीले सर्प की भाँति है जिसके काटने पर प्राणों की रक्षा की ही नहीं जा सकती । ऐसा लगता है कि ये सब नील के घड़े से निकाल कर इन्हें यमुना के जल में ले जाकर धोया गया और यमुना भी इनके धोने से इनके श्याम गुणों के कारण काली पड़ गयीं । इनका काला रंग उस पर भी चढ़ गया । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि श्याम का गुण ही बड़ा विलक्षण है इसे कौन जान सकता है ?38

राग सारंग

अपने स्वारथ को सब कोऊ।
चुप करि रहौ, मधुप रस लंपट! तुम देखे अरु वोऊ॥
औरौ कछू सँदेस कहन को कहि पठयो किन सोऊ।
लीन्हे फिरत जोग जुबतिन को बड़े सयाने दोऊ॥
तब कत मोहन रास खिलाई जो पै ज्ञान हुतोऊ?
अब हमरे जिय बैठो यह पद ‘होनी होउ सो होऊ’॥
मिटि गयो मान परेखो ऊधो हिरदय हतो सो होऊ।
सूरदास प्रभु गोकुलनायक चित-चिंता अब खोऊ॥३९॥

इस पद में गोपियों ने उद्धव और श्री कृष्ण दोनों को स्वार्थी बतलाया है । इसके अतिरिक्त गोपियों के ह्रदय की उदारता , सहनशीलता और विशालता का भी प्रचाय मिलता है ।

गोपियाँ खीझ कर उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! सभी अपने स्वार्थ के हैं अर्थात हमने अच्छी प्रकर से देख लिया है कि इस संसार में सभी परम स्वार्थी हैं । अब हे मकरंद लोभी भ्रमर ( उद्धव ) ! चुप रहो । ज्यादा बढ़ – चढ़ कर बातें मत करो । हमने तुम्हें भी समझ लिया और श्री कृष्ण को भी । इतना सन्देश देने के अतिरिक्त यदि उन्होंने कुछ और सन्देश भेजा है तो उसे भी क्यों है कह डालते । तुमने जितनी जली – भुनी बातें बताई हैं उन सबको सहने के लिए हम सब का मन तैयार है । तुम जो भी खरी – खोटी सुनाओगे उसे हम सहर्ष बर्दाश्त कर लेंगी । तुम दोनों अर्थात तुम और श्री कृष्ण दोनों ही बड़े ही चतुर हो जो युवतियों को अर्पित करने के लिए योग का सन्देश लिए फिर रहे हो । जब उन्हें ज्ञान का ही सन्देश देना था तो हमसे रस – रीति की बातें क्यों की और किस लिए हमारे साथ रास रचाया ? अब हम लोगों के मन में यह बात पूरी तरह बैठ गयी की जो कुछ भी ब्रह्मा की ओर से होना है होवे किन्तु श्री कृष्ण की प्रेम साधना में किसी प्रकार का व्यवधान ना होने पाए । हमारे मन में इतने संकट के बाद भी कृष्ण की भक्ति और उनका प्रेम भाव निरंतर बना रहे । हे उद्धव ! अब तो हमारे मन में जो भी थोड़ा बहुत मान सम्मान और पश्चाताप का भाव था वह भी समाप्त हो गया । अब ना तो कृष्ण के प्रति मान – अपमान की भावना हमारे मन में शेष रही और ना उनके लिए किसी प्रकार का पछतावा ही है । सूर के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि हे उद्धव ! अब हमें यह दृढ विश्वास है कि गोकुल के स्वामी श्री कृष्ण हमारे मन की समस्त चिंता को अवश्य ही दूर करेंगे । यहाँ भक्त की भगवन के प्रति दृढ़ आस्था और विश्वास का भाव व्यक्त हुआ है । 39

राग सारंग 

तुम जो कहत सँदेसो आनि।
कहा करौं वा नँदनंदन सों होत नहीं हितहानि॥
जोग-जुगुति किहि काज हमारे जदपि महा सुखखानि?
सने सनेह स्यामसुन्दर के हिलि मिलि कै मन मानि॥
सोहत लोह परसि पारस ज्यों सुबरन बारह बानि।
पुनि वह चोप कहाँ चुम्बक ज्यों लटपटाय लपटानि॥
रूपरहित नीरासा निरगुन निगमहु परत न जानि।
सूरदास कौन बिधि तासों अब कीजै पहिचानि? ॥४०॥

इसमें गोपियाँ श्री कृष्ण के प्रेम में अनुरक्त अपने मन में विवशता का वर्णन कर रही हैं । उनके अनुसार यह मन श्री कृष्ण के प्रेम में इतना तन्मय है कि उसे योग की समस्त युक्तियाँ बेकार प्रतीत होती हैं । इस पर इन युक्तियों का कोई भी प्रभाव नहीं पड़ता ।

हे उद्धव ! तुम यहाँ आकर योग का सन्देश दे रहे हो लेकिन क्या करें हमारी यह विशेषता है कि हमसे श्री कृष्ण के प्रेम को त्यागते नहीं बनता । यद्यपि तुम्हारी योग – साधना विषयक युक्तियाँ अत्यंत सुखदायिनी हैं लेकिन ये हमारे लिए किस काम की है अर्थात जब इस योग साधना के लिए श्री कृष्ण प्रेम को हमें त्यागना पड़े तो इसकी हमारे लिए क्या उपयोगिता , क्योंकि यह निश्चित बात है कि हम श्री कृष्ण प्रेम को किसी भी प्रकार त्याग नहीं सकतीं । तुम्हें जानना चाहिए कि श्याम सुन्दर के प्रेम में तन्मय हमारे मन ने उनसे हिल मिल कर अपना सब कुछ अर्पित कर दिया है और उनकी भक्ति और प्रेम को स्वीकार कर लिया । अब उसे त्यागना हमारे लिए असंभव है जैसे लोहा जब एक बार पारस पत्थर के स्पर्श से खरे स्वर्ण के रूप में परिणित हो जाता है तो पुनः उसमें वह चाव या उमंग कहाँ शेष रहती है कि चुम्बक से मोहित हो कर लिपट जाये । उसी प्रकार श्री कृष्ण के प्रेम में पगा हमारा यह मन अन्यत्र नहीं जा सकता । यह मनः स्थिति कि परिवर्तित दशा है जिसमें अन्यों के प्रति आकर्षण का स्थान नहीं बचता । तुम्हारा ब्रह्म तो निराकार , निष्काम और गुणातीत है , उसे वेद भी नहीं जान पाते । अतः सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि ऐसे ब्रह्म से किस प्रकार परिचय किया जाये ? ऐसे अगम्य , गुणातीत , निराकार ब्रह्म के रहस्य को किन उपायों से जाना जाये?40

राग धनाश्री

हम तौ कान्ह केलि की भूखी।
कैसे निरगुन सुनहिं तिहारो बिरहिनि बिरह-बिदूखी?
कहिए कहा यहौ नहिं जानत काहि जोग है जोग।
पा लागों तुमहीं सों, वा पुर बसत बावरे लोग॥
अंजन, अभरन, चीर, चारु बरु नेकु आप तन कीजै।
दंड, कमंडल, भस्म, अधारी जौ जुवतिन को दीजै॥
सूर देखि दृढ़ता गोपिन की ऊधो यह ब्रत पायो।
कहै ‘कृपानिधि हो कृपाल हो! प्रेमै पढ़न पठायो’॥४१॥

इसमें गोपियों की अटल प्रेम भक्ति का निरूपण किया गया है। वस्तुतः गोपियों की ऐसी प्रेम निष्ठा देख कर उद्धव भी उसी रंग में रंग गए।

हे उद्धव ! हम सब तो कृष्ण लीला के आनंद को प्राप्त करने के लिए लालायित हैं । इसके अतिरिक्त किसी अन्य वस्तु की भूख या उत्कट अभिलाषा हमें नहीं है । भला यह तो बताओ कि हम तुम्हारे निर्गुण के गुण को कैसे सुनें ? क्योंकि हम लोग वियोग की ज्वाला में पूर्णतया संतप्त हैं । भला तुमसे क्या कहें जिन्हें यह भी नहीं मालूम कि यह योग साधना किसके लिए है ? तुम इतने अज्ञानी हो कि यह भी नहीं समझते कि क्या हम लोग इस कठिन योग साधना की उपयुक्त पात्री हैं ? उद्धव ! हम सब तुम्हारे पाँव छू कर पूछती हैं अर्थात बड़ी विनयशीलता पूर्वक जानना चाहती हैं कि उस नगर में अर्थात मथुरा में क्या तुम्हारे जैसे ही सभी लोग पागल हैं अर्थात तुम तो पागल हो ही और जिस ने तुम्हें यहाँ योग सन्देश देने हेतु भेजा है अर्थात वे श्री कृष्ण भी पागल ही हैं । हमारी भी तुमसे यह शर्त है कि जैसे तुम हम युवतियों को दंड , कमंडल , राख देने का आग्रह कर रहे हो उसी प्रकार आप भी जरा हम लोगों का अंजन , आभूषण और सुन्दर वस्त्र अपने शरीर पर धारण कर के देखें कि क्या यह अच्छा लगता है ? तात्पर्य यह है कि जैसे योगी पुरुषों के कमंडल , भस्म और अधारी आदि हम स्त्रियों को शोभा नहीं दे सकते उसी प्रकार हम स्त्रियों के श्रंगारिक प्रसाधन आपके शरीर में कैसे शोभा पा सकते हैं ? कहीं पुरुषों का पहनावा स्त्रियों को और स्त्रियों का पहनावा पुरुषों के उपयुक्त हो सकता है ? सूरदास के शब्दों में उद्धव जी गोपियों की ऐसी दृढ़ भक्ति और प्रेम कि ऐसी निष्ठा को देखकर स्वतः अभिभूत हो गए और उन्होंने उनके प्रेम संकल्प एवं व्रत को ग्रहण कर लिया और मन में कहने लगे कि ऐसा प्रतीत होता है कि कृपासागर दयालु कृष्ण ने गोपियों के प्रेम पाठ को पढ़ने के लिए ही मुझे यहाँ भेजा है ।

राग धनाश्री 

अँखिया हरि-दरसन की भूखी।
कैसे रहैं रूपरसराची ये बतियाँ सुनि रूखी॥
अवधि गनत इकटक मग जोवत तब एती नहिं झूखी।
अब इन जोग-सँदेसन ऊधो अति अकुलानी दूखी॥
बारक वह मुख फेरि दिखाओ दुहि पय पिवत पतूखी।
सूर सिकत हठि नाव चलाओ ये सरिता हैं सूखी॥४२॥

इसमें गोपियों की कृष्ण के प्रति दर्शनाभिलाषा की भावना व्यक्त हुयी है ।

हे उद्धव ! हमारी आँखें तो मात्र श्री कृष्ण के दर्शन की भूख से पीड़ित हैं । इनमें एकमात्र उत्कट अभिलाषा श्री कृष्ण के दर्शन के लिए बनी है । भला यह तो बताओ कि जिन आँखों ने निरंतर श्री कृष्ण के सौंदर्य का पान किया , जो सदैव श्री कृष्ण की रूप माधुरी में डूबी रहीं वे अब इसके अभाव में आपकी योग शास्त्र विषयक इन नीरस बातों को सुन कर कैसे जीवित रह सकती हैं ? तुम्हारी इन बातों से उन्हें कैसे संतोष हो सकता है ? जब ये आँखें अपलक श्री कृष्ण के आगमन की अवधि की गणना करती हुयी उनका मार्ग देख रही थीं तब इतनी दुखी नहीं थीं । कारण यह है कि तब श्री कृष्ण के आने की एक प्रबल आशा इनमें बनी हुयी थीं लेकिन अब तो इन्हें इन योग के संदेशों को सुन कर अति कष्ट हुआ और ये घबरा उठी हैं और इन्हें सचमुच श्री कृष्ण के अनागमन की निराशा हो गयी है किन्तु आपसे निवेदन है कि एक बार हमारी इन आँखों को श्री कृष्ण की वही पूर्व मुद्रा पुनः दिखला दीजिये जब वे वन में पत्तों के पात्र में गायों का दूध दुह कर पीते थे । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से आग्रहपूर्वक कहती हैं कि हे उद्धव ! तुम हठ कर के बालू में नाव मत चलाओ क्योंकि ये नदियां अर्थात हम गोपियाँ सूखी हैं । अभिप्राय यह है कि जैसे बालू में नाव नहीं चलायी जा सकती उसी प्रकार योगियों के लिए उपयुक्य यह योग साधना गोपियों को नहीं बताई जा सकती । यह संभव नहीं है ।42

राग सारंग

जाय कहौ बूझी कुसलात।
जाके ज्ञान न होय सो मानै कही तिहारी बात॥
कारो नाम, रूप पुनि कारो, कारे अंग सखा सब गात।
जौ पै भले होत कहुँ कारे तौ कत बदलि सुता लै जात॥
हमको जोग, भोग कुबजा को काके हिये समात?
सूरदास सेए सो पति कै पाले जिन्ह तेही पछितात॥४३॥

इस पद में गोपियों ने कृष्ण के प्रति उपालम्भ भाव व्यक्त किया है ।

हे उद्धव ! तुम कृष्ण से जाकर यह कह देना कि गोपियों ने तुमसे कुशल – क्षेम पूछा है । क्या तुम कुशलतापूर्वक हो ? कुशल पूछने के बाद यह भी कहना कि तुम्हारी कही हुयी बात अर्थात योग सन्देश वही मान सकता है जो अज्ञानी है अर्थात क्या तुम हमें इतना मूर्ख समझते हो जो इस तरह योग और ज्ञान का सन्देश अंगीकार कर लें । कह देना कि तुम्हारा नाम काला है अर्थात कृष्ण है और रूप भी काला है और तुम्हारे मित्रों अक्रूर तथा उद्धव के शरीर भी काले हैं । सत्य बात तो यह है कि यदि काले रंग वाले अच्छे होते तो वसुदेव जी क्यों तुम्हें नन्द जी के यहाँ छोड़ कर बदले में रोहिणी की नवजात पुत्री उठा लाते ? भला यह तो बताओ कि वे हमें योग सन्देश देना चाहते हैं और कुब्जा को भोग विलास में लगाए रहते हैं । उनकी यह बात किसे जँचेगी ? किसे पसंद आएगी ? सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि जिन गोपियों ने जिस कृष्ण की पति के रूप में सेवा की वे भी और जिन्होंने उन्हें पुत्रवत उन्हें पाला पोसा वे नन्द यशोदा भी इनके व्यवहार से अब भी पछ्ता रहे हैं अर्थात काले रंग वाले कृष्ण ने अंततः सबको धोखा दे दिया ।43

राग सारंग 

कहाँ लौं कीजै बहुत बड़ाई।
अतिहि अगाध अपार अगोचर मनसा तहाँ न जाई॥
जल बिनु तरँग, भीति बिनु चित्रन, बिन चित ही चतुराई।
अब ब्रज में अनरीति कछू यह ऊधो आनि चलाई॥
रूप न रेख, बदन, बपु जाके संग न सखा सहाई।
ता निर्गुन सों प्रीति निरंतर क्यों निबहै, री माई?
मन चुभि रही माधुरी मूरति रोम रोम अरुझाई।
हौं बलि गई सूर प्रभु ताके जाके स्याम सदा सुखदाई॥४४॥

इसमें उद्धव के निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में व्यंग्य करती हुयी गोपियाँ परस्पर कह रही हैं कि उद्धव ने तो व्रज में एक नयी रीति चला दी है ।

( एक सखी का दूसरे के प्रति कथन ) हे सखी ! उद्धव के निर्गुण ब्रह्म की प्रशंसा कहाँ तक करें । ऐसे ब्रह्म की प्रशंसा करते जी नहीं अघाता ( गोपियाँ उद्धव को ताना मार रही हैं कि उद्धव जिस ब्रह्म का निरूपण कर रहे हैं वह निराधार और अप्रशंसनीय है )। यह ब्रह्म तो ऐसा है जो अतिशय अगाध अनंत है , जो ना तो दिखाई पड़ता है और ना वहां तक इन्द्रियों का राजा मन ही पहुँच पाता है अर्थात वह सब प्रकार से युवतियों के लिए अग्राह्य और अगम्य है । उद्धव जी ने तो ब्रज में आकर एक नयी और विचित्र रीति चलाई है क्योंकि ये जिस ब्रह्म के स्वरूप का निरूपण कर रहे हैं वह तो उसी प्रकार का है जैसे बिना जल के तरंगों का उद्भव , बिना दीवार के चित्रों कि रचना करना और बिना चित्त के चतुराई और कौशल की बात करना । यह रीति सर्वथा निराधार है । हे सखी ! उद्धव तो अपने जिस ब्रह्म की चर्चा कर रहे हैं उसका ना रूप है ना रेखा है ना उसका मुख है ना शरीर है । उसके सखा और सहायक भी कोई नहीं है । फिर उस निर्गुण ब्रह्म से सदैव प्रेम का निर्वाह कैसे किया जा सकता है ? ऐसे ब्रह्म के प्रति हम सब की कैसे अनुरक्ति कैसे अनुरक्ति हो सकती है ? इसके विपरीत हम लोगों के मन में तो श्री कृष्ण की मधुर मूर्ति चुभ रही है और वह रोम – रोम में उलझ गयी है । मन और शरीर के एक – एक रोम में भगवान श्री कृष्ण की मधुर मूर्ति व्याप्त है । हमारा तन मन कृष्णमय है । सूर के शब्दों में सखी का कथन है कि हे सखी ! हम लोग तो उस पर बलिहारी हैं जिसे हमारे कृष्ण सदैव अच्छे लगते हैं । उद्धव से क्या लाभ वे तो हमारे कृष्ण की जगह निराकार ब्रह्मोपासना की रट लगाए हुए हैं ।44

राग मलार

काहे को गोपीनाथ कहावत?
जो पै मधुकर कहत हमारे गोकुल काहे न आवत?
सपने की पहिंचानि जानि कै हमहिं कलंक लगावत।
जो पै स्याम कूबरी रीझे सो किन नाम धरावत?
ज्यों गजराज काज के औसर औरै दसन दिखावत।
कहन सुनन को हम हैं ऊधो सूर अंत बिरमावत॥४५॥

इसमें गोपियों ने उद्धव से कृष्ण के कार्य – कलाप की तीखे शब्दों में निंदा की है ।

हे उद्धव ! वे प्रेम तो कुब्जा से करते हैं और अपने को गोपीनाथ कहते हैं । वे अब क्यों गोपीनाथ कहलाते हैं , यदि वे हमारे कहलाते हैं तो गोकुल क्यों नहीं आते , उनका न आना ही सिद्ध करता है कि वे वस्तुतः हमारे नहीं हैं । वे तो यह कहते हैं कि हमारी और उनकी पहचान स्वप्न जैसी है अर्थात क्षणिक है फिर भी गोपीनाथ नाम धारण कर के हमें कलंकित लज्जित करते हैं । यदि वे कूबरी पर ही सच्चे ह्रदय से अनुरक्त हैं तो खुलकर ‘ कूबरीनाथ ‘ क्यों नहीं कहलवाते ? हमें तो उनकी सभी नीतियां बनावटी प्रतीत होती हैं । यह उनकी दुरंगी चाल है । यह चाल उस हाथी जैसी है जिसके खाने के दांत और हैं और दिखाने के दांत और हैं । सूर के शब्दों में गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! कहने सुनने के लिए दिखाने के लिए तो हम उनकी प्रियतमा हैं लेकिन वे रुकते कहीं और हैं , प्रेम किसी और से करते हैं ।

राग मलार 

अब कत सुरति होति है, राजन्?
दिन दस प्रीति करी स्वारथ-हित रहत आपने काजन॥
सबै अयानि भईं सुनि मुरली ठगी कपट की छाजन।
अब मन भयो सिंधु के खग ज्यों फिरि फिरि सरत जहाजन॥
वह नातो टूटो ता दिन तें सुफलकसुत-सँग भाजन।
गोपीनाथ कहाय सूर प्रभु कत मारत हौ लाजन॥४६॥

गोपियाँ उद्धव से व्यंग्य पूर्ण शैली में पूछ रही हैं कि अब भी क्या तुम्हारे राजा को मेरी याद आती है क्योंकि अब वे गोपीनाथ नहीं हैं । अब वे राजा हो गए हैं ।

हे उद्धव ! अब श्री कृष्ण राजा हो गए हैं । अतः वे हमारी याद क्यों करने लगे । अब तो वे हम सब को अच्छी तरह भूल गए होंगे ? वास्तव में उन्होंने हम लोगों से स्वार्थवश थोड़े समय का प्रेम किया था । अब तो वे अपने राज्य कार्य में लगे रहते होंगे । उनका क्या दोष ? हम लोग उनकी मुरली कि मधुर ध्वनि सुन कर अज्ञानी बन बैठीं और विवेक खो दिया और इस प्रकार उनके कपट वेश में ठगी गयीं । किन्तु अब देखती हूँ कि हम लोगों का मन समुद्र के जहाज कि भांति बार – बार रोकने पर भी आगे बढ़ने का प्रयास करता है । एक मात्र आपकी ही शरण का सहारा लेता है । वह भली प्रकार जनता है कि हमारा उद्धार आप ही करेंगे । उनका पुराना नाता – प्रेम सम्बन्ध तो उसी दिन टूट गया जिस दिन वे अक्रूर के साथ हम लोगों को छोड़ कर भाग गए थे और हम लोगों को धोखा दिया । सूर के शब्दों में कृष्ण के प्रति गोपियों का कथन है कि तुम गोपीनाथ कहलाकर अब क्यों हमें लज्जा से मार रहे हो – क्यों हमें लज्जित कर रहे हो ? अर्थात जब भी कोई तुम्हें गोपीनाथ कह कर याद करता है तो हमें लज्जित होना पड़ता है कि तुम तो अब मथुरापति हो गए हो अब तुम्हें गोपीनाथ से क्या प्रयोजन ?46

राग सोरठ

लिखि आई ब्रजनाथ की छाप।
बाँधे फिरत सीस पर ऊधो देखत आवै ताप॥
नूतन रीति नंदनंदन की घरघर दीजत थाप।
हरि आगे कुब्जा अधिकारी, तातें है यह दाप॥
आए कहन जोग अवराधो अबिगत-कथा की जाप।
सूर सँदेसो सुनि नहिं लागै कहौ कौन को पाप? ॥४७॥

श्रीकृष्ण द्वारा सम्प्रेषित पत्र उद्धवजी अपने सर की पगड़ी में रखे घूम रहे हैं इसे देख कर गोपियाँ व्यंग्यात्मक शैली में परस्पर कह रही हैं ।

गोपियाँ परस्पर कह रही हैं – अरे सखियों ! देखो ब्रजनाथ की मुहर लगी हुयी चिट्ठी आ गयी है । इसे उद्धव जी अपनी पगड़ी में बांधे घूम रहे हैं लेकिन इसे देखते तो हमें ज्वर चढ़ आता है । पीड़ा से समस्त शरीर जलने लगता है । क्या देखती हूँ कि श्री कृष्ण इस नयी रीति को अर्थात योग सन्देश को जो पत्र में लिख कर भेजा है घर – घर में प्रचारित करना चाहते हैं । अब तो श्री कृष्ण के समक्ष कुब्जा अधिकारिणी बन बैठी है इसीलिए उसे अति घमंड हो गया है । लगता है उसी ने श्री कृष्ण की मुहर लगा कर हम लोगों को जलाने के लिए ऐसी चिट्ठी या योग सन्देश उद्धव द्वारा भिजवाई है । अब तो उद्धव जी यहाँ आ कर यही प्रचारित कर रहे हैं की योग की साधना करो और निर्गुण ब्रह्म की गाथा का जाप करो । निर्गुणोपासना में लग जाओ । सूर के शब्दों में गोपियाँ परस्पर कह रही हैं कि भला ऐसे अमांगलिक सन्देश को सुनकर किसे पाप नहीं लगेगा । इसे दूर करने की बात तो दूर रही सुनना भी पाप लगने के तुल्य है । इसलिए कि हम सब कृष्ण को पति के रूप में वरन कर चुकी हैं । अब पतिव्रता धर्म के विरुद्ध अन्य की उपासना करना कैसे संभव है ?

राग सारंग

फिरि फिरि कहा सिखावत बात?
प्रातकाल उठि देखत, ऊधो, घर घर माखन खात॥
जाकी बात कहत हौ हमसों सो है हमसों दूरि।
ह्याँ है निकट जसोदानँदन प्रान-सजीवनमूरि॥
बालक संग लये दधि चोरत खात खवावत ड़ोलत।
सूर सीस सुनि चौंकत नावहिं अब काहे न मुख बोलत?॥४८॥

उद्धव द्वारा बार – बार योग का सन्देश देने पर गोपियाँ नाराज हो गयी हैं और कहने लगीं कि जिस ब्रह्मोपासना की बात आप कर रहे हैं वह बेकार है क्योंकि यहाँ नित्य हम लोग बालकृष्ण की लीलाओं का सुख लिया करती हैं ।

गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! बार – बार हम लोगों को तुम योग की ऐसी शिक्षा क्यों दे रहे हो ? क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि हम लोग प्रातः काल नित्य उठ कर घर – घर श्री कृष्ण को माखन कहते हुए देख रही हैं । हम लोगों के मानस पटल पर श्री कृष्ण के घर – घर से माखन चुरा कर खाने कि मुद्रा अंकित है वह मिटी नहीं है । हे उद्धव ! तुम जिस ब्रह्म कि चर्चा हम लोगों से कर रहे हो वह हम लोगों से काफी दूर है । हम लोगों के मानस पटल पर वह बिकुल भी नहीं धंसता । उसमें हम लोगों की बिलकुल भी अनुरक्ति नहीं है । हमारे निकट तो यहाँ श्री कृष्ण हैं जो हमारे प्राणों को संजीवनी बूटी के सामान सजीवता उत्पन्न करते हैं । आज भी उनका वह स्मृति बिम्ब मानस में है जिसमें वे अपने साथ बालकों को लिए हुए दही चुराकर स्वयं खाते हैं और उन्हें भी खिलाते हुए इधर – उधर घूम रहे हैं । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! अब हमारी इन बातों को सुन कर चौंकते क्यों हो ? और शर्म से मस्तक क्यों झुका रहे हो ? मुख से क्यों नहीं बोलते हो ? स्तब्ध क्यों हो गए हो ? जब तुम्हें यह विश्वास हो चला है कि सब गोकुल कृष्णमय है और प्रत्येक बृजवासी के मन में श्री कृष्ण की लीलाएं अंकित हैं तो योग की शिक्षा क्यों दे रहे हो ?

राग धनाश्री

अपने सगुन गोपालै, माई! यहि बिधि काहे देत?
ऊधो की ये निरगुन बातैं मीठी कैसे लेत।
धर्म, अधर्म कामना सुनावत सुख औ मुक्ति समेत॥
काकी भूख गई मनलाडू सो देखहु चित चेत।
सूर स्याम तजि को भुस फटकै[ मधुप तिहारे हेत? ॥४९॥

इस पद में निर्गुण ब्रह्मोपासना की तुलना में सगुन ब्रह्मोपासना को अधिक महत्त्व दिया गया है ।

हे सखी !अपने सगुण गोपाल के माधुर्य की मूर्ति श्री कृष्ण को इस प्रकार निर्गुणोपासना के निमित्त कैसे त्यागा जा सकता है ? हम किसी प्रकार भी अपने सगुण गोपाल की भक्ति और प्रेम नहीं दे सकतीं । उद्धव की इन निर्गुण विषयक मीठी चिकनी चुपड़ी बातों को कौन ग्रहण करे ? यद्यपि ये हमें धर्म – अधर्म की कामना के सम्बन्ध में बतला रहे है । धर्म अधर्म के स्वरूप की विवेचना कर रहे हैं और यह समझाते हैं कि निर्गुणोपासना के द्वारा सुख और मोक्ष की प्राप्ति होगी अर्थात इस प्रकार के सुखों का ये लालच तो दे रहे हैं लेकिन हमारे लिए तो यह मन का लड्डू खाना है । क्या मन के लड्डू खाने से किसी की भूख मिटी है? किसी को आनंद मिला है ? अर्थात ऐसी थोथी और काल्पनिक बातों से किसी को वास्तविक आनंद की प्राप्ति हुई है ? किसी की ईश्वर प्राप्ति की भूख और जिज्ञासा शांत हुयी है ? जरा इन बातों को मन में विचार कर के देखो । अंत में भ्रमर अर्थात उद्धव को सम्बोधित करते हुए गोपियाँ कह रही हैं कि हे भ्रमर ! श्री कृष्ण को त्याग कर कौन तुम्हारे लिए निः सार भूसी फटके अर्थात निःसार ब्रह्म से कौन तत्व की प्राप्ति करे? अर्थात जैसे भूसी फटकने से कुछ सार नहीं मिलता उसी प्रकार निर्गुणोपासना से कुछ तत्व नहीं मिलने वाला ।

राग सारंग

हमको हरि की कथा सुनाव।
अपनी ज्ञानकथा हो, ऊधो! मथुरा ही लै गाव॥
नागरि नारि भले बूझैंगी अपने वचन सुभाव।
पा लागों, इन बातनि, रे अलि! उनहीं जाय रिझाव॥
सुनि, प्रियसखा स्यामसन्दर के जो पै जिय सति भाव।
हरिमुख अति आरत इन नयननि बारक बहुरि दिखाव॥
जो कोउ कोटि जतन करै, मधुकर, बिरहिनि और सुहाव?
सूरदास मीन को जल बिनु नाहिंन और उपाव॥५०॥

इसमें निर्गुणोपासना का खंडन और श्री कृष्ण की मधुर भक्ति और प्रेम तत्व की महत्ता का प्रतिपादन किया गया है ।

हे उद्धव ! हम सब मात्रा श्री कृष्ण की प्रेम कथा सुनना चाहती हैं । यदि आप सुनना चाहें तो यही सुनाएं । आपकी निर्गुण गाथा सुनने को यहाँ कोई उत्सुक नहीं है। इसे आप लौटकर मथुरा ले जाएं जहाँ से इसे ले कर आये हैं अर्थात जिसे कृष्ण और कुब्जा ने हमारे मत्थे मढ़ा है उन्हीं के समक्ष इसका गुणगान करो वहीं इसका स्वागत भी बहुत होगा । वहां की चतुर नारियां जो अपने वचन और सुन्दर स्वभाव के कारण प्रसिद्द हैं इसे अच्छे से समझेंगीं और इस विषय पर भली – भांति वार्ता भी करेंगीं । हे भ्रमर ! तुम्हारी इन बातों को हम प्रणाम करती हैं । इन्हें हमसे दूर रखो । इस से हमारा कोई प्रयोजन नहीं है । तुम इन बातों से उन्हीं को जाकर प्रसन्न करो । वे ही इसके अधिकारी भी हैं । हे कृष्ण के प्रिय मित्र ! यदि हम लोगों के प्रति तुम्हारी थोड़ी भी सहानुभूति है , यदि तुम्हे हमारी पीड़ा का तनिक भी आभास तो हमारे इन व्यततीत और कृष्ण दर्शन के लिए लालायित नेत्रों को पुनः एक बार श्री कृष्ण के मुख सौंदर्य का दर्शन करा दो । भला हे भ्रमर ! हे उद्धव ! यदि कोई कितना ही उपाय क्यों न करें लेकिन वियोगिनियों को क्या पति दर्शन के बिना कभी सुख मिल सकता है ? क्या पति के अभाव में उन्हें अन्य वस्तुएं अच्छी लग सकती हैं ? सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं के हे उद्धव ! मछलियों के लिए जल के बिना जीवित रहने का कोई अन्य उपाय ही नहीं है । जैसे बिना जल के मछली जीवित नहीं रह सकती उसी प्रकार बिना कृष्ण दर्शन के हम सब किसी भी प्रकार अन्य उपायों अपनी जीवन रक्षा नहीं कर सकतीं ।

श्री कृष्ण का वचन उद्धव-प्रति

राग कान्हरो

अलि हो ! कैसे कहौ हरि के रूप-रसहि ?
मेरे तन में भेद बहुत बिधि रसना न जानै नयन की दसहि।।
जिन देखे तो आहि बचन बिनु जिन्हैं बजन दरसन न तिसहि।
बिन बानी भरि उमगि प्रेमजल सुमिरि वा सगुन जसहि।।
बार-बार पछितात यहै मन कहा करै जो बिधि न बसहिं।
सूरदास अंगन की यह गति को समुझावै या छपद पंसुहि।।51

यहां इस पद में गोपियाँ श्री कृष्ण के ध्यान में मग्न हैं लेकिन वे श्री कृष्ण के सुंदर रस रूपी, रूप का बखान करने में असमर्थ हैं अर्थात बता नहीं पा रहे हैं।

यहाँ पर गोपी उद्धव को अलि अर्थात भँवरे के रूप में सम्बोधित करते हुए कह रही है कि हे अलि  ! मैं कृष्ण के रूप, रस, श्रृंगार का कैसे वर्णन करूं।  इस शरीर के जो विभिन्न अवयव हैं उनमें परस्पर भेद है अर्थात अंतर् है। मेरी जिह्वा मेरे नयनों की दशा को नहीं जानती और न ही वह उस दशा का वर्णन कर सकती हैं कि हे उद्धव ! एक अंग एक ही कार्य कर सकता है । नयनों ने कृष्ण के रूप माधुर्य के दर्शन तो किये हैं किन्तु वे वचनों के अभाव में उसके वर्णन करने में असमर्थ हैं और जो जिह्वा बोलने में अथवा वर्णन करने में समर्थ है वो नेत्र के अभाव में देखने में अथवा अनुभव करने में असमर्थ हैं । नेत्र बोल नहीं पाते इसलिए कृष्ण के सगुण स्वरूप और उसके यश का स्मरण कर प्रेम के आवेग में उमड़ते हुए आंसुओं से भर उठते हैं। अपनी इस विवशता के कारण हमारा मन बार-बार पश्चाताप से घिर उठता है । जब विधाता ही बस में नहीं है तो ये मन कर भी क्या सकता है। हमारे भाग्य में प्रियतम कृष्ण से वियोग दशा लिखी थी अब उसे हम भुगत रहे हैं। सूरदास जी कह रहे हैं कि अपने शरीर के विभिन्न अंगों की विवशता से एक मुँह और छः पैरों वाले भौंरे को कौन समझाये यह प्रेम के महत्व तथा प्रभाव को नहीं समझ पाता यह मूर्ख है। अतः इसको समझाना व्यर्थ है।

राग सारंग

हमारे हरि हारिल की लकरी।
मन बच क्रम नंदनंदन सों उर यह दृढ करि पकरी।।
जागत, सोवत, सपने ‘सौंतुख कान्ह-कान्ह जक री।
सुनतहि जोग लगत ऐसो अलि ! ज्यों करुई ककरी।।
सोई व्याधि हमें लै आए देखी सुनी न करी।
यह तौ सूर तिन्हैं लै दीजै जिनके मन चकरी।। 52

प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव को कह रही हैं कि कृष्ण उनके लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान बन गए हैं।

जिस प्रकार हारिल पक्षी कहीं भी हो वो किसी भी दशा में हो वह सहारे के लिए अपने पंजे में किसी न किसी लकड़ी को अथवा किसी तिनके को पकड़े रहता है उसी प्रकार हम गोपियाँ श्री कृष्ण के ध्यान में निमग्न रहती हैं। हमने अपने मन, वचन और कर्म से श्री कृष्ण रूपी लकड़ी को अपने हृदय में दृढ़ करके पकड़ लिया है अर्थात श्री कृष्ण का रूप सौंदर्य हमारे हृदय में गहराई तक बैठ गया है और यह अब जीवन का एक अंग बन गया है। हमारा मन तो जागते-सोते स्वप्न अवस्था में प्रत्यक्ष रूप में अर्थात सभी दशाओं में कृष्ण की नाम की रट लगाता रहता है। श्री कृष्ण का स्मरण ही एक मात्र कार्य रह गया है हमारे लिए जिसे हमारा मन सभी अवस्थाओं में करता है। हे भ्रमर तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म संबंधी ज्ञान उपदेश की बातें सुनकर हमें ऐसे लगता है जैसे कोई कड़वी ककड़ी हमने मुंह में रख ली हो। गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! इस निर्गुण ब्रह्म के रूप में तुम हमारे लिए ऐसा रोग ले आये हो जिसे न तो हमने कभी देखा है न सुना है न कभी उसका भोग किया है । इसीलिए इस योग ज्ञान रूपी बीमारी को तुम उन लोगों को दो जिनका मन चकरी के समान अथवा चकरी के समान सदैव चंचल रहते हैं। वे इसका आदर करेंगे। गोपियाँ कहना हैं की उनका हृदय तो कृष्ण प्रेम में दृढ एवं स्थिर है उनके हृदय में योग ज्ञान और निर्गुण ब्रह्म संबंधी बातों के लिए कोई स्थान नहीं। उद्धव के योग बातें वहीं लोग स्वीकार कर सकते हैं जो अपनी आस्था में दृढ नहीं होते । भावावेश में अपनी आस्था और विशवास को बदलते रहते हैं और इसीलिए ऐसे अस्थिर चित्त वालों के लिए ही योग का उपदेश उचित है।

राग सारंग

फिरि-फिरि कहा सिखावत मौन ?
दुसह बचन अति यों लागत उर ज्यों जारे पर लौन।।
सिंगी, भस्म, त्वचामृग, मुद्रा अरु अबरोधन पौन।
हम अबला अहीर, सठ मधुकर ! घर बन जानै कौन।।
यह मत लै तिनहीं उपदेसौ जिन्हैं आजु सब सोहत।
सूर आज लौं सुनी न देखी पोत सूतरी पोहत।। 53

प्रस्तुत पद्य में उद्धव को गोपियाँ फटकार लगाते हुए उसे मूर्ख कहते हुए कह रहे हैं कि तुम जले में नमक डाल रहे हो।

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव तुम हमें बार-बार मौन साधने का उपदेश क्यों दे रहे हो कम से कम तुम हमें आपना दुःख तो कह लेने दो। हे उद्धव, हे भ्रमर तुम्हारी ये योग साधना रूपी असहनीय योग के वचन इस प्रकार दुःख दे रहे हैं जैसे जले पर नमक छिड़क दिया गया हो। कवि कहना चाहते हैं कि गोपियाँ कृष्ण के वियोग में पहले ही दुःखी और घायल हैं ऊपर से उद्धव उन्हें क्रृष्ण को त्याग कर ब्रह्म  प्राप्ति के लिए योग साधना का उपदेश दे रहें हैं ऐसा लगता है जैसे जले पर नमक छिड़क कर घायल को और अधिक कष्ट दिया जा रहा हो। हे उद्धव ! तुम हमसे, सिंगी, भभूत, मृग छाला और मुद्रा धारण करके प्राणायाम की साधना करने को कहते हो किन्तु हे मूर्ख भ्रमर ! क्या तुमने कभी यह सोचा है कि हम अबला अहीर नारियाँ हैं । हमारे लिए ये किस प्रकार सम्भव है कि हम तुम्हारे कठिन योग साधना से प्राप्त निर्गुण ब्रह्म को अपना ले योग साधना तो वन में रहकर अपनाई जाती हैं । हम तो न तो घर को त्याग सकती हैं और न ही अपने घर को वन के समान निर्जन कर सकती हैं और यह असम्भव है क्योकिं हमारे घरों में कृष्ण संबंधी पुरानी यादें समाई हुई हैं जिन्हें हमें भुलाना पड़ेगा और यह हमारे लिए सम्भव नहीं हैं और इसलिए तुम्हारे लिए यही उचित है कि तुम अपना उपदेश उन लोगों के पास ले जाओं जिन्हें आजकल यह करना शोभा देता है। कवि कहना चाहता है कि यह योगसाधना का उपदेश उनके लिए नहीं बल्कि कुब्जा के लिए उचित है क्योंकि वह कृष्ण के निकट रह कर सभी प्रकार से समर्थ और प्रसन्न है। जो अनुराग में रत है उसके लिए योग साधना का उपदेश उचित है । हम तो पहले से ही वैराग्य का जीवन व्यतीत कर रहीं हैं। इस योग साधना के उपदेश का वास्तव में उस कुब्जा को अधिक आवश्यता है जो श्री कृष्ण के साथ आनंद में लिप्त है और अंत में गोपियाँ कहती हैं कि हमने आज तक किसी भी व्यक्ति को मोती में सुतली फिरोते हुए नहीं देखा है। इस प्रकार यह कार्य असम्भव है । तुम हमें योगसाधना के द्वारा निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त करने का जो उपदेश देते हो वह भी इसी प्रकार का असम्भव कार्य है और तम्हें इस कार्य में सफलता नहीं मिल सकती।

राग जैतश्री

प्रेमरहित यह जोग कौन काज गायो ?
दीनन सों निठुर बचन कहे कहा पायो ?
नयनन निज कमलनयन सुंदर मुख हेरो।
मूँदन ते नयन कहत कौन ज्ञान तेरो ?
तामें कहु मधुकर ! हम कहाँ लैन जाहीं।
जामें प्रिय प्राणनाथ नंदनंदन नाहीं ?
जिनके तुम सखा साधु बातें कहु तिनकी।
जीवैं सुनि स्यामकथा दासी हम जिनकी।।
निरगुन अविनासी गुन आनि भाखौ।
सूरदास जिय कै जिय कहाँ कान्ह राखौ ?।।54

अपनी वियोग स्थिति का वर्णनं बड़े ही मार्मिक ढंग से गोपियाँ कर रहीं हैं।

गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! तुमने नीरस योग के गीतों को हमारे सामने क्यों गाया ? इनकी यहाँ क्या आवश्यकता है? उद्धव इनमें प्रेम का अभाव है और इसलिए ये हमारे लिए त्यक्त हैं। हे उद्धव ! बताओ हम अबलाओं अर्थात विरहणि नारियों के सम्मुख, हम दुखियों के सम्मुख इस प्रकार की कठोर बातें कहकर तुम्हें क्या मिला? हमारे इन नयनों ने कमल नेत्रों वाले सुंदर मनमोहक सुंदर कृष्ण के मुंह के दर्शन किये हैं। ये तुम्हारा किस प्रकार का ज्ञान है कैसा विवेक है कि तुम इन नेत्रों को बंद करके और निर्गुण ब्रम्ह की साधना करने को कहते हो। हम अपने नेत्र बंद करके तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म के पीछे क्यों भटकती रहें? हे उद्धव हमें बताइये कि आपकी इस योग साधना को किस लालसा से अपनाये? क्योंकि हम जानती हैं कि इससे हासिल कुछ नहीं होने वाला और इसमें नंदनंदन कृष्ण की भी हानि है। क्योंकि उन्हें त्यागकर ही इसे अपनाना होगा और इसलिए तुम्हारी यह साधना निरर्थक है। हे उद्धव ! हमें तो उन्हीं कृष्ण की बातें सुनाओ जिनके तुम सच्चे मित्र हो और हम उनकी दासी और सेविकाएँ हैं। उन श्याम की कथा और रसभरी हुई बातें सुनकर हम जी उठेंगी ।हमें प्राण मिल जाएंगे और हमारा विरह भी जाता रहेगा लेकिन तुम उस कृष्ण की बातें न करके किसी निर्गुण अविनाशी ब्रह्म के विषय में कुछ कहकर इस प्रकार की बातें करते हो , अन्यान्य बातें करते हो । ऐसी बातें करते हुए न जाने तुम हमारे प्राणों के प्राण कृष्ण को कहाँ छुपाकर रखे हो उनके बारे में हमें कुछ नहीं बताते।

राम केदारो

जनि चालो, अलि, बात पराई।
ना कोउ कहै सुनै या ब्रज में नइ कीरति सब जाति हिंराई।।
बूझैं समाचार मुख ऊधो कुल की सब आरति बिसराई।
भले संग बसि भई भली मति, भले मेल पहिचान कराई।।
सुंदर कथा कटुक सी लागति उपजल उर उपदेश खराई।
उलटी नाव सूर के प्रभु को बहे जात माँगत उतराई।।55

हे उद्धव ! यहाँ दूसरों की चर्चा मत करें । हम एक मात्र श्री कृष्ण की प्रेम कथा सुन ना पसंद करते हैं। तुम्हारी इस चर्चा को ( योग साधना की इन बातों को ) ना कोई यहाँ पसंद करता है और ना सुनता ही है – इसका दुष्परिणाम यह हो रहा है कि अभी तक श्री कृष्ण के मित्र के रूप में तुम्हें जो नव कीर्ति मिली है ( सबों ने तुम्हे सम्मानित किया है ) वह इन योग कि बातों से नष्ट होती जा रही है । तुम्हारी इन बातों से लोग तुम्हारे विरुद्ध होते जा रहे हैं । हे उद्धव ! हम तो तुम्हारे मुख से जानना चाहते हैं कि क्या श्री कृष्ण ने अपने वंश और परिवार की प्रतिष्ठा की पीड़ा को सर्वथा भुला दिया ( प्रयोजन यह है कि कुबरी से सम्बन्ध स्थापित करने के कारण उनके वंश कि प्रतिष्ठा घटी है और लोगों को बड़ी पीड़ा हुई है । श्री कृष्ण को मथुरा में भले लोगों के साथ रहने से अच्छी बुद्धि मिली है ( विपरीत लक्षण से अर्थ यह होगा कि मथुरा निवासियों कि धूर्तता में फंसकर इनकी भी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी है ) और ऐसी बुद्धि को पाकर उन्होंने तुम्हें यहाँ माध्यम बनाकर भेजा है । क्या करें आपकी योग विषयक कथा बहुत सुन्दर है , लेकिन हमें तो वह कड़वी ( अरुचिकर ) प्रतीत होती है ( मनः स्थिति कि विषमता के कारण दूसरों कि बातों का बुरा लग्न स्वाभिक है ) आप का उपदेश ( निर्गुण ब्रह्मोपासना कि चर्चा ) हमारे ह्रदय को खरा ( माधुर्य रहित ) प्रतीत होता है । ( आपके शुष्क उपदेशों में किसी भी प्रकार की सरसता और आकर्षण नहीं है ) . सूर के शब्दों में उद्धव से गोपियों का कथा है कि हे उद्धव ! श्री कृष्ण का उल्टा न्याय ( न्याय विरुद्ध बातें ) तो देखिये , बेचारे जो नाव के पलट जाने से पानी की धारा में एक ओर बहे जा रहे हैं ( उस प्रवाह से उनकी रक्षा ना कर के ) उनसे इसके विपरीत नाव का किराया माँगा जा रहा है अर्थात एक ओर गोपियाँ जहाँ वियोग की पीड़ा से जल रही हैं वहीँ दूसरी ओर उनके पास यह योग का सन्देश भिजवाया है – धन्य है उनका न्याय

राग मलार

याकी सीख सुनै ब्रज को, रे ?
जाकी रहनि कहनि अनमिल, अलि, कहत समुझि अति थोरे।।
आपुन पद-मकरंद सुधारस, हृदय रहत नित बोर।
हमसों कहत बिरस समझौ, है गगन कूप खनि खोरे।।
घान को गाँव पयार ते जानौ ज्ञान विषयरस भोरे।
सूर दो बहुत कहे न रहै रस गूलर को फल फोरे।।56

प्रस्तुत पद में उद्धव की कथनी और करनी को स्पष्ट किया गया है।

क्योंकि योग सधना संबंधी निर्गुण ब्रह्म का उपदेश यहाँ ब्रज में कौन सुनेगा जिनके रहन सहन और व्यवहार में अर्थात कथनी और करनी में इतना विरोध रहता हो उनकी बातें यहाँ कोई भी सुनना पसंद नही करेगा। हे उद्धव!  तुम स्वयं तो श्री कृष्ण के चरण कमल रूपी मकरंद रूपी अमृत में सदैव अपने हृदय को डुबोये रहते हो और हमसे कहते हो कि उस कृष्ण को रस हीन समझो नीरस समझो खुद तो रस में लीन रहते हो और हमें कृष्ण को रसीम समझने को कहते हो उसी प्रकार असम्भव है जिस प्रकार आकाश में कुआँ खोदकर उसके जल में स्नान करने का प्रयत्न करना। धान के गाँव का परिचय उसके चारों ओर फैले पुआल धान के भूसे से ही प्राप्त हो जाता है । उसी प्रकार तुम्हें देखकर हमें यही लगता है कि तुम स्वयं तो कृष्ण भक्त हो क्योंकि तुम स्वयं उनके चरणों में अनुराग रखते हो और बावले बने हुए हो और फिर क्या यह तुम्हारे लिए उचित है कि हम जैसी जो विरहणी जो बालाएँ हैं उन्हें तुम कृष्ण से विमुख होने का उपदेश देते हो। तुम्हारी कथनी और करनी में स्पष्ट अंतर् है और इसलिए उचित यही है कि तुम हमसे इस विषय में और अधिक चर्चा न करो। गूलर का फल फोड़ने से जो स्थिति उतपन्न होती है वह स्थिति उतपन्न हो जाएगी और इसीलिये इस मामले में इस संबंध में हमसे अधिक बातें मत करो। गूलर का फल उपर से अत्यंत सुंदर प्रतीत होता है किन्तु उसे फोड़ने पर मरे कीड़े को देखकर विरक्ति उत्पन्न हो जाती है और इसलिए तुम अपनी जो बातें हैं उन्हें गुप्त ही रहने दो । हम तुम्हारी जो वास्तविकता है उसे जान रही हैं। इसे तुम यदि नहीं खुलवाओगे तो तुम्हारे लिए अच्छा होगा उचित होगा।

राग मलार 

निरख अंक स्यामसुंदर के बारबार लावति छाती।
लोचन-जल कागद-मिसि मिलि कै है गई स्याम स्याम की पाती।।
गोकुल बसत संग गिरिधर के कबहुँ बयारि लगी नहिं ताती।
तब की कथा कहा कहौं, ऊधो, जब हम बेनुनाद सुनि जाती।।
हरि के लाड़ गनति नहिं काहू निसिदिन सुदिन रासरसमाती।
प्राननाथ तुम कब धौं मिलोगे सूरदास प्रभु बालसँघाती।।57

गोपियाँ उस पत्र का चर्चा कर रहीं हैं जिसमें श्री कृष्ण ने अपना संदेश भिजवाया था।

उद्धव के हाथों कृष्ण की चिठ्ठी को पाकर वे अत्यंत भाव विभोर हो गई थी उसी समय की स्थिति का वर्णन करते हुए सूरदास जी कहते हैं कि कृष्ण के पत्र में लिखे उनके अक्षरों को देख देखकर गोपियाँ बार-बार उस पत्र को अपने हृदय से लगाने लगी अपनी छाती से लगाने लगी और प्रेमावेश के कारण उनके नेत्रों में आँसु आ गए और आँखों से जब आँसू बह रहे हैं तो स्याम के द्वारा जो चिट्ठी भेजी गई है वह भीग जाती है और नेत्रों के जल से कागज पर जो लिखा हुआ है उसकी स्याही और नेत्रों का जल आपस में मिल जाने से सारे कागज में स्याही फ़ैल जाती है और उनकी पूरी चिट्ठी काली हो जाती है स्याम अर्थात कृष्ण की पाती है इसलिए काली हो जाती है । इस पत्र को निहारते ही गोपियाँ की पूर्व काल की स्मृतियाँ जो है वह साकार हो उठती हैं। जब गोकुल में हम श्री कृष्ण के साथ रहा करती थीं तो हमें कभी वायु की गर्माहट नहीं लगी गोपियाँ कहना चाहती हैं कि हमें किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ। हमें कोई भी विपत्ती नहीं आई। हे उद्धव! हम उस समय की क्या चर्चा तुमसे करें जब हम कृष्ण की मुरली की मधुर ध्वनि सुनकर उनके पास वन में दौड़ी चली जाती थीं और अनेक प्रकार की क्रीड़ाएं उनके साथ किया करती थीं ।हम कृष्ण के प्रेम में अनेक प्रकार की रास क्रीड़ाएं किया करते थे और उससे आनंदित हुआ करते थे। कृष्ण के प्रेम को पाकर हम इतनी गर्वित होती थीं कि अपने सम्मुख किसी को कुछ भी नहीं समझती थीं और इस प्रकार पुरानी बातें याद करके और गोपियाँ अत्यंत भाव विभोर हो गई हैं और कृष्ण को पुकार रहीं हैं। कृष्ण को कहती हैं कि हे प्राणनाथ ! हे बचपन के साथी ! आप हमें कब मिलेंगे कब हमें दर्शन देंगे और कब आपका और हमारा मिलन हो सकेगा।

राग मारू

मोहिं अलि दुहूँ भाँति फल होत।
तब रस-अधर लेति मुरली अब भई कूबरी सौत।।
तुम जो जोगमत सिखवन आए भस्म चढ़ावन अंग।
इत बिरहिन मैं कहुँ कोउ देखी सुमन गुहाये मंग।
कानन मुद्रा पहिरि मेखली धरे जटा आधारी।।
यहाँ तरल तरिवन कहैं देखे अरु तनसुख की सारी।।
परम् बियोगिन रटति रैन दिन धरि मनमोहन-ध्यान।
तुम तों चलो बेगि मधुबन को जहाँ-जहाँ जोग को ज्ञान।
निसिदिन जीजतु है या ब्रज में देखि मनोहर रूप।
सूर जोग लै घर-घर डोली, लेहु लेहु धरि सूप।।58

गोपियाँ अपने भाग्य को दोष देती हुई कह रही हैं।

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! हे भ्रमर ! हमें तो दोनों ही अवस्थाओं में चाहें वो कृष्ण का सामीप्य हो या आज जब हम उनसे दूर हैं इन दोनों ही अवस्थाओं में हमें एक ही जैसा फल मिला है। जब कृष्ण हमारे निकट थे तब मुरली उनके होठों पर हमेशा सजी रहती थी और वह मुरली ही उनके अधरों का पान किया करती थी। उनकी होठों से लगी रहती थी और इस अमृत से हम वंचित थे और आज वह कुबरी, वह कुब्जा हमारी सौत बन गई है। आज मुरली का स्थान उस कुब्जा ने ले लिया है और वह कुब्जा कृष्ण के सामीप्य का लाभ उठा रही है। तुम हम विरहणियों को योग साधना के द्वारा प्राप्त निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देने के लिए आये हो और चाहते हो कि हम अपने शरीर पर भस्म का लेप कर लें। क्या तुमने कभी किसी गोपी को अपने मांग में फूल चढ़ाये देखा है ? तुम हमें कह रहे की हम अपने कानों में मुद्रा पहन कर नुज की करधनी जटा जूट और अधारी धारण करें। मुझे एक बात बताओ क्या तुमने हम में से किसी को अपने कानों में कर्ण-फूल या तनसुक कपड़े से बनाई हुई साड़ी धारण किये हुए देखा है ? हम तो कृष्ण के प्रेम के विरह में संतप्त हैं और हम तो पहले ही शरीरिक साज सज्जा और शृंगार साधन को छोड़ दिया है और हम तो पहले से ही योगिनी बनी हुई हैं। हे उद्धव ! उचित यही होगा कि तुम शीघ्र ही मथुरा नगरी लौट जाओ क्योंकि वहां तुम्हें तुम्हारे इस योग के अनेक पारखी मिलेंगे और इसलिए वहीं तुम्हारे इस योग का आदर सम्मान हो पायेगा । हम तो रात दिन कृष्ण के मनोहर रूप को देखकर और स्मरण करके जीवित रही हैं। हे उद्धव ! तुम अपने इस योग को व्यर्थ ही लादे हुए घर-घर घूम रहे हों अपना समय बर्बाद कर रहे हो क्योकि यहां तुम्हारे इस योग का कोई ग्राहक नहीं है और इसीलिए तुम वहीं काम कर रहे हो जिस प्रकार कोई व्यापारी अपने ग्राहक से अपने माल को भली भाँती छान-फटक कर खरीदने का आग्रह करता है लेकिन तुम चाहे जितना भी प्रत्यन कर लो हम तुम्हें विश्वास दिलाते हो कि तुम्हारी इस बेकार की चीज का यहां खरीददार नहीं मिलेगा। इस ब्रज में इसकी कोई उपयोगिता नहीं है इसलिए तुम इसे लेकर के मथुरा चले जाओ। वहाँ इसके पारखी हैं और तुम उन्हीं को जाकर के यह ज्ञान योग की शिक्षा देना।

राग सारंग

अपनी सी कठिन करत मन निसिदिन।
कहि कहि कथा, मधुप, समुझावति तदपि न रहत नंदनंदन बिन।।
बरजत श्रवन सँदेस, नयन जल, मुख बतियां कछु और चलावत।
बहुत भांति चित धरत निठुरता सब तजि और यहै जिय आवत।।
कोटि स्वर्ग सम सुख अनुमानत हरि-समीप समता नहिं पावत।
थकित सिंधु-नौका खग ज्यों फिरि फिरि फेर वहै गुन गावत।।
जे बासना न बिदरत अंतर तेइ-तेइ अधिक अनूअर दाहत।
सूरदास परिहरि न सकत तन बारक बहुरि मिल्यों है चाहत।।60

इस पद्यांश में सूरदास जी ने गोपियों की विरह व्यथा के कारण जो स्थिति उत्पन्न हुई है और विरह के कारण उनसे मन और शरीर में किस प्रकार सामंजस्य नही है उसको इस पद के माध्यम से बताया है।

गोपियाँ उद्धव से अपनी विवशता का वर्णन करते हुए कहती हैं कि हे उद्धव ! हम रात दिन अपने मन को अपने समान कठोर बनाये रखने का भरसक प्रत्यन करती रहती हैं। हे मधुप ! हम अपने इस मन को खूब समझाने का प्रयत्न करती हैं। अनेक प्रकार की कथाएँ कहती हैं ताकि यह कृष्ण से दूर हो जाए किन्तु यह चंचल मन हमारे सभी प्रयत्नों को निष्फल कर देता है। हम अपने कानों को कृष्ण का संदेश सुनने से रोकती हैं ताकि उनकी याद न आये और उनकी याद आकर आँखों में आँसू न आये इसके लिए हम कृष्ण के अलावा अन्य विषयों पर बात- चीत करती हैं । हम इस निष्ठुर मन को अनेक प्रकार से कठोर और दृढ़ बनाने का प्रयत्न करती हैं लेकिन अन्य सभी बातों को छोड़कर हमारे हृदय कृष्ण के सानिध्य से जो सुख की अनुभूति करते हैं उसकी तुलना में करोड़ों स्वर्गों से प्राप्त सुख भी कुछ नहीं है अर्थात कृष्ण का सानिध्य और उससे प्राप्त सुख हमारे लिए श्रेष्ठ है। आगे गोपियाँ कहती हैं कि हमारा मन जो समुद्र में चलने वाली नौका होती है उसमें बैठे हुए उस थके हुए पक्षी के समान है। जो बार-बार उड़कर इधर-उधर जाने का प्रयास करता है लेकिन उसे कोई अन्य स्थान नहीं मिलता। अन्य कोई आसरा नहीं मिलता तो वह थक वापस जहाज पर ही वापस लौट लाता है। हमारा मन भी उसी प्रकार क्षण भर के लिए अन्य बातों में आकर्षण ढूंढने का प्रयत्न करता है किन्तु जब वहाँ उसे कोई सुख प्राप्त नहीं होता तो बार-बार लौटकर कृष्ण के ही गुण गाने लगता है। हमारा हृदय कृष्ण के वियोग से अनवरत दग्ध रहता है- दुखी रहता है। हम अपने शरीर को त्यागना नही चाहती क्योंकि यह शरीर जो है वह हृदय से कृष्ण के मिलने की आस लगाए हुए वियोग सुख की अनुभूति रखता है। हमारा यह हृदय दृढ़ नहीं हो पाता वह प्राणों को धारण किये हुए रहता है।

राग धनाश्री

रहु रे, मधुकर ! मधुमतवारे !
कहा करौं निर्गुन लै कै हौं जीवहु कान्ह हमारे।।
लोटत नीच परागपंग में पचत, न आपु सम्हारे।
बारंबार सरक मदिरा की अपरस कहा उघारे।।
तुम जानत हमहूँ वैसी हैं जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबको बिलमावत जेते आवत कारे।।
सुन्दरस्याम को सर्बवस अप्र्यो अब कापै हम लेहिं उधारे।।61

इसमें गोपियों की वासना रहित अनविरल प्रेम व्यंजना की प्रधानता है । वस्तुतः श्री कृष्ण के प्रति गोपियों का प्रेम उनके सतीत्व और दृढ़ता का बोधक है । यहाँ भ्रमर रूप उद्धव की चंचल वृत्ति का गोपियाँ उपहास कर रही हैं । इसके साथ ही सूर ने इस पद में उद्धव को एक मद्यप के रूप में प्रस्तुत किया है ।

रे भ्रमर रूप मद्यप ! ठहर जा ! ज्यादा मत बोल ! आशय यह है कि मकरंद रूप मदिरा के नशे में मतवाले हो रहे हो । हे उद्धव ! ब्रह्म ज्ञान के मद में तुम्हारा विवेक खो गया है , अतः चुप रहो । हम तुम्हारा निर्गुण अर्थात गुणहीन और बेकार ब्रह्म लेकर क्या करें । तुम्हारे निर्गुण ब्रह्मोपासना से हमारे किस प्रयोजन की सिद्धि होगी अर्थात हम सब सती स्त्रियां हैं अतः पर पुरुष अर्थात तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म से कैसे सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं ? हमारे श्री कृष्ण चिरंजीवी रहे । उनके रहते हमारा अन्यों से कैसे प्रेम हो सकता है ? हे नीच मद्यप भ्रमर ! तुम तो इतने विवेकहीन हो गए हो कि पराग के कीचड़ में लोट रहे हो जैसे शराबी जब शराब के नशे में धुत रहता है तो उसका समस्त विवेक खो जाता है , और वह गन्दी नालियों के कीचड़ में लौटने लगता है उसी प्रकार तुम अपनी गिरती हुयी मर्यादा को संभाल नहीं पा रहे हो और  बर्बाद हो रहे हो । तुम तो बार – बार शराब की लत में पड़ कर – शराब के नशे में मगन हो कर अपनी गुप्त बात भी खोल रहे हो , इस से क्या लाभ ? शराबी शराब के नशे में अपनी गुप्त बात भी प्रकट कर देता है । उद्धव के पक्ष में इसकी अभीष्ट व्यंजना यह होगी कि निर्गुण ज्ञान के गर्व में तुम उस स्पर्श हीन ब्रह्म के महत्त्व को क्यों उद्घाटित कर रहे हो उस से क्या लाभ होगा ? उस का प्रभाव हम लोगों पर किसी प्रकार भी नहीं पड़ेगा । तुम समझते हो कि जैसे तुम्हारे पुष्प हैं , वैसे क्या हम सब भी हैं अर्थात तुम जिन पुष्पों से प्रेम करते हो उनका क्या चारित्रिक स्तर है ? वे सब चरित्रहीन स्त्रियों के समान हैं किन्तु हम सबका प्रेम एकमात्र श्री कृष्ण से ही है , दूसरे के लिए कोई स्थान नहीं है । गोपियों का प्रयोजन है कि तुम मथुरा की जिन नारियों से प्रेम करते हो विशेष कर कुब्जा से वे व्यभिचारिणी तुल्य हैं उनके प्रेम में एकनिष्ठ का भाव नहीं है । वे सब तो जितने काले भ्रमर उनके पास आते हैं सब का थोड़े समय के लिए स्वागत करती हैं । प्रयोजन ये है कि जिस प्रकार पुष्प सभी भ्रमरों को स्थान देते हैं और वहां भ्रमरों को थोड़ी देर के लिए आराम मिलता है उसी प्रकार कुब्जा तथा मथुरा की चपल नारियां सब श्याम वर्ण वालों को ( श्री कृष्ण और उद्धव ) वारांगना की भांति अपने यहाँ ठहराते हैं लेकिन हमारे लिए तो एकमात्र सुन्दर कमल नेत्र नन्द और यशोदा के प्रिय पुत्र श्री कृष्ण ही हैं – उन्हीं की शरण में हैं और उनके लिए हमने अपना सब कुछ अर्पित कर दिया । अब दूसरा मन उधार में किस से ले जो तुम्हारे ब्रह्म को भेंट करें । यहाँ गोपियों की अनन्यता का भाव व्यक्त हुआ है ।

राग बिलावल

काहे को रोकत मारग सूधो ?
सुनहु मधुप ! निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यों रुधो ?
कै तुम सिखै पाठए कुब्जा, कै कही स्मामधन जू धौं ?
बेद पुरान सुमृति सब ढूँढ़ौ जुवतिन जोग कहूँ घौं ?
ताको कहा परेखो कीजै जानत छाछ न दूधौ।
सूर मूर अक्रूर गए लै ब्याज निबेररत ऊधौ।।62

गोपियाँ उद्धव के द्वारा बार-बार योग और निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देकर प्रेम और सगुणोपासना के सरल और सीधे मार्ग को छोड़कर कंटकपूर्ण टेढ़े मेढ़े योग और निर्गुणोपासना के दुर्गम मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करने पर खीज का प्रदर्शन करते हुए कहती है या कर रही हैं।

अपनी खीज का प्रदर्शन करते हुए गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! तुम हमारे सीधे-साधे सरल प्रेम मार्ग में बाधा क्यों बन रहे हो? योग मार्ग का उपदेश देकर हमें प्रेम मार्ग से विचलित क्यों कर रहे हो? हे उद्धव ! राजपथ के समान बाधा रहित कंटक रहित प्रेम मार्ग को तुम काँटों से भरे हुए अनुचित और कष्ट देने वाली योग मार्ग से क्यों अवरुद्ध कर रहे हो तुम्हारा योगमार्ग जो है, वह कठिन, असाध्य है और इसीलिए हम अपने सादे प्रेम मार्ग को छोड़कर उसे अपना नहीं सकतीं। हे उद्धव ! ऐसा लगता है कि कुब्जा ने हमारे प्रति जो उसकी ईर्ष्या है चरम पर होने के कारण तुम्हें सिखा पढ़ाकर हमारे पास भेजा है ताकि हम कृष्ण को भूलकर हम योग में भटक जाए और वह कृष्ण के प्रेम का अकेले आनंद ले , उनके साथ विहार करे या फिर कहीं लगता है कि श्याम ने ही कहीं तुम्हें समझा बुझाकर तुम्हें सिखाकर तुम्हें ये योग का सन्देश देकर हमारे पास इसलिए भेजा हो ताकि वह कुब्जा के प्रेम का भोग कर सके। हे उद्धव ! वेद पुराण स्मृतियाँ आदि सम्पूर्ण धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन करके देख लो। उनमें कहीं भी स्पष्ट नहीं है कि कोमल नारियों को योग की शिक्षा देनी चाहिए। अब हम तुम्हारे जैसे मूर्ख व्यक्ति की बात का क्या बुरा माने जिसे दूध और छाछ का अंतर ही पता नहीं है। हमारे कृष्ण तो दुग्ध के समान सर्व गुण सम्पन्न हैं और तुम्हारे निर्गुण, छाछ के समान सार हीन हैं किन्तु तुम स्वयं उन दोनों में अंतर नहीं समझ पा रहे हो तो तुम्हारी बात का बुरा क्या माना जाए। हे उद्धव ! मूलधन को तो अक्रूर ही यहां से ले गए थे मूलधन अर्थात श्री कृष्ण और अब तुम यहां व्याज लुगाने आये हो अर्थात अब यहां जो उसकी थोड़ी सी पड़ी स्मृति शेष है वह भी तुम ले जाना चाहते हो ब्याज रूप में और हमें निर्गुण ब्रह्म का उपदेश दे रहे हो।

राग मलार

बातन सब कोऊ समुझावै।
जेद्वि बिधि मिलन मिलैं वै माधव सो बिधि कोउ न बतावै।।
जधदपि जतन अनेक रचीं पचि और अनत बिरमावै।
तद्धपि हठी हमारे नयना और न देखे भावै।।
बासर-निसा प्रानबल्ल्भ तजि रसना और न देखे भावै।।
सूरदास प्रभू प्रेमहिं, लगि करि कहिए जो कहि आबै।।63

गोपियाँ उद्धव के उपदेश पर किस प्रकार खिझ उठी हैं, उसका वर्णन किया गया है।

गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि सब लोग हमको बातों से ही समझाने का प्रयास कर रहें हैं। बातों-बातों में ही रिझाना जानते हैं किन्तु कोई भी ऐसा उपाय नहीं बताता जिससे श्री कृष्ण से हमारा मिलन सम्भव हो जाय। हम तो कृष्ण के दर्शन की प्यासी हैं किन्तु लोग हमें कृष्ण के दर्शन के उपाय न बताकर केवल बातों से ही हमें संतोष दिलाना चाहते हैं। हमने कृष्ण से मिलने के अनेक प्रयत्न किये किन्तु वह कहीं  अन्यत्र ही आनंद के साथ विहार करते रहे और उन्होंने हमारी कोई खोज खबर नहीं ली। इतना होने पर भी हमारे नयन कृष्ण के दर्शनों के प्यासे हैं । उन्हें कुछ और देखना अच्छा नहीं लगता। हमारी ये जीभ रात दिन श्री कृष्ण के गुणों का गान करती रहती है और उनको छोड़कर किसी और के गुणों को गाने में इसका मन नहीं लगता। सूरदास जी कहते है कि गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! तुम हमारे इस कृष्ण प्रेम को चाहे जो समझो और चाहे जो कहो इससे हमारे लिए कोई अंतर नही पड़ने वाला । हम तो मन , वचन और कर्म से उस कृष्ण की ही अनुरागिनीं हैं। अब से तुम्हारी इन बातों का , तुम्हारे इस उपदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला।

राग सारंग

निर्गुन कौन देस को बासी ?
मधुकर ! हँसि समुझाय, सौंह दै बूझति साँच, न हाँसी।।
को है जनक, जननि को कहियत, कौन नारि , को दासी ?
कैसो बरन, भेस है कैसो केहि रस कै अभिलासी।।
पावैगो पुनि कियो आपनो जो रे ! कहैगो गाँसी।
सुनत मौन है रह्यो कहियो नन्द कठोर ठग्यो सो सूर सबै मति नासी।।64

गोपियाँ निर्गुण ब्रह्म के विषय में अत्यंत मनोरंजक प्रश्न पूछकर उद्धव की हँसी उड़ा रहीं हैं। अपनी वाक् शक्ति के बल पर गोपियाँ उद्धव की हंसी उड़ाती हैं परन्तु साथ ही साथ उन्हें यह विश्वास भी दिलाती हैं कि वे ब्रह्म के विषय में जानने की जिज्ञासा रखती हैं।

सूरदास जी कहते हैं कि गोपियाँ भ्रमर के माध्यम से पूछ रहीं हैं कि हे उद्धव ! तुम्हारा ये निर्गुण किस देश में निवास करता है? कहाँ का रहने वाला है ? उसका पता ठिकाना क्या है ? हे मधुकर ! हम सौगंध खाकर कहती हैं कि हमें नहीं पता कि वह कहाँ रहता हैं ? किस देश में निवास करता है और इसलिए हम तुमसे सच-सच पूछ रही हैं ? कोई हँसी मजाक नहीं कर रहीं हैं और इसलिए तुम हमें इस निर्गुण ब्रह्म के निवास के बारे में ठीक – ठीक बता दो। हमें बताओ कि तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म  का पिता कौन है? इसकी माता कौन है ? इसकी दासी कौंन हैं ? ये जो तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म है उसका रूप रंग उसकी वेश-भूषा किस प्रकार की है ? उसकी रूचि किस प्रकार के रस में है ? उसकी रूचि किस प्रकार के कार्यों में है ? उद्धव को सावधान करते हुए गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! याद रखना कि तुमने अपने निर्गुण ब्रह्म के बारे में यदि कोई भी झूठी बात या कोई कपट पूर्ण बात कही तो फिर इस करनी का फल भी तुम्हें ही भुगतना पड़ेगा। गोपियों के मुँह से इस प्रकार की बातों को सुनकर उद्धव थका सा और मौन रह गया। गोपियों की इस प्रकार चतुराई पूर्ण बातों को सुनकर उद्धव मौन खड़े रह गए । उनके मुंह से एक शब्द भी नहीं निकला । ऐसा प्रतीत हुआ मानो इनका समस्त ज्ञान और विवेक उनका साथ छोड़ गया हो ।

 राग केदारा

नाहिंन रह्यो मन में ठौर।
नंदनंदन अछत कैसे आनिए उर और ?
चलत, चितवन, दिबस, जागत,सपन सोवत राति।
हृदय ते वह स्याम मूरति छन न इत उत जाति।।
कहत कथा अनेक ऊधो लोक-लाभ दिखाय।
कहा करौं तन प्रेम-पूरन घट न सिंधु समाय।।
स्याम गात सरोज-आनन ललित अति मृदु हास।
सूर ऐसे रूप कारन मरत लोचने प्यास।।65

निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करने में गोपियाँ उद्धव से अपनी विवशता प्रकट कर रही हैं ।

उद्धव ! हमारे मन में श्री कृष्ण के अतिरिक्त किसी के लिए स्थान नहीं रहा है। हे उद्धव ! तुम ही बताओ कि नंदनंदन श्री कृष्ण के इस हृदय में रहते हुए हम किसी अन्य को अर्थात निर्गुण ब्रह्म को अपने हृदय में कैसे ला सकती हैं ? इसलिए हे उद्धव! तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म को स्वीकार करने में हम असमर्थ हैं। हमें तो चलते – फिरते इधर – उधर देखते दिन में जागृत अवस्था में तथा रात को सोते समय स्वप्न अवस्था में भी श्री कृष्ण की मधुर मूर्ति लुभाती है और हमारे हृदय से यह मोहनी मूरत क्षण भर के लिए इधर – उधर नहीं जातीं । ओझल नहीं होती। हम तो जीवन की प्रत्येक अवस्था में श्री कृष्ण के ध्यान में मग्न रहती हैं। हे उद्धव ! आप योग और निर्गुण ब्रह्म के संबंध में अनेक कथाएं सुनाकर हमें सांसारिक लाभ का मार्ग सुझा रहे हैं। आप हमारे लिए मोक्ष प्राप्ति का साधन उपलब्ध करा रहें हैं , हमारे लिए मोक्ष प्राप्ति का साधन उपलब्ध करा रहे हैं किन्तु हम क्या करें। हम इस मार्ग को नहीं अपना सकते। हम तो कृष्ण-प्रेम के लिए पुनः शरीर धारण करने के लिए भी तत्पर हैं क्योंकि हमारा यह तन कृष्ण प्रेम से परिपूर्ण है और जिस प्रकार सागर का जल एक छोटे से घड़े में नहीं समा सकता , उसी प्रकार हमारे इस छोटे से हृदय में तुम्हारा अनंत ब्रह्म नहीं समा सकता। हे उद्धव ! हमारे श्री कृष्ण का शरीर सांवला है , मुख कमल के समान सुंदर और मनमोहक है, उनकी हंसी मधुर और बरबस अपनी ओर खींचने वाली है । इसलिए हमारे नेत्र कृष्ण की ऐसे आकर्षक रूप माधुर्य का पान करके तृप्त होने के लिए व्याकुल बने रहते हैं।

राग मलार

ब्रजजन सकल स्याम-ब्रतधारी।
बिन गोपाल और नहिं जानत आन कहैं व्यभिचारी।।
जोग मोट सिर बोझ आनि कैं, कत तुम घोष उतारी ?
इतनी दूरी जाहु चलि कासी जहाँ बिकति है प्यारी।।
यह संदेश नहिं सुनै तिहारो है मंडली अनन्य हमारी।
जो रसरीति करी हरि हमसौं सो कत जात बिसारी ?
महामुक्ति कोऊ नहिं बूझै, जदपि पदारथ चारी।
सूरदास स्वामी मनमोहन मूरति की बलिहारी।।66

गोपियाँ ब्रज निवासियों के भक्ति का वर्णन कर रहीं हैं।

गोपियाँ श्री कृष्ण प्रेम के समक्ष मोक्ष को तुच्छ समझती हैं और गोपियों की ही भाँति अन्य ब्रजवासी भी श्री कृष्ण प्रेम धारी हैं और कृष्ण प्रेम के लिए मोक्ष को ठुकरा सकते हैं। गोपियाँ कहती हैं कि हे उद्धव ! हमारे सम्पूर्ण ब्रजवासी भी कृष्ण प्रेम के व्रत को धीरता और दृढ़ता से धारण किये हुए हैं। वे श्री कृष्ण के अलावा और किसी को प्रेम करना तो दूर उसके प्रति आकर्षित भी नहीं हो सकते । हम यदि गोपाल के अतिरिक्त अन्य किसी की बात भी करें अर्थात तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की बातें भी करें तो भी हम व्यभिचारी कही जायेंगीं क्योंकि पतिव्रता नारी किसी अन्य को अपने मन में नहीं ला सकती और यदि वह ऐसा करती है तो वह व्यभिचारिणी है । हम तो श्री कृष्ण की पतिव्रताएँ हैं । तुम्हारे ब्रह्म का विचार करके व्यभिचारी नहीं कहलाना चाहती। हे उद्धव ! तुमने अपनी योग की गठरी का भारी बोझ यहाँ गोकुल में अहीरों की बस्ती में लाकर क्यों उतारा है ? यहां इस निरर्थक वस्तु का कोई ग्राहक नहीं है। तुम ऐसा करो कि इसे यहां से दूर काशी ले जाओ । वहां के लोग इसे जानते हैं। इसका मर्म समझते हैं और यह योग रुपी वस्तु वहाँ आसानी से बिक सकेगी और महँगी भी बिक सकेगी। हे उद्धव! हमारी यह मंडली विलक्षण मंडली है और श्री कृष्ण के प्रेम में निमग्न है और इसलिए यहां तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म संबंधी उपदेश कोई नहीं सुनने वाला। हे उद्धव ! तुम्हीं बताओ कि कृष्ण ने जो यहां हमारे साथ प्रेम लीलाएँ की, जो रास रचाया था क्या वह कभी भुलाया जा सकता है? हे उद्धव ! हमें तो कृष्ण के प्रेम में ही तुम्हारे उन चारों पदार्थों की प्राप्ति हो चुकी है । उन पदार्थों से युक्त मुक्ति प्राप्त हो चुकी है और इसलिए निर्गुण ब्रह्म के मार्ग पर चलकर प्राप्त होने वाली भक्ति का हमारे लिए कोई आकर्षण नहीं है , कोई मोल नहीं है। हम तो अपने स्वामी श्री कृष्ण की सुंदर मूर्ति पर प्राण निवछावर किया करती हैं।

राग धनाश्री

कहति कहा ऊधो सों बौरी।
जाको सुनत रहे हरि के ढिग स्यामसखा यह सो री !
हमको जोग सिखावन आयो, यह तेरे मन आवत ?
कहा कहत री ! मैं पत्यात री नहीं सुनी कहनावत ?
करनी भली भलेई जानै, कपट कुटिल की खानि।
हरि को सखा नहीं री माई ! यह मन निसचय जानि।।
कहाँ रास-रस कहाँ जोग-जप ? इतना अंतर भाखत।
सूर सबै तुम कत भईं बौरी याकी पति जो राखत।।

गोपियों का मानना है कि योग का संदेश लाने वाला कृष्ण का सखा कभी नहीं हो सकता यह तो कोई धूर्त या कपटी है व्यंग्य कटु सुनाते हुए कहती हैं।

एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि हे पगली ! तू उद्धव से क्या बात कर रही है। अरी पगली ! यह श्याम का सखा है जो सदा उनके पास निवास करता है और जिसके विषय में हम कब से सुनते आ रही हैं । अर्थात तुम सब इस धोखे में मत रहना कि यह श्याम का सखा है । अरे यह धूर्त व्यक्ति है और स्वयं को श्याम का सखा बतला रहा है । अरी ! तू क्या यह समझ रही है कि यह योग की शिक्षा देने आया है? अरे सखी ! तुम क्या कह रही है ? मुझे तो तुम्हारी बात का विश्वास ही नहीं हो रहा। क्या तुमने कहावत नहीं सुनी कि जो व्यक्ति सज्जन होते हैं , वे सज्जनता की ही बातें करते हैं , उनके सभी कार्य सज्जनता पूर्ण होते हैं किन्तु जो कपटी और धूर्त होते हैं वे कुटिलता से भरे होते हैं , कुटिलता और दुष्टता उनमें कूट – कूट कर भरी होती है । अर्थात सज्जन और भले लोग अपनी प्रकृति के अनुसार दूसरों की भलाई में लगे होते हैं और नीच मनुष्य अत्यंत कपटी होते हैं और दूसरों का कार्य बिगाड़ने में खुशी अनुभव करते हैं । इसलिए हे सखी ! ये अपने मन में तू निश्चय जान ले कि यह कृष्ण का सखा नहीं है यह बात तू अपने मन में जान ले यह निश्चय जान ले क्योंकि यदि ये कृष्ण के मित्र के मित्र होते तो श्री कृष्ण की सज्जनता के गुण इन्हें मिले होते परन्तु ये अत्यंत दुष्ट प्रकृति के व्यक्ति हैं। भला कहाँ रास का आनंद और कहाँ योग की नीरस बातें अर्थात कहाँ तो श्री कृष्ण के साथ प्रेम विहार तथा क्रीड़ाओं का आनंद और कहाँ योग साधना का तथा तपस्या का कठिन कार्य। ये कैसी परस्पर विरोधी बातें कर रहा है । दोनों बातों में आकाश और पाताल का अन्तर है । जिसे इसे अंतर का पता नहीं उस पर क्यों विश्वास कर रही है ? यदि यह कृष्ण का सखा होता तो हमें उनके प्रेम से विमुख होकर योग की तपस्या का उपदेश नहीं देता। अरे तुम सब क्या पागल हो गई हो जो इसकी बातों को विशवास करके इसे कृष्ण के सखा के समान आदर दे रही हो। यह तो कोई छलिया और बहरूपिया है जिसे यहां से अपमानित करके भगा देना ही उचित है।

राग रामकली

ऐसेई जन दूत कहावत !
मोको एक अचंभी आवत यामें ये कह पावत ?
बचन कठोर कहत, कहि दाहत, अपनी महत्त गवावत।
ऐसी परकृति परति छांह की जुबतिन ज्ञान बुझावत।।
आनुप निजल रहत नखसिख लौं एते पर पुनि गावत।
सूर करत परसंसा अपनी, हारेहु जीति कहावत।।68

गोपियाँ योग का संदेश लाने वाले उद्धव पर कटाक्ष कर रहीं हैं।

गोपियों के मत में सफल दूत वही है जो वास्तविक संदेश न कह कर दिन भर की झूठी बातें बढ़ चढ़ कर सुनाया करते हैं। गोपियाँ उद्धव के संदेश पर संदेह करती हुई और उसके योग पर व्यंग्य करती हुई आपस में बातचीत करती हैं और कहती हैं “ऐसेई जन दूत कहावत।” ऐसे ही लोग सफल दूत कहे जाते हैं जो वास्तविक संदेश न कहकर इधर-उधर की बातें करके सुनाया करते हैं। मुझे एक बात का आश्चर्य है कि ऐसा करने पर अर्थात योग का संदेश सुनाकर हमें संतप्त अर्थात दुखी करके इन्हें क्या लाभ होता है? ऐसे लोग दूसरों से कठोर वचन कहते हैं । जैसे ये उद्धव हमें कृष्ण को भुलाकर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करने को कह रहे हैं और इस प्रकार के वचनों से दूसरों को दुखी करते हैं और इस प्रकार अपनी महत्ता और सम्मान भी गँवा बैठते हैं। प्रत्येक व्यक्ति पर संगत का प्रभाव पड़ता है जिसके कारण वह बौरा जाता है अर्थात पागल हो जाता है और उटपटांग बातें करने लगता है । उद्धव को देखो ! ये तो इस बात के साक्षात प्रमाण हैं कि कुब्जा के संगत में रहने के कारण इसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है , जिसके कारण ये अबलाओं को योग और निर्गुण ब्रम्ह की शिक्षा देने यहां पर आ गए हैं । इन्हें यह समझ ही नहीं आ रहा कि इनका ये कार्य कितना अनुचित है। ऐसे लोग पूर्णतः निर्लज्ज होते हैं और अपने निर्लज्ज कार्यों के लिए निर्लज्जता का अनुभव न करके अपनी ही हाँके चले जाते हैं । ये लोग स्वयं ही अपनी प्रशंसा करते – करते अपनी हार को भी जीत कहते हैं – अपनी पराजय को भी विजय कहते हैं। ये उद्धव ज्ञान और विवेक में हमसे हार चुके है क्योंकि हमारी एक भी बात का तो उत्तर नहीं दे पाते , फिर भी स्वयं को विजयी घोषित कर रहे हैं और निररंतर निर्गुण ब्रह्म से संबंधित अपनी रट लगाए हुए हैं।

राग धनाश्री

प्रकृति जोई जाके अंग परी।
स्थान-पूँछ कोटिक जा लागै सूधि न काहु करी।।
जैसे काग भच्छ नहिं छाड़ै जनमत जौन धरी।
धोये रंग जात कहु कैसे ज्यों कारी कमरी ?
ज्यों अहि डसत उदर नहिं तैसे हैं एउ री।69

गोपियों के द्वारा उद्धव की तुलना श्वान अर्थात कुत्ते से की जा रही है।

क गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि आज तक करोड़ों प्रयत्न क्ररके भी कोई कुत्ते की पूँछ को सीधा नहीं कर पाया और इसका कारण क्या बताया? इसका कारण यह है कि पूँछ का स्वभाव  सदा टेढ़ा है और स्वभाव को बदला नहीं जा सकता और इसलिए अब इसे सीधा नहीं किया जा सकता। एक और उदाहरण देते हुए कहती हैं कि कौआ जन्म से ही न खाने योग्य पदार्थ को खाना प्रारम्भ कर देता है। कौआ अभक्षी को भी अर्थात खाने व न खाने योग्य पदार्थ को भी खाना प्रारम्भ कर देता है और पूरे जीवन इस स्वभाव को नहीं छोड़ता । तुम्हीं  बताओ कि धोने से काले कंबल का रंग उतर सकता है क्या? जैसे कि सांप दूसरों को डसने का काम करता है लेकिन दूसरों को डसने से उसका पेट नहीं भरता क्योंकि उसके पेट में तो कुछ जाता ही नहीं फिर भी उसका स्वभाव पड़ गया है डसना और इसलिए वह इसे छोड़ता नहीं और ऐसे ही यह उद्धव हैं दूसरों को दुखी करना इनका स्वभाव बन गया है। इन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं है कि इनके व्यवहार का क्या परिणाम होगा? बस ये तो ऐसे ही हैं अर्थात दूसरों को दुखी करना इनका स्वभाव बन गया है । इन्हें इसी बात में आनंद मिलता है।

राग रामकली

तौ हम मानैं बात तुम्हारी।
अपनो ब्रम्ह दिखावहु ऊधो मुकुट-पितांबरधारी।।
भजि हैं तब ताको सब गोपी सहि रहि हैं बरु गारी।
भूत समान बतावत हमको जारहु स्याम बिसारो।।
जे मुख सदा सुधा अँचवत हैं ते विष क्यों अधिकारी।
सूरदास प्रभु एक अंग पर रीझि रही ब्रजनारी।

यहाँ गोपियाँ उद्धव के ज्ञान योग को स्वीकार करने के लिए एक शर्त रख रहीं हैं जिसका वर्णन प्रस्तुत पद में किया गया है।

प्रस्तुत पद में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हम तुम्हारी बात को मानकर तुम्हारे ब्रह्म को स्वीकार कर लेंगे लेकिन एक शर्त पर कि तुम अपने ब्रह्म के मोर मुकुट और पीतांबर धारण किया हुआ दर्शन करा दो । यदि तुम्हारा ब्रह्म कृष्ण का वेश धारण करके हमारे सम्मुख आ जाता है तो हम उसे स्वीकार कर लेंगे । ऐसा करते हुए हम बिलकुल भी संकोच नहीं करेंगे । हम तुम्हारी बात मान जाएंगे। फिर हम सब मिलकर उसे भजेंगे और उसका ध्यान करेंगे चाहे हमें इसके लिए यह संसार गाली ही क्यों न दे, हमें चरित्ररहीन ही क्यों न बताये। हम सब सहन कर लेंगी लेकिन हमें ऐसा लगता नहीं है कि तुम हमें अपने ब्रम्ह का कृष्ण रूप में दर्शन करा दोगे क्योंकि तुम तो अपने ब्रह्म  को छायाहीन और आकारहीन बताते हो , भूत के समान बताते हो और इसलिए उनका मोर मुकुट और पीतांबर धारन करना असम्भव है और इसलिए हम कृष्ण को भुला कर उसे स्वीकार नहीं कर पायेंगी। हम तो सदा अपने मुख से अमृत का पान करते हुए आई हैं और उसी मुख से आज विष का पान कैसे कर सकती हैं अर्थात हमारा मुख अमृत के समान प्राणदायक और मधुर कृष्ण का नाम स्मरण करने का आदी हो चुका है । वह आज तुम्हारे विष के समान घातक और कटु ब्रह्म का नाम कैसे जप सकता है ? हे उद्धव ! हम सम्पूर्ण ब्रज की नारियाँ अपने कृष्ण के मनोहर शरीर पर मुग्ध है और इसलिए उन्हें त्यागकर हमारे शरीर विहीन निराकार ब्रह्म को स्वीकार नहीं कर सकती।

राग बिलावल

यहै सुनत ही नयन पराने।
जबहीं सुनत बात तुव मुख की रोवत रमत ढराने॥
बारँबार स्यामघन धन तें भाजत फिरन लुकाने।
हमकों नहिं पतियात तबहिं तें जब ब्रज आपु समाने॥
नातरु यहौ काछ हम काछति वै यह जानि छपाने।
सूर दोष हमरै सिर धरिहौ तुम हौ बड़े सयाने॥७१॥

गोपियाँ उद्धव के योग मार्ग का खंडन और अपने नेत्रों की विवशता का उल्लेख इस पद में कर रही हैं ।

हे उद्धव ! तुम्हारे योग मार्ग की बातों को सुन कर हमारे नेत्र भाग खड़े हुए । जब तुम योग की चर्चा करते हो तो हमारे नेत्र तुम्हारे सामने बंद हो जाते हैं । वे तुम्हें देखना नहीं चाहते , तुमसे भागते रहते हैं । जब ये तुम्हारे मुख से निर्गुण की गाथा सुनते हैं तो ये रोने लगते हैं , श्री कृष्ण की स्मृति में मग्न हो जाते हैं और कभी – कभी उनका स्मरण कर के अश्रुपात भी करने लगते हैं । वे श्याम वर्ण वालों को देखना नहीं चाहते और यदि इनके सामने श्याम वर्ण वाले दिखाई पड़ जाएं तो ये छिप जाते हैं और उनसे भागते रहते हैं । इन श्याम वर्ण वालों से ये क्यों भागते और छिपते हैं इसका कारण ये है कि एक बार श्याम वर्ण वाले अक्रूर जी ब्रज में आकर बलराम और श्री कृष्ण को फुसलाकर ले गए । श्याम वर्ण वाले श्री कृष्ण ने मथुरा में बस कर कभी स्मरण नहीं किया , उन्होंने भी धोखा दिया । अब श्याम वर्ण वाले तुम भी योग संदेशों से इन्हें प्रवंचित करना चाहते हो लेकिन ये अब सावधान हैं और इन श्याम वर्ण वालों के प्रति इनका कुछ भी विश्वास नहीं है । यहाँ तक कि जब वर्षा काल में घने श्याम वर्ण वाले बादल दिखाई पड़ते हैं तो उन्हें देखकर ये छिप जाना चाहते हैं । हमारा तो ये तभी से विश्वास नहीं करते जब से आपने ब्रज में प्रवेश किया है । उन्हें ऐसी आशंका है कि कहीं तुम्हारे कहने में सब निर्गुण मार्ग की उपासिका न बन जाएं और श्री कृष्ण से उन्हें वंचित न कर दें और वे श्री कृष्ण की रूप माधुरी का सुख पुनः प्राप्त न कर सकें। हमारे प्रति उनका जो अविश्वास है उसका यही कारण है । वे तो इन सब बातों को समझ कर छिप गए अन्यथा हम तुम्हारी योग साधना की सभी बातों को स्वीकार कर लेतीं और योगियों के वेश को धारण करने में किसी प्रकार का संकोच न करतीं लेकिन हम सब जानती हैं कि आप बड़े चतुर हैं और हमारे नेत्रों की विवशता पर तो विश्वास करेंगे नहीं उलटे हमारे ही सर दोष मढ़ेंगे अर्थात हमें ही दोषी बनाएंगे । 71

राग धनाश्री

नयननि वहै रूप जौ देख्यो।
तौ ऊधो यह जोबन जग को साँचु सफल करि लेख्यो॥
लोचन चारु चपल खंजन, मनरँजन हृदय हमारे।
रुचिर कमल मृग मीन मनोहर स्वेत अरुन अरु कारे॥
रतन जटित कुंडल श्रवननि वर, गंड कपोलनि झाँई।
मनु दिनकर-प्रतिबिंब मुकुट महँ ढूँढ़त यह छबि पाई॥
मुरली अधर विकट भौंहैं करि ठाढ़े होत त्रिभंग।
मुकुट माल उर नीलसिखर तें धँसि धरनी ज्यों गंग॥
और भेस को कहै बरनि सब अँग अँग केसरि खौर।
देखत बनै, कहत रसना सो सूर बिलोकत और॥७२॥

इसमें गोपियों ने उद्धव को बताया कि इन नेत्रों से हमने श्री कृष्ण की रूप माधुरी का रसास्वादन किया उससे हमारा सांसारिक जीवन सचमुच सफल हो गया । यह सूर के सौंदर्य बोध का एक उत्कृष्ट नमूना है ।

गोपियों ने श्री कृष्ण के जिस सौंदर्य को इन नेत्रों से देखा था , उसका वर्णन करती हुयी उद्धव से कह रही हैं । हे उद्धव ! इन नेत्रों से हमने श्री कृष्ण का जो वह अद्भुत रूप देखा उससे हमने अपने सांसारिक जीवन को सचमुच सफल समझा । श्री कृष्ण के उस अलौकिक सौंदर्य को देख लेने पर हमें यह लगा कि यह सांसारिक जीवन सफल हो गया । श्री कृष्ण के सुन्दर नेत्र चंचल खंजन पक्षी की भाँति थे जो हमारे ह्रदय के लिए आनंददायक थे , उनसे हमारा ह्रदय हर्षातिरेक से भर जाता था । उन नेत्रों के अनुपम सौंदर्य की चर्चा करती हुयी गोपियाँ पुनः कहती हैं – वे नेत्र सुन्दर कमल – मृग और मीन की भांति मनोहर प्रतीत होते थे क्योंकि नेत्रों के तीन रंगों श्वेत , रक्त और श्याम से यह स्पष्ट आभासित होता था कि वे सचमुच कमल ( नेत्रों की लालिमा से अभिप्राय है ), मृग ( नेत्रों की कालिमा से अभिप्राय है ) और मीन ( नेत्रों की श्वेतता से अभिप्राय है ) जैसे हैं । उनके दोनों श्रेष्ठ कानों में रत्न जड़ित कुण्डल शोभित थे जिनकी छाया उनकी कनपटी और कपोल प्रदेश पर पड़ रही थी । उसे देखकर ऐसा लगता था मानो सूर्य ( कुण्डल से अभिप्राय है ) अपनी जिस सौंदर्य छाया को ढूँढ रहा था वह उसे कपोल रूप दर्पण में मिल गयी । वे ओष्ठों पर मुरली रख कर टेढ़ी भौहें किये हुए त्रिभंगी मुद्रा में शोभित होते थे। उनकी छाती पर मोतियों कि माला इस प्रकार शोभा दे रही थी मानो पर्वत की नीली चोटी ( श्री कृष्ण के उर स्थल से अभिप्राय है ) से गंगा की धारा ( मुक्तामाल से प्रयोजन है ) निकल कर धरणी पर गिरते ही धंस गयी हो । श्री कृष्ण के अन्य वेश का वर्णन हम कैसे करें ? उनके प्रत्येक अंग में केसर की छाप शोभित थी , ऐसे अंगों को देखते ही बनता था , उनका वर्णन करना असंभव था , क्योंकि जिह्वा तो कहती है जो देखती है जो देखती नहीं देखता और कोई है ( यहाँ और कोई से अभिप्राय नेत्रों से है )

राग नट

नयनन नंदनंदन ध्यान।
तहाँ लै उपदेस दीजै जहाँ निरगुन ज्ञान॥
पानिपल्लव-रेख गनि गुन-अवधि बिधि-बंधान।
इते पर कहि कटुक बचनन हनत जैसे प्रान॥
चंद्र कोटि प्रकास मुख, अवतंस कोटिक भान।
कोटि मन्मथ वारि छबि पर, निरखि दीजित दान॥
भृकुटि कोटि कुदंड रुचि अवलोकनी सँधान।
कोटि बारिज बंक नयन कटाच्छ कोटिक बान॥
कंबु ग्रीवा रतनहार उदार उर मनि जान।
आजानुबाहु उदार अति कर पद्म सुधानिधान॥
स्याम तन पटपीत की छवि करै कौन बखान?
मनहु निर्तत नील घन में तड़ित अति दुतिमान॥
रासरसिक गोपाल मिलि मधु अधर करती पान।
सूर ऐसे रूप बिनु कोउ कहा रच्छक आन? ॥७३॥

इसमें गोपियों ने श्री कृष्ण के नख शिख के सौंदर्य का वर्णन किया है । उद्धव के निराकार ब्रह्म की तुलना में श्री कृष्ण का अनिर्वचनीय लावण्य कितना मोहक और आकर्षक है इसे गोपियों ने पूर्णतया सिद्ध कर दिया ।

हे उद्धव ! हमारे ये नेत्र श्री कृष्ण का ही ध्यान करते रहते हैं । इन नेत्रों में श्री कृष्ण की शोभा के अतिरिक्त अन्य कोई रूप धंसता ही नहीं । अतः तुम अपने इस निर्गुण ज्ञान का उपदेश वहां दो जहाँ ऐसे ज्ञान के मर्मी रहते हैं । यहाँ तो तुम्हारा यह निर्गुण ज्ञान कोई जानता भी नहीं किन्तु हम सब तो ब्रह्मा द्वारा निर्मित अपने पत्ते के समान कोमल हथेली की भाग्य रेखाओं को जान कर प्रसन्न हैं कि गुणशाली श्री कृष्ण से हमारा संयोग हुआ । इधर तो हम सब अपनी वियोग व्यथा से स्वयं पीड़ित हैं और उस पर आप अपनी कठोर और कड़वी वाणी से हमारे प्राणों को मार रहे हैं , उन्हें असह्य पीड़ा दे रहे हैं । हमारे श्री कृष्ण की रूप माधुरी इस प्रकार है । उनके मुख मंडल का प्रकाश करोड़ों चन्द्रमा के समान है और कानों में शोभित कुण्डल की दीप्ति करोड़ों सूर्य के सदृश है । उनकी शोभा पर तो करोड़ों कामदेव को निछावर कर दो क्योंकि वे करोड़ों कामदेवों से बढ़कर है । हम सब तो उन्हें देखकर अपने आप को उन्हीं दान दे देती हैं ( उन्हें अपने आपको समर्पित कर देती हैं ) उनकी भौहें करोड़ों धनुष के समान हैं और सुन्दर चितवन अर्थात उनका देखना ही उस धनुष को खींचना है । उनके बांके नेत्र करोड़ों कमल के समान और कटाक्ष ( चितवन ) करोड़ों बाणों के सदृश तीक्ष्ण है । उनकी शंख के समान गर्दन में रत्नो का हार शोभित रहता है और विशाल वक्षस्थल में कौस्तुभ मणि शोभित होती है । उनकी अतिशय सुन्दर भुजाएं घुटने तक लम्बी हैं और उनके कमलवत हाथ अमृत का भंडार हैं । वे अपने भक्तों की रक्षा करते हैं और अमर बनाते हैं । उनके श्याम शरीर पर शोभित पीताम्बर का कौन वर्णन कर सकता है । उसे देख कर ऐसा लगता है की मानो नीले बादलों में चमकती हुयी बिजली नृत्य कर रही हो । यहाँ पीताम्बर की उपमा बिजली से दी गयी है । हम सब तो रास क्रीड़ा में रूचि लेने वाले रसिक श्री कृष्ण से मिल कर उनके अधरामृत का पान किया करती हैं । भला ऐसे अनुपम सौंदर्यशाली श्री कृष्ण के बिना हमारी रक्षा कोई दूसरा कैसे कर सकता है ? हम सबों को एक मात्र श्री कृष्ण का ही सहारा है ।

राग जैत श्री

देन आये उधौ मत नीको ।।
आवहु री! सब सुनहु सयानी , लेहु न जस को टीको ।।
तजन कहत अम्बर , आभूषन , गेह नेह सब ही को ।
सीस जटा , सब अंग भस्म , अति सिखवत निर्गुण फीको ।।
मेरे जान यही जुबतिन को देत फिरत दुःख पी को ।
तेहि सर – पंजर भये श्याम तन अब न गहत डर जी को ।।
जाकी प्रकृति परी प्रानन सो सोच न पोच भली को ।
जैसे सूर व्याल डसि भाजत का मुख परत अमी को ? ।।74।।

इसमें गोपियों ने व्यंग्य गर्भित शैली में उद्धव की क्रूर प्रकृति का निरूपण किया है । वे निर्गुणोपासना के उपदेश रुपी बाणों से सब को भेदना चाहते हैं ।

गोपियाँ उद्धव की क्रूर प्रकृति और उनकी अविवेकशीलता का उल्लेख करती हुयी परस्पर कह रही हैं – हे सखियों , उद्धव जी यहाँ हम सब को अपने बहुत अच्छे विचार और सिद्धांत देने आये हैं । अब तुम सब ऐसे शुभ अवसर को गँवाओ नहीं आ जाओ और हे चतुर सखियों ! अब अच्छा होगा कि इनसे उपदेशों को सुन कर यश का टीका ले लो । इनकी बातों को ग्रहण करने में तुम सब संसार में यशस्विनी के रूप में परिगणित होगी । व्यंग्यात्मक अर्थ यह है कि इसके फेर में मत पड़ना अन्यथा संसार में तुम सबों को कलंकिनी बनना पड़ेगा । ये महाशय हमें अपने मार्ग पर लगाना चाहते हैं और आभूषण , वस्त्र , गृह और सबों के प्रेम को छोड़ देने की बात पर बराबर जोर दे रहे हैं अर्थात ये पूरी तरह से हमें वीतराग बनाना चाहते हैं । यही नहीं योगिनी के रूप में ये हमें शीश पर जटा रखने और अंगों में राख लगाने के लिए कह रहे हैं और शुष्क एवं नीरस निर्गुण ब्रह्म का हमें ज्ञान सिखाते फिरते हैं । हमारी समझ में यही ऐसा व्यक्ति है जो हम जैसी भोली – भाली युवतियों को प्रियतम के वियोग का दुःख देता फिरता है अर्थात इसके अतिरिक्त ऐसा निष्ठुर प्राणी इस ब्रज में अभी तक नहीं देखा गया है । यद्यपि ऐसे उपदेश के काले बाणों से इसका सारा शरीर कला हो गया है । यह अपने उपदेश के बाणों से दूसरों को विद्ध करता रहता है और इसका सारा शरीर इन बाणों और उपदेशों से घिरा रहता है । इसी से यह डरता नहीं । कहा गया है कि बाणों की भाँति यह काला हो गया है लेकिन अपने काले उपदेश से इसका काला हो जाना स्वाभाविक है , फिर भी यह अपनी शरारत से बाज नहीं आता । अरी सखी ! जिसका स्वभाव प्राण ग्रहण करने के साथ ही बन जाता है अर्थात जिसका जन्मजात स्वभाव होता है उसे अच्छे और बुरे की चिंता नहीं होती । इस दृष्टि से यह अत्यंत ढीठ और निर्लज्ज है । जिस प्रकार सर्प जब किसी को काट कर भागता है तो क्या उसके मुख में अमृत की बूँद पड़ जाती है । काटने से क्या वो अमर बन जाता है किन्तु काटना तो उसका जन्मजात स्वभाव है । उद्धव की भी यही जन्मजात प्रकृति बन गयी है वह बदल नहीं सकती । 74

राग सारंग

प्रीति करि दीन्हीं गरे छुरी ।
जैसे बधिक चुगाय कपटकन पाछे करात बुरी ।।
मुरली मधुर चोंप करि कांपो मोरचन्द्र ठटबारी।
बंक बिलोकनि लूक लागि बस सकी न तनहि सम्हारी।।
तलफत छाँड़ि चले मधुबन को फिरि कै लई न सार ।
सूरदास वा कलप तरोवर फेरि न बैठी डार।। 75।।

इसमें गोपियाँ श्रीकृष्ण के कपटपूर्ण व्यवहार का उल्लेख उद्धव से कर रही है और उलाहना दे रही हैं कि प्रेम के क्षेत्र में उन्होंने हमारे साथ धोखा किया । यहाँ श्रीकृष्ण को बहेलिया और गोपियों को चिड़िया के रूप में अभिहित किया गया है ।

हे उद्धव ! श्री कृष्ण ने प्रेम करने के बाद हमारे गले में छुरी फेर दी अर्थात हमारे साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया । उन्होंने तो यह किया कि जैसे बहेलिया पहले तो कपट का अन्न खिलाता है । धोखा देकर उन्हें अन्न के कण खाने के लिए डाल देता है और जब वे अन्न के कण के खाने में लग जाती हैं तो उन्हें पकड़ लेता है और उनके साथ बुरा व्यवहार करता है । उन्हीं धीरे – धीरे मार डालता है । उसी प्रकार श्री कृष्ण ने पहले तो अपने प्रेम जाल में हमें फंसाया । अब वियोग की पीड़ा में हमें मार रहे हैं । उन्होंने अपनी मुरली की मधुर ध्वनि रुपी लासा को अपने हाथ रुपी बांस में लगाकर कंपा अर्थात छोटी – छोटी तीलियाँ बनाया और मोर पंख रुपी टटिया के पीछे छिप कर गोपियों रुपी चिड़ियों को फंसा लिया और अपनी तिरछी चितवन रुपी आग की लपटों में डाल दिया । उन लपटों के वशीभूत हम सब अपने शरीर को संभाल न सकीं । पहले तो उन्होंने प्रेम किया और जब हम सब उनके प्रेम जाल में फंस गयीं तो उन्होंने बंक चितवन की आग में डाल कर कष्ट दिया । इस प्रकार चितवन की आग में तड़फती हुयी हमें छोड़कर वे मथुरा चले गए और उलट कर हम सबों की खोज खबर नहीं ली । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि पुनः उस कृष्ण रुपी कल्पवृक्ष की डाल पर बैठ न सकीं । जब श्री कृष्ण के साथ हम सब रहती थीं तो उनसे हमारी समस्त कामनाएं कल्प वृक्ष की भाँति पूरी होती रहीं ।75

राग धनाश्री

कोउ ब्रज बाँचत नाहिंन पाती ।
कत लिखि लिखि पठवत नंदनंदन कठिन बिरह की काती।।
नयन , सजल , कागद अति कोमल , कर अंगूरी अति ताती।
परसत जरै , बिलोकत भीजै दुहूँ भाँति दुःख छाती ।।
क्यों समुझैं ये अंक सूर सुनु कठिन मदन – सर – घाती।
देखे जियहिं स्यामसुंदर के रहहिं चरन दिन – राती।। 76

श्रीकृष्ण की भेजी हुयी पत्री को गोपियाँ पढ़ नहीं पातीं । कोई अन्य भी इसे पढ़ने में समर्थ नहीं है । अतः व्याकुल मन गोपियाँ श्री कृष्ण को उलाहना देकर कहती हैं की ऐसी चिट्ठी वे क्यों लिख कर भेजते हैं । इसमें चिट्ठी को उद्दीपन विभाव के रूप में चित्रित किया गया है ।

कोई गोपी श्री कृष्ण के द्वारा भेजी हुयी चिट्ठी के सम्बन्ध में कह रही है। हे सखी ! इस ब्रज मंडल में कोई भी श्री कृष्ण की चिट्ठी नहीं पढ़ता । जो इसे पढ़ता है उसे श्री कृष्ण की स्मृति – जनित पीड़ा होती है और उसकी मनोदशा ऐसी हो जाती है कि वह चाहते हुए भी इस पत्र को पढ़ नहीं पाता। अरी सखी ! विरह में चुभने वाली कठोर छुरी के समान ऐसी पत्री श्री कृष्ण क्यों लिख – लिख कर भेजा करते है ? गोपियों के कहने का आशय है कि वियोग में उनकी पत्री ह्रदय में उसी प्रकार चोट पहुंचाती है जैसे छुरी । इस पत्री को न पढ़ने की विवशता से और कष्ट होता है । वह यह है कि वियोग में हमारे नेत्र तो सदैव अश्रु से भरे रहते हैं और इस पत्री का कागज अत्यंत कोमल हैं तथा हाथ की उँगलियाँ अतिशय गर्म रहती हैं अर्थात वियोग की आग से जलती रहती है । अतः यदि इसे स्पर्श करती हैं तो यह जलने लगती है क्योंकि कागज कोमल है और नेत्रों यदि पढ़ने का प्रयास करती हैं तो आंसुओं के गिरने से अक्षर परस्पर मिल जाते हैं अर्थात सभी अक्षर अस्पष्ट हो जाते हैं । इस तरह हमारी छाती में दोनों प्रकार से कष्ट होता है – एक पत्री न पढ़ पाने का और दूसरा अक्षरों के नष्ट हो जाने का । सूर के शब्दों में विरहणी गोपी अपनी सखी को सम्बोधित करती हुयी कह रही है की अरी सखी ! ये अक्षर कैसे समझ में आएं । ये तो वास्तव में कामदेव के तीक्ष्ण कठोर बाणों की भांति घातक हैं । जब इन अक्षरों को समझने का प्रयास करती हूँ तो श्री कृष्ण की याद आ जाते हैं । इस दृष्टि से ये अक्षर नहीं है बल्कि हमारी पीड़ा से ह्रदय को संतप्त कर देने वाले तीखे बाण हैं । अब तो श्यामसुंदर को देखकर और उनके चरणों में रहकर ही जीवित रह सकती हूँ । अब हमें एक मात्र सहारा उनके चरणों का ही है ।76

राग जैतश्री

मुकुति आनि मंदे में मेली।
समुझि सगुन लै चले न ऊधो ! ये सब तुम्हरे पूँजि अकेली ।।
कै लै जाहु अनत ही बेचैन , कै लै जाहु जहाँ विष बेली ।
याहि लागि को मरै हमारे बृंदाबन पायँन तर पेली ।।
सीस धरे घर – घर कत दौलत , एकमते सब भई सहेली ।
सूर वहां गिरधरन छबीलो जिनकी भुजा अंस गहि मेली ।। 77

इस पद में गोपियों ने उद्धव के मोक्ष सिद्धांत का उपहास किया है । वे श्री कृष्ण प्रेम के समक्ष योगियों की मुक्ति को नगण्य और तुच्छ समझती हैं । व्यंग्य गर्भित शैली का यह एक उत्कृष्ट नमूना है ।

हे उद्धव ! तुमने तो अपनी मुक्ति का यह सौदा मंदे बाज़ार में उतरा । जब बाजार के भाव में गिरावट आ गई तो ऐसी दशा में तुम्हारे मुक्ति रुपी सौदा का अधिक मूल्य यहाँ नहीं मिलेगा । लगता है , तुम शकुन विचार कर इसे लेकर नहीं चले अर्थात इसे बेचने के लिए शुभ घड़ी में नहीं निकले और यही तुम्हारे पास एकमात्र पूँजी है अर्थात योग , जप , व्रत आदि की बातें ही तो तुम्हारे पास हैं । इनके अतिरिक्त तुम्हारे पास कुछ है भी नहीं । कहीं इस सस्ते बाजार में यह माल न बिका तो तुम्हारा बहुत बड़ा घाटा हो जायेगा । अधिक पूँजी भी नहीं है कि दुबारा अपना यह व्यापर चला सको । अतः हम सब की राय यह है कि या तो तुम इसे यहाँ से दूसरी जगह ले जाकर बेचो अथवा वहां ले जाओ जहाँ विष की लता कुब्जा निवास करती है । वह इसे अवश्य खरीद लेगी क्योंकि तुम्हारी मुक्ति का मार्ग वह भली – भांति जानती है और उस से तुम्हें अच्छी रकम मिल जाएगी । इस मुक्ति के लिए हमारे यहाँ कौन मरे अर्थात कौन परेशान हो । इसे तो हम वृन्दावन में श्री कृष्ण के साथ केलि करते समय पैरों के नीचे डाल देती थी अर्थात इसे पैरों से कुचल देती थीं। आशय यह है कि श्री कृष्ण के साथ वृन्दावन में रास लीलादि करते समय जो सुख मिलता था उसकी तुलना में हम सब मुक्ति को तिरस्कृत कर देती थीं । मुक्ति में वैसे सुख का अनुभव नहीं करती थीं । अब तुम व्यर्थ में क्यों इसे सर पर लादे घर – घर बेच रहे हो ? स्मरण रखो कि यहाँ इसे पूछने वाला कोई नहीं है क्योंकि हमारी सभी सखियाँ एक ही विचार की हैं । इसमें कोई भी इसे पसंद नहीं करेगा । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! हमारे गिरिधारी , वहां मथुरा में अवश्य चले गए हैं लेकिन एक ऐसा भी समय था जब वे बृजमण्डल में बसते थे तो हम सब प्यार में अपने कंधे पर उनकी भुजाएं रख कर बहुत क्रीड़ा करती थीं । व्यञ्जयना यह है कि उस आनंद के समक्ष तुम्हारी मुक्ति क्या है ?77

राग कान्हरो

हम , अलि, गोकुलनाथ अराध्यो।
मन वच क्रम हरि सों धरि पति ब्रत प्रेम योग तप साध्यो ।।
मातु – पिता , हित – प्रीति निगम – पथ तजि दुःख – सुख भ्रम नाख्यो ।
मानपमान परम परितोषी अस्थिर थित मन राख्यो ।।
सकुचासन , कुलसील परस करि , जगत बंद्य करि बंदन ।
मानअपवाद पवन – अवरोधन हित – क्रम काम – निकंदन ।।
गुरुजन – कानि अगिनि चहुँ दिसि , नभ – तरनि – ताप बिनु देखे ।
पिवत धूम – उपहास जहाँ तहँ , अपजस श्रवण – अलेखे ।।
सहज समाधि बिसारि बपु करी , निरखि निमख न लागत ।
परम ज्योति प्रति अंग – माधुरी धरत यही निसि जागत ।।
त्रिकुटी संग भ्रूभंग , तराटक नैन नैन लागि लागे ।
हँसन प्रकास , सुमुख कुण्डल मिलि चंद्र सूर अनुरागे ।।
मुरली अधर श्रवन धुनि सो सुनि अनहद शब्द प्रमाने ।
बरसात रास रूचि – बचन – संग , सुखपद – आनंद – समाने ।।
मंत्र दियो मनजात भजन लगि , ज्ञान ध्यान हरि ही को ।
सूर , कहौं गुरु कौन करे , अलि , कौन सुने मत फीको ।। 78

उद्धव ने बार – बार गोपियों के समक्ष ब्रह्म – दर्शन के लिए जिस योग – साधना पर बल दिया उसे सुनकर गोपियों ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे योग साधना की भांति प्रेम – साधना और प्रेम – योग में निरत हैं , उन्हें इन्हीं से अवकाश नहीं मिलता । अतः उद्धव के ब्रह्म की उपासना वे कब करें । प्रेम साधना का तत्कालीन योगियों के लिए यह तीखा उत्तर था ।

हे उद्धव ! अब तो हमने श्री कृष्ण की आराधना आरम्भ कर दी है और मनसा , वाचा और कर्मणा श्री कृष्ण से पातिव्रत धर्म का पालन करती हुयी प्रेम – योग और तप को साध लिया है । योगियों की भाँति हमने माता , पिता और हितैषियों के प्रेम और वेद मार्ग की मर्यादाओं को त्याग कर सुख और दुःख के भ्रम को पार कर गयीं अर्थात योगियों की भांति सुख और दुःख के बंधन से सर्वथा मुक्त हो गयीं हैं। हमने इस साधना द्वारा अपने चंचल मन को स्थिर कर लिया है और इस कारण मान और अपमान दोनों से ही संतुष्ट हैं । हमने संकोच रुपी आसान पर बैठ कर कुल के शील को परित्यक्त कर दिया और इस प्रकार जगत वंद्य भगवान श्री कृष्ण की वंदना में निरत हो गयीं । आशय यह है कि श्री कृष्णोपासना के लिए हमने संकोच , लज्जा और कुल की मर्यादा का ध्यान तक नहीं दिया । सांसारिक मान और निंदा ही हमारे लिए योगियों का प्राणायाम है अर्थात सांसारिक मान और निंदा का हमारे ऊपर कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता । हमारे लिए दोनों ही समतुल्य हैं । प्रेम कर्म और प्रेम साधना ही हमारे लिए काम वासनाओं को नष्ट करना है । श्री कृष्ण की प्रेम साधना में हमें काम – वासनाएं स्पर्श तक नहीं कर पातीं । हमारे लिए गुरुजनों की लज्जा ही योगियों की पंचाग्नि है अर्थात जैसे योगी पंचाग्नि में तप – साधना कर के अपने शरीर को कष्ट देते हैं उसी प्रकार हम भी अपने चारों ओर गुरुजनों की मर्यादा और लज्जा की आग में जलती रहती हैं और कष्ट के साथ मर्यादा का भी पालन करती रहती हैं । जिस प्रकार योगी पांचवी अग्नि अर्थात सूर्य ताप में तपता है उसी प्रकार हम सब भी आकाश में स्थित सूर्य को देखे बिना ही वियोगाग्नि के सूर्य – ताप में संतप्त होती रहती हैं । हम सब निरंतर यत्र – तत्र होने वाले जग – उपहास और निंदा का धूम्र पान उसी प्रकार करती रहती हैं जैसे योगी पंचाग्नि के धुँए का पान करता है। आशय यह है कि श्री कृष्ण की प्रेम साधना में जग के उपहास और निंदा का प्रभाव हम सब पर नहीं पड़ता । हम सब संसार के अपयश को सुनी – अनसुनी कर देते हैं अर्थात जिस प्रकार योगी अपनी चित्तवृत्तियों को संसार से हटा कर अंतर्मुखी कर लेता है और उसके कानों में सांसारिक शब्द सुनाई नहीं पड़ते उसी प्रकार श्री कृष्ण प्रेम में तन्मय हमारे मन को सांसारिक अपयश का कुछ भी भान नहीं होता । योगियों की भाँति हम अपने शरीर को भुला कर , उसकी चिंता न कर के सहज समाधि में लीन हो गयीं और श्री कृष्ण के सौंदर्य को देखते हुए हमारे नेत्रों की पलकें गिरती नहीं , वे निर्निमेष देख रहे हैं और प्रेम में समाधिस्ठ हो कर रात – रात भर जागती हुयी हम सब परब्रह्म की परम ज्योति के सदृश श्री कृष्ण के प्रत्येक अंग की रूप माधुरी को ग्रहण करती रहती हैं । आशय यह है कि योगियों की भांति हमने मुक्तावस्था को सिद्ध कर लिया है । अब आपके योग के इन प्रपंचों की आवश्यकता को हम व्यर्थ समझती हैं । योगियों की भांति हम सब भी श्री कृष्ण के भ्रू भाग के साथ ही त्रिकूट चक्र में अर्थात दोनों भौहों के बीच के स्थान में त्राटक मुद्रा के द्वारा ध्यान को केंद्रित करके अपने नेत्रों को श्री कृष्ण के नेत्रों में मिलकर निर्निमेष अर्थात बिना पलकें झपकाए देखते रहती हैं । जैसे योगी त्राटक मुद्रा में अपने नेत्रों को वहीं गड़ा देता है उसी प्रकार हमारे नेत्रों की भी यही दशा है कि वे निरंतर श्री कृष्ण की ओर देखा करते हैं । हम श्री कृष्ण के सुन्दर चंद्र मुख और सूर्यवत प्रकाशमान कानों के कुण्डल तथा मंद मुस्कराहट के प्रकाश का अनुभव उसी प्रकार करती हैं जैसे योगी इड़ा , पिंगला और सुषुम्ना नाड़ियों के मूल प्रदेश में स्थित क्रमशः चन्द्रमा , सूर्य और अग्नि प्रकाश का अनुभव करते हैं । यह योग की साधना की उस अवस्था का बोधक है जिसमे वह इड़ा और पिंगला को नियंत्रित्र करके कुंडलिनी को जाग्रत करता है और उसकी कुण्डलिनी योग के छह चक्रों को पार करती हुयी ब्रह्मरन्ध्र में पहुँचती है । साधक इसी अवस्था में परम ज्योति का दर्शन करता है । गोपियाँ भी इसी श्री कृष्ण की परम ज्योति का अनुभव कर रही हैं । उन्हें वंशी की मधुर ध्वनि उसी प्रकार प्रतीत होती है , जैसे योगियों को अनाहत शब्द सुनाई पड़ता है । मुरली से निकलने वाली श्री कृष्ण की मधुर वाणी के साथ ही आनंद की वृष्टि का अनुभव होता है । गोपियाँ श्री कृष्ण के चरणों में तन्मय होकर जिस सुख को प्राप्त करती हैं वह यहाँ योगियों की ब्रह्मानंद में लीन होने की अवस्था का बोधक है । योगी जैसे किसी गुरु से मंत्र लेते हैं उसी प्रकार हमारे गुरु कामदेव ने हमें भजन का मंत्र दे कर अपनी शिष्य बनाया है । अतः अब तो श्री कृष्ण के ही ज्ञान और ध्यान में लगी रहती हैं । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से पूछ रही हैं कि तुम्हीं बताओ कि अब अन्य किसको गुरु बनाएं क्योंकि गुरुमुख तो ले चुकी हैं और ऐसी दशा में तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म के शुष्क ज्ञान की बातें कौन सुने ? श्री कृष्ण की प्रेम साधना से जो रस मिला है वह यहाँ कहाँ ?78

राग सारंग

कहिबे जीय न कछु सक राखो।
लावा मेलि दए हैं तुमको बकत रहौं दिन आखों॥
जाकी बात कहौ तुम हमसों सो धौं कहौ को काँधी।
तेरो कहो सो पवन भूस भयो, वहो जात ज्यों आँधी॥
कत श्रम करत, सुनत को ह्याँ है, होत जो बन को रोयो।
सूर इते पै समुझत नाहीं, निपट दई को खोयो॥७९॥

उद्धव के द्वारा बार – बार निर्गुण ब्रह्म की चर्चा करने पर गोपियाँ नाराज हो गयीं और उन्हें ऐसा लगा कि किसी ने उद्धव पर जादू कर दिया है इसीलिए वे मनन करने पर भी निर्गुण ब्रह्म की बारम्बार रट लगाए हैं । इसमें गोपियों की झुंझलाहट का बहुत सरस वर्णन हुआ है ।

हे उद्धव ! कहने के लिए अपने मन में कुछ शक मत रखो । तुम निःसंदेह जो कुछ भी कहना चाहते हो कह डालो । तुम्हारे इतना बोलने पर मुझे संदेह होता है कि तुम्हारे ऊपर किसी ने टोना कर दिया है और तुम सारा दिन पागलों की भांति बकते रहते हो । यह तो बताओ कि तुम जिस निर्गुण ब्रह्म की बात हमसे कर रहे हो उसे किसने अंगीकार किया है । सत्य तो यह है कि तुम्हारा यह निर्गुण ब्रह्म विषयक कथन हमें ऐसा लगा जैसे पवन का भूसा हो जो तेज आंधी में बह गया हो अर्थात तुम्हारी बातें यहाँ उसी प्रकार गायब हो गयीं जैसे तेज आँधी में भूसे का पता ही नहीं चलता । तुम्हारी बातों का यहाँ कुछ भी प्रभाव नहीं है । तुम व्यर्थ ही श्रम कर रहे हो । तुम्हारी बातें यहाँ कौन सुन ने वाला है । तुम्हारा यह कथन तो हमारी दृष्टि में अरण्यरोदन के समान है अर्थात वह सर्वथा प्रभाव हीन है । लेकिन तुम इतने पर भी हमारी बातों पर ध्यान नहीं देते । लगता है तुम सर्वथा गए बीते लोगों में से हो अर्थात बहुत ही निर्लज्ज और नगण्य हो ।79

राग धनाश्री

अब नीके कै समुझि परी।
जिन लगि हुती बहुत उर आसा सोऊ बात निबरी॥
वै सुफलकसुत, ये, सखि! ऊधो मिली एक परिपाटी।
उन तो वह कीन्ही तब हमसों, ये रतन छँड़ाइ गहावत माटी॥
ऊपर मृदु भीतर तें कुलिस सम, देखत के प्रति भोरे।
जोइ जोई आवत वा मथुरा तें एक डार के से तोरे॥
यह, सखि, मैं पहले कहि राखी असित न अपने होंहीं।
सूर कोटि जौ माथो दीजै चलत आपनी गौं हीं॥८०॥

गोपियाँ अक्रूर से जितनी निराश हो चुकी थीं उतनी ही उद्धव के आने पर उनमें आशा बंधी थी लेकिन उद्धव से भी गोपियों के प्रयोजन की सिद्धि न हो सकी और दोनों एक ही सांचे में ढले हुए लगे । इनके सम्बन्ध में गोपियाँ परस्पर अपने ह्रदय की निराशा व्यक्त कर रही हैं ।

हे सखी ! अब अच्छी तरह समझ में आ गया कि जिनसे कुछ ह्रदय में आशा थी वह बात भी समाप्त हो गयी । अब तो इनसे आशा की बात करना बेकार है । अक्रूर के जाने पर गोपियों को उद्धव से बहुत बड़ी आशा थी कि वे श्री कृष्ण के दर्शन करने में सहायक होंगे लेकिन ये सब बातें निराशा में परिणित हो गयीं । वास्तव में हे सखी ! वे अक्रूर और ये उद्धव दोनों एक ही परंपरा के पोषक हैं । दोनों की रीतियों में कुछ भी अंतर नहीं है । अक्रूर तो उस समय हमारे श्री कृष्ण और बलराम को हमसे छीन कर ले गए और अब ये उद्धव श्री कृष्ण के प्रेम रुपी रत्न को हमसे छीन कर हमें मिट्टी अर्थात निर्गुण ब्रह्म उपासना पकड़ा रहे हैं । कहने का आशय यह है कि ये सगुण उपासना की जगह हमें निर्गुण की उपासना का पथ पढ़ा रहे हैं । ये ऊपर से तो बड़े ही सुशील और कोमल स्वभाव के प्रतीत होते हैं लेकिन ह्रदय से वज्र के समान कठोर और बड़े निर्दयी हैं । लोगों को इन्हें देख कर ऐसा लगता है कि कि ये बड़े भोले-भाले हैं , कुछ जानते ही नहीं । व्यंग्य ये है कि ये अत्यंत धूर्त और कठोर हैं । हमें तो ऐसा लगता है कि मथुरा से जो भी आते हैं सब एक ही पेड़ के तोड़े हुए फल के समान हैं अर्थात सभी का स्वभाव एक समान है । हे सखी ! हमारी बात को कोई माने या न माने हमने पहले ही बता रखा था कि काले वर्ण वाले कभी अपने सगे नहीं होते । इनका विश्वास कभी नहीं करना चाहिए क्योंकि काले श्याम , काले अक्रूर और काले उद्धव तीनों ही धोखेबाज निकले । सूर के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि यदि इन कालों के लिए अपने मस्तक भी कटवा दें अर्थात यदि इनके लिए हम अपने प्राण भी दे दें तो भी ये अपने दांव में लगे रहते हैं अर्थात ये बड़े ही अविश्वासी हैं ।

राग मलार

मधुकर रह्यो जोग लौं नातो।
कहति बकत बेकाम काज बिनु, होय न ह्याँ ते हातो।।
जब मिलि मिलि मधुपान कियो हो तब तू कह धौं कहाँ तो।
तू आयो निर्गुन उपदेसन सो नहिं हमैं सुहातो।।
काँचे गुन लै तनु ज्यों बेधौ ; लै बारिज को ताँतो।
मेरे जान गह्यो चाहत हौ फेरि कै मंगल मातो।।
यह लै देहु सुर के प्रभु को आयो जोग जहाँ तो।
जब चहिहैं तब माँगि पठैहैं जो कोउ आवत-जातो।।81

गोपियाँ उद्धव के ज्ञान-योग के उपदेश को बार-बार सुनकर परेशान हो रही हैं। अतः वे उद्धव से झल्लाती हुई कह रही हैं –

गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं – हे भ्रमर! यदि यह सही भी है कि कृष्ण ने ही हमारे लिए यह संदेशा भेजा है तो भी क्या यह सही है कि तुम्हारा सम्बन्ध योग तक ही सीमित है। हमें ऐसा प्रतीत हो रहा है कि तुम बिना काम के ही बातें बना रहे हो और हमारे बार-बार कहने पर भी यहां से दूर नहीं भाग जाते हो? हमने कृष्ण के साथ मधुपान किया है । अनेक प्रकार से रसपान किया है। जब हम इस रसपान में संलग्न थीं तब तुम कहाँ थे। उस समय हमें इस मार्ग से दूर करने के लिए क्यों नहीं आये थे। हे उद्धव जी ! तुम यहाँ हमें निर्गुण का उपदेश देने क्यों आये हो? यह तुम्हारा उपदेश हमें नहीं अच्छा लगता है। अतः तेरे द्वारा हमसे अपने निर्गुण उपदेश को स्वीकार करवा लेना । उसी प्रकार असम्भव है, जैसे कोई कच्चा धागा लेकर शरीर को भेदने का प्रयास करे। कच्चा धागा कमजोर होने के कारण शीघ्र ही टूट जाता है। उसका शरीर में प्रवेश कराना असम्भव है। हमें तुम्हारा यह प्रयत्न वैसा ही प्रतीत होता है जैसे कोई कमल के कोमल तन्तुओं द्वारा मदमस्त हाथी को बाँधकर उसे वशीभूत करने का प्रयत्न कर रहा हो। अतः हे उद्धव जी ! तुम कृपया यह करो कि इस योग को वहीं ले जाओ जहाँ से इसे लेकर आये हो। कारण वे ही इसका सही उपयोग जानते हैं। हमें फिलहाल तो इसकी आवश्यकता नहीं है; जब भी कभी होगी तो किसी आते जाते के हाथों मंगा लेते।

राग नट

मोहन माँग्यों अपनो रूप।
या व्रज बसत अँचै तुम बैठीं, ता बिनु यहाँ निरुप।।
मेरो मन, मेरो अली ! लोचन लै जो गए धुपधूप।
हमसों बदलो लेन उठि धाए मनो धारि कर सूप।।
अपनो काज सँवारि सूर , सुनु हमहिं बतावत कूप।
लेवा-देइ बरावर में है , कौन रंक को भूप।।82

उद्धव का विशेष आग्रह निर्गुणोपासना की ओर था। गोपियाँ उसी आग्रह को समझती हुई कह रही हैं सखियों समझ लो।

गोपियाँ कह रहीं हैं कि सखियाँ समझ लो कि उद्धव जी यहां निराकार की शिक्षा देने विशेष कारण से आये हैं। कृष्ण ने अपने रूप सौंदर्य को वापस माँगा है उस रूप को जिसे तुमने इस ब्रज में रहकर पी लिया है। तुम्हारे द्वारा रूप-पान कर लेने के कारण ही कृष्ण अब निरुप हो गए हैं। उसी निरूपता को साकार करने के लिए उन्होंने यह योग का उपदेश भेजा है। सखी की इस बात को सुनकर राधा कहती है कि हे सखी ! क्या तुम्हें पता नहीं है कि कृष्ण मेरा धुला-धुलाया रूप-विशुद्ध मन स्वयं चुराकर ले गए हैं। देखो तो सही कितना अन्याय है कि वे हमारे रूप को तो वापस नहीं करते और ऊपर से उल्टे योग की शिक्षा दे दी है। ये उद्धव है कि हाथ में सूप लेकर हमसे बदला लेने के लिए यहां आये हैं अर्थात अच्छी तरह से जांच-पड़ताल करके अपने लाभ की वस्तु को वापस लेना चाहते हैं। इस प्रकार से अपना काम तो सँवारना चाहते हैं किन्तु हमें कुँए में धकेल रहे हैं। सूरदास कहते हैं कि राधा ने कहा कि लेन-देन करने में सब बराबर होते हैं- कोई छोटा बड़ा नहीं होता है। राजा और रंक का कोई भी भेद यहाँ लेन-देन के मामले में नहीं चलता है। कृष्ण राजा है फिर भी अन्याय के पक्षधर क्यों बने हुए हैं? अपनी वस्तु को तो मांग रहे हैं किन्तु हमारी वस्तु को वापस ही नहीं करना चाहते हैं। भाव यह है कि यदि कृष्ण अपना रूप मांगते हैं तो हमारा वह मन भी तो लौटा दें जिसे वे यहां से चुराकर ले गए हैं।

राग नट

हरी सों भलो सो पति सीता को।
वन बन खोजत फिरे बंधु-संग किया सिंधु बीता को।।
रावन मारयो , लंका जारी, मुख देख्यो भीता को।
दूत हाथ उन्हैं लिखि न पठायो निगम-ज्ञान गीता को।।
अब धौं कहा परेखो कीजै कुब्जा के माता को।
जैसे चढ़त सबै सुधि भूली, ज्यों पीता चीता को ?
कीन्हीं कृपा जोग लिखि पठयो, निरख पत्र री ! ताको।
सूरदास प्रेम कह जानै लोभी नवनीता को।।83

विरह से ग्रसित गोपियां जब अपने दु:ख में कृष्ण की तरफ से सहानुभूति का एक कण न पा सकी तो अत्यंत दु:खी हो गई और उन्हें विरहानुभूति के क्षणों में सीता की याद हो आई।

गोपियां सोच रहीं हैं कि राम कितने अच्छे थे कि उन्होंने अपनी पत्नी के लिए अनेक कष्ट सहे परंतु आखिर उन्हें आखिर पाकर ही छोड़ा। इधर हमारे प्रिय कृष्णा कितने बुरे हैं कि प्रेम के बदले में योग का संदेश दे रहे हैं। इसी प्रश्न में वे सोचती विचारती कह रही हैं –हमारे कृष्ण से तो कहीं अधिक अच्छा पति सीता को मिला था कि उसकी खोज-खबर के लिए राम वन-वन अपने भाई के साथ खोजता फिरा। इतना ही क्यों इतना विशाल समुद्र उन्होंने अपनी प्रिया को पाने के निमित्त छोटा-सा बना डाला। भाव यह है कि सीता के लिए राम ने इतना किया कि समुद्र पर पुल तक तैयार कर दिया किंतु कोई भी वेदना महसूस नहीं की और इधर हमारे कृष्ण हैं कि करना-धरना तो दूर रहा उल्टे जलाने के लिए योग का संदेश और भेज रहे हैं। राम ने तो सीता के ही निमित्त रावण का वध किया; लंका दहन कराया और तब कहीं इतने कष्टों के बाद डरी हुई सीता का मुख देखा। सीता ने भी दूत के माध्यम से संदेश तो भेजा था किंतु वे कितने अच्छे थे कि कोई भी ज्ञान आदि का संदेश नहीं भेजा था। अब तो केवल कुब्जा का ही हाथ उनके ऊपर है कुब्जा के ही वश में हैं। वह इस क्षण कुब्जा के प्रेम में पूरी तरह संलग्न हैं और हमें तो इस प्रकार भूल गये हैं जैसे कोई पीने वाला मदिरा के नशे में सभी होश-हवास खो बैठता है? कृष्ण भी कुब्जा के प्रेम नशे में सभी कुछ भूल गए हैं। हे सखी ! हमारे ऊपर तो उन्होंने प्रेम के बदले में यह कृपा की है कि योग का संदेश लिख भेजा है। देख ! मैं सच कहती हूं, तू स्वयं ही इस पत्र को देख ले। वास्तविकता यह है कि वह तो केवल मक्खन का प्रेमी है । प्रेम की सारी स्थितियों से अनभिज्ञ लगता है कि ये तो उनमें से है जो मरने वालों की चिंता नहीं करते हैं और अपना कार्य करते रहते हैं।

राग सोरठ

निरमोहिया सों प्रीति कीन्हीं काहे न दुख होय ?
कपट करि-करि प्रीति कपटी लै गयो मन गोय।।
काल मुख तें काढ़ि आनी बहुरि दीन्हीं ढोय।
मेरे जिय की सोई जानै जाहि बीती होय।।
सोच, आँखि मँजीठ कीन्हीं निपट काँची पोय।
सूर गोपी मधुप आगे दरिक दीन्हों रोय।84

गोपियां प्रेम-योगिनियां सभी कुछ सहन कर सकती हैं केवल अपने प्रिय की उपेक्षा उन्हें सह्य नहीं है। वह सोचती हैं कि हर क्षण उपेक्षा सहन करना कठिन है। गोपियों को इस बात का भी दुख है कि उन्होंने कृष्ण जैसे निर्मोही और कलुष हृदय वाले से प्रेम किया ही क्यों। यदि ऐसा ना हो तो फिर परेशानी काहे की थी। इस प्रसंग में वे कह रही हैं।

निर्मोही व्यक्ति से प्रेम करने का परिणाम दुख के अतिरिक्त और क्या हो सकता है? अर्थात वह तो भोगना ही पड़ता है। कृष्णा तो इतने स्वार्थी और कपटी निकले कि पूरे छल और चातुर्य से उन्होंने हमसे प्रीति बढ़ाएं और उसी थोथी प्रीति के बहाने मन को चुराकर चलता बना। एक बार तो हम उनकी बातों में आ गई और हमें ऐसा प्रतीत हुआ मानो उसने हमें काल के मुख से निकाल लिया हो, परंतु आज उद्धव के माध्यम से आज योग की शिक्षा दिलाकर हमारी समस्त आशाओं पर पानी फेर दिया है। अब ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो वे हमें मौत के मुंह में धकेल रहे हैं। अतः आज उनके व्यवहार से हृदय में जो वेदना हुई है वह अनिर्वचनीय है। उस पीड़ा को तो वही जान सकता है जो भुक्तभोगी हो, जिसने प्रेममार्ग की पीड़ाओं को भोगा हो। गोपी कह रही हैं कि मैं तो व्यर्थ ही उनकी कच्ची प्रीति के कारण रो-रोकर अपनी आंखों को फोड़ती रही। सूरदास कहते हैं कि इन पश्चाताप की बातों को कहते हुए गोपी विशेष या राधा दहाड़ मारकर रो पड़ी। हमें दुःख तो इस बात का है कि हमने उनके पूर्णतः कच्चे प्रेम को ही पक्का प्रेम समझ लिया था उनके वियोग में आंखों को रो-रोकर के लाल रंग के समान कर लिया था । ठीक वैसे ही जैसे कच्ची गीली लकड़ियों को फूंक-फूंक कर अपनी आंखों को धूएँ से लाल कर कोई रोटी बनाने का प्रयत्न करें। ” इतना कहकर गोपियां निर्ममता से व्यथित होती हुई रो पड़ीं।

राग सारंग

बिन गोपाल बैरनि भई कुंजै।
तब ये लता लगति अति सीतल , अब भई विषम ज्वाल की पुंजै।।
बृथा बहति जमुना, खग बोलत, बृथा कमल फूलैं, अलि गुंजै।
पवन पानि घनसार संजीवनि दधिसुत किरन भानु भई भुंजै।।
ए , ऊधो , कहियो माधव सों बिरह कदन करि मारत लुंजै।
सूरदास प्रभु को मग जोवत आँखियाँ भई बरन ज्यों गुंजैं।85

संयोग में जो वस्तुएं आनंददायक प्रतीत होती हैं; वह वियोग काल में दुखदाई प्रतीत होने लगती हैं। कृष्ण के साथ जो कुंज बड़े-भले और सुंदर प्रतीत होते थे , वे ही अब कृष्णाभाव में बड़े कड़वे और कष्टदायक प्रतीत हो रहे हैं। इसी भाव की व्यंजना करती हुई गोपियाँ कह रही है –

कृष्ण के साथ ये कुञ्ज बड़े सुखद और आनंद प्रद प्रतीत होते थे किन्तु अब उनके बिना रस-युक्त क्रीड़ाओं के आधार कुंज भी हमारे लिए शत्रु बन गए हैं। संयोग काल में ये लताएं बड़ी शीतल लगती थी और उनके विरह में ये कठोर लपटों के समान बन गई हैं। वह कहती हैं कि कृष्णा की उपस्थिति में तो सभी की सार्थकता है किंतु उनके बिना यमुना का जल बहना भी व्यर्थ प्रतीत होता है। इतना ही क्यों पक्षियों का कलरव भी महत्वहीन प्रतीत होता है। कमल व्यर्थ ही बोलते हैं और यह भ्रमर व्यर्थ ही गुलजार करते फिरते हैं। शीतल पवन, कपूर एवं संजीवनी, चंद्र किरणें अब सूर्य के समान जला डालती हैं। भावार्थ यह है कि पवन की शीतलता अब दाहक बन गई है। हे उद्धव ! तुम माधव से जाकर कहना कि विरह की कटार हमें काटकर लंगड़ा बना रही है। सूर कहते हैं कि गोपियों ने कहा कि, हे उद्धव! प्राणेश कृष्ण की प्रतीक्षा करते – करते यह आंखें गुंजा के समान लाल हो गई हैं।

राग नट

सँदेसो कैसे कै अब कहौं ?
इन नैनन्ह तन को पहरो कब लौं देति रहौं ?
जो कछु बिचार होय उर -अंतर रचि पचि सोचि गहौं।
मुख आनत ऊधौं-तन चितवन न सो विचार, न हौं।।
अब सोई सिख देहु, सयानी ! जातें सखहिं लहौं।
सूरदास प्रभु के सेवक सों बिनती कै निबहौं।।86

कृष्ण ने प्रेम मार्ग की निष्ठुरता का परिचय दिया है और गोपियां उनकी निष्ठुरता को सहन नहीं कर पा रही हैं। उन्हें सबसे अधिक इस बात की चिंता है कि कृष्ण ने प्रेम का उत्तर प्रेम से देने की अपेक्षा योग का संदेश दिया है और वह भी उद्धव जैसे प्रेम – भावना से विहीन  व्यक्ति के द्वारा एक गोपी अपनी इसी दुविधा को व्यक्त करते हुए अपनी सहेली से कह रही है-

अब मैं कृष्ण के लिए संदेश किस प्रकार भेजूं अर्थात विचारणीय यह है कि ऐसे पत्थर दिल व्यक्ति को संदेश भेजना उचित भी है या नहीं।मैं अपने इस तन पर नेत्रों का पहरा कब तक लगाती रहूँ। भाव यह है कि कृष्ण वियोग में पहले से ही क्षीण हुआ यह मेरा शरीर अब इस निष्ठुर योग संदेश को सुनकर जीवित नहीं रहना चाहता है किंतु ये नेत्र हैं कि अभी तक यह आस लगाए बैठे हैं कि कृष्ण के दर्शन अवश्य होंगे। यही कारण है कि मेरे शरीर पर निरंतर पहरा लगाते रहते हैं। मैं चाहूं भी तो मुझे प्राण छोड़ने नहीं देते हैं। गोपी कहती हैं कि कभी मेरे हृदय में कृष्ण को संदेश देने की बात उठती है तो भी मैं बहुत सोच-विचार कर और मन मार कर रह जाती हूं। कारण यह है कि जिस व्यक्ति ने हमें योग का संदेश भेजा है उसके लिए संदेश-प्रेम-संदेश किस बल पर भेजा जाए। इतने पर भी यदि हिम्मत करके मैं कुछ कहना चाहती हूं; संदेश की बात मेरे मुख तक आ जाती है। मैं उसे कहना चाहती हूं कि, इन उद्धव की निगाह जाते ही न मेरे वे विचार ही रहते हैं और न मैं ही। भाव यह है कि योग का संदेश भेजने वाले कृष्ण के मित्र इन उद्धव को देखकर ही मैं कर्त्तव्य पूर्ण हो जाती हूँ कि इतने निष्ठुर और हृदय हीन व्यक्ति के द्वारा मैं अपना संदेश कैसे भेजूं? इन्हें देखने देखते ही वे संपूर्ण विचार गायब हो जाते हैं और मैं संज्ञाहीन सी हो जाती हूँ। मन में आए संपूर्ण विचार बिखर जाते हैं और उनके बिखरते ही अपनी सभी सुधि-बुधि भूल जाती हूं। अतः हे सखी अब तो कोई ऐसी सलाह दो जिससे कि मैं कृष्ण को प्राप्त कर सकूं । सूरदास कहते हैं कि गोपी अपनी सखियों से पूछने लगी कि , यह जो कृष्ण का मित्र उद्धव आया है, इससे किस ढंग से प्रार्थना की जाए अर्थात किस रीति से उद्धव जी को समझा-बुझाकर यह तय किया जाए कि हमें तुम कृष्ण के दर्शन करा दो और अपनी इस योग-चर्चा को बंद कर दो।

राग कान्हरो

बहुरो ब्रज यह बात न चाली।
वह जो एक बार ऊधो कर कमलनयन पाती दै घाली।।
पथिक ! तिहारे पा लगति हौं मथुरा जाब जहां बनमाली।
करियो प्रगट पुकार द्वार ह्वै ‘कालिंदी फिरि आयो काली’।।
जबै कृपा जदुनाथ कि हम पै रही, सुरुचि जो प्रीति प्रतिपाली।
मांगत कुसुम देखि द्रुम ऊँचे, गोद पकरि लेते गहि डाली।।
हम ऐसी उनके केतिक हैं अग-प्रसंग सुनहु री, आली !
सूरदास प्रभु रीति पुरातन सुमिरि राधा-उर साली।।87

इस पद में उस समय का वर्णन किया गया है, जब उद्धव संदेश देकर वापस में मथुरा चले गए हैं और उसके बाद भी गोपियों की परेशानी दूर नहीं हुई है। उस समय राधा व्याकुल हो उठी और किसी पथिक के द्वारा कृष्ण तक संदेश भेजने के लिए तैयार हो गई हैं।

गोपियां पथिक को संबोधित करते हुए कह रही हैं कि हे पथिक! हे उद्धव ! ब्रज में उद्धव के अलावा कोई भी अन्य संदेशवाहक नहीं आया है जिसने कृष्ण विषयक कोई भी बात कही हो। परिणामतः कृष्ण की कोई भी चर्चा सुनने को नहीं मिली है। अतः राधा पथिक के पैरों को पड़ती हुई कह रही हैं कि हे राहगीर! मैं तेरे चरण छूती हूं , आप कृपा करके वहां चले जाइए। जहां वनमाली कृष्ण निवास करते हैं। वह आगे कह रहीं हैं कि तुम उनके दरवाजे पर पहुंचकर दूर से ही इस प्रकार पुकारना कि हे प्रभु! यमुना में फिर से काली नाग आकर रहने लगा है। बहुत संभव है कि कृष्ण इस बात को सुनकर पूर्व की भांति उसे मारने के लिए ही जाएं। हमें पूर्ण विश्वास है कि हमारी उनकी प्रीति की पुरातनता उन्हें यहां आने के लिए विवश कर देगी । तुम अच्छी तरह समझ लो कि कृष्ण जब यहां रहा रहते थे तब वे सदैव कृपा किया करते थे। उनका प्रणय-भाव पूरी ‘सुरुचि’ के साथ हमें सदैव प्राप्त होता रहता था। जब हम किसी वृक्ष पर ऊंचाई पर लगा हुआ पुष्प मांगती थी तो कृष्ण हमें गोद में उठा लेते थे और हम डाली पकड़कर उस अभीष्ट फल या फूल को तोड़ लेती थीं। ऐसी प्रीति थी तब हमें विश्वास है कि वे हमारे कष्टों को सुनकर अवश्य ही आएंगे।”  हे सखी! हम जैसी उनके कितनी ही प्रेयसी ना होंगी। अतः हे सखी ! ध्यान से सुन लो! हमारे पास कृष्ण विषयक अनेक कथाएं और कथाएं मौजूद हैं । सूरदास कह रहे हैं कि इस प्रकार राधा और कृष्ण के उन विगत प्रेम भरे व्यवहारों को याद कर करके अत्यंत विह्वल होने लगी कृष्ण की स्मृतियां उन्हें पीड़ित करने लगी।

राग गौरी

ऊधो ! क्यों राखौं ये नैन ?
सुमिरि सुमिरि गुन अधिक तपत हैं सुनत तिहारो बैन।।
हैं जो मन हर बदनचंद के सादर कुमुद चकोर।
परम-तृषारत सजल स्यामघन के जो चातक मोर।
मधुप मराल चरनपंकज के, गति-बिसाल-जल मीन।
चक्रबाक, मनिदुति दिनकर के मृग मुरली आधीन।।
सकल लोक सूनी लागतु है बिन देखे वा रूप।
सूरदास प्रभु नंदनंदन के नखसिख अंग अनूप।।88

गोपियां कृष्ण के वियोग में व्यथित हैं और वे अनेक युक्तियों से नेत्रों की दयनीय स्थिति का वर्णन कर रही हैं कि कृष्ण के बिना इनकी दशा दिनों दिन बिगड़ती जा रही है।

गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि उद्धव हम अपने नेत्रों को किस प्रकार और किस लिए समझाएं । हमें कृष्ण की ओर से कोई आशा भी तो नहीं जगती प्रतीत नहीं होती है। एक तो ये आपकी कठोर वाणी सुनते ही श्री कृष्ण के गुणों का स्मरण करके संतप्त होने लगते हैं । हमारे ये नेत्र श्री कृष्ण के अंग – प्रत्यंग के उपासक हैं । ये कृष्ण के सुंदर मुखचंद के लिए कुमुद और चकोर हैं, जिन्होंने निरख-निखरकर ही विकास करना सीखा है। यह उसी ओर टकटकी लगाकर देखते रहने में ही संतोष लाभ करते हैं। यह हमारे नेत्र उन सजल घनश्याम की रूप-माधुरी के लिए परम प्यासे मयूर और चातक हैं तथा उनके चरण कमलों पर अटल अनुराग करने वाले यह भ्रमर और हंस हैं। यदि श्री कृष्ण की मनोहर चाल गति रूप जल प्रवाह है तो हमारे नेत्र उसी जल प्रवाह में आनंद मग्न रहने वाले मीन अर्थात मछली हैं । कृष्ण के कानों में चमकते हुए कुण्डलों को देख कर ये नेत्र सूर्यकांत मणि और चक्रवाक पक्षी ही तो हैं और उन्हीं के समान प्रसन्न हो जाते हैं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार जैसे  सूर्य की प्रभा को देख कर चक्रवाक पक्षी प्रसन्न होता है और सूर्यकांत मणि सूर्य की प्रभा से द्रवित होती है और उनकी मधुर मुरली के स्वरों के लिए ये मृग हैं। इस प्रकार हमारे नेत्र उनकी प्रत्यंग व्यापिनी माधुरी मूर्ति पर पूरी तरह मोहित हैं। यदि वह कृष्ण का रूप इन्हें नहीं दिखता है, तो इन्हें सारा संसार सूना प्रतीत होता है। सूरदास कहते हैं कि कृष्ण का समस्त रूप सौंदर्य अप्रतिम है- उसकी कोई तुलना ही नहीं है अर्थात अद्वितीय है। यदि इन्हें इतना सौंदर्य प्राप्त ना होता तो संसार का सौंदर्य ही इसके बिना फीका होता। वस्तुतः वही सौंदर्य तो सांसारिक सौंदर्य का मूल है, उसकी स्थिति से ही समस्त सौंदर्य सुंदर होता है अगर वह नहीं तो यह समस्त सौंदर्य शुष्क और नीरस है।

राग मलार

सँदेसनि मधुबन-कूप भरे।
जो कोउ पथिक गए हैं ह्याँ तें फिरि नहिं अवन करे।।
कै वै स्याम सिखाय समोधे कै वै बीच मरे ?
अपने नहिं पठवत नंदनंदन हमरेउ फेरि धरे।।
मसि खूँटी कागद जल भींजे, सर दव लागि जरे।
पाती लिखैं कहो क्यों करि जो पलक-कपाट अरे ?89

इस पद्य में एक गोपी श्री कृष्ण की निष्ठुरता का वर्णन कर रही है।

गोपियाँ कृष्ण के वियोग में पूर्णतः दुखी जीवन बिता रही थीं। उन्होंने एक बार नहीं बल्कि कई बार श्री कृष्ण को संदेश भेजा कि कृष्ण हमेशा के लिए न सही कम से कम एक बार तो आ जाएं पर कृष्ण ने तो पूरी निष्ठुरता धारण कर ली है। वे आये ही नहीं। इस संदर्भ में एक गोपी कह रही है – संदेशों से मथुरा का सारा कुआं भर गया है। हमने अनेक संदेश भेजे हैं किन्तु एक का भी कोई उत्तर नहीं आया है। हमने जिन पथिकों के माध्यम से कृष्ण के पास संदेश भेजा है वे भी दुबारा लौटकर नहीं आये हैं। न जाने क्या कारण है जिससे वे आये ही नहीं हैं। हमें तो ऐसा प्रतीत होता है कि या तो उन्हें कृष्ण ने समझा – बुझा दिया है जिससे वे दुबारा लौटकर नहीं आये हैं या फिर कहीं रास्ते में ही उनके प्राण निकल गए हैं। गोपियाँ कहती हैं कि आश्चर्य की बात यह है कि वे अपने संदेश वाहकों को तो भेजते ही नहीं हैं हमारे भी अपने पास रख लिए हैं। भाव यह है कि समझा – बुझाकर उन्हें भी जैसे-तैसे कर समझा दिया है परिणामतः वे आये ही नहीं हैं। उस कृष्ण को पत्र लिखते – लिखते भी हम परेशान हो गई हैं। सभी स्याही समाप्त हो गयी है और कागज भी अश्रु जल से भीग गया है। इतना ही नही बल्कि सरकंडे जिनसे कलम बनती थी वे भी समाप्त हो गई हैं। अतः अब तो स्थिति बहुत ही विचित्र हो गई है। अब चिट्ठी कैसे लिखी जा सकती है क्योंकि हमारे नेत्रों के पलक रूपी किवाड़ बंद हो गए हैं। भाव है कि साधनों के अभाव के कारण पत्र लिखने और संदेश भेजने में बाधा पहुँच रही है।

राग नट

नंदनंदन मोहन सों मधुकर ! है काहे की प्रीति ?
जौ कीजै तौ है जल, रवि औ जलधर की सी रीति।।
जैसे मीन, कमल, चातक, को ऐसे ही गई बीति।
तलफत, जरत, पुकारत सुनु, सठ ! नाहिं न है यह रीति।।
मन हठि परे, कबंध जुध्द ज्यों, हारेहू भइ जीति।
बँधत न प्रेम-समुद्र सूर बल कहुँ बारुहि की भीति।।90

इस पद में गोपियाँ कृष्ण की निष्ठुरता पर व्यंग्य कर रही हैं ।

उद्धव के वचन को सुनकर गोपियों को जो कष्ट हुआ वह बताया नहीं जा सकता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि कृष्ण का व्यवहार गोपियों के प्रति निष्ठुरतापूर्ण था। इसी निष्ठुरता पर व्यंग्य करती हुई गोपियों कह रहीं हैं कि हे भ्रमर ! नंदनंदन कृष्ण से हमारी प्रीति किस बात की है। भाव यह है कि वे हमें प्रेम ही नहीं करते हैं। उनसे जो भी प्रेम करता है वह पछताता रहता है। कारण कृष्ण का व्यवहार तो अपने प्रियजनों के प्रति उसी प्रकार का है जैसा कि जल, सूर्य और बादल का । जल से मछली प्रेम करती है, सूर्य से कमल और बादल से चातक प्रेम करता है पर इन प्रेम करने वालों की स्थिति ऐसी है कि स्वयं तो प्रेम में तड़पते रहते हैं और अपने प्रिय से कुछ प्रेम भी प्राप्त नहीं करते। जल के अभाव में मछली तड़पती रहती है। सूर्य के अभाव में कमल जलकर ही चैन पाता है – अर्थात विनष्ट हो जाता है। इसी प्रकार बादल के बिना चातक पी-पी की पुकार लगाता रहता है। हे शठ ! हे मूर्ख भ्रमर! तू इस बात को अच्छी तरह समझ ले कि प्रेम का यह नियम नहीं है। प्रेम तो दोनों ओर से होता है। कोई उसे एक ओर से निभाना चाहे तो वह सम्भव नही है। अतः प्रेम का यह नियम नहीं है जो तुम या तुम्हारे आराध्य अपना रहे हो। मीन, कमल और चातक अपने मन से प्रेम करते हैं और उनके मर जाने पर प्रिय को प्राप्त करने में असफल हो जाने पर भी उसकी जीत ही मानी जानी चाहिए। योद्धा युद्ध में लड़ते हैं फिर लड़ते – लड़ते उनका सिर कट जाता है तो उनका धड़ ही लड़ता रहता है। यह उनकी निष्ठा है और इसी कारण उसके निमित्त उन्हें प्रतिष्ठा या सम्मान की प्राप्ति होती हैं। मछलियाँ और चातक आदि भी अपनी प्रेमजनित निष्ठा के कारण ही ऐसी प्रतिष्ठा प्राप्त करते हैं। सूरदास कहते हैं कि गोपियों ने उद्धव से कहा कि हे उद्धव ! प्रेम का सागर कहीं बालू या रेत की दीवार के द्वारा वश में किया जा सकता है। भाव यह है कि यह सम्भव नहीं है तो हमारा व्यक्तित्व भी इसे कैसे सम्पन्न करे। तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म का उपदेश हमारे हृदयों में प्रवाहित प्रेम के सागर को कैसे बाँध सकता है। इतने पर भी यदि तुम यही समझते हो कि यह सम्भव है तो यह तुम्हारा भ्रम है। गोपियाँ यह कहना चाहती हैं कि हम अपने प्रेम-मार्ग से पूर्णतः दृढ़ता से सलग्न हैं। उसमें कोई भी कमजोरी नहीं है।

राग नट 

मधुबनियाँ लोगनि को पतिआय?
मुख औरै अंतर्गत औरै पतियाँ लिखि पठवत हैं बनाय॥
ज्यों कोइलसुत काग जिआवत भाव-भगति भोजनहिं खवाय।
कुहकुहाय आए बसंत ऋतु, अंत मिलै कुल अपने जाय॥
जैसे मधुकर पुहुप-बास लै फेरि न बूझै वातहु आय।
सूर जहाँ लौं स्यामगात हैं तिनसों क्यों कीजिए लगाय?॥९१॥

इसमें गोपियों ने मथुरा वालों के प्रति कटाक्ष किया है और उद्धव से बताया कि मथुरा के रहने वाले तो सभी अविश्वसनीय हैं लेकिन जो श्याम वर्ण वाले उद्धव , अक्रूर और श्री कृष्ण हैं वे विशेष रूप से धोखेबाज हैं ।

हे उद्धव ! मथुरा वालों का कौन विश्वास करे ? ये बड़े धोखेबाज होते हैं , इनके मुख में कुछ होता है और मन में कुछ और अर्थात ये मनसा , वाचा एक नहीं हैं । इनकी कथनी और करनी में अंतर है। ये बनावटी और झूठी चिट्ठियां लिख कर भेजा करते हैं । इनके कपट का नमूना तो इस प्रकार है जैसे कौआ कोयल के बच्चे को प्रेमपूर्वक भोजन खिलाकर जीवित रखता है , उनका बड़े प्यार से पोषण करता है लेकिन बसंत आगमन के समय वह कोयल का बच्चा कूकने लगता है और अंततः अपने कोयल कुल में जा कर मिल जाता है फिर उसे कौए की याद नहीं रह जाती। श्री कृष्ण ने भी ऐसा ही किया । बेचारे नन्द और यशोदा ने इनका बचपन में पालन – पोषण किया लेकिन जब बड़े हुए अर्थात जब यौवनावस्था को प्राप्त हुए तो जाकर अपने कुल तथा वंश वासुदेव और देवकी में मिल गए और नन्द – यशोदा को भूल गए । जिस प्रकार भ्रमर पुष्प की सुगंध ग्रहण करने के बाद , पुष्पों के मकरंद और परआग का रास लेने के बाद फिर उनसे बात भी नहीं करता । उसी प्रकार श्री कृष्ण ने हमारे प्रेम का रास लेने के पश्चात् हमें याद भी नहीं किया । सूर के शब्दों में गोपियों का उद्धव से कथन है की जहाँ तक श्याम वर्ण की बात है इनसे प्रेम सम्बन्ध कभी भी नहीं करना चाहिए क्योंकि ये श्रीकृष्ण , अक्रूर और उद्धव सभी अविश्वसनीय हैं ।

राग नट 

हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर जो? समाचार कछु पाए?
इक अति चतुर हुते पहिले ही, अरु करि नेह दिखाए।
जानी बुद्धि बड़ी, जुवतिन को जोग सँदेस पठाए॥
भले लोग आगे के, सखि री! परहित डोलत धाए।
वे अपने मन फेरि पाइए जे हैं चलत चुराए॥
ते क्यों नीति करत आपुन जे औरनि रीति छुड़ाए?
राजधर्म सब भए सूर जहँ प्रजा न जायँ सताए॥९२॥

गोपियों के पास श्री कृष्ण ने योग – सन्देश भेजा है । इस से अब गोपियों के मन में किसी भी प्रकार की शंका नहीं रह गयी है कि श्री कृष्ण राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं । प्रस्तुत पद में उनके दांव पेंचों का संकेत किया गया है ।

हे सखियों ! जरा देखो तो श्री कृष्ण अब राजनीति शास्त्र के ज्ञाता हो गए और मथुरा जाते ही ऐसे छल और कपटपूर्ण व्यवहार करने लगे। क्यों सखियों ! जो बात उद्धव जी कह रहे हैं क्या उन्हें तुम सबों ने कुछ समझा अर्थात राजनीति शास्त्र पढ़ने के बाद उन्होंने जो बातें उद्धव द्वारा भेजी हैं क्या वे तुम्हारी समझ में कुछ आयीं ? क्या तुम्हें उनके राजनीति विशारद होने और इस प्रकार योग सन्देश भेजने का कुछ समाचार मिला ? एक तो श्री कृष्ण पहले ही बहुत चतुर थे , दूसरे गोपियों से जो प्रेम व्यवहार किया उसमें भी अपनी चतुराई दिखाई । आशय यह है कि वे बनते बड़े होशियार हैं लेकिन जो काम किया उसमें उनकी अज्ञानता ही झलकती है । उनकी बुद्धि का परिचय तो इसी में मिल गया कि उन्होंने ब्रज की युवतियों को योग साधना का सन्देश भिजवाया है । भला युवतियां योग की साधना कैसे कर सकती हैं ? युवतियां और योग दोनों में कितना अंतर है ? क्या ऐसे सन्देश के द्वारा श्री कृष्ण की अज्ञानता प्रकट नहीं होती ? अरी सखी ! पहले के लोग कितने भले और सज्जन होते थे जो दूसरों के के लिए बराबर घूमते – फिरते थे और एक कृष्ण को देखो जो दूसरे के मन को चोरी किये फिरते हैं । नीति तो यही है कि गोपियों अपने वे मन मिल जाएं जिन्हें श्री कृष्ण चुराए फिर रहे हैं और देना ही नहीं चाहते हैं। जो दूसरों की मर्यादा और रीति को समाप्त करने में लगे हैं वे नीति और धर्म का पालन क्यों करने लगे अर्थात जो गोपियों को प्रेम मार्ग से हटा कर के योग मार्ग पर लगाने का प्रयत्न करते हैं वे नीति को स्वयं कैसे ग्रहण करेंगे । वे क्या नीति और धर्म का पालन करते होंगे जो दूसरे को अच्छी नीति से हटाकर बुरु नीति पर लगाना चाहते हैं । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि राजधर्म अर्थात राजा का धर्म और कर्त्तव्य तो वहीँ देखा जाता है जहाँ प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट न हो । जहाँ राजा के धर्म से प्रजा दुखी है , उसे राजधर्म की सच्ची संज्ञा नहीं दी जा सकती ।92

राग नट 

जोग की गति सुनत मेरे अंग आगि बई।
सुलगि सुलगि हम रही तन में फूँक आनि दई॥
जोग हमको भोग कुब्‌जहिं, कौने सिख सिखई?
सिंह गज तजि तृनहिं खंडत सुनी बात नई॥
कर्मरेखा मिटति नाहीं जो बिधि आनि ठई।
सूर हरि की कृपा जापै सकल सिद्धि भई॥९३॥

उद्धव द्वारा बार – बार योग की रीतियों को सुनकर गोपियाँ नाराज हो जाती हैं और कहने लगती हैं कि हे उद्धव ! तुम्हारी इस योग चर्चा से तो हमारे अंग में आग लग गयी ।

व्याख्या – हे उद्धव ! तुम्हारी इन योग रीतियों को , योग साधना विषयक इन बातों को तो सुनते ही हम लोगों के अंग – प्रत्यंग में आग लग गयी । हमारा अंग – अंग वियोग के ताप से जलने लगा । हम तो वियोगाग्नि से पहले ही धीरे – धीरे सुलगती रहीं किन्तु तुमने तो आकर योग – चर्चा रुपी फूंक से उस आग को और उदीप्त कर दिया । तुम हमारे लिए तो योग साधन का सन्देश देते हो और कुब्जा को भोग की ओर प्रवृत्त करते हो । यह शिक्षा तुम्हे किसने दी ? आज एक नयी बात सुनने को मिल रही है वह यह कि सिंह हाथी को छोड़ कर तिनके तोड़ रहा है । ठीक इसी प्रकार गोपियों को योग साधना की ओर प्रवृत्त करना भी असंभव है – प्रकृति के विरुद्ध है । हे उद्धव ! ब्रह्मा ने जो भाग्य की रेखाएं बनाई हैं वे मिटती नहीं अर्थात भाग्य में जो लिखा है उसे भोगना ही है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि भगवान की कृपा जिस पर होती है उसे समस्त सिद्धियों की प्राप्ति हो जाती है ।

राग धनाश्री

ऊधो! जान्यो ज्ञान तिहारो।
जानै कहा राजगति-लीला अंत अहीर बिचारो॥
हम सबै अयानी, एक सयानी कुबजा सों मन मान्यो।
आवत नाहिं लाज के मारे, मानहु कान्ह खिस्यान्यो[१]॥
ऊधो जाहु बाँह धरि ल्याओ सुन्दरस्याम पियारो।
ब्याहौ लाख, धरौं[२] दस कुबरी, अंतहि कान्ह हमारो॥
सुन, री सखी! कछू नहिं कहिए माधव आवन दीजै।
जबहीं मिलैं सूर के स्वामी हाँसी करि करि लीजै॥९४॥

गोपियाँ उद्धव के ज्ञान की आलोचना करती हुयी श्री कृष्ण के व्यवहारों की निंदा कर रही हैं और उन्हें यह विश्वास है कि अहीर होने के नाते श्रीकृष्ण मथुरा की राजनीति को क्या समझें ? इसमें गोपियों के उपहास और व्यंग्य के अंतर्गत उनकी संवेदनशीलता और कृष्ण के प्रति सहज अनुरक्ति का भाव अन्तर्निहित है ।

हे उद्धव ! अब तुम्हारे ज्ञान को हमने समझ लिया । तुम्हारी चतुराई पकड़ ली । यह निर्गुण ज्ञान जो तुम हम सबको दे रहे हो वह श्री कृष्ण द्वारा भेजा गया नहीं है । यह सब तुमने स्वयं सोच समझ कर हमारे समक्ष रखा है । हमारा कृष्ण तो अंततः अहीर ही है । भोला – भाला , अज्ञानी । वह इस प्रकार की राजनीति को क्या समझे । तुम्हारी दृष्टि में हम सभी गोपियाँ अज्ञानी थीं और एक मात्र कुब्जा ही चतुर और बुद्धिमान थी इसी कारण श्री कृष्ण ने हमें छोड़ कर चतुर कुब्जा का वरण किया । लगता है कुब्जा से प्रेम करने पर उन्हें दुःख हुआ । वे अत्यंत लज्जित हैं क्योंकि कुब्जा से प्रेम तो तुमने करवाया था और उन्हें इस जाल में फंसा दिया । अब वे अपनी इस गलती को अनुभव कर के लज्जित हैं इसलिए यहाँ मुँह नहीं दिखाना चाहते लेकिन उद्धव जी आप प्रिय श्याम सुन्दर के हाथ को पकड़ कर हमारे पास ले आवें हम उनकी इस भूल की कुछ भी निंदा नहीं करेंगी । वे भले ही लाखों विवाह कर लें । एक नहीं 10 कुबरी ले आएं। हमें इसका लेशमात्र भी दुःख नहीं है क्योंकि हम सब यह जानती हैं कि अंततः श्री कृष्ण हमारे ही हैं । यहाँ गोपियों के एकनिष्ठ प्रेम भाव का निरूपण है । गोपियाँ इसके पश्चात् अपनी सखियों से कहने लगीं – हे सखी ! सुनो अभी तो श्री कृष्ण को आने दो , उन्हें कुछ मत कहो । हाँ,  जब वे यहाँ आ जाएं तो इस अज्ञानता का बोध करने के लिए उनसे कुछ हंसी – मजाक करके अपने मन को अंतुष्ट कर लेना ।

राग केदारो

उर में माखनचोर गड़े।
अब कैसहु निकसत नहिं ऊधो! तिरछे ह्वै जो अड़े॥
जदपि अहीर जसोदानंदन तदपि न जात छड़े।
वहाँ बने जदुबंस महाकुल हमहिं न लगत बड़े॥
को बसुदेव, देवकी है को, ना जानैं औ बूझैं।
सूर स्यामसुन्दर बिनु देखें और न कोऊ सूझैं॥९५॥

श्री कृष्ण की त्रिभंगी मुद्रा के प्रति गोपियों का ऐसा अनुराग है कि उसे किसी प्रकार विस्मृत नहीं किया जा सकता । अपनी यह विवशता गोपियाँ उद्धव जी को बतला रही हैं ।

गोपियाँ श्री कृष्ण के त्रिभंगी रूप का ध्यान ह्रदय से न निकलने का कारन उद्धव से बताती हुई कह रही हैं – हे उद्धव ! हमारे ह्रदय में मक्खन चोर श्री कृष्ण का त्रिभंगी रूप ऐसा गड़ गया है , ऐसा चुभ गया है जो निकालने पर भी किसी प्रकार नहीं निकल पा रहा है । आशय यह है कि वे टेढ़े ढंग से ह्रदय में अड़ गए हैं ( त्रिभंगी रूप में – तीन जगह से टेढ़े रूप में ह्रदय में धंसे हैं , सीधी वस्तु में टेढ़ी वस्तु – वह भी यदि तीन जगह से टेढ़ी हो – अटक जाये तो उसे निकालना अति कठिन बात है । उसी प्रकार सरल ह्रदय में त्रिभंगी मूर्ति ऐसी अड़ गयी है कि उसे निकाला कैसे जाये ? यद्यपि आपके कथनानुसार वे यशोदा के पुत्र और अहीर हैं फिर भी हमारा उनसे ऐसा प्रेम है कि उन्हें छोड़ते नहीं बनता । हमारे लिए वे सब कुछ हैं आप भले ही उन्हें साधारण मानें । मथुरा में जाकर वे भले ही महान यदुवंश के राजा बन गए हों लेकिन उनका यह गौरवपूर्ण पद हमें अच्छा नहीं लगता । हमें तो उनका वह अहीर जाति का ही रूप मोहक है । हम सब यह नहीं जानतीं और नहीं समझतीं कि वसुदेव और देवकी कौन हैं ? हम उन्हें नन्द और यशोदा के पुत्र के रूप में ही देखती हैं । श्री कृष्ण का यही रूप हम लोगों के ह्रदय में बस गया है । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! हमें श्याम सुन्दर के रूप को देखे बिना अन्य कुछ भी दिखाई नहीं देता । हमें उनके बिना कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है । 95

राग सारंग

गोपालहिं कैसे कै हम देति?
ऊधो की इन मीठी बातन निर्गुन कैसे लेति?
अर्थ, धर्म, कामना सुनावत सब सुख मुकुति-समेति।
जे व्यापकहिं बिचारत बरनत निगम कहत हैं नेति॥
ताकी भूलि गई मनसाहू देखहु जौ चित चेति।
सूर स्याम तजि कौन सकत है, अलि, काकी गति एति॥९६॥

गोपियाँ उद्धव को सुनती हुयी कह रही हैं कि उद्धव की इन मीठी बातों में पड़ कर कौन गोपाल की उपासना अर्थात सगुणोपासना को छोड़ सकता है ? गोपियाँ किसी भी रूप में सगुणोपासना का त्याग निर्गुणोपासना के लिए नहीं कर सकतीं ।

गोपियाँ परस्पर कह रही हैं – हे सखी ! हम सब गोपाल को कैसे दे सकती हैं ? और उद्धव की इन चापलूसी भरी मीठी – मीठी बातों पड़ कर गोपाल को देकर अर्थात उनकी उपासना को छोड़ कर कौन निर्गुण ब्रह्म की उपासना को ग्रहण करेगा ? अरी सखी ! जो उद्धव मुक्ति सहित धर्म, अर्थ और काम की साधना से सब सुखों की प्राप्ति की बात करते हैं और जो ब्रह्म की व्यापकता पर सदैव विचार करते हैं और उसका निरूपण करते फिरते हैं जिसे वेद नेति – नेति ( अर्थात जिसका अंत नहीं है जो अनंत है ) कहते हैं , उनकी भी बुद्धि यदि विचार करके देखे तो चकरा जाती है । वे निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में कुछ नहीं कह पाते हैं । अतः ऐसी दशा में श्री कृष्ण को छोड़ने में कौन समर्थ हो सकता है । सूर के शब्दों में गोपिया उद्धव से कह रही हैं कि हे भ्रमर ( उद्धव ) ! किसकी इतनी गति या क्षमता हैं जो उस निर्गुण के लिए अपने सगुन गोपाल को त्याग दे ।

राग गौरी

उपमा एक न नैन गही।
कबिजन कहत कहत चलि आए सुधि करि करि काहू न कही॥
कहे चकोर, मुख-बिधु बिनु जीवन; भँवर न, तहँ उड़ि जात।
हरिमुख-कमलकोस बिछुरे तें ठाले क्यों ठहरात?
खंजन मनरंजन जन जौ पै, कबहुँ नाहिं सतरात।
पंख पसारि न उड़त, मंद ह्वै समर-समीप बिकात॥
आए बधन ब्याध ह्वै ऊधो, जौ मृग, क्यों न पलाय?
देखत भागि बसै घन बन में जहँ कोउ संग न धाय॥
ब्रजलोचन बिनु लोचन कैसे? प्रति छिन अति दुख बाढ़त।
सूरदास मीनता कछू इक, जल भरि संग न छाँड़त॥९७॥

इस पद में गोपियों का कथन है कि उनके नेत्रों के सम्बन्ध में जो भी उपमाएं दी गयीं वे सब की सब अनुपयुक्त और झूठी हैं । इसका कारण बताती हुयी कह रही हैं।

गोपियों के कथनानुसार नेत्रों की एक भी उपमा उपयुक्त प्रतीत नहीं हुयी । हमारे नेत्रों ने कवियों द्वारा दी गयी किसी भी उपमा को ग्रहण नहीं किया । किसी भी उपमान को उपयुक्त नहीं समझा । यद्यपि परम्परानुसार कविगण नेत्रों की उपमाएं देते चले आये हैं किन्तु विचारपूर्वक किसी भी कवि ने नेत्रों के उपयुक्त उपमान नहीं चुना । कवियों ने इन नेत्रों की उपमा चकोर पक्षी से दी है लेकिन यदि यह चकोर होते तो श्री कृष्ण के चंद्र मुख के बिना जीवित कैसे रहते ? चकोरों का तो जीवन चंद्र रस पान के आधार पर चलता है , इसके बिना वे जीवित नहीं रहते , अतः सिद्ध है कि चकोर उपमान भी नेत्रों के लिए ठीक नहीं है । नेत्रों की उपमा भ्रमर से दी जाती है , किन्तु ये भ्रमर होते तो श्री कृष्ण के कमल मुख पर मंडराते रहते और उनके चले जाने पर वहीं उड़ कर चले जाते , पर ये तो यहीं हैं , भला श्री कृष्ण के कमल मुख कोश के अभाव में यहाँ क्यों ठहरते ? यहाँ क्यों स्थिर बने रहते ? अब निश्चित हो गया है कि ये भ्रमर भी नहीं हैं और भ्रमर की जो उपमा इन नेत्रों के सम्बन्ध में दी गयी है वह गलत है । लोग नेत्रों की उपमा खंजन पक्षी से देते हैं । इस आधार पर यदि ये लोगो का मनोरंजन करने वाले खंजन पक्षी हैं और ये कभी नाराज नहीं होते , सदैव प्रसन्न रहते हैं तो श्री कृष्ण के जाने पर पंख फैला कर वहीं ये उड़ क्यों नहीं जाते और उन्हें प्रसन्न क्यों नहीं करते ? ये तो शिथिल होकर काम के निकट बिक जाते हैं – काम के वशीभूत हो जाते हैं । तात्पर्य यह है कि इन में काम का प्रभाव बना रहता है । अतः इन्हें खंजन पक्षी कहना सर्वथा निराधार है । इन्हें मृग की भी उपमा दी जाती है किन्तु ये मृग होते तो जो बधिक रूप उद्धव वध करने के लिए अर्थात अपने निर्गुण ज्ञान की नीरस और कठोर वाणी से प्रहार करने के लिए यहाँ आये हैं उन्हें देख कर ये भाग क्यों नहीं गए क्यूंकि मृग तो बधिकों को देखकर ही ऐसे सघन वन में भाग जाते हैं जहाँ कोई उनके पीछे पहुंच नहीं पाता। इन्हें लोचन भी कैसे कहा जाये क्योंकि यह बृजलोचन श्री कृष्ण के दर्शन के बिना भी जीवित हैं और प्रत्येक क्षण इनका दुःख बढ़ रहा है । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि इन नेत्रों में कुछ मछली का गुण अवश्य है । एकमात्र मीनत्व ही इनमें बचा है क्योंकि जल भर कर भी ये उसे छोड़ते नहीं , सदैव आंसुओं से भरे रहते हैं । अर्थात जिस प्रकार मीन कभी जल का साथ नहीं छोड़ता ठीक मीन के गुणों वाले हमारे नेत्र भी सदैव जल से भरे रहते हैं ।

राग गौरी

हरिमुख निरखि निमेख बिसारे।
ता दिन तें मनो भए दिगंबर इन नैनन के तारे॥
घूँघट-पट छांड़े बीथिन महँ अहनिसि अटत उघारे।
सहज समाधि रूपरुचि इकटक टरत न टक तें टारे॥
सूर, सुमति समुझति, जिय जानति, ऊधो! बचन तिहारे।
करैं कहा ये कह्यो न मानत लोचन हठी हमारे॥९८॥

इसमें श्री कृष्ण के रूपाकर्षण में मुग्ध गोपियों के नेत्रों का वर्णन किया गया है । गोपियों के हठी नेत्र बहुत प्रयास करने पर भी श्री कृष्ण के सौन्दर्याकर्षण से मुक्त नहीं हो पाते। वे टकटकी बाँध कर निरंतर उन्हीं को देखा करते हैं । गोपियाँ अपने हठी नेत्रों की इस विवशता का उल्लेख उद्धव से कर रही हैं ।

हे उद्धव ! हमारे ये नेत्र श्री कृष्ण के मुख सौंदर्य को देखते ही अपनी पलकों को गिराना भूल गए । ये श्री कृष्ण के मुख सौंदर्य को निर्निमेष देखा करते हैं । ऐसा लगता है कि इन नेत्रों के तारे ( पुतलियां ) उसी दिन से पलक रुपी वस्त्रों को त्याग कर मानो दिगंबर साधु हो गए हों क्योंकि जिस दिन से श्री कृष्ण को देखा है इन नेत्रों कि पुतलियां बंद नहीं होती , ये लज्जा-मर्यादा को भी भूल गए हैं और घूंघट रुपी वस्त्रों को त्याग कर सर्वथा गलियों में दिन रात घूमा करते हैं । ये श्री कृष्ण के सौन्दर्यानुराग में सहज रूप से योगियों की भांति समाधिस्थ हो गये हैं और टकटकी बाँध कर एकटक अर्थात निर्निमेष उन्हें देखा करते हैं , बहुत हटाने पर भी ये अपनी टकटकी बांधने की इस मुद्रा से हटते नहीं । हे उद्धव ! हम अपनी अच्छी बुद्धि से तुम्हारी बातों को समझती हैं और मन में अनुभव भी करती हैं लेकिन क्या करें भी तो क्या करें ये हमारे हठी नेत्र हमारा कहना ही नहीं मानते । ये श्री कृष्ण के सौंदर्य में इस प्रकार मग्न रहते हैं कि किसी की भी बात इन्हें अच्छी नहीं लगती ।

राग सारंग

दूर करहु बीना कर धरिबो।
मोहे मृग नाही रथ हाँक्यो, नाहिंन होत चंद को ढरिबो॥
बीती जाहि पै सोई जानै कठिन है प्रेम-पास को परिबो।
जब तें बिछुरे कमलनयन, सखि, रहत न नयन नीर को गरिबो॥
सीतल चंद अगिनि सम लागत कहिए धीर कौन बिधि धरिबो।
सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस बिनु सब झूठो जतननि को करिबो॥९९॥

इसमें राधा की वियोगावस्था का एक मार्मिक चित्र प्रस्तुत किया गया है । राधा की वियोग पीड़ा को दूर करने के लिए किसी सखी ने हाथ में वीणा लेकर बजाना आरम्भ किया । वीणा की मधुर ध्वनि सुन कर चन्द्रमा के रथ के मृग मोहित हो गए और रात्रि बड़ी हो गयी । राधा को रात्रि के बढ़ जाने से बहुत कष्ट हुआ । अतः वह अपनी सखी से निवेदन कर रही है कि वह अपने हाथ की वीणा को दूर रखे उसे न बजाये ।

वियोगिनी राधा अपनी सखी से कह रही है कि हे सखी ! तुम अपने हाथ में वीणा मत धारण करो । उसे हटा दो अर्थात इस वीणा से मधुर ध्वनियाँ मत निकाल क्योंकि इसकी मधुर ध्वनियों को सुनकर चन्द्रमा के रथ में जुता हुआ मृग मोहित हो गया है और इस से रथ का चलना बंद हो गया तथा चन्द्रमा भी अस्त नहीं हो रहा अर्थात इसके कारण रात्रि बढ़ गयी है । रात्रि का बढ़ना वियोगिनियों के लिए अत्यंत कष्टप्रद होता है । हे सखी ! जिस पर बीतता है वही इस कष्ट को जानता है , वस्तुतः प्रेम के पाश में पड़ना बहुत ही दुखदायी होता है । ईश्वर करे कोई प्रेम जाल में न फंसे । हमारी दशा तो यह है कि जब से श्री कृष्ण से वियोग हुआ है हमारे नेत्रों से अश्रुपात बंद नहीं होता । हे सखी ! मुझे तो इस वियोग में शीतल चन्द्रमा भी अग्नि के समान तापदायक लगता है । अतः तुम्हीं बताओ ऐसी विषम स्थिति में किस प्रकार धैर्य धारण करें। सूरदास के शब्दों में राधा अपनी सखी से कह रही है कि तुम हमें सुख पहुंचाने के लिए बहुत प्रयत्न कर रही हो लेकिन श्री कृष्ण के दर्शन के बिना ये सभी प्रयत्न निरर्थक और बेकार हैं । इनसे किसी भी प्रकार का सुख नहीं मिल सकता।

राग जैतश्री

अति मलीन बृषभानुकुमारी।
हरि-स्रमजल अंतर-तनु भीजे ता लालच न धुआवति सारी।
अधोमुख रहति उरध नहिं चितवति ज्यों गथ हारे थकित जुआरी।
छूटे चिहुर, बदन कुम्हिलाने, ज्यों नलिनी हिमकर की मारी॥
हरि-सँदेस सुनि सहज मृतक भईं, इक बिरहिनि दूजे अलि जारी।
सूर स्याम बिनु यों जीवति हैं ब्रजबनिता सब स्यामदुलारी॥१००॥

इसमें वियोगिनी राधा की मार्मिक दशा का वर्णन किया गया है । राधा एक तो वियोग की व्यथा से संतप्त थी ही । दूसरे उद्धव ने योग सन्देश की चर्चा से उसे और जला दिया । इसी बात को लेकर गोपियाँ परस्पर चर्चा कर रही हैं ।

अरी सखी ! राधा तो अत्यंत मलिन दिखती है श्री कृष्ण के सात्विक प्रेमोद्रेक स्वेद से उसका ह्रदय और तन दोनों ही भीग गया है । इसके कारण उसकी साड़ी मैली हो गयी है और वह अपनी साड़ी इस लालच में धुलवा नहीं रही कि इसमें श्री कृष्ण के सात्विक स्वेद की गंध मिली है जो प्रेम के कारण अत्यंत प्रिय है और साड़ी धुलवाने पर वह गंध चली जाएगी । वह सदैव अपन मुख को नीचे किये बैठी रहती है , ऊपर की और देखती ही नहीं । उसकी ऐसी दशा को देख कर लगता है कि जैसे कोई जुआरी जुएं में अपनी पूँजी हार कर उदासीन बैठा हो । श्रृंगार न करने के कारण राधा के बाल बिखरे हुए हैं । इसका मुख कुम्हलाया दिखाया पड़ता है । ऐसे मुख को देखकर लगता है कि जैसे कमलिनी तुषार पड़ने पर जल गयी हो । (कमल या कमलिनी पर जब तुषार का प्रभाव पड़ता है तो उसका सौंदर्य भी नष्ट हो जाता है ) वह श्री कृष्ण के वियोग में पहले ही संतप्त थी , दूसरे जब उद्धव द्वारा श्री कृष्ण का योग साधना का सन्देश सुना तो सहज ही मृतक तुल्य हो गयी । सूर के शब्दों में ऐसी दशा केवल राधा की नहीं बल्कि श्री कृष्ण की सभी प्रिय गोपियाँ वियोग की ऐसी दारुण पीड़ा को सहती हुयी जीवित रह रही हैं ।

राग मलार

ऊधो! तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेहतगा तें, नाहिंन मन अनुरागी॥
पुरइनि-पात रहत जल-भीतर ता रस देह न दागी।
ज्यों जल माँह तेल की गागरि बूँद न ताके लागी॥
प्रीति-नदी में पावँ न बोस्यो, दृष्टि न रूप परागी।
सूरदास अबला हम भोरी गुर चींटी ज्यों पागी॥१०१॥

इस पद में गोपियाँ उद्धव की नीरसता और शुष्कता के सम्बन्ध में व्यंग्य गर्भित शैली में कह रही हैं कि सचमुच उद्धव जी ही सबसे भाग्यशाली हैं जो किसी से प्रेम करना नहीं जानते ।

हे उद्धव ! तुम्हीं सबसे अच्छे और भाग्यशाली हो जो समस्त प्रेम सूत्रों और बंधनों से अनासक्त और दूर हो और किसी में भी तुम्हारा मन अनुरक्त नहीं है । तात्पर्य यह है कि तुम अत्यंत अभागे हो जो प्रेम रस को नहीं समझते क्योंकि जीवन में सबसे महान प्रेम ही है । तुम्हारी दशा तो उस कमल पत्र की भांति है जिसने जल के भीतर रहते हुए भी जल से अपने शरीर में दाग नहीं लगाया अर्थात कमल पत्र पर जल का तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ा । आशय यह है कि तुम रहते तो श्री कृष्ण के निकट हो लेकिन उनके प्रेम से सदैव अनासक्त रहे । यही नहीं , जैसे जल में तेल की गगरी को डुबोया जाये तो उस पर जल की एक बूँद भी ठहर नहीं पाती । उसी प्रकार तुम्हारा मानस भी तेल की गगरी की भांति है जिस पर प्रेम की एक बूँद नहीं रूकती अर्थात तुम प्रेम को लेशमात्र भी नहीं समझते । तुम प्रेम के सम्बन्ध में क्या जानो जब कि तुमने कभी न तो प्रेम की नदी में अपने पाँव को निमज्जित किया और न श्री कृष्ण के सौंदर्य पराग में तुम्हारी दृष्टि ही अनुरक्त हुयी । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि सबसे पगली और भोली भाली हम अबलाएं ही हैं जो गुड़ और चींटी की भांति श्री कृष्ण की रूप माधुरी में चिपट गयीं ।

राग मलार 

ऊधो! यह मन और न होय।
पहिले ही चढ़ि रह्यो स्याम-रँग छुटत न देख्यो धोय॥
कैतव-बचन छाँड़ि हरि हमको सोइ करैं जो मूल।
जोग हमैं ऐसो लागत है ज्यों तोहि चंपक फूल॥
अब क्यों मिटत हाथ की रेखा? कहौ कौन बिधि कीजै?
सूर, स्याममुख आनि दिखाओ जाहि निरखि करि जीजै॥१०२॥

उद्धव निर्गुण की चर्चा के द्वारा गोपियों का मन बदलना चाहते हैं किन्तु गोपियाँ अपनी विवशता व्यक्त करते हुए कहती हैं कि उनका मन तो पहले से ही श्याम वर्ण में रंग चुका है अतः अब इस मन पर दूसरा प्रभाव नहीं पड़ सकता क्योंकि श्याम वर्ण अर्थात कृष्ण वर्ण पर कोई और रंग नहीं चढ़ सकता ।

हे उद्धव ! यह मन दूसरा नहीं हो सकता है । इस पर किसी अन्य का प्रभाव नहीं पड़ सकता क्योंकि तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म के उपदेश के पूर्व इस पर श्याम रंग अर्थ कृष्ण का प्रगाढ़ प्रेम चढ़ चुका है और हमने भली – भांति धोकर देख लिया कि वह किसी प्रकार भी नहीं छूट रहा है । आशय यह है कि हमारा मन श्री कृष्ण के प्रेम में इतना रंग गया है कि उसे बदलना संभव नहीं । उसे तुम चाहो भी तो निर्गुणोपासना कि ओर उन्मुख नहीं कर सकते । तुम्हें इसमें सफलता नहीं मिलेगी और श्री कृष्ण से यह अवश्य कह देना कि वह ऐसे छल – कपट की वाणी को छोड़ कर अर्थात योग सन्देश को न भेज कर केवल वास्तविक प्रेम की ही बातें हम लोगों के साथ करें । वे मूल प्रेम तत्व को भूल कर छल कपट की बातें करने लग गए हैं । हमारे लिए इस प्रकार का व्यवहार उन्हें शोभा नहीं देता । हे भ्रमर ( उद्धव ) ! हमें तो तुम्हारा योग उसी प्रकार लगता है जैसे तुम्हें चंपा का पुष्प ( भ्रमर चंपा के पुष्प के पास नहीं जाता , उसके प्रति उसका किसी भी प्रकार का लगाव नहीं है ) . अब हमारी हस्त रेखा को कौन मिटा सकता है ? अर्थात भाग्य में तो श्याम का वियोग लिखा है और उसी की पीड़ा में जीवन को समाप्त करना है । अब दूसरी दिशा में या अन्य मार्ग पर कैसे जा सकती हैं ? तुम्हीं बताओ कि इस रेखा को मिटाने का क्या उपाय है ? सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! यदि तुम हमें जीवित रखना चाहते हो तो श्री कृष्ण के मुख का दर्शन करा दो जिसे देख कर इन निकलते हुए प्राणों की रक्षा हो सके।

राग गौड़

ऊधो! ना हम बिरही, ना तुम दास।
कहत सुनत घट प्रान रहत हैं, हरि तजि भजहु अकास॥
बिरही मीन मरत जल बिछुरे छाँड़ि जियन की आस।
दास-भाव नहिं तजत पपीहा बरु सहिं रहत पियास॥
प्रगट प्रीति दसरथ प्रतिपाली प्रीतम के बनवास।
सूर स्याम सों दृढ़ब्रत कीन्हों मेटि जगत-उपहास॥१०३॥

इस पद में गोपियों का कथन है कि सच्चे अर्थों में वे न तो विरहिणी हैं और न उद्धव जी श्री कृष्ण के सच्चे दास हैं । इसका कारण वे आगे उल्लेख कर रही हैं ।

हे उद्धव ! सच्चे अर्थ में न हम विरहिणी हैं और न तुम श्री कृष्ण के सेवक हो क्योंकि जब तुम यह कहते हो कि श्री कृष्ण को छोड़ कर निर्गुण ब्रह्म की उपासना करो तो इसे सुन कर भी हमारे शरीर में प्राण बने रहते हैं – निकल नहीं जाते । अर्थात यदि हम सब में श्री कृष्ण के प्रति सच्चा प्रेम होता तो ऐसी बातें सुनते ही शरीर से प्राण निकल जाते और यदि तुम श्री कृष्ण के सच्चे दास होते तो उन्हें छोड़ कर निर्गुण ब्रह्म का गुणगान न करते । सच्ची विरहणी तो मछलियां हैं जो जल के न मिलने पर जीने की आशा छोड़ देती हैं अर्थात जल विहीन होने पर वे एक क्षण के लिए भी जीवित नहीं रहती । सच्चा दास तो पपीहा है जो चाहे प्यासा भले रह जाये लेकिन बादल के प्रति अपना दास भाव नहीं त्यागता। वह दास वृत्ति को बनाये हुए उसी से याचना करता है और प्यास के कष्ट को सहन करता है । सच्च एप्रैम का निर्वाह तो राजा दशरथ ने किया जिन्होंने अपने प्रियतम श्री राम के वन जाते ही अपने प्राणों को त्याग दिया । पुत्र प्रेम में प्राणों का मोह नहीं किया । इन सबों की तुलना में हम सब का प्रेम एक दिखावा मात्र है । यद्यपि संसार के उपहास और मर्यादा की चिंता न कर के हमने श्री कृष्ण के प्रति सच्चे प्रेम का दृढ़ संकल्प ले लिया किन्तु यह संकल्प सच्चे प्रेम को प्रभावित न कर सका । हम सब का यह संकल्प पूरा न हो सका । और उनके वियोग में आज भी जीवित हैं । हमें मर जाना चाहिए था ।103

राग सोरठ

ऊधो! कही सो बहुरि न कहियो।
जौ तुम हमहिं जिवायो चाहौ अनबोले ह्वै रहियो॥
हमरे प्रान अघात होत हैं, तुम जानत हौ हाँसी।
या जीवन तें मरन भलो है करवट लैबो कासी॥
जब हरि गवन कियौ पूरब लौं तब लिखि जोग पठायो।
यह तन जरिकै भस्म ह्वै निबर्‌यौ बहुरि मसान जगायो॥
कै रे! मनोहर आनि मिलायो, कै लै चलु हम साथे।
सूरदास अब मरन बन्यो है, पाप तिहारे माथे॥१०४॥

उद्धव द्वारा बार – बार निर्गुणोपासना पर बल देने के कारण गोपियाँ क्रुद्ध हो गयीं और कहने लगीं कि अब वे दुबारा निर्गुण ज्ञान की चर्चा न करें अन्यथा ठीक न होगा। गोपियों का मन उद्धव की अनर्गल बातों को सुनते – सुनते ऊब गया अतः अब उनमें सहनशीलता की क्षमता नहीं रह गयी ।

हे उद्धव ! जो तुमने निर्गुण ज्ञान विषयक बहुत सी बातें अभी तक कही हैं , अब दुबारा उन्हें मत कहना , क्योंकि ऐसी बातों को सुनना अब हमारे लिए असहनीय है । हाँ , यदि तुम हमें जीवित रखना चाहते हो तो चुप हो कर बैठो । ज्यादा मत बोलो । तुम्हारे इन निर्गुण की बातों से हमारे ह्रदय में मर्मान्तक चोट पहुँचती है लेकिन तुम्हारे लिए यह हंसी ठिठोली जैसा है । अब तो इस जीवन से अच्छा तो मरना ही है । मर जाना ही अच्छा है लेकिन वियोग की पीड़ा में निरंतर जल – जल कर जीवित रहना अच्छा नहीं है । अतः हम काशी जा कर अपने शरीर को आरे से चिरवा लेंगे। जब तक श्री कृष्ण ब्रज मंडल में रहते रहे तब तक योग की एक भी बात उन्होंने नहीं की लेकिन जब वे पूर्व की ओर मथुरा गए तभी से लिख – लिख कर योग का संदेसा भेजने लगे । लेकिन उन्हें जानना चाहिए कि उनके जाते ही वियोगाग्नि में यह शरीर भस्म होकर ही रहा । इस पर भी हमें और जलाने के लिए अपना यह योग सन्देश उद्धव के द्वारा भिजवाया । ऐसी स्थिति में हे उद्धव ! या तो तुम उन्हें लाकर हम सब को उनसे मिलाओ । उनका दर्शन कराओ या तुम हमें अपने साथ मथुरा ही ले चलो। इन दोनों में यदि कोई बात नहीं मानते तो जान लो हमारा मरना निश्चित है और मर जाने पर यह पाप तुम्हारे ही सर लगेगा । तुम्हें ही इस पाप को भोगना पड़ेगा ।

राग सारंग

ऊधो! तुम अपनो जतन करौ।
हित की कहत कुहित की लागै, किन बेकाज ररौ?
जाय करौ उपचार आपनो, हम जो कहत हैं जी की।
कछू कहत कछुवै कहि डारत, धुन देखियत नहिं नीकी‌।
साधु होय तेहि उत्तर दीजै तुमसों मानी हारि।
याही तें तुम्हैं नँदनंदनजू यहाँ पठाए टारि॥
मथुरा बेगि गहौ इन पाँयन, उपज्यौ है तन रोग।
सूर सुबैद बेगि किन ढूँढ़ौ भए अर्द्धजल जोग॥१०५॥

बार – बार निर्गुण ब्रह्म का प्रतिनिधित्व करने पर गोपियाँ उद्धव से क्रुद्ध हो कर उनका उपहास करती हैं और कहती हैं कि लगता है कि हे उद्धव ! अब तुम विक्षिप्तावस्था को प्राप्त हो गए हो क्योंकि तुम जितनी बातें करते हो वे तुम्हारे पागलपन को ही व्यंजित करती हैं । उत्तम यही होगा कि तुम शीघ्र यहाँ से निकल जाओ और किसी अनुभवी वैद्य से अपने मन और तन का उपचार कराओ ।

हे उद्धव ! अब हम समझ गयी हैं कि तुम पुरे विक्षिप्त हो चुके हो । तुम इस से बचने के लिए कुछ प्रयत्न करो । तुम जिस निर्गुण की बात हमारे हित के लिए करते हो वह हमें बुरी लगती है , तथापि क्यों इसकी रट लगाए घूम रहे हो । क्यों हमारी इच्छा के विरुद्ध निर्गुण का उपदेश दे रहे हो ? हम तुम्हें ह्रदय से सलाह दे रही हैं कि तुम जाकर कहीं अपनी चिकित्सा कराओ क्योंकि तुम कहना कुछ चाहते हो और कह कुछ और डालते हो । अतः तुम्हारा रंग – ढंग हमें कुछ अच्छा नहीं दिखाई पड़ता । आशय यह है कि तुम्हारे लक्षण बुरे ही दिखाई पड़ रहे हैं । यदि कोई सज्जन और समझदार पुरुष हो तो उसकी बातों का उत्तर भी दिया जाये । तुम जैसे विक्षिप्तों से तो हम सब अपनी हार स्वीकार करती हैं । लगता है तुम्हारे पागलपन से ऊब कर ही श्री कृष्ण ने वह से हटा कर तुम्हें हम लोगों के पास भेजा है । हमारी सलाह तो यह है कि तुम इन्ही पांवों से शीघ्र मथुरा लौट जाओ क्योंकि तुम्हारे तन में कोई अत्यंत भयंकर रोग अर्थात सन्निपात हो गया है । अब उत्तम यही होगा कि तुम शीघ्र ही किसी अनुभवी वैद्य को ढूंढ लो क्योंकि तुम मरणासन्न हो गए हो । तुम्हारी दशा तो अब अर्घ्य जल देने के योग्य हो गयी है । जैसे शव को दाह के पूर्व जल देते हैं ठीक उसी प्रकार तुम भी अब उसी अवस्था को प्राप्त कर चुके हो ।

राग सोरठ

ऊधो! जाके माथे भोग।
कुबजा को पटरानी कीन्हों, हमहिं देत वैराग॥
तलफत फिरत सकल ब्रजबनिता चेरी चपरि सोहाग।
बन्यो बनायो संग सखी री! वै रे! हंस वै काग॥
लौंडी के घर डौंड़ी बाजी स्याम राग अनुराग।
हाँसी, कमलनयन-संग खेलति बारहमासी फाग॥
जोग की बेलि लगावन आए काटि प्रेम को बाग।
सूरदास प्रभु ऊख छाँड़ि कै चतुर चिचोरत आग॥१०६॥

इस पद में गोपियाँ श्री कृष्ण और कुब्जा के परस्पर प्रेम का उपहास कर रही हैं और उद्धव से कह रही हैं कि दोनों की जोड़ी भगवान ने अच्छी मिलाई है। यही भाग्य का चक्र है कि पटरानी दासी हो गयी है और दासी पटरानी बन बैठी ।

हे उद्धव ! जिसके मस्तक पर जो भाग्य की रेखाएं लिखी होती हैं उन्हें कौन मिटा सकता है ? आशय यह है कि भाग्यशालिनी तो आज कुब्जा है जिसे श्री कृष्ण ने पटरानी बना दिया और हम सबों को वैराग्य कि शिक्षा देते फिर रहे हैं । आज बेचारी ब्रजबालायें उनके वियोग में तड़प रही हैं और उनकी निष्ठुरता तो देखिये कि दासी कुब्जा को एक बार में बिना सोचे समझे सौभाग्यवती बना दिया । गोपियाँ सखियों से परस्पर कह रही हैं , अरी सखी ! दोनों का साथ तो बना बनाया है । बहुत उचित जोड़ा है । श्री कृष्ण यदि हंस हैं तो वह कुब्जा कौआ है । भला कभी हंस और कौए का साथ हुआ है फिर भी यहाँ तो हंस और कौए दोनों में अत्यंत मेल हो गया । बलिहारी ! आज कुब्जा जैसे दासी का क्या कहना , वह श्याम के प्रेम में अनुरक्त है । काले – कलूटे पर मोहित है । इसी कारण उसके घर में प्रसन्नता के नगाड़े बज रहे हैं । अरी सखी ! हंसी तो इस बात कि है वह दासी श्री कृष्ण के साथ अब बारहमासी फाग खेल रही है । लोग वर्ष में एक बार होली की ख़ुशी मनाते हैं परन्तु कुब्जा तो सदैव होली के उल्लास में मग्न रहती है । पुनः गोपियाँ उद्धव से कहने लगीं – हे उद्धव ! आप तो प्रेम के बाग को काट कर अर्थात श्री कृष्ण के लिए हम लोगों के ह्रदय में जो प्रेम की धारा बह रही है उसे दूर कर के योग की लता ( योग साधना ) का बीजारोपण करने आये हैं । प्रेम की जगह योग साधना की ओर प्रवृत्त करने के प्रयोजन से यहाँ पधारे हैं किन्तु क्या तुम नहीं जानते कि जो बहुत चतुर बनते हैं । तात्पर्य यह है कि आप बनते बहुत बुद्धिमान हैं लेकिन प्रेम के महत्व की अवहेलना कर के नीरस  निर्गुण ब्रह्म के ज्ञान का महत्त्व बखानते फिरते हैं । गोपियों के कथनानुसार उद्धव बुद्धिहीन हैं ।

राग सारंग

ऊधो! अब यह समुझ भई।
नँदनंदन के अंग अंग प्रति उपमा न्याय दई॥
कुंतल, कुटिल, भँवर, भरि भाँवरि मालति भुरै लई।
तजत न गहरु कियो कपटी जब जानी निरस गई॥
आनन-इंदुबरन-सँमुख तजि करखे तें न नई।
निरमोही नहिं नेह, कुमुदिनी अंतहि हेम हई॥
तन घनस्याम सेइ निसिबासर, रटि रसना छिजई।
सूर विवेकहीन चातक-मुख बूँदौ तौ न सई॥१०७॥

गोपियों ने प्रस्तुत पद में परंपरागत गृहीत उपमानों की निष्ठुरता का उल्लेख तर्क संगत ढंग से किया है ।

हे उद्धव ! श्री कृष्ण के अंग – प्रत्यंग के लिए उपयुक्त उपमानों की कुटिलता और निष्ठुरता का रहस्य अब समझ में आया अर्थात जो उनके अंगों के लिए चुन – चुन कर के उपमान इकट्ठे किये गए हैं उनकी प्रकृतिगत विशेषताओं पर विचार कीजिये । पहले घुंघराले बालों को लीजिये – इनकी उपमा भौरों से दी जाती है किन्तु भौंरे कितने कुटिल होते हैं । वे पहले तो मालती के चारों ओर बड़े प्यार से मंडराते हैं और उसे मोहित करते हैं , फिर क्या है उसके समस्त मकरंद को पीने के बाद जब देखा कि इसमें रस नहीं रह गया तो उसे त्यागने में किंचित देरी नहीं की और उसे छोड़कर अन्यत्र चले गए । यह भौंरों की कुटिलता का एक ज्वलंत उदाहरण है । इसी प्रकार श्री कृष्ण के मुख की उपमा चन्द्रमा चन्द्रमा से दी जाती है लेकिन चन्द्रमा कितना कठोर है यह उसके प्रेम में मुग्ध कुमुदनियों की दशा से जाना जा सकता है । बेचारी कुमुदनी तो चांद्रायण के सौंदर्य से इतनी मोहित हुयी कि हटाने और खींचने से भी नहीं हटी लेकिन उस निष्ठुर चन्द्रमा में मोह कहाँ था उसने अंततः उसे पाले से मार दिया । इसी प्रकार बेचारे चातक ने तो दिन – रात बादल के प्रेम में अर्थात स्वाति नक्षत्र की बूंदों के लिए रटते – रटते अपनी जिह्वा क्षीण कर दी – घिस डाली लेकिन निष्ठुर और अज्ञानी बादल ने उसके मुख में एक भी बूँद नहीं डाली । बेचारे चातक ने बिना विचारे बादल के लिए अपने जीवन को उत्सर्ग कर दिया लेकिन विवेकहीन बदल को किंचित भी दया नहीं आयी । यही दशा गोपियों की रही । वे श्री कृष्ण के अंग – प्रत्यंग के आकर्षण में फांसी रहीं लेकिन अंत में श्री कृष्ण ने उनके साथ धोखा किया ।

राग धनाश्री

ऊधो! हम अति निपट अनाथ।
जैसे मधु तोरे की माखी त्यों हम बिनु ब्रजनाथ॥
अधर-अमृत की पीर मुई, हम बालदसा तें जोरी।
सो तौ बधिक सुफलकसुत लै गयो अनायास ही तोरी॥
जब लगि पलक पानि मीड़ति रही तब लगि गए हरि दूरी।
कै निरोध निबरे तिहि अवसर दै पग रथ की धूरी॥
सब दिन करी कृपन की संगति, कबहुँ न कीन्हों भोग।
सूर बिधाता रचि राख्यो है, कुबजा के मुख-जोग॥१०८॥

इस पद में गोपियाँ उद्धव से अपने दैन्य भाव को प्रदर्शित कर रही हैं। गोपियों के निराश मन का यह अत्यंत कारुणिक और ह्रदय विदारक चित्र है । गोपियों को बहुत बड़ी आशा थी कि वे श्री कृष्ण के जिस मधुर अधरामृत को संचित कर रही हैं उसका भविष्य में उपभोग करेंगी , लेकिन मन की मन में ही रह गयी और उस अधरामृत की अधिकारिणी कुब्जा बन बैठी ।

हे उद्धव ! अब हम सब सर्वथा अनाथ हो गयीं । इस समय हम तो श्री कृष्ण के बिना उस मधुमक्खी की भांति तड़प रही हैं और मारी – मारी फिर रही हैं जिसका मधु का छत्ता तोड़ लिया गया हो , जैसे मधुमक्खियां बहुत समय तक अपने मधु का संग्रह अपने मधु छत्ते में करती हैं उसी प्रकार हु सब भी बचपन से श्री कृष्ण के अधरामृत के आनंद का संग्रह करती रहीं और सोचा था कि समय आने पर इस अधरामृत को ग्रहण करेंगी लेकिन यह सुखद संयोग प्राप्त ना हो सका और हम उसके अभाव में मरती रहीं क्योंकि उस अधरामृत रुपी मधु छत्ते को बहेलिया रुपी अक्रूर अचानक तोड़ कर उठा ले गए । आशय यह है कि अचानक अक्रूर जी ब्रज पधारे और हमारे प्रिय श्री कृष्ण और बलराम के बहाने से रथ पर बैठा कर मथुरा ले गए । जब तक हम सब अपनी पलकों को हाथों से मीचती रहीं और सोते से जाग्रत अवस्था में आयीं तब तक श्री कृष्ण बहुत दूर निकल चुके थे । हम सब उनके पीछे दौड़कर उन्हें रोकने कि बहुत बड़ी चेष्टा की लेकिन अक्रूर जी रथ के पहियों की धूल उड़ाते हुए निकल भागे , उनकी धूल में हम श्री कृष्ण को देख ना सकीं – अंततः निराश होकर लौट आयीं , हमने तो सदैव कंजूसों जैसा व्यवहार किया और कभी भी श्री कृष्ण के उस सुख को भोगा नहीं , उसे छिपाती रहीं और खर्च करने में कतराती रहीं लेकिन भाग्य की बात कौन जानता है ? सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि जिस सुख को संग्रह किया आज उस ब्रह्मा ने उसे कुब्जा के भाग्य में रच दिया और उसे कुब्जा के उपयुक्त समझा गया और उसकी अधिकारिणी वह बन बैठी ।

राग सोरठ

ऊधो! ब्रज की दसा बिचारौ।
ता पाछे यह सिद्धि आपनी जोगकथा बिस्तारौ॥
जेहि कारन पठए नँदनंदन सो सोचहु मन माहीं।
केतिक बीच बिरह परमारथ जानत हौ किधौं नाहीं॥
तुम निज[१] दास जो सखा स्याम के संतत निकट रहत हौ।
जल बूड़त अवलम्ब फेन को फिरि फिरि कहा गहत हौ॥
वै अति ललित मनोहर आनन कैसे मनहिं बिसारौं।
जोग जुक्ति औ मुक्ति बिबिध बिधि वा मुरली पर वारौं॥
जेहि उर बसे स्यामसुंदर घन क्यों निर्गुन कहि आवै।
सूरस्याम सोइ भजन बहावै जाहि दूसरो भावै॥१०९॥

गोपियाँ उद्धव की योग – चर्चा से ऊब कर अंततः कहने लगीं कि उद्धव को पहले ब्रज की दशा पर विचार करना चाहिए तब अपने निर्गुण ब्रह्म का उपदेश देना चाहिए । आश्चर्य है कि उद्धव इतना भी नहीं जानते कि गोपियों की मनः स्थिति और योग साधना की स्थिति में कितना अंतर है ? वे उद्धव से निवेदन कर रही है कि वे दोनों स्थितियों पर पहले विचार करें तब अपने अध्यात्म चिंतन का प्रसार करें ।

हे उद्धव ! पहले तुम ब्रजवासियों की मानसिक दशा पर विचार करो कि वे तुम्हारी योग साधना के उपयुक्त हैं या नहीं । फिर इसके पश्चात् सिद्धिदायिनी अपनी योग कथा का विस्तारपूर्वक विवेचन करें और जिस लिए अर्थात जिस योग साधना का प्रचार करने के लिए श्री कृष्ण ने तुम्हें यहाँ भेजा है उसके सम्बन्ध में अपने मन में विचार करो उसे यहाँ बताने की आवश्यकता नहीं हैं । तुम स्वयं विवेकशील पुरुष हो यदि नंदनंदन ने साग्रह हमें योग मार्ग पर प्रवृत्त करने के उद्देश्य से भेजा है तो कम से कम हम सब की वियोगावस्था को तो तुम देख ही रहे हो , उचित और अनुचित का विचार तो प्रत्यक्ष देखकर ही कर सकते हो । तुम्हें पता है कि नहीं जरा सोचो , वियोग और अध्यात्म चर्चा में कितना अंतर है ? तुम तो श्री कृष्ण के खास सेवक हो और सदैव उनके पास रहते हो फिर भी उनके विचारों को समझ नहीं सके हो । क्या सचमुच उन्होंने तुम्हें हमको योग साधना में प्रवृत्त करने के लिए भेजा है या तुम बिना उनके वास्तविक विचारों को समझे इस प्रकार बकते चले जा रहे हो । भला , जो पानी में डूब रहा हो उसे फेन के सहारे बचने का क्या उपदेश दे रहे हो ? क्या डूबता व्यक्ति पानी के बुलबुले को पकड़ कर अपनी रक्षा कर सकता है ? आशय यह है कि जो वियोग व्यथा के सागर में डूब रहा हो क्या उसे अध्यात्म चिंतन की बातों से संतोष प्राप्त हो सकता है ? हे उद्धव ! यह कैसे संभव है कि हम सब श्री कृष्ण के सुन्दर मुख को मन से भुला दें । उनके मुख सौंदर्य की याद कैसे जा सकती है ? हम लोग तो योग की युक्तियों अर्थात योग की साधनाओं और अनेक प्रकार के मोक्षानन्द को तो श्री कृष्ण की मधुर मुरली के आनंद पर न्योछावर कर देती हैं अर्थात जो सुख श्री कृष्ण के वेणु वादन से मिलता था वह इस योग साधना और मुक्ति में कहाँ ? भला जिसके ह्रदय में अभिन्न रूप से श्याम सुन्दर निवास कर रहे हों तुम्हीं बताओ निर्गुण ब्रह्म उसके ह्रदय में कैसे समा सकता है ? सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि उस भजन को तो वह दूर कर देता है उस भजन को तो वह पसंद नहीं करता । वह उसके लिए व्यर्थ है जिसे अपने इष्टदेव के अतिरिक्त दूसरा प्रिय हो अर्थात जो भजन किसी दूसरे इष्टदेव की ओर आकर्षित करता है उसे वह दूर फेंक देता है उधर दृष्टि नहीं डालता । तात्पर्य यह है कि हम सब श्री कृष्ण कि अनन्य उपासिका हैं और तुम्हरे निर्गुण भजन करने में सर्वथा असमर्थ हैं ।

राग सारंग

ऊधो! यह हित लागै काहे?
निसिदिन नयन तपत दरसन को तुम जो कहत हिय-माहे॥
नींद न परति चहूं दिसि चितवति बिरह-अनल के दाहै।
उर तेँ निकसि करत क्यों न सीतल जो पै कान्ह यहाँ है॥
पा लागों ऐसेहि रहन दे अवधि-आस-जल-थाहै।
जनि बोरहि निर्गुन-समुद्र में, फिरि न पायहौ चाहे॥
जाको मन जाही तेँ राच्यो तासों बनै निबाहे।
सूर कहा लै करै पपीहा एते सर सरिता हैं?॥११०॥

उद्धव गोपियों को यह शिक्षा दे रहे हैं कि ब्रह्म घट – घट में व्याप्त है और श्री कृष्ण भी निर्गुण ब्रह्म के रूप में सबके ह्रदय में उपस्थित हैं । गोपियाँ इस बात को मानने के लिए सहमत नहीं हैं और निर्गुण ब्रह्म और कृष्ण के अंतर को स्पष्ट कर रही हैं ।

हे उद्धव ! तुम्हारी निर्गुण ब्रह्म विषयक बातें किस लिए रुचिकर लग सकती हैं अर्थात तुम्हारी बातें हमें बिलकुल रुचिकर नहीं लगतीं , यद्यपि तुम हमारे हित में कहते हो लेकिन तुम्हारी बात हम कैसे मानें क्योंकि श्री कृष्ण के दर्शन के बिना हमारे नेत्र तो दिन रात संतप्त रहते हैं लेकिन तुम्हारी यह धारणा है कि वे ह्रदय में ही हैं । हमारे ऊपर इन बातों का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता बल्कि स्थिति यह है कि श्री कृष्ण कि वियोगग्नि कि जलन में हमें नींद नहीं लगती और चारों तरफ देखती रहती हैं और यदि श्री कृष्ण यहाँ इस ह्रदय में निर्गुण ब्रह्म के रूप में हैं तो निकल कर हमारी वियोगाग्नि को शीतल क्यों नहीं करते ? हम तुम्हारे पैरों पर गिर रहे हैं , तुमसे अनुनय विनय कर रहे हैं कि हमें श्री कृष्ण के आने की आशा रूपी गहराई में पड़े रहने दो । हमें श्री कृष्ण के आने की आशा में जो सुख है वह तुम्हारे घट – घट वासी निर्गुण ब्रह्म में नहीं । अतः तुम अपने निर्गुण ब्रह्म के समुद्र में हमें मत डुबाओ । श्री कृष्ण से वियुक्त करके निर्गुण ब्रह्म के अद्वैत सिद्धांत में हमें मत फंसाओ नहीं तो तुम ढूंढ़ने पर भी पुनः हमें नहीं पा सकोगे । हमारा स्वतन्त्र अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। हे उद्धव ! सत्य तो यह है कि जिसका मन जिस से जुड़ जाता है , जिस पर अनुरक्त होता है उसके साथ प्रेम निर्वाह करना ही पड़ता है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि पपीहे के लिए इतने तालाबों और नदियों का जल है लेकिन बिना स्वाति के जल के वह इसे लेकर क्या करे ? इस से उसके किस प्रयोजन की सिद्धि होगी । उसी प्रकार हम लोगों का मन तो श्री कृष्ण के प्रेम में अनुरक्त है अतः तुम्हारे निर्गुण से हमें क्या लाभ होगा ?

राग सारंग

ऊधो! ब्रज में पैठ करी।
यह निर्गुन, निर्मूल गाठरी अब किन करहु खरी॥
नफा जानिकै ह्याँ लै आए सबै बस्तु अकरी।
यह सौदा तुम ह्वाँ लै बेंचौ जहाँ बड़ी नगरी॥
हम ग्वालिन, गोरस दधि बेंचौ, लेहिं अबै सबरी।
सूर यहाँ कोउ गाहक नाहीं देखियत गरे परी॥१११॥

इस पद में गोपियाँ उद्धव को निर्गुण ब्रह्म विषयक सिद्धांतों का विक्रय करने वाले एक व्यापारी के रूप में कल्पित करके उनका उपहास कर रही हैं । समस्त पद में व्यंजना बलित शब्दावली प्रयुक्त है ।

निर्गुण ब्रह्म की निःसारता पर विचार करती हुई गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! तुमने तो अब ब्रज में अपनी दुकान खोल ली है । अतः ऐसे समय तुम अपनी इस निर्गुण और निर्मूल गठरी को ( निर्गुण अर्थात जिसमें किसी प्रकार का गुण ही न हो और निर्मूल अर्थात जिस व्यापर में किसी प्रकार कि पूँजी न लगी हो – बेच कर दाम क्यों नहीं ले लेते ?) आशय यह है कि तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म का प्रभाव ब्रज में किसी पर भी नहीं पड़ेगा और इसके गुणों की तुम जितनी प्रशंसा करते हो वह सब व्यर्थ हो जाएगी । तुम इसे यहाँ यह सोच कर लाये हो कि इस से बहुत लाभ कमाएंगे किन्तु तुम्हारे निर्गुण का यह सौदा बड़ा मंहगा है , यहाँ के लोग इसे नहीं खरीद सकते । हाँ तुम यदि बड़े नगर अर्थात मथुरा जैसी महानगरी में इसे बेचो तो तुम्हें अवश्य सफलता मिलेगी क्योंकि इस सौदे के अच्छे ग्राहक अर्थात निर्गुण ज्ञान के पारखी कुब्जा और कृष्ण वहीँ मिल सकते हैं । हम सब इतना कीमती और मंहगा सौदा खरीदने में असमर्थ हैं क्योंकि हम सब दूध दही जैसे सामान्य सौदे बेचती हैं । यदि तुम्हारे पास दूध – दही हो तो ले आओ , सब का सब खरीद लेंगी । आशय यह है कि जो दूध दही बेचने वाली स्त्रियां हैं , उन्हें निर्गुण ज्ञान की शिक्षा देना कहाँ तक उचित है ? सूर के शब्दों में गोपियों का उद्धव के प्रति कथन है कि हे उद्धव ! तुम्हारे इस माल का यहाँ कोई ग्राहक नहीं है । फिर भी ऐसा लगता है कि तुम इसे बलात हमारे गले मढ़ना चाहते हो । अर्थात हमारी इच्छा के विरुद्ध तुम जबरदस्ती हमें निर्गुण मार्ग पर लाना चाहते हो ।

राग सारंग

गुप्त मते की बात कहौ जनि कहुँ काहू के आगे।
कै हम जानैं कै तुम, ऊधो! इतनो पावैं माँगे॥
एक बेर खेलत बृँदाबन कंटक चुभि गयो पाँय।
कंटक सों कंटक लै काढ्यो अपने हाथ सुभाय॥
एक दिवस बिहरत बन-भीतर मैं जो सुनाई भूख।
पाके फल वै देखि मनोहर चढ़े कृपा करि रूख॥
ऐसी प्रीति हमारी उनकी बसते गोकुल-बास।
सूरदास प्रभु सब बिसराई मधुबन कियो निवास॥११२॥

गोपियाँ उद्धव से अपनी पूर्व स्मृतियाँ बता रही हैं । इस पद में गोपियाँ अपना दैन्य भाव और आत्मीयता व्यक्त कर रही हैं । श्री कृष्ण और उद्धव की अभिन्नता जान कर ही गोपियाँ उद्धव के प्रति अपना विश्वास प्रकट कर रही हैं । उन्हें यह आशा है कि उद्धव श्री कृष्ण से इन मधुर स्मृतियों कि चर्चा करेंगे और इसे सुन कर कदाचित वे मथुरा से लौट आएं ।

हे उद्धव ! आज हम तुम्हारे समक्ष श्री कृष्ण विषयक कुछ गुप्त प्रसंग का कथन करना चाहेंगीं किन्तु आपसे निवेदन है कि इसे किसी के भी समक्ष कहियेगा नहीं । हे उद्धव ! इस बात को हम जाने या आप , कोई तीसरा व्यक्ति न जानने पावे । आपसे इस विषय में हमारी इतनी ही मांग है । हमें विश्वास है कि आप हमारी इच्छा पूर्ती करने की कृपा करेंगे । एक प्रसंग यों है कि एक बार वृन्दावन में खेलते समय हमारे पैरों में कांटे चुभ गए । श्री कृष्ण ने उन काँटों को एक काँटा ले कर सहज रूप से निकाल दिया । उनकी यह संवेदनशीलता आज भी आँखों के सामने है । इसी प्रकार एक दिन वन में विचरण करते समय हमें भूख लग गयी जब इसकी चर्चा हमने श्री कृष्ण से की तो वे शीघ्र ही सुन्दर और पके हुए फलों को देखकर वृक्ष पर चढ़ गए और उन्हें तोड़कर हमें लेकर दिया । जब वे गोकुल में रहते थे तब हमारी उनके साथ कितनी प्रगाढ़ मित्रता थी । आज मथुरा में बस कर उन्होंने वह मित्रता और पुराण सम्बन्ध सब भुला दिया । यह समय का परिवर्तन ही है और क्या कहा जाये ?

राग सारंग

मधुकर! राखु जोग की बात।
कहि कहि कथा स्यामसुंदर की सीतल करु सब गात॥
तेहि निर्गुन गुनहीन गुनैबो सुनि सुंदरि अनखात।
दीरघ नदी नाव कागद की को देख्यो चढ़ि जात?
हम तन हेरि, चितै अपनो पट देखि पसारहि लात।
सूरदास वा सगुन छाँड़ि छन जैसे कल्प बिहात॥११३॥

गोपियाँ उद्धव के निर्गुण सिद्धांत को बिलकुल भी सुनना नहीं चाहतीं । उनका कथन है कि निर्गुण की चर्चा से उनकी वियोग व्यथा कैसे दूर हो सकती है । वे कृष्ण के सगुण रूप के बिना एक क्षण भी जीवित नहीं रहना चाहतीं । उनके लिए तो सगुण के बिना एक क्षण कल्प के समान बीतता है ।

हे उद्धव ! तुम अपनी यह निर्गुण ब्रह्म-विषयक बातें दूर रखो । हमें तुम्हारी योग साधना की बातें अच्छी नहीं लगतीं । हाँ यदि तुम कुछ कहना चाहते हो तो श्री कृष्ण की मधुर कथा कह कर हमारे शरीर को शीतल कर दो । श्री कृष्ण की मधुर चर्चा से हमारा संतप्त शरीर आनंद से भर जायेगा । उस गुणहीन ब्रह्म को गुणयुक्त बनाने से ब्रज की सभी सुंदरियाँ क्रुद्ध हो जाती हैं । अतः यही अच्छा होगा कि उस गुणहीन का प्रशस्ति गान अब अधिक ना करो । उद्धव जी ! भला यह तो बताओ कि कागज की नाव द्वारा विशाल नदी को पार नहीं किया जा सकता । उसी प्रकार निस्सार निर्गुण सिद्धांतों को जो कागज की नाव के सदृश हैं जानकार वियोग व्यथा की विशाल नदी को कैसे पार सकते हैं ? पहले आप हमारी ओर देखिये । हमारी दशा पर विचार कीजिये अर्थात हमारी क्षमता और शक्ति की सीमा को समझिये । पुनः अपने वस्त्र की सीमा को देखकर पैर फैलाइये अर्थात अपने निर्गुण ब्रह्म की क्षमता समझ कर ही तुम्हें अपने पैर फैलाने चाहिए । तुम्हें जानना चाहिए कि क्या तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म हम भोली-भाली ब्रज बालाओं के दुःख को दूर करने में समर्थ हो सकता है । यदि वह समर्थ नहीं है तो तुम्हरा यह प्रयास निरर्थक है । अपनी क्षमता के आधार पर ही यह प्रयास करना चाहिए । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि हे उद्धव ! हमें तो उस सगुण श्री कृष्ण के दर्शन के बिना एक – एक क्षण एक – एक कल्प के समान बीतता है । उनके बिना समय काटे नहीं कटता ।

राग बिलावल

ऊधो! तुम अति चतुर सुजान।
जे पहिले रँग रंगी स्यामरँग तिन्हैं न चढ़ै रँग आन॥
द्वै लोचन जो विरद किए स्रुति गावत एक समान।
भेद चकोर कियो तिनहू में बिधु प्रीतम, रिपु भान॥
बिरहिनि बिरह भजै पा लागों तुम हौ पूरन-ज्ञान।
दादुर जल बिनु जियै पवन भखि, मीन तजै हठि प्रान॥
बारिजबदन नयन मेरे पटपद कब करिहैं मधुपान?
सूरदास गोपीन प्रतिज्ञा, छुवत न जोग बिरान॥११४॥

गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि रूचि की विभिन्नता के कारण एक ही वस्तु लोगों को भिन्न – भिन्न प्रतीत होती है । अतः सगुण श्री कृष्ण के प्रेम में अनुरक्त होने के कारण उन्हें उद्धव का निर्गुण ब्रह्म किसी भी रूप में अच्छा और रुचिकर नहीं लगता ।

हे उद्धव ! तुम तो अत्यंत प्रवीण और ज्ञानी प्रतीत होते हो । मूढ़ हो तो उसके सम्बन्ध में कुछ कहा भी जा सकता है लेकिन तुम्हारी चतुराई और ज्ञान के बारे में अविश्वास कैसे किया जाये ? अतः तुम जैसे चतुर और ज्ञानी से स्पष्ट रूप से कह रही हैं कि जिस पर श्याम रंग चढ़ जाता है उस पर दूसरा रंग नहीं चढ़ सकता । आशय यह है कि जो श्री कृष्ण के प्रगाढ़ प्रेम सूत्र में बंध चुका है वह दूसरे के प्रेम से कैसे प्रभावित हो सकता है ? क्या तुम्हें यह विदित नहीं कि उपनिषद और वेदादि में सूर्य और चन्द्रमा ईश्वर के दो नेत्रों के रूप में मान्य हैं और वे इनका इसी रूप में यश गाने और इन दोनों के महत्व का निरूपण समान रूपेण करते हैं । फिर भी रूचि भेद के कारण चकोर पक्षी ने दोनों को भिन्न – भिन्न माना है अर्थात उसने चन्द्रमा को अपना प्रियतम समझा और सूर्य को शत्रु । इसी प्रकार तुम्हारे चरण पकड़ती हैं हम विरहिणी तो अपने वियोग को ही अच्छा समझती हैं । तुम तो पूर्ण ज्ञानी हो इस कारण हमारे विरह के महत्त्व को समझते हो । आशय है कि तुम्हारी निर्गुणोपासना से अच्छा तो यही है कि हम सब श्री कृष्ण के वियोग में ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर दें। हे उद्धव ! प्रेमोपासक भी भिन्न – भिन्न कोटि के होते हैं । जैसे जल से प्रीति रखने वाला मेढक उसके अभाव में मरता नहीं और हवा पीकर जीवित रहता है लेकिन मेढक की तुलना में मछलियों की स्थिति भिन्न है । वे जल के ना रहने पर हठ पूर्वक अपने प्राण त्याग देती हैं । व्यंजना यह है कि तुम अपने उपास्य के आभाव में भले ही जीवित रहो लेकिन हम सब श्री कृष्ण के बिना जीवित नहीं रह सकतीं । हे उद्धव ! सच बताओ हमारे इन भ्रमर रुपी नेत्रों को श्री कृष्ण के कमलवत मुख के मधुपान ( सौंदर्य रस के आस्वादन ) का सुयोग कब प्राप्त होगा ? कब उनका दर्शन होगा ? सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि उन्होंने संकल्प कर लिया है कि प्रेम साधना में रत इस पराये योग साधना को वे किसी भी प्रकार स्पर्श नहीं करेंगी । आशय यह है कि जो श्री कृष्ण कि अनन्य भाव से उपासिका हैं वे निर्गुण ब्रह्म की साधना को कैसे ग्रहण कर सकती हैं ।

राग बिलावल 

ऊधो! कोकिल कूजत कानन।
तुम हमको उपदेस करत हौ भस्म लगावन आनन॥
औरों सब तजि, सिंगी लै लै टेरन, चढ़न पखानन।
पै नित आनि पपीहा के मिस मदन हनत निज बानन॥
हम तौ निपट अहीरि बावरी जोग दीजिए ज्ञानिन।
कहा कथत मामी के आगे जानत नानी नानन॥
सुन्दरस्याम मनोहर मूरति भावति नीके गानन।
सूर मुकुति कैसे पूजति[१] है वा मुरली को तानन?॥११५॥

गोपियाँ उद्धव से स्पष्ट संकेत कर रही हैं कि दोनों की परिस्थितियों में कितना अंतर है । वे उद्धव की अज्ञानता से दुखित होकर कहती हैं कि एक ओर तो कोयल बसंतागमन की घोषणा कर रही है दूसरी ओर वे भस्म लगाने की बात कर रहे हैं । प्रकृति क्या कह रही है , इसे भी तो समझें ।

हे उद्धव ! जरा कोयल की कूक पर तो ध्यान दीजिये। वह वन में कूकती हुयी बसंत की सूचना दे रही है और तुम हमें निर्गुण ब्रह्मोपासना का उपदेश दे कर मुख पर भस्म लगाने का आग्रह कर रहे हो । तुम इतने अज्ञानी हो कि प्रकृति के भी स्वर को नहीं पहचान पा रहे हो । आशय यह है कि बसंत के अवसर पर मुँह पर अबीर गुलाल लगाना चाहिए किन्तु तुम उसकी जगह मुख पर राख लगाने की बात कर रहे हो । यही नहीं और सभी साज – श्रृंगार को छोड़कर पर्वत की शिलाओं पर बैठ कर योगियों की सी मुद्रा में तुम सिंगी – बाजा फूंकने पर बल दे रहे हो लेकिन इस साधना को ग्रहण करने में हम सब असमर्थ हैं क्योंकि इधर पपीहा की पी – पी की आवाज को सुन कर श्री कृष्ण की स्मृति जग जाती है । सत्य तो यह है कि हम लोग बिलकुल मूर्ख और अहीरनी हैं । आपके निर्गुण ब्रह्म की बातों को क्या समझें ? अरे निर्गुण ज्ञान की बातों का उपदेश तो आप ज्ञानियों को दीजिये । व्यंजना यह है कि ज्ञानी श्री कृष्ण और परम विदुषी कुब्जा दोनों ही इसका मर्म जान सकते हैं , उन्हीं को यह ज्ञान दीजिये । इसकी पात्रता हम में नहीं है । हम सब अच्छे से जानती हैं यह योग सन्देश कृष्ण ने नहीं भेजा है । वह कब से योगी बन बैठा ? अरे उसकी तो हम नस – नस जानती हैं । तुम उसके योगी होने की चर्चा हमारे सामने क्यों कर रहे हो ? तुम्हारी इस प्रकार की बातें तो उस कहावत को चरित्रार्थ कर रही हैं जिसमें मामी के सामने नानी और नाना की चर्चा की जाये । भला यह बताओ कि नाना – नानी क्या नहीं जानते जो मामी के आगे कह रहे हो ? तात्पर्य यह है कि कल तो वह हम सब का दूध – दही चुराता रहा और आज वह योग – साधना की बातें करने लगा । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि उद्धव ! हमें तो श्री कृष्ण की मनोहारिणी मूर्ति और उनके सुन्दर गीत ही अच्छे लगते हैं । क्या श्री कृष्ण की मधुर वंशी की ध्वनि के आनंद की समता तुम्हारा मुक्ति जनित आनंद कभी कर सकता है ? तात्पर्य यह है कि हम सब के लिए तो मुरली की ध्वनि का सुख मुक्ति से अधिक बढ़कर है ।

राग सारंग

ऊधो, हम अजान मतिभोरी।
जानति हैं ते जोग की बातें नागरि नवल किसोरी॥
कंचन को मृग कौनै देख्यौ, कोनै बाँध्यो डोरी?
कहु धौं, मधुप! बारि मथि माखन कौने भरी कमोरी?
बिन ही भीत चित्र किन काढ्यो, किन नभ बाँध्यो झोरी?
कहौ कौन पै कढ़त कनूकी जिन हठि भूसी पछोरी॥
यह ब्यवहार तिहारो, बलि बलि! हम अबला मति थोरी।
निरखहिं सूर स्याम-मुख चंदहि अँखिया लगनि-चकोरी॥११६॥

गोपियों के कथनानुसार योग की साधना भोली – भाली अहीर की अबलाओं के लिए सर्वथा अनुपयुक्त है । मतिहीन ब्रज की इन अबलाओं के लिए निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश स्वर्ण मृग को डोरी से बाँधने के समान असंभव है ।

हे उद्धव ! आप जो योग की चर्चा कर रहे हैं उसे हम अज्ञानी गोपियाँ क्या समझें ? अरे योग की बातें तो जो चतुर नवल किशोरियां हैं वे समझती हैं । तुम बलात इसे हमारे गले मढ़ रहे हो किन्तु तुम्हें इसमें सफलता नहीं मिलेगी । यह तो बताओ कि किसने सोने का मृग देखा है और उसे किसने डोरी में बाँधा है अर्थात जैसे सोने के मृग को देखा नहीं जा सकता और न उसे बांधा जा सकता है उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म को न आँखों से देखा जा सकता है और न उसे अपने वश में किया जा सकता है । सोने का मृग तो मारीच के रूप में सीता ने देखा था , लेकिन वह असत्य और मायावी था , उसे राम ने न पकड़ा न बांधा । वह तो मायामृग मारीच था । उद्धव जी यह तो बताओ कि किसने पानी को मथकर मक्खन निकाला और उसे अपनी मटकी में भरा है ? तात्पर्य यह है कि जैसे पानी से मथकर मक्खन नहीं निकाला जा सकता उसी प्रकार तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म से सगुण श्री कृष्ण जैसा आनंद नहीं प्राप्त किया जा सकता । क्या कभी किसी ने बिना दीवाल या बिना आधार के चित्र बनाया है ? अर्थात शून्य भित्ति पर चित्र रचना नहीं की जा सकती – यह असंभव है । इसी प्रकार किसने आकाश को झोली में बाँध कर रखा है ? क्या अनंत आकाश भी एक छोटी सी झोली में समा सकता है ? आशय यह है कि जैसे एक छोटी सी झोली में अनंत आकाश को बाँध कर नहीं रखा जा सकता उसी तरह गोपियाँ अपनी छोटी सी बुद्धि के द्वारा अनंत और अपार निर्गुण ब्रह्म के सम्बन्ध में कैसे विचार कर सकती हैं ? और निराकार की उपासना तो उसी प्रकार है जैसे बिना आधार के चित्र रचना । तुम जो हठपूर्वक हम अबलाओं को योग साधना की ओर प्रवृत्त कर रहे हो उसमें तुम्हें कैसे सफलता मिल सकती है ? भला यह तो बताओ किसने बलात भूसी को फटक कर अन्न के कणों को प्राप्त किया है अर्थात जैसे निःसार निर्गुण ब्रह्म वास्तविक आनंद की प्राप्ति संभव नहीं । तुम्हारे ऐसे अटपटे और विचित्र व्यव्हार पर हम बुद्धिहीन अबलाएं बलिहारी हैं । आशय यह है कि तुम्हारे ऐसे व्यवहार पर ( अबलाओं को निर्गुण ब्रह्म की साधना पर प्रवृत्त करने के कार्य कलाप पर ) हम अत्यंत दुखित हैं । सूर के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि हे उद्धव ! हमारी आंखें तो श्याम सुन्दर के चंद्र मुख को उसी लगन से देखा करती हैं जैसे चकोरी बहुत तन्मयता के साथ चन्द्रमा की और देखती रहती है ।

राग गौरी

ऊधो! कमलनयन बिनु रहिए।
इक हरि हमैं अनाथ करि छाँड़ी दुजे बिरह किमि सहिए?
ज्यों ऊजर खेरे की मूरति को पूजै, को मानै?
ऐसी हम गोपाल बिनु उधो! कठिन बिथा को जानै?
तन मलीन, मन कमलनयन सों मिलिबे की धरि आस।
सूरदास स्वामी बिन देखे लोचन मरत पियास॥११७॥

गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि कमल नेत्र श्री कृष्ण के बिना एक क्षण भी जीवित रहना उनके लिए संभव नहीं क्योंकि वियोग की पीड़ा गोपियों के लिए असहनीय है ।

हे उद्धव ! अब तो कमल नेत्र श्री कृष्ण के बिना रह रहे हैं । उनके दर्शन से वंचित हमारे जीवन के क्षण कैसे बीत रहे हैं इसे कौन जानता है ? एक तो श्री कृष्ण ने हमें छोड़ दिया । उन्होंने हमारी कोई सुध नहीं ली । दूसरे वियोग – व्यथा को कैसे सहन करें ? वियोग भी हमें जीवित नहीं रहने दे रहा है । हमारी तो वह दशा है जैसे उजड़े गाँव में मूर्ति होती है । वहां मूर्ति की कौन पूजा करता है ? कौन उसका सम्मान करता है ? आशय यह है कि जब से श्री कृष्ण इस ब्रज मंडल को छोड़ कर गए हैं । यह उजड़े गाँव कि भांति प्रतीत होता है और मूर्ति की  भांति यहाँ अब हमें न कोई मानने वाला है न कोई सम्मान देने वाला । हे उद्धव ! हमारी इस कठिन व्यथा को गोपाल के बिना कौन जान सकता है? श्री कृष्ण के बिना हमारा तन मलिन रहता है । हमारे तन में सौंदर्य भी क्षीण हो चुका है। आशय यह है कि कभी शृंगारादि का अवसर नहीं मिलता । सदैव वियोग की पीड़ा में हम सब संग्रस्त रहती हैं । केवल मन में एक आशा उनके दर्शन की बनी रहती है । यह विश्वास आज भी बना है कि कभी कमल नेत्र श्री कृष्ण से हमारी भेंट होगी । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि स्वामी कृष्ण के दर्शन की पिपासा में हमारे नेत्र मरते रहते हैं । इन नेत्रों की व्याकुलता श्री कृष्ण के दर्शन के अभाव के कारण निरंतर बढ़ती रहती है ।

राग सारंग

ऊधो! कौन आहि अधिकारी?
लै न जाहु यह जोग आपनो कत तुम होत दुखारी?
यह तो वेद उपनिषद मत है महापुरुष ब्रतधारी।
हम अहीरि अबला ब्रजबासिनि नाहिंन परत सँभारी॥
को है सुनत, कहत हौ कासों, कौन कथा अनुसारी?
सूर स्याम-सँग जात भयो मन अहि केंचुलि सी डारी॥११८॥

गोपियों को दुःख है कि उद्धव यह भी नहीं जानते कि इस योग साधना का कौन अधिकारी है । वे उद्धव के बार – बार आग्रह करने पर क्रुद्ध हो जाती हैं और उन्हें फटकार बताती हुयी स्पष्ट शब्दों में इसे ग्रहण करने से मना कर देती हैं ।

हे उद्धव ! आश्चर्य नहीं है कि आप यह भी नहीं जानते कि इस योग साधना का कौन अधिकारी है ? आशय यह है कि आप उसे योगोपदेश दीजिये जो इसके मर्म को समझता हो । अतः हम सब इसे ग्रहण करने में असमर्थ हैं । तुम अपने इस योग को यहाँ से ले क्यों नहीं जाते और इसे ग्रहण न करने पर तुम दुखित क्यों हो रहे हो ? अरे यह तो अपनी इच्छा की बात है । यदि हम तुम्हारे योग को नहीं पसंद करतीं तो तुम्हें दुखित नहीं होना चाहिए और न किसी प्रकार के अपमान का अनुभव ही करना चाहिए । हे उद्धव ! वेद और उपनिषदों का भी यही विचार है कि योग साधना महापुरुष और साधक जन ही करते हैं । वे ही इसके अधिकारी हैं । हम सब अहीरनी तो ब्रज की रहने वाली अबला हैं । अज्ञानी और अबोध हैं । हम इस योग साधन के गुरुतम भाव को कैसे संभाल सकती हैं ? यह हमसे संभल नहीं पा रहा है । हम सब इसके सर्वथा अनुपयुक्त हैं । तुम तो अधिकारी और अनधिकारी कि पहचान न रखते हुए बार – बार हमें योगोपदेश दे रहे हो किन्तु यहाँ तुम्हारी बातों को कौन सुन रहा है और तुम इसे किसको सुना रह हो ? किसे अपना उपदेश दे रहे हो ? और यह कौन सी कथा का प्रसंग तुमने छेड़ दिया है । तात्पर्य है कि तुम्हारी जिन बातों में ब्रजवासियों की बिलकुल रूचि नहीं है उनका प्रसंग छेड़ना अच्छा नहीं है । हमारा मन तो श्याम सुन्दर के साथ ही चला गया । अब तुम्हारे योग का चिंतन करने वाला मन हमारे पास कहाँ है ? और उस मन ने इस शरीर को उसी प्रकार छोड़ दिया जिस प्रकार सर्प बिना किसी मोह के केंचुल छोड़ कर चला जाता है । तात्पर्य यह है कि अब बिना मन के यह निर्जीव शरीर पड़ा है । जब मन ही नहीं है तो तुम्हारी बातों को कौन सुनेगा ?

राग जैतश्री

ऊधो! जो तुम हमहिं सुनायो।
सो हम निपट कठिनई करिकै या मन कोँ समुझायो॥
जुगुति जतन करि हमहुँ ताहि गहि सुपथ पंथ लौँ लायो।
भटकि फिर्‌यो बोहित के खग ज्योँ, पुनि फिरि हरि पै आयो॥
हमको सबै अहित लागति है तुम अति हितहि बतायो।
सर-सरिता-जल होम किये तें कहा अगिनि सचु पायो?
अब वैसो उपाय उपदेसौं जिहि जिय जात जियायो।
एक बार जौ मिलहिं सूर प्रभु कीजै अपनो भायो॥११९॥

इस पद में गोपियाँ अपने मन की विवशता का उल्लेख बहुत ही मनोवैज्ञानिक ढंग से कर रही हैं । उद्धव को गोपियाँ असंतुष्ट नहीं करना चाहतीं और उनकी योग साधना को भी स्वीकार करती हैं लेकिन वे अपने मन को नियंत्रित नहीं कर पातीं । मन इस योग साधना को किसी भी रूप में ग्रहण नहीं करना चाहता । यही गोपियों की विवशता है ।

हे उद्धव ! तुमने जो योग साधना की बातें बतायीं उन्हें हमने सहर्ष स्वीकार किया और उन बातों को बड़ी कठिनाई के साथ मन को भी समझाया । यद्यपि मन इसे ग्रहण नहीं कर रहा था । किन्तु हमने बार – बार उसे इस मार्ग पर चलने के लिए विवश किया । यही नहीं , बड़ी युक्ति और यत्न के साथ उसे पकड़ कर योग मार्ग तक पहुंचाया । योग साधना के लिए बाध्य किया है परन्तु वह जहाज के पक्षी की भांति इस मार्ग को देखकर भटकता रहता है । उसे कहीं शरण नहीं मिलती और अंत में विवश होकर उसी जहाज पर लौट आता है । हमारा मन भी जहाज के पक्षी की भांति एक मात्र श्री कृष्ण की शरण में ही संतोष प्राप्त करता है । यद्यपि तुमने हमारे हित की बातें बतायीं । तुमने योग साधना की चर्चा हमारे कल्याण के लिए की लेकिन अपने मन की विवशता के कारण तुम्हारी ये हितकारी बातें हमें अहितकर प्रतीत होती हैं । हमें यह रुचिकर नहीं लगतीं। तुम्हारी ये हितकर बातें उसी प्रकार अच्छी नहीं लगतीं जैसे यदि कोई तालाब और नदियों के जल से होम करें तो अग्नि को उस से सुख नहीं मिलता । आशय यह है कि हव्य सामग्री के बिना जल द्वारा होम करने पर अग्नि को सुख नहीं मिलता । जल की शीतलता से तो अग्नि बुझ जाती है क्योंकि अग्नि और जल प्रकृतिगत विरोध है । अब वही उपाय बताएं । उसी उपाय का उपदेश दें । जिस से श्री कृष्ण के वियोग में इन निकलते प्राणों को हम जीवित कर सकें । इन प्राणों की रक्षा कर सकें । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि यदि एक बार श्री कृष्ण का दर्शन हो जाये तो वे उद्धव की सभी अभीष्ट बातों का पालन करेंगीं । आशय यह है कि श्री कृष्ण के दर्शन के लिए वे योग साधना के बंधन को भी स्वीकार कर लेंगीं ।

राग सारंग

ऊधो! जोग बिसरि जनि जाहु।
बाँधहु गाँठि कहूँ जनि छूटै फिरि पाछे पछिताहु॥
ऐसी बस्तु अनूपम मधुकर मरम न जानै और।
ब्रजबासिन के नाहिं काम की, तुम्हरे ही है ठौर॥
जो हरि हित करि हमको पठयो सो हम तुमको दीन्हीं।
सूरदास नरियर ज्यों विष को करै बंदना कीन्हीं॥१२०॥

इस पद में गोपियों ने तीखे व्यंग्य भरे शब्दों में उद्धव के योग का उपहास किया है । यहाँ गोपियाँ उद्धव को समझा रही हैं कि इस बात को  गाँठ बाँध के रखो ।

हे उद्धव ! तुम यहाँ योग और ज्ञान जैसी बहुमूल्य वस्तु लेकर पधारे हो अतः इसे गाँठ बाँध रखो । यह योग कहीं छूट न जाये । योग जैसी अमूल्य वस्तु के गिर जाने पर तुम्हारी बहुत बड़ी हानि हो जाएगी । अतः इसे दृढ़तापूर्वक गाँठ बाँध लो । कहीं खुलने न पाए अन्यथा पछताना पड़ेगा । यदि यह गाँठ खुल गयी और इसमें सुरक्षित बहुमूल्य योग कहीं खो गया तो आपका सर्वस्व चला जायेगा । तुम्हारी इस अनुपम और बहुमूल्य वस्तु अर्थात योग का मर्म जानने वाला यहाँ कोई नहीं है । अतः वह यदि किसी को मिल भी जाये तो वह कौड़ी के बराबर भी उसका मूल्य नहीं आंक पायेगा । कहने का आशय यह है कि यह ब्रजवासियों के लिए किसी भी काम की वस्तु नहीं है । यह तुम्हें ही जंचती है । तुम्हारे निकट ही इसे स्थान मिल सकता है । इसका मूल्य तुम जैसे ज्ञानी ही कर सकते हो । तुम इसे मथुरा के मर्मज्ञों ( कृष्ण और कुब्जा आदि को ) दिखाओ । वे ही इसे ग्रहण करेंगे । इस बहुमूल्य योग को श्री कृष्ण ने बड़ी कृपा करके हमारे पास भेजा है । अब उनकी भेजी हुयी वस्तु को हम आपको भेंट कर रही हैं । व्यंजना यह है कि श्री कृष्ण ने जिस निष्ठुरता के साथ हमारे पास योग का यह सन्देश भेजा है उसकी जितनी निंदा की जाये कम है । हम इसे तुम्हें वापस कर रही हैं और कह देना कि यह हमें स्वीकार्य नहीं है । सूरदास के शब्दों में उद्धव के प्रति गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! तुम जो यह योग रुपी विषैला नारियल लाये हो उसे दूर से ही प्रणाम करते बनता है । आशय यह है कि विषैला नारियल किसी काम का नहीं होता । वह केवल पूजा के कार्यों में ही प्रयुक्त हो सकता है । उसी प्रकार तुम्हारा यह योग गोपियों के किसी काम का नहीं है क्योंकि इसे ग्रहण करने पर प्राणस्वरूप श्री कृष्ण से वंचित होना पड़ेगा जो हमें वांछनीय नहीं है । हाँ यह योगियों के बड़े काम की वस्तु सिद्ध होगी ।

राग सारंग 

ऊधो! प्रीति न मरन बिचारै।
प्रीति पतंग जरै पावक परि, जरत अंग नहिं टारै॥
प्रीति परेवा उड़त गगन चढ़ि गिरत न आप सम्हारै।
प्रीति मधुप केतकी-कुसुम बसि कंटक आपु प्रहारै॥
प्रीति जानु जैसे पय पानी जानि अपनपो जारै।
प्रीति कुरंग नादरस, लुब्धक तानि तानि सर मारै॥
प्रीति जान जननी सुत-कारन को न अपनपो हारै?
सूर स्याम सोँ प्रीति गोपिन की कहु कैसे निरुवारै॥१२१॥

इस पद में गोपियाँ उद्धव को समझा रही हैं कि प्रेम के मार्ग में मृत्यु की भी चिंता नहीं की जाती । वे अनेक प्रेम पात्रों के आदर्श गुणों की चर्चा करती हुयी यह संकेत करती हैं कि यदि श्री कृष्ण के लिए यह जीवन देना भी पड़े तो चिंता की बात नहीं ।

हे उद्धव ! प्रेम के मार्ग में मृत्यु का विचार नहीं किया जाता अर्थात मृत्यु के भय से कोई साधक अपने मार्ग से कभी विचलित होते नहीं देखा गया । प्रेम साधकों को प्रेम मार्ग पर चलने से कुछ ऐसा आनंद मिलता है कि वे हँसते – हँसते जीवन को उत्सर्ग कर देते हैं जैसे प्रेम के ही कारण पतंगा दीपक की आग में पड़ कर अपने जीवन को समाप्त कर देता है । वह चाहे तो दीपक की ज्वाला से भाग जाये लेकिन दीपक के प्रति उसका ऐसा प्रेम है कि वह उसमें जल जाता है और जलते समय उस आग से अपने तन को हटाता नहीं है । उड़कर चला नहीं जाता । कबूतर भी जब बहुत ऊंचे आकाश में पहुँच जाता है और वहां से जब अपनी कबूतरी को देखता है तो इतनी तेजी से उस पर गिरता है कि अपने प्राणों की भी चिंता नहीं करता । इतने ऊँचे आकाश से गिरने पर उसकी मृत्यु हो सकती है लेकिन कबूतरी के प्रेम में उसे मृत्यु की चिंता ही नहीं होती । प्रेम के ही कारण भ्रमर केतकी पुष्प में बस जाता है और यह नहीं देखता कि उसके तीक्ष्ण काँटों से उसके कोमल अंग विदीर्ण हो जायेंगे । वह इसकी चिंता किये बिना स्वयं ही कांटे की चोट सहता है । प्रेम तो दूध और पानी का देखना चाहिए । दूध जब आग में जलता है तो पानी दूध के प्रेम में आत्मभाव के कारण उसे बचाता है और अपने आप को जला देता है । आदर्श प्रेमी तो हिरण होते हैं जो संगीत के आनंद में मुग्ध हो जाते हैं और प्रेम की ऐसी तन्मयता देखकर बहेलिया खूब कस कस कर उस पर बाणों का प्रहार करता है । इस प्रहार से वो अपनी उस संगीत की तन्मयता से विलग नहीं हो पाता। प्रेम के ही कारण कौन माता अपने पुत्र के लिए अपने सुख दुःख को नहीं त्याग देती । आशय यह है कि माता की सभी चिंता पुत्र के सुख दुःख के लिए होती है । अपने आपके लिए नहीं । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! हम गोपियों का प्रेम भी इसी प्रकार श्याम सुन्दर से है । भला बताओ ऐसे प्रेम को कैसे दूर किया जा सकता है ?

राग रामकली

ऊधो! जाहु तुम्हैं हम जाने।
स्याम तुम्हैं ह्याँ नाहिं पठाए तुम हौ बीच भुलाने॥
ब्रजवासिन सौँ जोग कहत हौ, बातहु कहन न जाने।
बड़ लागै न विवेक तुम्हारो ऐसे नए अयाने॥
हमसोँ कही लई सो सहिकै जिय गुनि लेहु अपाने॥
कहँ अबला कहँ दसा दिगंबर सँमुख करौ, पहिचाने॥
सांच कहौ तुमको अपनी सौं[१] बूझति बात निदाने।
सूर स्याम जब तुम्हैं पठाए तब नेकहु मुसुकाने?॥१२२॥

गोपियाँ जब उद्धव की धृष्टता से ऊब जाती हैं तो वे अपने तीखे व्यंग्य द्वारा उन्हें बनाने की पूर्ण चेष्टा करती हैं । प्रस्तुत पद में उद्धव के प्रति गोपियों के व्यंग्य , विनोद और उपहास का बड़ा ही यथार्थ और सहज रूप व्यक्त हुआ है ।

हे उद्धव ! जाओ हमने तुम्हें ठीक तरह से पहचान लिया अर्थात तुम इस भ्रम में मत रहो कि हम तुम्हारे मर्म को नहीं समझतीं । अरे हमें तो ऐसा लगता है कि श्यामसुंदर ने तुम्हें हमारे पास नहीं भेजा , कहीं अन्यत्र भेजा था लेकिन बीच में ही अपना रास्ता भूल गए हो और यहाँ पहुँच गए । तुम ब्रजवासियों से योग की चर्चा कर रहे हो लेकिन ब्रजवासियों से इस प्रकार की बात करनी चाहिए या नहीं इसे तुम नहीं जानते । आशय यह है कि श्री कृष्ण ने अपना योग सन्देश विवेकशील प्राणियों के पास भेजा था लेकिन तुम हम अज्ञानियों के पास पहुँच गए । अतः तुम अपनी बात अर्थात दार्शनिक जटिलताओं को समझाना भी नहीं जानते । तुम्हारा यह विवेक हमें बड़ा नहीं लगता । इसमें तुम्हारी थोड़ी समझदारी का परिचय मिलता है और तुम एक नए या विचित्र ढंग के अज्ञानी प्रतीत होते हैं क्योंकि आज तक हमने नहीं सुना कि स्त्रियों को भी योग साधना की ओर प्रवृत्त किया जाये । भला अज्ञानी अहीर की स्त्रियां योग के मर्म को क्या जाने ? तुमने ऐसी मूर्खता और ह्रदय को पीड़ित करने वाली जो बातें हमें बतायीं उसे हमने तो किसी प्रकार सहन कर लिया लेकिन अपने मन में जरा विचार कर के देखो कि अबला और दिगंबर साधु की दशा में कितना अंतर है । एक वीतराग सांसारिक लिप्सा और घर गृहस्थ से दूर और दूसरे वे हैं जो सांसारिक जीवन में पगे हैं । इन दोनों में मेल कैसे हो सकता है ? इसे तुम प्रत्यक्ष पहचानने का प्रयत्न करो। कोरे सिद्धांतों के द्वारा दोनों के तात्विक अंतर को नहीं समझा सकते। छोडो इन बातों को । हमें अंततः तुमसे एक बात पूछनी है , तुम्हें हमारी सौगंध है । सच – सच बताना वह यह कि जब कृष्ण ने तुम्हें हमारे पास भेजा था तो क्या वे किंचित मुस्कुराये भी थे । यदि भेजते समय वे मुस्कुराये थे तो निश्चय ही उन्होंने तुम्हारे साथ मजाक किया है और तुम्हें मूर्ख बनाने के लिए हमारे पास योग का सन्देश भेजा है । व्यंजना यह है कि उन्होंने जान बूझ कर तुम्हारे ज्ञान गर्व से स्फुरित व्यक्तित्व को समाप्त करने के उद्देश्य से यहाँ भेजा है और यह भी सोचा होगा कि तुम प्रेम और भक्ति की गरिमा को समझो ।

राग धनाश्री

ऊधो! स्यामसखा तुम सांचे।
कै करि लियो स्वांग बीचहि तें, वैसेहि लागत कांचे।
जैसी कही हमहिं आवत ही औरनि कही पछिताते।
अपनो पति तजि और बतावत महिमानी कछु खाते॥
तुरत गौन कीजै मधुबन को यहां कहां यह ल्याए?
सूर सुनत गोपिन की बानी उद्धव सीस नवाए॥१२३॥

गोपियाँ श्री कृष्ण और उद्धव की प्रकृति की समता करती हुयी कह रही हैं कि दोनों ही स्वांग करने में कच्चे हैं अर्थात गंवार हैं । इन्हें स्वांग करना भी नहीं आता क्योंकि दोनों के स्वांग की कलई खुल गयी ।

हे उद्धव ! क्या सचमुच तुम श्री कृष्ण के सच्चे मित्र हो अथवा बीच में ही स्वांग रचकर हम सब को धोखा देने आये हो ? क्योंकि तुम उन्हीं के स्वभाव के लगते हो । उन्होंने भी हम लोगों से प्रेम का अभिनय किया था क्योंकि कुछ समय तक हम लोगों को उन्होंने अपने झूठे प्रेम में फंसाया और अंत में कुब्जा से प्रेम कर लिया। तुम भी उन्हीं की भांति कच्चे लगते हो । स्वांग करना नहीं जानते और इस कला में गंवार प्रतीत होते हो । तुमने आते ही हमसे जिस प्रकार की बातें कहीं अर्थात श्री कृष्ण को छोड़ कर जो निर्गुण ब्रह्म की उपासना का मार्ग बतलाया यदि वैसी ही बातें किसी दूसरे से करते तो निश्चय ही तुम्हें पछताना पड़ता अर्थात इस करनी का फल तुम्हें मिलता और यदि किसी स्त्री के समक्ष अपना पति छोड़ कर किसी दूसरे को ग्रहण करने की चर्चा करते तो तुम्हारी अच्छी आवभगत होती । व्यंजना यह है कि तुम्हें बहुत दंड मिलता । तुम्हारी भली-भाँति मरम्मत होती । हे उद्धव ! उत्तम यही है कि तुम शीघ्र ही मथुरा के लिए प्रस्थान कर दो और यह योग तुम यहाँ कहाँ लाये हो , यहाँ कौन इसका पारखी है ? सूर के शब्दों में गोपियों कि वाणी को सुनते ही उद्धव ने अपना मस्तक झुका लिया । वे निरुत्तर हो गए । उनसे कुछ कहते न बना ।

राग केदारो

ऊधोजू! देखे हौ ब्रज जात।
जाय कहियो स्याम सों या विरह को उत्पात॥
नयनन कछु नहिं सूझई, कछु श्रवन सुनत न बात।
स्याम बिन आंसुवन बूड़त दुसह धुनि भइ बात॥
आइए तो आइए, जिय बहुरि सरीर समात।
सूर के प्रभु बहुरि मिलिहौ पाछे हू पछितात॥१२४॥

कृष्ण के बिना गोपियों की दशा अत्यंत दयनीय हो गयी । प्राण शक्तियां शनैः शनैः क्षीण हो रही हैं । गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि यह उनका अंतिम समय है । यदि ऐसे समय उनका दर्शन हो जाता है तो शायद निकलते हुए ये प्राण शरीर में पुनः प्रवेश कर जाएं।

हे उद्धव ! तुम तो ब्रजवासियों की दशा प्रत्यक्ष रूपेण देखे जा रहे हो । तुमसे क्या छिपा है ? अतः वियोगजनित हम ब्रजवासियों की सभी परेशानियां श्री कृष्ण से स्पष्टरूपेण जा कर बता देना । हमारी स्थिति तो इस प्रकार दयनीय हो गयी है कि न आँखों से कुछ दिखाई पड़ता है । वियोग में रोते – रोते आँखों कि ज्योति क्षीण हो गयी है और न कानों से कुछ सुनाई पड़ता है । श्रवण शक्तियां भी समाप्त हो चुकी हैं । आँखें श्री कृष्ण के बिना आंसुओं में डूबी रहती हैं । तात्पर्य यह है कि आँखों से निरंतर आंसू बहते रहते हैं और उनका बहना बंद नहीं होता । आंसुओं के जल में आँखें डूबी रहने के कारण कारण कुछ दिखाई नहीं पड़ता और जो लोग बातें करते हैं कि उनकी ध्वनि श्याम के बिना कानो को असह्य हो गयी हैं । हम सब कृष्ण के बिना किसी भी प्रकार की बात सुनना पसंद नहीं करते । उनसे तुम स्पष्ट कह देना कि यदि वे आते हैं और हमें दर्शन देते हैं तो ये जाते हुए हमारे पररण शरीर में पुनः आ जायेंगे अर्थात हम पुनर्जीवित हो जायेंगीं अन्यथा यदि वे अवसर पर नहीं मिलते हैं तो उन्हें पछताना पड़ेगा । आशय यह है कि आशा में हमारे प्राण अटके हैं। यदि समय पर उनका दर्शन हो जाता है तो ये प्राण बने रहेंगे अन्यथा मर जाने पर यदि वे आते हैं तो उन्हें दुःख होगा और निराश होकर यहाँ से जाना पड़ेगा । हमारे मर जाने के बाद वे किस से मिलेंगे ?

राग नट

ऊधो! बेगि मधुबन जाहु।
जोग लेहु संभारि अपनो बेंचिए जहँ लाहु॥
हम बिरहिनी नारि हरि बिनु कौन करै निबाहु?
तहां दीजै मूर पूजै[२], नफा कछु तुम खाहु॥
जौ नहीं ब्रज में बिकानो नगरनारि बिसाहु।
सूर वै सब सुनत लैहैं जिय कहा पछिताहु॥१२५॥

गोपियाँ उद्धव के योग का उपहास कर रही हैं क्योंकि उद्धव की बातों को वे सुनते – सुनते ऊब गयी हैं और अब अधिक सुनने में असमर्थ हैं । उनका कथन है कि इस योग की अधिकारिणी कुब्जा जैसी नारियां हैं जो भोग में लिप्त हैं ।

हे उद्धव ! तुम शीघ्र ही मथुरा जाओ । तुम अपना योग अच्छी तरह संभाल लो और वहां बेचो जहाँ तुम्हें लाभ मिले । तात्पर्य यह है कि यहाँ तो तुम्हें लाभ के बदले हानि उठानी पड़ेगी क्योंकि यहाँ तुम्हारे योग के महत्व को कोई नहीं समझता । हाँ , मथुरा नगर में इसके अनेकों मर्मी मिल जायेंगे । हम सब विरहिणी नारियां हैं । श्री कृष्ण के बिना हमारा कौन निर्वाह कर सकता है ? हमें तो एकमात्र श्री कृष्ण का ही सहारा है । वे ही हम सबका निर्वाह कर सकते हैं । तुम अपने इस योग को वहां बेचो जहाँ तुम्हारी इसमें फँसी हुयी पूँजी निकल आवे और इस से कुछ कमाओ। देखो उद्धव ! दुःख मानने की बात नहीं है यदि तुम्हारा यह योग ब्रजमंडल में नहीं बिकता है तो मथुरा की नारियां इसे अवश्य खरीद लेंगीं वहीं इसे ले जाओ । वे इस योग को सुनते ही ले लेंगीं । तुम्हारा यह माल बिक नहीं रहा है इसके लिए तुम पश्चाताप क्यों कर रहे हो ? अरे यहाँ नहीं बिकता है तो मथुरा में तो बिक ही जायेगा ।

राग नट 

ऊधो! कछु कछु समुझि परी।
तुम जो हमको जोग लाए भली करनि करी॥
एक बिरह जरि रहीं हरि के, सुनत अतिहि जरी।
जाहु जनि अब लोन लावहु देखि तुमहिं डरी॥
जोग-पाती दई तुम कर बड़े जान हरी।
आनि आस निरास कीन्ही, सूर सुनि हहरी॥१२६॥

गोपियाँ उद्धव के योग सन्देश से असंतुष्ट हो कर उन्हें व्यंग्य पूर्ण शैली में भला बुरा कह रही हैं और डाँट रही हैं कि वे वियोग कि ज्वाला में जली गोपियों पर अब नमक न छिड़कें ।

हे उद्धव ! अब तुम्हारी बातें कुछ – कुछ हमारी समझ में आ रही हैं । सचमुच तुम जो हमारे लिए योग का सन्देश लाये हो यह तुम्हारा बहुत ही श्रेष्ठ कार्य है । व्यंजना यह है कि तुम्हारा योग सन्देश हमारे लिए एक निंदनीय कार्य सिद्ध हुआ है क्योंकि एक तो हम सब श्री कृष्ण के वियोग की ज्वाला में पहले ही से जली थीं , दूसरे तुम्हारे योग सन्देश को सुनकर और जल उठीं । तात्पर्य यह है कि हमें द्विगुणित पीड़ा हुई । अतः उत्तम यही होगा कि तुम यहाँ से चले जाओ और इस जले पर नामका मत छिड़को। एक दुःख से दूसरा दुःख देकर हमारी पीड़ा और मत बढ़ाओ । हम सब तुम्हें देखकर भयभीत हो गयी हैं । सोचती हैं कि अब न जाने तुम कौन सा दुःख डोज । अतिशय सुजान श्री कृष्ण ने तुम्हारे हाथों योग का पत्र अर्थात योग सन्देश भेजा है । आशय यह है कि यदि वे चतुर और बुद्धिमान होते तो हम अबलाओं के पास योग का सन्देश न भेजते। सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! तुमने आकर हमारी आशा को निराशा में परिणित कर दिया । अभी तक तो हम सब आशान्वित थीं कि श्री कृष्ण हम सब को दर्शन देंगे लेकिन अब उनके योग सन्देश को सुनकर हम सब बिलकुल निराश हो गयीं और दहल गयी हैं ।

राग धनाश्री

ऊधो! सुनत तिहारे बोल।
ल्याए हरि-कुसलात धन्य तुम घर घर पार्‌यो गोल॥
कहन देहु कह करै हमारो बरि उड़ि जैहै झोल।
आवत ही याको पहिंचान्यो निपटहि ओछो तोल॥
जिनके सोचन रही कहिबे तें, ते बहु गुननि अमोल।
जानी जाति सूर हम इनकी बतचल चंचल लोल॥१२७॥

इस पद में गोपियों ने उद्धव की प्रकृति का यथार्थ निरूपण किया है । गोपियों के अनुसार उद्धव अत्यंत बकवादी , लम्पट और बेईमान व्यक्ति हैं । उद्धव के प्रति गोपियों ने क्रुद्ध हो कर अपने ह्रदय का सच्चा उदगार व्यक्त किया है ।

हे उद्धव ! हम सब तुम्हारी बात को सुन रही हैं और अच्छी तरह उसे समझ भी रही हैं । तुम धन्य हो कि श्री कृष्ण की कुशलता का समाचार क्या लाये कि घर – घर में गड़बड़ी पैदा कर दी । तुम्हारे योग सन्देश को सुनकर घर – घर में कोहराम मच गया । व्यंजना यह है कि तुम्हारी दुष्टता की हद हो गयी क्योंकि तुमने श्री कृष्ण की कुशलता के बहाने ब्रज के प्रत्येक प्राणी को दुखी किया । उद्धव से जब कोई सखी इस प्रकार कह रही थी उसी समय एक अन्य गोपी ने कहा कि हे सखी ! यह जो कुछ कहता है । इसे कहने दो । उससे हमारी क्या हानि होगी ? हमारा कुछ बनता बिगड़ता नहीं है । इसकी बातें तुम देखोगी जल कर राख के रूप में उड़ जाएंगी । इसकी बकबकाहट कुछ देर में समाप्त हो जाएगी और उसका हम हैब पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा । हमने तो इसे आते ही पहचान लिया था कि यह अतिशय बेईमान प्रकृति का व्यक्ति है । इसकी नियत ठीक नहीं है और यह तौल में कम अर्थात हल्का है अर्थात स्वभाव का गंभीर नहीं है । अरी अभी तक तो हम जिनके संकोच ( जिस कृष्ण के सखा होने के कारण ) में कुछ भी कहने से रहीं अर्थात कुछ भी नहीं कहा लेकिन ये तो अमूल्य गुणवान निकले । बड़े ही गुणज्ञ और महान पुरुष प्रमाणित हुए । सूर के शब्दों में उस गोपी का कथन है कि हमने इनकी जाति पहचान ली अर्थात ये अतिशय बकवादी , चंचल और लम्पट स्वभाव के व्यक्ति हैं । इनकी बातों में किसी भी प्रकार की न गहराई है न सच्चाई । 127

राग नटनारायण

ऐसी बात कहौ जनि ऊधो!
ज्यों त्रिदोष उपजे जक लागति, निकसत बचन न सूधो॥
आपन तौ उपचार करौ कछु तब औरन सिख देहु।
मेरे कहे बनाय न राखौ थिर कै कतहूँ गेहु॥
जौ तुम पद्मपराग छांड़िकै करहु ग्राम-बसबास।
तौ हम सूर यहौ करि देखैं निमिष छांड़हीं पास॥१२८॥

गोपियाँ भ्रमर रूप उद्धव से कहती हैं कि हम एक शर्त पर श्री कृष्ण का संपर्क छोड़ने को तैयार हैं वह यह कि पहले तुम कमलों के पराग के प्रति अपना अनुराग त्याग कर के गाँवों में निवास करो । कमल वनों में मत जाओ अन्यथा यह तुम्हारा प्रलाप मात्र है ।

हे उद्धव ! तुम जो श्री कृष्ण छोड़ कर निर्गुण ब्रह्मोपासना की बात कर रहे हो वह हमें प्रिय नहीं है । अतः तुम इस प्रकार की चर्चा हमारे समक्ष मत करो । हम देख रही हैं कि तुम्हारी बातें उसी प्रकार सीधे – सीधे नहीं निकल रही हैं जैसे सन्निपातग्रस्त रोगी अपनी बात सीधे – सीधे नहीं कहता और उसे बकवाद करने की एक झक सी लग जाती है । वह निरंतर निरर्थक बातें करता रहता है । सिद्ध हो गया है कि तुम्हें भी बड़बड़ाने का सन्निपात हो गया है । अतः पहले अपना इलाज कराओ फिर दूसरों को शिक्षा दो । जब तुम स्वयं रोगी हो तो दूसरे के रोग को कैसे दूर कर सकते हो ? मेरे कहने से तुम स्थाई रूप से अपना कहीं घर क्यों नहीं बना लेते ? अर्थात बिना स्थाई घर के अस्थिर प्रकृति के हे भ्रमर उद्धव ! तुम इधर – उधर क्यों घूमा करते हो ? हाँ यदि तुम कमलों के पराग का प्रेम छोड़कर गाँवों में निवास करने लगो तो हम सब भी एक क्षण में श्री कृष्ण का संपर्क त्याग करके तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की उपासना क्यों करें? आशय यह है कि तुम तो चंचल प्रकृति के हो और दूसरों को योगी बनने का उपदेश देते फिरते हो । यदि तुम अपनी प्रकृति त्याग दो तो हम भी अपनी प्रकृति त्यागने को तैयार हैं । 128

राग नट

ऊधो! जानि परे सयान।
नारियन को जोग लाए, भले जान सुजान॥
निगम हूँ नहिं पार पायो कहत जासों ज्ञान।
नयनत्रिकुटी जोरि संगम जेहि करत अनुमान॥
पवन धरि रबि-तन निहारत, मनहिं राख्यो मारि।
सूर सो मन हाथ नाहीं गयो संग बिसारि॥१२९॥

इस पद में गोपियों ने उद्धव की अज्ञानता पर चिंता प्रकट की है । उनके अनुसार नारियों को ब्रह्म ज्ञान और योग की शिक्षा देना अज्ञान का द्योतक है ।

हे उद्धव ! तुम तो हमें बहुत चतुर समझ पड़ते हो । तुम तो इतने ज्ञानी और सज्जन पुरुष हो कि नारियों के लिए योग साधना का सन्देश लेकर आये हो । तात्पर्य यह है कि तुम्हारी अज्ञानता और उद्दंडता का परिचय तो हमें उसी समय मिल गया जब तुम हम अबलाओं को योग की शिक्षा देने लगे । तुम जिन गोपियों से ब्रह्म ज्ञान की चर्चा कर रहे हो उसके रहस्य को वेदों ने भी नहीं समझा और योगी जन जिस ब्रह्म के साक्षात्कार का अपनी त्रिकुटी में नेत्रों को जोड़कर अर्थात एकाग्र हो कर अनुमान किया करते हैं तथा अपने मन को वशीभूत कर के एवं प्राणायाम साधकर सूर्य की ओर निरंतर देखा करते हैं योगियों जैसा वह मन हमारे पास अब नहीं है । वह तो हमारा साथ छोड़कर एवं हमें भुला कर हमारे हाथ से निकल गया । हमारे मन ने पहले से ही श्री कृष्ण के सौंदर्य में वशीभूत होकर हमें छोड़ दिया । यदि वह हमारे वश में होता तो हम तुम्हारी योग साधना को स्वीकार कर लेतीं और हमारा मन तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म की साधना में अवश्य ही लग जाता । 129

राग धनाश्री

ऊधो! मन नहिं हाथ हमारे।
रथ चढ़ाय हरि संग गए लै मथुरा जबै सिधारे॥
नातरु कहा जोग हम छांड़हि अति रुचि कै तुम ल्याए।
हम तौ झकति स्याम की करनी, मन लै जोग पठाए॥
अजहूँ मन अपनो हम पावैं तुमतें होय तो होय।
सूर, सपथ हमैं कोटि तिहारी कहौ करैंगी सोय॥१३०॥

इस पद में गोपियाँ अपने मन की विवशता प्रकार कर रही हैं । उनका मन तो कृष्ण के साथ चला गया । यदि उनका मन लौट आये तो कृष्ण के साथ चला गया । यदि उनका मन लौट आये तो वे उद्धव की बातों को मानने के लिए तत्पर हैं ।

हे उद्धव ! हमारा मन तो हमारे अधिकार में नहीं है । हमारे मन को श्री कृष्ण रथ पर बैठा कर उस समय ले गए जब वे मथुरा जाने लगे । अन्यथा तुम जिस योग को बड़े प्रेम के साथ हमारे पास ले आये हो उसे हम सब क्या छोड़ सकती थीं । हम तो श्री कृष्ण के उस व्यवहार से झीखती हैं कि उन्होंने हमारे मन को तो ले लिया , उसे अपने वश में कर लिया लेकिन अब उसे वापस न कर के उसके बदले में उन्होंने हमारे पास योग भेजा है । बिना मन वापस किये योग साधना के लिए बल देना क्या उचित है ? यदि तुम प्रयास कर सको तो हमें अपना मन आज भी , अब भी मिल सकता है । योग साधना के लिए मन को पाना अत्यंत आवश्यक है । बिना मन के कौन योग साधना कर सकता हैं ? सूर के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि हे उद्धव ! हम तुम्हारी करोड़ों सौगंध खा कर कह रही हैं कि यदि हमारा मन वापस आ जायेगा तो जो तुम कहोगे हम सभी तुम्हारी बात स्वीकार करेंगीं । तात्पर्य यह है कि श्री कृष्ण के प्रेम में अनुरक्त हमारे मन को यदि वहां से हटाने में समर्थ होते तो तुम्हारे प्रत्येक आदेश का हम सब हर्ष से पालन करेंगीं । 130

राग धनाश्री

ऊधो! जोग सुन्यो हम दुर्लभ।
आपु कहत हम सुनत अचंभित जानत हौ जिय सुल्लभ॥
रेख न रूप बरन जाके नहिं ताकों हमैं बतावत।
अपनी कहो[१] दरस वैसे को तुम कबहूँ हौ पावत?
मुरली अधर धरत है सो, पुनि गोधन बन बन चारत?
नैन बिसाल भौंह बंकट करि देख्यो कबहुँ निहारत?
तन त्रिभंग करि नटवर बपु धरि पीताम्बर तेहि सोहत ।
सूर स्याम ज्यों देत हमैं सुख त्यों तुमको सोउ मोहत ।।131

इस पद में गोपियों ने सगुणोपासना की तुलना में योग साधना को सहज साध्य नहीं माना । वे उस ब्रह्म की उपासना करने में सर्वथा असमर्थ हैं । जिसका न कोई रूप है और न रंग ।

हे उद्धव ! हमने तो यह सुना है कि योग साधना अत्यंत दुर्लभ है वह सहज साध्य नहीं है । आप तो उस योग की महिमा का वर्णन करते हैं लेकिन हम तो उसे सुनकर आश्चर्यचकित हैं जिसे आप सुलभ और सहज साध्य समझते हैं । आश्चर्य है कि तुम्हारे जिस ब्रह्म की न कोई रूप रेखा है और न कोई वर्ण । उसकी उपासना की बात आप हमें बताते हैं । तुम हमें अपना अनुभव बताओ । क्या तुम्हें ऐसे ब्रह्म का कभी दर्शन होता है ? क्या तुमने ऐसे निराकार ब्रह्म को कभी देखा है ? क्या तुम्हारा यह ब्रह्म हमारे सगुण श्री कृष्ण की भांति कभी होने होठों पर मुरली धारण करता है ? क्या वो वन – वन गायों को चराता है ? क्या तुमने उसे विशाल नेत्रों से भौहों को टेढ़ी कर के कभी निहारते देखा है ? आशय यह है कि क्या तुमने कभी श्री कृष्ण के मनोहर रूप का दर्शन किया है ? क्या त्रिभंगी रूप में नट वेश में तुम्हारे ब्रह्म के तन पर पीताम्बर शोभा देता है ? यही नहीं जिस प्रकार वह कृष्ण हमें सुख देता है क्या तुम्हारा वह ब्रह्म भी तुमको उसी प्रकार मोहित करता है ? आशय यह है कि श्री कृष्ण ने अपनी नाना प्रकार की लीलाओं के द्वारा हमें जो सुख दिया क्या वैसा सुख कभी आपको भी प्राप्त हुआ है ? 131

राग रामकली

उधौ ! हम लायक सिख दीजै ।
यह उपदेस अगिनि तें तातो कहो कौन विधि कीजै ?
तुम्हीं कहौ यहाँ इतनिन में सीखनहारी को है ?
जोगी जती रहित माया तें तिनको यह मत सोहै ।।
जो कपूर कहंदान तन लिपट तेहि बिभूति क्यों छाजै ?
सूर कहौ सोभा क्यों पावे आँख आंधरी आंजै ।। 132

गोपियाँ उद्धव से निवेदन कर रही हैं कि वे उनके योग्य – उनकी प्रकृति , शक्ति और क्षमता के अनुरूप ही उपदेश दें । वास्तव में योग साधना का उपदेश गोपियों के स्वभाव के सर्वथा विरुद्ध हैं । कहाँ अनपढ़ और गंवार गोपियाँ और कहाँ योग साधना की जटिलता । दोनों में कितना अंतर है ?

हे उद्धव ! तुम हमारी प्रकृति के योग्य उपदेश दो तो उसको हम ग्रहण भी करें किन्तु यह उपदेश जो हमें दे रहे हो वह अग्नि से भी अधिक सन्तापकारी है । तात्पर्य यह है कि जिस योग साधना की चर्चा हमारे समक्ष कर रहे हो उसे हम किस प्रकार कर सकती हैं ? तुम स्वयं अपनी आँखों से देख रही हो कि इतनी जटिल साधना को कौन कर सकता है ? पुनः तुम्हीं बताओ कि यहाँ इतनी ब्रजबालाओं में कौन ऐसी हैं जो इसे सीखने के लिए तैयार हैं ? सत्य बात तो यह है कि यह साधना योगी जातियों के लिए है जो सांसारिक मोह माया से सर्वथा विरक्त हैं । उन्हीं को यह शोभा देगी अन्यों को नहीं । भला आप ही बताएं कि जिन कोमलांगी स्त्रियों के शरीरों पर कर्पूर और चन्दन का लेप शोभा देता है उस पर कभी भस्म शोभा दे सकती है ? तात्पर्य यह है कि जोग साधना की जटिलताओं के कष्ट को ऐसी सरल स्वभाव की गोपियाँ कभी सहन नहीं कर सकतीं । ये तो योगाभ्यासी साधुजन और तपस्वी ही सहन कर सकते हैं । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं – हे उद्धव ! क्या तुमने कभी सुना है कि अंधी की आँखों में अनजान कभी शोभा देता है ? अरे जो आँखों से अंधी है उसे अनजान लगाने से क्या प्रयोजन ? अर्थात जो अज्ञानताओं से भरी हैं उन्हें ब्रह्म ज्ञान और जटिल सिद्धांतों से क्या लाभ ? वे इन्हें कैसे समझ और ग्रहण कर सकती हैं ? 132

राग रामकली

उधो ! कहा कथित विपरीति ?
जुवतिन जोग सिखावन आये यह तौ उलटी रीति ।।
जोतत धेनु दुहत पय वृष को , करन लगे जो अनीति ।
चक्रवाक ससि को क्यों जानै? रबि चकोर कह प्रीति?
पाहन तरै , काठ जो बूड़ै , तौ हम मानै नीति ।
सूर स्याम प्रति अंग माधुरी रही गोपिका जीति ।। 133

इस पद में गोपियों के अनुसार युवतियों को उद्धव का योग सन्देश देना नीति के सर्वथा विरुद्ध है और यह उसी प्रकार असंभव है जैसे बैल से दूध दुहना और गाय को हल में जोतना ।

हे उद्धव ! तुम इतने चतुर और बुद्धिमान होकर भी नीति के विरुद्ध कार्य क्यों कर रहे हो ? वस्तुतः स्त्रियों को योग की शिक्षा देना तो सर्वथा उलटी रीति है । अतः तुम इस उलटी और लोक विरुद्ध नीति में सफल नहीं होंगे । तुम जो इन युवतियों को योग साधना की ओर उन्मुख कर रहे हो तुम्हारा यह प्रयास और तुम्हारी यह अनीति तो उसी प्रकार है जैसे गाय को हल में जोतना और बैल से दूध दुहना जो संभव नहीं । इसी तरह भला चकवा – चकवी चन्द्रमा को क्या जानें ? चन्द्रमा के प्रकाश से उन्हें क्या प्रेम ? चन्द्रमा के उदय के साथ तो वे परस्पर वियुक्त हो जाते हैं । अतः उनका प्रेम तो सूर्य प्रकाश से है । जिस प्रकाश से निकलने पर दोनों मिलते हैं । इसी प्रकार सूर्य से चकोर की क्या प्रीति है ? चकोर तो चंद्र किरणों का रस पान करता है । सूर्य प्रकाश से उसकी क्या सिद्धि होगी ? हाँ यदि पानी में पत्थर तैरने लगे और लकड़ी डूब जाये तो युवतियों के लिए तुम्हारी इस योग विषयक नीति को भी हम उचित मान लेंगी । आशय यह है कि जैसे लकड़ी की जगह पानी में पत्थर कभी तैर नहीं सकता उसी प्रकार युवतियां तुम्हारी इस योग साधना में कभी सफल नहीं हो सकतीं । उन्हें तो श्री कृष्ण के अंग – प्रत्यंग की सौंदर्य माधुरी ने पराभूत कर रखा है । वे श्री कृष्ण के प्रत्येक अंग की शोभा के माधुर्य पर मुग्ध हैं । 133

राग रामकली 

उधो ! जुवतिन ओर निहारौ
तब यह जोग मोट हम आगे हिये समुझि बिस्तारौ ।।
जे कच स्याम आपने कर करि नितहि सुगंध रचाये ।
तिनको तुम जो बिभूति घोरिकै जाता लगावन आये ।।
जेहि मुख मृगमद मलयज उबटति छनछन धोवति मांजति।
तेहि मुख कहत खेह लपटावन सो कैसे हम छाजति ?
लोचन आँजि स्याम ससि दरसति तबहीं ये तृप्ताति ।
सूर तिन्हैं तुम रबि दरसावत यह सुनि सुनि करुआति।। 134

गोपियों का कथन है कि उनकी दशा पर बिना विचार किये योग की शिक्षा देना उद्धव की नितांत अज्ञानता है ।

हे उद्धव ! पहले तुम युवतियों की दशा पर विचार करो तब अपने योग की गठरी को ह्रदय में बहुत सोच समझ कर हम लोगों के समक्ष खोलो । कहने का तात्पर्य यह है कि पहले तुम यह तो समझ लो कि तुम्हारे इस योग के गंभीर सिद्धांतों को हम सब समझने में समर्थ हैं या नहीं । तब अपने योग की महत्ता का विचारपूर्वक विश्लेषण करो । भला यह तो बताइये कि हमारे जिन कोमल बालों को श्री कृष्ण ने अपने हाथों से सुगंधमय किया अब आप उन्हें जटाओं के रूप में राख घोलकर लगाने आये हो । यह कहाँ संभव है कि हम अपने बालों को जटाओं के रूप में परिणित कर के उनमें राख लगाएं । हम अपने जिस मुख में कस्तूरी और चन्दन का उबटन करती रहीं और क्षण – क्षण उसे धोती रहीं और स्वच्छ करती रहीं उसी मुख पर आप मिट्टी मलने को कह रहे हैं । यह कैसे शोभा दे सकता है ? यह कहाँ तक उचित है ? हमारे ये नेत्र अंजन लगाकर जब कृष्ण रुपी चन्द्रमा को चकोर पक्षी की भाँति देखते हैं तभी तृप्त होते हैं । तभी इन्हें वास्तविक आनंद की प्राप्ति होती है । अब आप उन्हीं नेत्रों को सूर्य की ओर उन्मुख करना चाहते हैं ऐसा सोचकर ये कडुआने लगते हैं अर्थात इन आँखों में कडुआहट उत्पन्न हो जाती है । कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे जो नेत्र चकोर की भांति श्री कृष्ण के चंद्र मुख का अभी तक सौंदर्य रस पान करते रहे उन्हें आप निर्गुण ब्रह्मरूपी सूर्य की ओर लगाना चाहते हैं इस से तो इन्हें सुख के बजाय दुःख मिलता है । जो श्री कृष्ण के सौंदर्य माधुरी में डूबे रहे वे शुष्क निराकार ब्रह्म के प्रति अनुरक्त कैसे रह सकते हैं ? 134

राग रामकली

उधो ! इन नयनन अंजन देहु ।
आनहु क्यों न श्याम रंग काजर जासों जुरयो सनेहु ।।
तपति रहति निसि बासर मधुकर नहि सुहात तन गेहु।
जैसे मीन मरत जल बिछुरत कहा कहौं दुःख एहु।।
सब बिधि बाँधि ठानि कै राख्यो खरि कपूर कोरेहु ।
बारक मिलवहु श्याम सूर प्रभु क्यों न सुजस जग लेहु ?135

इस पद में कृष्ण दर्शन के लिए व्याकुल नेत्रों का वर्णन किया गया है । गोपियाँ अपने नेत्रों के लिए उद्धव से कृष्ण रुपी अंजन की कामना करती हैं । जिस प्रकार नेत्रों की दीप्ति और प्रकाश अंजन के लगाने से बढ़ जाता है उसी प्रकार गोपियों के नेत्रों की उत्फुल्लता कृष्ण दर्शन से बढ़ेगी ।

हे उद्धव ! हमारे इन व्याकुल नेत्रों को श्यामल रुपी अंजन लेकर दो क्योंकि ऐसे अंजन से ही ये शीतल हो सकते हैं । तुम उस कृष्ण रूप काजल को लाकर क्यों नहीं देते । जिस से इनका स्नेह जुड़ा है अर्थात श्री कृष्ण के उस श्याम रूप का दर्शन हमें क्यों नहीं कराते हैं जिनके लिए हमारे नेत्र व्याकुल रहा करते हैं । हे भ्रमर उद्धव ! श्री कृष्ण के वियोग में हम दिन रात जलती रहती हैं और हमें न यह शरीर अच्छा लगता है और न यह घर । अब हम यह शरीर भी छोड़ देना चाहती हैं । हम अपनी वियोग जनित इस पीड़ा का उल्लेख तुमसे क्या करें । हम तो उसी प्रकार से मर रही हैं जैसे बिना जल के मछलियाँ। हमने श्री कृष्ण के प्रति अपने स्नेह को सब प्रकार से उसी प्रकार इन आँखों के एक कोने में सुरक्षित रख छोड़ा है जैसे कपूर के उड़ने के भय से उसे खड़िया के साथ बांधकर किसी डिब्बे आदि के एक कोने में सुरक्षित रक् दिया जाता है । श्री कृष्ण के दर्शन का स्नेश अभी ही इन आँखों में अक्षुण्ण है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! तुम एक बार श्याम का दर्शन करा के सुयश को प्राप्त क्यों नहीं कर लेते । यदि तुम श्री कृष्ण का एक बार दर्शन करा दोगे तो इस संसार में तुम्हारी कीर्ति बढ़ जाएगी और तुम विश्व के यशस्वी लोगों में गिने जाओगे ।135

राग रामकली

ऊधो ! भली करी तुम आये ।
ये बातें कहि कहि या दुःख में ब्रज के लोग हंसाये ।।
कौन काज बृन्दावन को सुख दही भात कि छाक।
अब वै कान्ह कूबरी राचे बने एक ही ताक।।
मोर मुकुट मुरली पीताम्बर पठवौ सौज हमारी ।
अपनी जटाजूट अरु मुद्रा लीजै भस्म अधारी।।
वै तौ बड़े सखा तुम उनके तुमको सुगम अनीति ।
सूर सबै मति भली स्याम की जमुना जल सों प्रीति।। 136

इस पद में ब्रज की गोपियों ने व्यंग्य गर्भित शैली में उद्धव का उपहास किया है । वे उद्धव की बातों को सुन – सुन कर दुखित हो गयीं और जब उनसे नहीं रहा गया तो वे सब एक बार पुनः उनका मजाक उड़ाने लगीं ।

हे उद्धव ! अच्छा ही हुआ कि तुम आ गए । यहाँ व्यंग्यार्थ यह हुआ कि तुम्हारा आगमन हमारे लिए कष्टकर हुआ और अपनी इन बातों अर्थात निर्गुण ब्रह्म की उपासना विषयक बातों को बताकर दुखित ब्रजवासियों को हँसा तो दिया । तुम्हारी इन विचित्र और अटपटी बातों को सुनकर सभी ब्रजवासी हंस पड़े । अब श्री कृष्ण मथुरा में राजा हो गए हैं । अतः उन्हें वृन्दावन के सुखों से क्या प्रयोजन है ? यह सुख तो हम सब सामान्य गाँव के रहने वाले और गाय चराने वाले ब्रजवासियों के लिए है और वे तो अब मथुरा में मेवे – मिष्ठान आदि राजसी भोजन करते होंगे । इस दूध-भात के कलेवा से उन्हें कहाँ सुख मिलेगा ? इसे वे क्यों पसंद करने लगे ? जो कृष्ण किसी समय हमसे प्रेम करते थे अब वे ही कुब्जा के प्रेम में अनुरक्त हैं और दोनों एक ही मेल के हैं । दोनों के स्वभाव में समानता होने के कारण दोनों में खूब बैठती है , खूब मेल रहता है । अब हम तुम्हारी सभी वस्तुएं जैसे पीताम्बर , मोर – मुकुट और वंशी आदि जो कुछ श्री कृष्ण यहाँ से उठा ले गए हैं उन्हें भिजवा दो क्योंकि ये वस्तुएं अब उन्हें पसंद न होंगीं और जो उन्होंने तुम्हारे द्वारा भस्म , अधारी , कुण्डल और जटाजूट बढ़ने आदि का सन्देश भेजा है उन सबों को हम तुम्हारे द्वारा वापस कर रही हैं । अब न उन्हें हमारी वस्तुओं से प्रयोजन है और न हमें उनकी वस्तुओं से । वे तो अब बड़े आदमी हैं , मथुराधिपति हैं और तुम उनके मित्र हो अतः तुम्हारे लिए भी अनीति करना बहुत सुगम है । अनीति करने में तुम्हें भी किसी भी प्रकार की कठिनाई या संकोच का अनुभव नहीं होता । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि श्री कृष्ण की सभी प्रकार की बुद्धि अच्छी ही है । उनकी बुद्धि में कोई दोष नहीं है । उनकी अच्छी बुद्धि का परिणाम यह है कि वे यमुना जल से भी प्रेम करने लगे हैं । व्यंग्य यह है कि जैसे यमुना का श्याम जल कपट का प्रतीक है । उसी प्रकार से श्याम ( काली – कपट ) बुद्धि वाले श्रीकृष्ण कपट स्वरूप यमुना जल से प्रेम करने लगे हैं । मथुरा जल में प्रवाहित होने वाले यमुना जल से प्रेम उनके कपटी और बनावटी प्रेम का बोधक है । 136

राग सारंग

ऊधो ! बूझति गुपुत तिहारी ।
सब काहू के मन की जानत बाँधे मूरि फिरत ठगवारी ।।
पीत ध्वजा उनके पीताम्बर लाल ध्वजा कुब्जा व्यभिचारी ।
सत की ध्वजा स्वेत ब्रज ऊपर अजस हेतु ऊधो ! सो प्यारी ।।
उनके प्रेम – प्रीति मनरंजन पै ह्यां सकल सील व्रत धारी ।
सूर वचन मिथ्या लंगराई ये दोउ ऊधो की न्यारी ।। 137

इस पद में गपियों ने उद्धव को एक ठग के रूप में परिकल्पित किया है जो निर्गुण ज्ञान द्वारा ब्रजवासियों को ठगता फिरता है । लेकिन गोपियों को पूर्ण विश्वास है कि वे अपने सात्विक प्रेम के कारण विजयी होंगी , भले ही इस सात्विक प्रेम मार्ग पर चलते समय कुछ लोगों द्वारा उन्हें अपयश या कलंक मिले । वे यह भी खूब जानती हैं कि उनके सात्विक प्रेम की तुलना में कृष्ण का राजसी प्रेम और कुब्जा का तामसी या स्वार्थमूलक है ।

हे उद्धव ! हम तुम्हारे रहस्य और चालाकी को खूब समझ रही हैं । तुम सबके मन की बात अर्थात मनोवृत्ति को जानते हुए ठगों की जड़ी बाँधे घूम रहे हो । जिस प्रकार ठग धोखे से जड़ी खिलाकर पथिकों और भोले – भाले अनजान लोगों को लूट लेते हैं उसी प्रकार तुम भी यह खूब जानते हो कि ब्रजवासियों का कृष्ण के प्रति अटल और सात्विक प्रेम है तथापि उन्हें धोखा देकर निर्गुण ब्रह्म की जड़ी धोखे से खिलाकर श्री कृष्ण प्रेम की अमूल्य निधि को उनसे लूट लेना चाहते हो परन्तु तुम्हें यह पता होना चाहिए कि श्री कृष्ण का जो पीताम्बर पीली ध्वजा के समान समस्त मथुरा मंडल में लहरा रहा है वह इस बात का प्रमाण है कि उनको हमारे प्रति जो प्रेम है वह राजसी है सात्विक नहीं । सात्विक प्रेम का उसमें आभास मात्र है । इसके विपरीत कुब्जा की लाल साड़ी लाल ध्वजा के समान है जो कृष्ण के प्रति उसके तामसिक प्रेम को व्यक्त कर रही है । कहने का आशय यह कि हमारी भांति उसका प्रेम सात्विक नहीं है । स्वार्थमूलक और वासना के रंग से रंजित है लेकिन समस्त ब्रजमंडल में इन दोनों के विरुद्ध श्वेत ध्वजा जो कृष्ण के प्रति हमारे सात्विक प्रेम का प्रतीक है फहरा रही है । यद्यपि हमारी इस सात्विक प्रेम साधना में बहुत सी बाधाएं हैं । आप भी श्री कृष्ण के प्रति हमारे सात्विक प्रेम को अच्छा नहीं समझते और उसे अपयश का कारण मानते हैं । किन्तु क्या इन बाधाओं और अपयश के भय से कोई श्री कृष्ण को त्याग देगा । कदापि नहीं । इस से कलंक भले ही मिले किन्तु हे उद्धव ! हमें यही प्रिय है । श्री कृष्ण और कुब्जा का जो परस्पर प्रेम और प्रीति है वह मनोरंजन का साधन मात्र है परन्तु इस ब्रजमंडल में सभी गोपियाँ श्वेत वस्त्रों को धारण कर के अपने शील और सात्विक प्रेम का निर्वाह कर रही हैं । कृष्ण के वियोग में हम सभी गोपियों ने विलासमय जीवन को त्याग कर रंग – बिरंगे कपड़ों की जगह श्वेत वस्त्र धारण किये इस प्रेम योग की साधना में रत हैं । ब्रज मंडल की श्वेत ध्वजा इसी सात्विक प्रेम और शील के रूप में सर्वत्र लहरा रही है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथा है कि इस सात्विक प्रेम को जानते हुए भी उद्धव वासनात्मक और राजसी प्रेम की प्रशंसा कर रहे हैं । अतः सिद्ध है कि झूठ बोलने और लम्पटता के आचरण दोनों में उद्धव अद्वितीय हैं । ये दोनों बातें उनकी अतिशय विलक्षण हैं । 137

राग सारंग 

ऊधो! मन माने की बात।
जरत पतंग दीप में जैसे, औ फिरि फिरि लपटात॥
रहत चकोर पुहुमि पर, मधुकर! ससि अकास भरमात।
ऐसो ध्यान धरो हरिजू पै छन इत उत नहिं जात॥
दादुर रहत सदा जल-भीतर कमलहिं नहिं नियरात।
काठ फोरि घर कियो मधुप पै बंधे अंबुज के पात॥
बरषा बरसत निसिदिन, ऊधो! पुहुमी पूरि अघात।
स्वाति-बूंद के काज पपीहा छन छन रटत रहात॥
सेहि न खात अमृतफल भोजन तोमरि को ललचात।
सूर कृस्न कुबरी रीझे गोपिन देखि लजात॥१३८॥

इसमें उद्धव को गोपियों ने बताया कि जिसका जिस से प्रेम होता है उसे वही अच्छा भी लगता है । गोपियाँ अपनी विवशता प्रकट करते हुए कह रही हैं कि यद्यपि तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म बहुत अच्छा है लेकिन उसमें हमारी कोई रुचि या प्रेम न होने के कारण वह हमें प्रिय नहीं है ।

हे उद्धव ! यह तो मन के मानने की बात है अर्थात जिसके मन को जो अच्छा लगता है उसे वही सुहाता है , वही भाता है । जैसे पतंगे को देखिये वह दीपक में जब जलने लगता है तो उस से भागता नहीं । भाग जाये तो उसके प्राणों की रक्षा हो जाये लेकिन उसका दीपक से इतना प्रेम और मोह है कि वह बार – बार उसी में लिपटता है। उसी में लिपट कर अर्थात दीपक की ज्वाला में पड़कर अपने जीवन को उत्सर्ग कर देता है । हे भ्रमर उद्धव ! जरा प्रेम की रीति पर दृष्टिपात तो करो । बेचारा चकोर पृथ्वी पर रहता है और चन्द्रमा आकाश में भ्रमण करता रहता है लेकिन चकोर की दृष्टि चन्द्रमा की ओर ही सदैव लगी रहती है । प्रेम की रीति में पृथ्वी और आकाश की दूरी बाधक सिद्ध नहीं होती । इसी प्रकार ब्रज से श्री कृष्ण के दूर हो जाने पर भी हम सबों का ध्यान उन्हीं पर लगा रहता है लेकिन पानी में ही विकसित कमल के निकट वह कभी नहीं जाता क्योंकि उसका कमल से किसी प्रकार का प्रेम नहीं है । रूचि की बात तो देखिये कि भ्रमर ने लकड़ी को तो काट कर उसमें छिद्र करके अपना घर बना लिया लेकिन वही भ्रमर कमल के प्रेम पाश में पड़ कर उसके पत्ते में बँध गया । सूर्यास्त के समय जब कमल सम्पुटित हुआ तो भ्रमर भी उसी में बँध गया । वह चाहता तो कमल के पत्तों को काट कर निकल आता लेकिन प्रेमाकर्षण का ऐसा जादू है कि ऐसा वह नहीं कर सका । इसी प्रकार वर्षा काल में जब बहुत वर्षा होती है तो पृथ्वी तो पूर्णतया तृप्त हो जाती है लेकिन पपीहा तो स्वाति की एक बूँद के लिए रट लगाए रहता है । उसकी तृप्ति वर्षा के जल से नहीं होती । उसकी सच्ची तृप्ति तो स्वाति नक्षत्र में गिरे जल की बूंदों से होती है । साही नामका पशु को देखो , वह अमृतफल ( नाशपाती , अमरुद आदि को ) छोड़कर कड़वी लौकी खाने के लिए ललचाया रहता है । उसी प्रकार तुम्हारी दृष्टि में सगुण श्री कृष्ण में कोई आकर्षण नहीं है लेकिन हम गोपियों का मन तो उन्हीं की रूप माधुरी में मुग्ध है । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! बहुत सी सुन्दर स्त्रियां थी लेकिन कृष्ण कूबरी पर रीझ गए और गोपियों को देखकर लजाते हैं उनसे भागते हैं । आशय यह है कि वे हमारे सात्विक प्रेम की अवहेलना कर के उस कुब्जा के तामसिक प्रेम के लिए सदैव लालायित रहते हैं । 138

राग सारंग 

ऊधो! खरिऐ जरी हरि के सूलन की।
कुंज कलोल करे बन ही बन सुधि बिसरी वा भूलन की।
ब्रज हम दौरि आँक भरि लीन्ही देखि छाँह नव मूलन की॥
अब वह प्रीति कहाँ लौं बरनौं वा जमुना के कूलन की॥
वह छवि छाकि रहे दोउ लोचन बहियां गहि बन झूलन की।
खटकति है वह सूर हिये मों माल दई मोहिं फूलन की॥१३९॥

इस पद में गोपियों ने उद्धव के समक्ष अपने अतीत के उन सुखमय क्षणों और प्रेम प्रसंगों का स्मरण किया है जिसमें उन्हें परम आनंद की प्राप्ति होती थी ।

हे उद्धव ! हम सब श्री कृष्ण के वियोग की पीड़ा से अत्यंत संतप्त हैं । एक समय हम लोगों का ऐसा भी था जब हम वन – वन में स्थित कुञ्ज में श्री कृष्ण के साथ विहार करती थीं किन्तु आज उसके भूलने की वृत्ति ही भूल गई अर्थात वह सुख और आनंद भुलाये नहीं भूलता । यही नहीं जब श्रीकृष्ण ब्रज में थे तो वे हमें नए निकुंजों की छाया में देख कर अपने ह्रदय से लगा लिया करते थे । यह मधुर स्मृति आज भी हमारे मानस पटल पल जीवित है । श्री कृष्ण के उस प्रेम का वर्णन कैसे करूँ जब वे यमुना के तट पर मिला करते थे । उनका यमुना के तट पर विहार और नाना प्रकार की आनंद क्रीड़ाएं आज भी आँखों में नाच रही हैं । उस समय जब श्री कृष्ण हमारी बाहों को पकड़ कर झूला झूलते थे तो उनकी अपूर्व और अलौकिक सुंदरता को देखकर हमारे दोनों नेत्रों को अपार आनंद प्राप्त होता था । हे उद्धव ! अब भी हमें वह अवसर भूलता नहीं । ह्रदय में कसकता है जब श्री कृष्ण ने हमें फूलों की माला दी थी , हमें पहनाई थी । यद्यपि समय के परिवर्तन ने उस अतीत के सुखों को हमसे छीन लिया लेकिन उसकी मधुर स्मृतियों के ये मधुर चित्र मिटाये नहीं मिटते। 139

राग सारंग 

मधुकर! हम न होहिं वे बेली।
जिनको तुम तजि भजत प्रीति बिनु करत कुसुमरस-केली॥
बारे तें बलबीर बढ़ाई पोसी प्याई पानी।
बिन पिय-परस प्रात उठि फूलन होत सदा हित-हानी॥
ये बल्ली बिहरत बृंदावन अरुझीं स्याम-तमालहिं।
प्रेमपुष्प-रस-बास हमारे बिलसत मधुप गोपालहिं॥
जोग-समीर धीर नहिं डोलत, रूपडार-ढिग लागी।
सूर पराग न तजत हिये तें कमल-नयन-अनुरागी॥१४०॥

इस पद में गोपियों ने अपने को एक आदर्श प्रेम और शील वृत्ति का निर्वाह करने वाली सच्ची साधिका के रूप में प्रस्तुत किया है और उद्धव को एक चंचल वृत्ति का पुरुष निरूपित किया है जिसमें विचारों की न स्थिरता है और न अनन्यता का भाव । उद्धव एक चंचल स्वभाव वाले मधुप माने गए हैं और गोपियों को एक पवित्र लता के रूप में कल्पित किया गया है ।

हे भ्रमर उद्धव ! हम वे लताएं नहीं हैं जिन्हें तुम बिना किसी प्रेम के त्याग देते हो अर्थात जब तक उन लताओं में पुष्प का रस ( मकरंद ) होता है तब तक उनमें केलि करते हो । उनसे प्रेम का अभिनय करते हो किन्तु जब उनमें रस नहीं रह जाता तो तुम उन्हें छोड़कर अन्य पुष्पों के रस या आनंद क्रीड़ा में जुट जाते हो । हम ऐसी लताओं में नहीं हैं । इन्हें तो बचपन से श्री कृष्ण ने अपने प्रेम जल से सींच – सींच कर बड़ी किया । बचपन से ही हमें श्री कृष्ण के पवित्र प्रेम के रसास्वादन का सुयोग मिलता रहा । अब स्थिति यह है कि बिना प्रियतम श्री कृष्ण के स्पर्श के ये लताएं प्रातः काल पुष्पित होती हैं और इनके प्रेम रुपी पुष्पों का उपयोग करने वाला कोई नहीं है । तात्पर्य यह है कि श्री कृष्ण के प्रति हमारे मानस में जो पवित्र प्रेम की धारा बह रही है उसमें अवगाहन करने वाला कोई नहीं है । अपने उस प्रेम की गहराई का परिचय कैसे दें ? ये लताएं अर्थात वियोगिनी गोपिकाएं वृन्दावन में फैलते समय अर्थात गोपिकाओं के वृन्दावन में विचरण के समय श्री कृष्ण रुपी तमाल वृक्ष में उलझ गयीं । हमारे भ्रमर स्वरूप श्री कृष्ण इन प्रेम पुष्पों के मकरंद और सुगंध का सदैव आनंद लिया करते हैं । तात्पर्य यह है कि हमारे ध्यान में श्री कृष्ण कि छवि बसी हुई है और हमें उसका आनंद मिलता रहता है । ये लताएँ अर्थात वियोगिनी गोपिकाएं इस प्रकार श्याम रुपी तमाल में श्याम रुपी तमाल में इतना उलझ गयीं हैं कि तुम्हारे योग सन्देश रुपी पवन से इनका धैर्य किंचित विचलित नहीं होता । तुम्हारी योग की बातों से कृष्ण के प्रति हमारे मन का ध्यान टूटता ही नहीं । ये लताएं तो अटल रूप में श्री कृष्ण के सौंदर्य रुपी डालों में फंस गयीं हैं । वहां से हटने में असमर्थ हैं । सूर के शब्दों में कमलनेत्र श्री कृष्ण के प्रेम में अनुरक्त ये लताएँ उनके प्रेम पराग को अपने ह्रदय से किसी भी प्रकार त्यागना नहीं चाहतीं । तात्पर्य यह है कि इन गोपियों के ह्रदय में जो प्रेम कृष्ण के लिए सुरक्षित है उसे उद्धव के निर्गुण ब्रह्म को सौंपा नहीं जा सकता । उसके अधिकारी तो श्री कृष्ण ही हैं अन्य कोई नहीं है । 140

राग सारंग 

मधुकर! स्याम हमारे ईस।
जिनको ध्यान धरे उर-अंतर आनहिं नए न उन बिंन सीस॥
जोगिन जाय जोग उपदेसौ जिनके मन दस बीस।
एकै मन, एकै वह मूरति, नित बितवत दिन तीस॥
काहे निर्गुन-ज्ञान आपुनो जित तित डारत खीस।
सूर प्रभू नंदनंदन हैं उनतें को जगदीस?॥१४१॥

इस पद में गोपियों की अनन्यता का भाव व्यक्त हुआ है । उद्धव जिस ब्रह्म की उपासना के लिए गोपियों को बाध्य कर रहे हैं गोपियाँ अपने ह्रदय में स्थित श्री कृष्ण को ही परम ब्रह्म मानती हैं ।

हे भ्रमर उद्धव ! तुम जिस निर्गुण ब्रह्म पर बल दे रहे हो हमारे लिए तो श्याम ही उस ब्रह्म के समतुल्य हैं । हम जिन श्री कृष्ण का ध्यान अपने ह्रदय में करती हैं उनके अतिरिक्त दूसरे के लिए हमारे मस्तक नहीं झुकते । हम दूसरों को प्रणाम नहीं करतीं । दूसरों के लिए हमारे ह्रदय में कोई स्थान नहीं है । तुम अपने योग का उपदेश उन योगिनियों को दो जिनके एक नहीं दस – बीस मन हैं अर्थात जो चंचल वृत्ति की हैं और जिनमें अनन्यता और एकनिष्ठ का भाव नहीं है । हम सबके पास तो एक ही मन है और यह मन एक ही मूर्ति अर्थात श्री कृष्ण की एक मात्र मधुर मूर्ति का उपासक है और उनकी भक्ति और उन्हीं की उपासना में तीसों दिन बीतता है । सदैव इसी भाँति हमारे दिन कटते हैं । तुम अपात्रों के निकट अपने निर्गुण ज्ञान को यत्र-तत्र क्यों नष्ट कर रहे हो ? तात्पर्य यह है कि जो तुम्हारे निर्गुण ज्ञान के मर्म को समझे तुम उसके पास जाकर इसका उपदेश दो । यहाँ तो हम सब गंवार स्त्रियां इस मर्म को जानती ही नहीं । हाँ, यदि मथुरा के ज्ञानियों के पास चले जाओ तो अवश्य ही तुम्हारे निर्गुण ज्ञान की कद्र होगी । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! हमारे स्वामी तो नन्द नंदन हैं । उनसे बढ़ कर कौन जगदीश अर्थात जगत का स्वामी है ? अर्थात ब्रह्म से बढ़कर तो हमारे स्वामी श्री कृष्ण ही हैं और वे हमें प्राप्त हो चुके हैं अतः हम व्यर्थ में किसलिए तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति का उपाय करें । 141

राग मलार

मधुकर! तुम हौ स्याम-सखाई।
पा लागों यह दोष बकसियो संमुख करत ढिठाई॥
कौने रंक संपदा बिलसी सोवत सपने पाई?
किन सोने की उड़त चिरैया डोरी बांधि खिलाई?
धाम धुआँ के कहौ कौन के बैठी कहाँ अथाई?
किन अकास तें तोरि तरैयाँ आनि धरी घर, माई!
बौरन की माला गुहि कौनै अपने करन बनाई?
बिन जल नाव चलत किन देखी, उतरि पार को जाई?
कौनै कमलनयन-ब्रत बीड़ो जोरि समाधि लगाई?
सूरदास तू फिरि फिरि आवत यामें कौन बड़ाई?॥१४२॥

इस पद में गोपियों ने उद्धव को उनकी धृष्टता के लिए नम्रतापूर्वक फटकारा है और इस बात की चिंता भी प्रकट की है कि उद्धव ऐसी बातों को मानने के लिए उन्हें बाध्य कर रहे हैं जो व्यावहारिक जीवन में किसी भी रूप में संभव नहीं हैं ।

हे मधुकर ! तुम तो श्री कृष्ण के सखा ही हो । इस कारण तुम्हारा संकोच कर रही हैं । तुम बार – बार निर्गुण ब्रह्मोपासना के लिए हमें बाध्य कर रहे हो यह उचित नहीं है । हम तुम्हारे समक्ष जो कुछ कहने की धृष्टता कर रही हैं , पैर छूकर कहती हैं हमारे ऐसे अपराधों को तुम क्षमा करना । अच्छा तुम्हीं बताओ कि किस गरीब पुरुष ने स्वप्न में प्राप्त सम्पदा का उपभोग किया है । स्वप्न की सम्पदा तो असत्य है । उसे किसने प्राप्त किया है ? ठीक उसी प्रकार उस निराकार , निर्गुण ब्रह्म को किसने देखा और किसने उसके दर्शन का सुख प्राप्त किया है ? क्या किसी ने सोने की उड़ती हुयी चिड़िया को डोर में बाँध खिलाया है ? उसके साथ मनोरंजन किया है ? क्या कभी किसी ने धुएं के महल में बैठक भी हुयी है अर्थात कभी चार – छह व्यक्तियों ने मिलकर किसी बात पर विचार – विमर्श भी किया है ? यह तो बताओ कि किसने आकाश के तारों को तोड़कर घर में लेकर रखा है ? अर्थात जैसे आकाश के तारों को तोड़ना असंभव है उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म को प्राप्त करना । उसे देखना भी असंभव है । आम्र मंजरी के छोटे – छोटे फूलों से किसने अपने हाथों से माला गूँथी है । इतने छोटे पुष्पों से जैसे माला नहीं बनाई जा सकती उसी प्रकार सूक्ष्म ब्रह्म दर्शन भी असंभव है तथा किसने बिना जल के नाव चलती हुयी देखी है और उस से उतर कर कौन पार हुआ है ? बिना जल के नाव पर बैठकर नदी पार कर लेना संभव नहीं । उसी प्रकार कमल नेत्र श्री कृष्ण के प्रेम का अनुरागी श्री कृष्ण से प्रेम करने का संकल्प करने वाले किस व्यक्ति ने योग साधना में प्रवृत्त होने की चेष्टा की है । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि हे उद्धव ! जब निर्गुणोपासना हमारे लिए असंभव है तो तुम जो बार – बार उसका उपदेश देने के लिए हमारे पास आते हो । इसमें कौन सी बड़ाई है ? तुम्हें ऐसा करने से क्या गौरव लाभ होगा ? 143

राग धनाश्री

मधुकर! मन तो एकै आहि।
सो तो लै हार संग सिधारे जोग सिखावत काहि?
रे सठ, कुटिल-बचन, रसलंपट! अबलन तन धौं चाहि।
अब काहे को देत लोन हौ बिरहअनल तन दाहि॥
परमारथ उपचार करत हौ, बिरहव्यथा नहिं जाहि।
जाको राजदोष कफ ब्यापै दही खवावत ताहि॥
सुंदरस्याम-सलोनी-मूरति पूरि रही हिय माहिं।
सूर ताहि तजि निर्गुन-सिंधुहि कौन सकै अवगाहि?॥१४३॥

इस पद में गोपियाँ उद्धव से अपनी विवशता प्रकट करती हुयी कह रही हैं कि उनके पास तो एक मात्र एक ही मन था जिसे मथुरा जाते हुए श्री कृष्ण अपने साथ लेकर चले गए । हाँ यदि दूसरा मन होता तो वे निर्गुणोपासना कि ओर उसे अवश्य लगातीं ।

हे भ्रमर ! हे उद्धव ! हम सबों के पास तो एक ही मन था वह भी मथुरा जाते समय श्री कृष्ण अपने साथ लेकर चले गए अब तुम किसे योग साधना की शिक्षा दे रहे हो ? वस्तुतः मन के निग्रह के लिए उसकी चंचलता के परिहार के लिए योग साधना की आवश्यकता होती है । परन्तु जब मन ही नहीं है तो योग शिक्षा का प्रभाव किस पर पड़ेगा ? इसे कौन ग्रहण करेगा ? रे चंचल वृत्ति वाले शठ, कुटिल वाणी बोलने वाले , मकरंद लोभी भ्रमर , जरा इन अबलाओं की ओर तो देखो , इनकी दशा पर विचार करो , आशय यह है कि तू स्वयं आनंद का उपभोग करता है और अबलाओं को विरक्ति की शिक्षा देता फिरता है । तू कितना दुष्ट और अटपटी वाणी बोलने वाला है । तुम्हारी ऐसी कठोर वाणी से हम अबलाओं को कितनी पीड़ा होती है । भला जो पहले से ही विरह की ज्वाला में दग्ध हो चुकी हैं उन पर अब क्यों नमक छिड़क रहा है ? दूसरे शब्दों में जलों को अब और क्यों जला रहे हो ? तुम विरह व्यथित गोपियों की पीड़ा को दूर करने के लिए परमार्थ अर्थात आध्यात्मिक ज्ञान की औषधि दे रहे हो उस से विरह का कष्ट कैसे दूर किया जा सकता है ? आशय यह है कि हम सबों की पीड़ा कृष्ण दर्शन से ही जा सकती है , तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म के उपदेश से नहीं । तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म का उपदेश हमारे लिए उसी प्रकार है जैसे किसी को राज रोग होने के कारण कफ का विकार उत्पन्न हो जाये और उस कफ को दूर करने के लिए दही खिलाया जाये । भला राजरोग जनित कफ को दही कैसे ठीक कर सकता है उस से तो उसका कफ और बढ़ जायेगा । तुम्हारे इस निर्गुण ज्ञानोपदेश से हमारी विरह व्यथा घटने की जगह और बढ़ती ही जा रही है । अतः सिद्ध है कि तुम उस मूर्ख चिकित्सक की भाँति हो जो उचित उपचार करना नहीं जानता । हमारे ह्रदय में तो कृष्ण की सुन्दर , श्याम सलोनी और लावण्यमयी मूर्ति बस गयी है । उसे छोड़ कर तुम्हारे इस निर्गुण ब्रह्म ज्ञान के समुद्र का अवगाहन कौन करे ? आशय यह है कि इस अनंत और अपार निर्गुण ब्रह्म के ज्ञान कि अधिकारिणी हम कैसे हो सकती हैं ? यह तो तत्वज्ञ और मर्मी योगियों के लिए है । हमें तो सगुण रूप सलोने श्याम सुन्दर का रूप माधुरी ही परम प्रिय है । तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म नहीं । 143

राग सारंग

मधुकर! छाँड़ु अटपटी बातें।
फिरि फिरि बार बार सोइ सिखवत हम दुख पावति जातें॥
अनुदिन देति असीस प्रांत उठि, अरु सुख सोवत न्हातें।
तुम निसिदिन उर-अंतर सोचत ब्रजजुबतिन को घातें॥
पुनि पुनि तुम्हैं कहत क्यों आवै, कछु जाने यहि नाते।
सूरदास जो रंगी स्यामरंग फिरि न चढ़त अब राते॥१४४॥

गोपियाँ उद्धव की अटपटी वाणी सुनते – सुनते ऊब गयीं । अतः उन्हें यह अभीष्ट नहीं है कि उद्धव बार – बार उन्हीं बातों पर चर्चा करें जिनसे उन्हें कष्ट मिलता है ।

हे भ्रमर ! अब तुम अपनी निर्गुण ज्ञान विषयक ऐसी अटपटी बातें कहना छोड़ दो । ऐसी बातें हमसे मत कहो । अब बहुत हो चुका है । तुम हमें बार – बार निर्गुण ब्रह्म की बातें सिखाते हो जिनसे हमें कष्ट मिलता है । क्या हमें दुःख पहुंचना ही तुम्हारा धर्म है ? हम तो श्याम के सखा के नाते प्रतिदिन उठ कर सुख से सोते समय तुम्हें आशीर्वाद देती रहती हैं । तुम्हारी मंगल कामना करती रहती हैं और तुम अपने ह्रदय में सदैव ब्रज युवतियों को कष्ट देने की बातें सोचा करते हो । तुम बार – बार ऐसी बातें क्यों करते हो ? तुम्हारी इन बातों से तो हमें तुम्हारे स्वभाव की कुछ – कुछ जानकारी होने लगी है अर्थात अब हमें यह आभास मिलने लगा है कि तुम्हारे साथ चाहे कितनी ही भलाई की जाये लेकिन तुम ब्रज युवतियों के विरुद्ध ही सोचोगे । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! जो कृष्ण के रंग में , श्याम रंग में , कृष्ण प्रेम में रंग चुके हैं उन पर लाल रंग नहीं चढ़ेगा अर्थात उन पर तुम्हारे ब्रह्म का प्रभाव नहीं पड़ेगा । तात्पर्य यह है कि ब्रह्म का अनुराग अर्थात प्रेम का लाल रंग अब हमें नहीं चढ़ सकता । 144

राग सारंग 

मधुप! रावरी पहिचानि।
बास रस लै अनत बैठे पुहुप को तजि कानि॥
बाटिका बहु बिपिन जाके एक जौ कुम्हलानि।
फूल फूले सघन कानन कौन तिनकी हानि?
कामपावक जरति छाती लोन लाए आनि।
जोग-पाती हाथ दीन्हीं बिप चढ़ायो सानि॥
सीस तें मनि हरी जिनके कौन तिनमें बानि।
सूर के प्रभु निरखि हिरदय ब्रज तज्यो यह जानि॥१४५॥

इस पद में गोपियों ने उद्धव को एक चंचल , रस लोलुप और स्वार्थी भ्रमर के रूप में कल्पित किया है । जिस प्रकार भ्रमर पुष्पों से तभी तक प्रेम करता है जब तक उनमें रस और सुगंध आदि गुण होते हैं । रस गुणों के अभाव में वह एक क्षण भी नहीं ठहरता लेकिन गोपियों का प्रेम एकनिष्ठ भाव से कृष्ण के लिए है । उनक समस्त जीवन उन्हीं के लिए अर्पित है ।

हे भ्रमर ! आपकी तो यह पहचान है कि एक पुष्प की सुगंध और उसके मकरंद को ग्रहण कर के पूर्व पुष्प के संकोच और मर्यादा की परवाह न करते हुए अन्यत्र चले जाते हो । यही तुम्हारी स्वार्थपरता की नीति है । जिस भ्रमर के लिए बहुत सी वाटिका और वन के पुष्प प्राप्त हों यदि उन वाटिकाओं और वनों में एक पुष्प कुम्हला जाये तो भ्रमर की इस से क्या हानि होगी ? वह अन्य बहुत से सघन वनों के पुष्प में विहार करेगा । कहने का तात्पर्य यह है कि जिसका एकनिष्ठ प्रेम किसी से नहीं होता वह यत्र – तत्र सर्वत्र विचरण करता रहता है और उसके प्रेम में स्थिरता नहीं रहती लेकिन हे भ्रमर ! हमारा प्रेम तो एक मात्र श्री कृष्ण से ही है । हमने श्री कृष्ण को छोड़ कर अन्य किसी से प्रेम नहीं किया । हमारा ह्रदय तो श्री कृष्ण के वियोग में जलता रहता है लेकिन तुमने इस जलते ह्रदय को शीतल करने के बजाय उसमें आकर नमक छिड़क दिया और इस प्रकार हमारी पीड़ा को और बढ़ा दिया । श्री कृष्ण के दर्शन की चर्चा करने के बजाय तुमने योग दर्शन का विश्लेषण किया । तुमने हमारे हाथों में योग की पत्री अर्थात योग का सन्देश देकर मानो समस्त शरीर में विष घोल दिया अर्थात समस्त शरीर को विषाक्त कर दिया । तुम्हरा यह योग सन्देश विरह से भी अधिक पीड़ित करने वाला सिद्ध हुआ । श्री कृष्ण के बिना तो हमारी दशा ऐसी है जैसे सर्प के मस्तक से उसकी मणि छीन ली जाये तो वह कांतिहीन हो जाता है उसी प्रकार श्री कृष्ण रुपी मणि के छीन लिए जाने के बाद हम गोपियाँ अब कांतिहीन हो चुकी हैं । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि शायद हमारी इस कान्तिहीनता का ह्रदय में अनुमान करके श्री कृष्ण ने बृजमण्डल को छोड़ दिया । 145

राग सारंग 

मधुकर! स्याम हमारे चोर।
मन हरि लियो माधुरी मूरति चितै नयन की कोर॥
पकर्‌यो तेहि हिरदय उर-अंतर प्रेम-प्रीति के जोर।
गए छंड़ाय छोरि सब बंधन दै गए हँसनि अंकोर॥
सोवत तें हम उचकि परी हैं दूत मिल्यो मोहिं भोर।
सूर स्याम मुसकनि मेरो सर्वस लै गए नंदकिसोर॥१४६॥

इस पद में श्री कृष्ण की रूप माधुरी से अपहृत गोपियों के मानस का बड़ा ही भावपूर्ण चित्रण हुआ है । गोपियाँ अपनी इस मनोदशा का उल्लेख उद्धव से कर रही हैं ।

हे भ्रमर ! हमारे श्याम तो चोर निकले । चोरी की कला में तो वे बड़े निपुण निकले । उनकी माधुरी मूर्ति ने मात्र अपनी तिरछी चितवन से देखकर मेरे मन को चुरा लिया । मेरे मन को मोहित और पराभूत कर लिया । हमने उनके ह्रदय को अपने समस्त प्रेम और प्रीति के बल से स्वहृदय के भीतर पकड़ कर रखा । उनके मन को अपने प्रेम पाश में अपने ह्रदय के एक कोने में बाँध कर रखा लेकिन वे बड़े पक्के चोर थे । अपनी मात्र एक मुस्कराहट की भेंट देकर अर्थात मुस्कराहट के लालच में फंसा कर समस्त बंधनों को तोड़ते हुए निकल भागे । इसी चिंता में हम सो गयीं और सोते समय अचानक चौंक पड़ीं । प्रातः काल जब चौंक कर उठीं तो देखा कि सामने संदेशवाहक दूत अर्थात उद्धव खड़े हैं । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि श्री कृष्ण केवल एक मुस्कराहट के बदले हमारा सर्वस्व अर्थात इतना बड़ा मन उठा कर ले गए । 146

राग सारंग 

मधुकर! समुझि कहौ मुख बात।
हौ मद पिए मत्त, नहिं सूझत, काहे को इतरात?
बीच जो परै[१] सत्य सो भाखै, बोलै सत्य स्वरूप।
मुख देखत को न्याव न कीजै, कहा रंक कह भूप॥
कछु कहत कछुऐ मुख निकसत, परनिंदक व्यभिचारी।
ब्रजजुवतिन को जोग सिखावत कीरति आनि पसारी॥
हम जान्यो सो भँवर रसभोगी जोग-जुगुति कहँ पाई?
परम गुरू सिर मूँडि बापुरे करमुख[२] छार लगाई॥
यहै अनीति बिधाता कीन्हीं तौऊ समुझत नाहीं।
जो कोउ परहित कूप खनावै परै सो कूपहि माहीं॥
सूर सो वे प्रभु अंतर्यामी कासों कहौं पुकारी?
तब अक्रूर अबै इन ऊधो दुहुँ मिलि छाती जारी॥१४७॥

उद्धव की बातों को सुन कर गोपियाँ नाराज हो जाती हैं और स्पष्ट शब्दों में कहने लगती हैं कि जो बातें वे कह रहे हैं उन्हें समझ – बूझ कर कहें । उद्धव की अनर्गल बातें और प्रलाप उन्हें किसी भी रूप में प्रिय नहीं है । इसमें उद्धव के प्रति गोपियों की फटकार और अमर्ष भाव की व्यंजना बहुत ही सहज रूप में हुयी है ।

हे भ्रमर ! जो कुछ भी बातें मुख से निकालो उन्हें खूब समझ – बूझ कर निकालो। यूं ही अनर्गल बातें हमारे सामने मत करो क्योंकि अभी तक तुमने निर्गुण विषयक अनेक अनर्गल बातों की चर्चा की लेकिन अब इस सम्बन्ध में अधिक मत कहो । तुम्हारी इस बड़बड़ाहट से हमें लगता है कि तुमने मदिरा पी ली है और तुम्हें कुछ समझ नहीं पड़ता । जैसे मदिरा के मद में चूर व्यक्ति को कुछ नहीं दिखाई पड़ता उसी प्रकार तुम्हें भी यह नहीं समझ पड़ता कि गोपियों को निर्गुण ब्रह्म का ज्ञानोपदेश देना उचित है या नहीं । तुम क्यों घमंड में चूर हो ? किसलिए गर्वोन्मत्त होकर इधर – उधर की बातें कर रहे हो ? जो मध्यस्थता करता है वह सत्य का आधार लेता है । पक्षपात नहीं करता और सत्य स्वरूप का ही समर्थन करता है । मुंह देखी बात नहीं करनी चाहिए । पक्षपात करना अनुचित है । चाहे निर्धन हो या राजा न्याय तुला पर निर्धन और राजा दोनों ही समान हैं । तुम तो ज्ञानोन्मत हो , तुम्हें ज्ञान का नशा है इसी कारण कहना कुछ चाहते हो और तुम्हारे मुख से निकल कुछ और रहा है । जैसे मदिरा के नशे में चूर व्यक्ति कुछ का कुछ कहता रहता है उसी प्रकार उद्धव जी की बातें भी तर्कसंगत नहीं हैं । तुम हमारी दृष्टि में परनिंदक अर्थात सगुणोपासना के निंदक और व्यभिचारी अर्थात एकनिष्ठ प्रेम के शत्रु हो । ब्रजमंडल में आ कर तुमने ब्रज की युवतियों को योग की शिक्षा दे कर चारों तरफ अपनी कीर्ति फैला दी है । तुम्हारी इन बातों की सर्वत्र चर्चा हो रही है। तुम्हारे ऐसे कार्यों से ब्रज के सभी लोग परिचित हो गए हैं लेकिन जब तुम्हारी कीर्ति को हमने सुना तो आश्चर्य हुआ और सोचा कि भ्रमर तो रसभोगी होता है । उसने योग की ऐसी – ऐसी युक्तियाँ – योग विषयक ऐसी बातें कहाँ से प्राप्त की हैं ? इसे योग की ऐसी शिक्षा कहाँ मिली है ? आशय यह है कि अभी तक तो यह भोग – विलास में ही फंसा रहा । अब यह वैराग्य की बातें कब से सोचने लगा । वस्तुतः वह स्वयं भोगी होकर विश्व को वैराग्य की शिक्षा देता रहा । इस अपराध से परम गुरु ब्रह्मा ने बेचारे के सिर को मुड़ा कर इसके काले मुख पर मिट्टी लगा दी । भौंरा काले रंग का होता है , उसके सिर पर बाल नहीं होते और मुख पर पिले रंग का टिका लगा रहता है जिसे मिट्टी के रूप में कल्पित किया गया है , आशय यह है कि जब किसी को उसकी अनीति पर दण्डित किया जाता था तो उसके सिर को मुड़ा कर कालिख या राख या मिट्टी लगा दी जाती थी । भ्रमर के काले रंग और पीले टीके की कल्पना इस प्रकार की गयी है । यद्यपि इसी अनीति के कारण ब्रह्मा ने उसे ऐसा रूप दिया । उसे ऐसा कलमुँहा बनाया । तो यह नहीं समझता । वास्तव में जो दूसरों के लिए कुआँ खोदता है वह स्वयं ही उस कुएं में गिरता है । सूर के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि श्री कृष्ण स्वयं अंतर्यामी हैं । सबके ह्रदय में हैं । सब की बात जानते हैं । अतः अपनी पीड़ा हम किस से कहें । वे इस अन्यायी उद्धव की बातें स्वयं जान रहे हैं । हाँ यह अवश्य है कि पहले तो अक्रूर जी ने आ कर हमें दुःख दिया । श्री कृष्ण और बलराम को फुसला कर मथुरा ले गए । अब उद्धव जी ने – अर्थात इन दोनों ने इस प्रकार मिल कर हमारे ह्रदय को जलाया है । हमें पीड़ित किया है । 147

राग सारंग 

मधुकर! हम जो कहौ करैं।
पठयो है गोपाल कृपा कै आयसु तें न टरैं॥
रसना वारि फेरि नव खंड कै, दै निर्गुन के साथ।
इतनी तनक बिलग जनि-मानहुँ, अँखियाँ नाहीं हाथ॥
सेवा कठिन, अपूरब दरसन कहत अबहुँ मैं फेरि।
कहियो जाय सूर के प्रभु सों केरा पास ज्यों बेरि॥१४८॥

गोपियाँ निर्गुण ब्रह्म उपासना के लिए अपनी विवशता प्रकट कर रही हैं । वे उद्धव से कहती हैं कि अपनी जिह्वा तो हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म के हवाले कर सकती हैं लेकिन अपनी आँखों से विवश हैं । वे श्री कृष्ण की रूप माधुरी के बिना रह ही नहीं सकतीं । उन्हें हम अपने वश में नहीं कर सकतीं ।

हे उद्धव ! आप जो भी कहें हम सब करने के लिए तैयार हैं । आपको श्री कृष्ण ने कृपापूर्वक हमारे पास भेजा है । हम आपकी आज्ञा का उल्लंघन किसी भी रूप में नहीं करेंगीं । आशय यह है कि आप श्री कृष्ण के परम मित्र हैं और उन्होंने तुम्हें हमारे पास भेजा है । इसलिए आज्ञा उल्लंघन की कोई बात नहीं है । हाँ इतना अवश्य कर सकती हैं कि अपनी जिह्वा जो निरंतर श्री कृष्ण का नाम जपा करती है उसे तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म पर न्योछावर कर सकती हैं । निर्गुण जाप के लिए लगा सकती हैं और आवश्यकता पड़ने पर उसे नौ खण्डों में विभाजित कर के , टुकड़े – टुकड़े कर के निर्गुण को अर्पित भी कर सकती हैं लेकिन हमारी थोड़ी सी विवशता है उसके लिए बुरा न मानना वह यह कि हमारी आँखें हमारे वश में नहीं हैं । वे तो मात्र श्री कृष्ण की रूप माधुरी के वशीभूत हैं । उन्हें श्री कृष्ण की मनोरम मूर्ति के अतिरिक्त दूसरी वस्तुएं अच्छी लगती ही नहीं । अब भी हम सब यही कह रही हैं कि निर्गुणोपासना का मार्ग बड़ा ही कठिन है । उस निर्गुण की सेवा आराधना करना हमारे लिए सरल नहीं है और उसका दर्शन अर्थात ब्रह्म ज्योति का साक्षात्कार तो और भी कठिन तथा विलक्षण है । सहज और साध्य नहीं है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! यह निर्गुण मार्ग हमें रह – रह कर पीड़ित करता है यह श्री कृष्ण से जाकर कह देना । योग और निर्गुण ब्रह्म का सन्देश तो हमारी प्रकृति के सर्वथा विरुद्ध है । वह हमें उसी प्रकार कष्ट देता है जैसे बेर के पेड़ के पास रहने से केले के पत्तों में बराबर बेर के कांटे चुभते रहते हैं अर्थात दोनों का प्रकृति वैषम्य के कारण निर्वाह नहीं हो सकता ।

राग धनाश्री

मधुकर! तौ औरनि सिख देहु।
जानौगे जब लागैगो, हो, खरो कठिन है नेहु॥
मन जो तिहारो हरिचरनन-तर, तन धरि गोकुल आयो।
कमलनयन के संग तें बिछुरे कहु कौने सचु पायो?
ह्याँई रहौ जाहु जनि मथुरा, झूठो माया-मोहु।
गोपी सूर कहत ऊधो सों हमहीं से तुम होहु॥१४९॥

 

इसमें गोपियों ने उद्धव को बताया कि प्रेम का मार्ग बाद कठिन होता है । जब प्रेम बाण से प्रेमी बिद्ध होता है तभी इसकी पीड़ा का अनुभव उसे होता है । गोपियों के अनुसार उद्धव अभी प्रेम की पीड़ा के सम्बन्ध में नहीं जानते । इन्हें तब बोध होगा जब गोपियों की भाँति ये भी प्रेम व्यथा से पीड़ित होंगे ।

हे उद्धव ! प्रेम का मार्ग अतिशय कठिन मार्ग है । उस पर चलना आसान नहीं है । तुम्हें अभी प्रेम का बाण लगा नहीं है जब लगेगा तो समझ पड़ेगा और तब तुम अपने योग की शिक्षा दूसरों को देना अर्थात जब तुम श्री कृष्ण के प्रेम में अभिभूत हो जाओगे तो तुम योग की शिक्षा जो दूसरों को देते फिरते हो , भूल जाओगे । यद्यपि तुम्हारा मन तो निरंतर श्री कृष्ण के कमलवत चरणों में लगा रहता है लेकिन यहाँ तुम अपना मात्र शरीर लेकर आये हो क्योंकि श्री कृष्ण से बिछुड़ने पर किसे सुख मिला है ? व्यंजना यह है कि तुम भी श्री कृष्ण का साथ कैसे छोड़ सकते हो ? उनका साथ छोड़ने पर तुम्हें सुख कैसे मिल सकता है ? तुम तो हमसे यह कहते फिरते हो कि यह माया मोह सब झूठा है । यदि झूठा है तो तुम यहाँ ही इस गोकुल में हमारे साथ रहो और मथुरा में मत जाओ । लेकिन तुम्हें तो मथुरा में ही रहना पसंद है । इस से स्पष्ट है कि तुम माया मोह से मुक्त नहीं हो और मथुरा तथा श्री कृष्ण का मोह तुम्हारे मन में है । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हमारी ही भाँति तुम भी प्रेम मार्ग के पथिक बन जाओ और इस योग मार्ग को छोड़ दो । ऐसी स्थिति में तुम वियोग की व्यथा के मर्म को समझोगे ।149

राग धनाश्री

मधुकर! जानत नाहिंन बात।
फूँकि फूँकि हियरा सुलगावत उठि न यहाँ तें जात॥
जो उर बसत जसोदानंदन निगुन कहाँ समात?
कत भटकत डोलत कुसुमन को तुम हौ पातन पात?
जदपि सकल बल्ली बन बिहरत जाय बसत जलजात।
सूरदास ब्रज मिले बनि आवै? दासी की कुसलात॥१५०॥

इस पद में गोपियों ने उद्धव से कहा कि जिस ह्रदय में श्री कृष्ण बसते हैं वहां हम सब तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म को कैसे स्थान दे सकती हैं ?

हे उद्धव ! तुम बात करना भी नहीं जानते । यदि तुम्हें बात करने का ढंग होता तो हम गंवार गोपियों के समक्ष अपने निर्गुण ब्रह्म की चर्चा कभी नहीं करते । तुम अपनी अटपटी वाणी द्वारा हमारी वियोगाग्नि को फूंक – फूंक कर प्रज्ज्वलित कर रहे हो और उसमें हमारे ह्रदय को जला रहे हो । आशय यह है कि तुम्हारी इन बातों से हमारी वियोग व्यथा और बढ़ जाती है और हमारा ह्रदय जलने लगता है । भला तुम यह तो बताओ कि जिस ह्रदय में श्री कृष्ण बस रहे हैं उसमें तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म को स्थान हम कैसे दे सकती हैं ? अर्थात एक म्यान में दो तलवारें कैसे आ सकती हैं ? हे भ्रमर यद्यपि तुम समस्त वन कि लताओं में विहार करते रहते हो , उन लताओं के पुष्पों का रसास्वादन करते रहते हो लेकिन अंत में तुम कमल में ही जाकर बस जाते हो । तुम्हारा सच्चा प्रेम तो कमल से है और उसी के प्रेम पाश में बांध जाते हो । फिर भी तुम क्यों वन के पत्ते – पत्ते में पुष्पों कि खोज करते हुए भटकते फिर रहे हो ? यह भटकना ही तुम्हारी चंचल प्रकृति का द्योतक है । तुम चंचल होते हुए भी अपना सच्चा प्रेम एक मात्र कमल के प्रति व्यक्त करते हो । उसी प्रकर हमारा भी एकनिष्ठ प्रेम श्री कृष्ण के प्रति है । जिस प्रकार अनेक पुष्पों से संपर्क रखकर भी तुम सबको अपने ह्रदय में स्थान नहीं दे पाते। केवल कमल को ही अपने ह्रदय में बसाते हो उसी तरह हम तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म को अपने ह्रदय में स्थान न देकर एक मात्र श्री कृष्ण को स्थान देती हैं । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि श्री कृष्ण के ब्रज में आने से क्या कुब्जा का हित हो सकता है ? शायद उसके कल्याण को ध्यान में रख कर ही कृष्ण यहाँ नहीं आये । दासी कुब्जा ने तुम्हें इसीलिए भेजा है कि तुम्हारे योग सन्देश से हम सब की कृष्ण के प्रति जो प्रीति है उसे भूल जाएँ ।

राग सारंग

तिहारी प्रीति किधौं तरवारि?
दृष्टि-धार करि मारि साँवरे घायल सब ब्रजनारि॥
रही सुखेत ठौर बृन्दाबन, रनहु न मानति हारि।
बिलपति रही संभारत छन छन बदन-सुधाकर-बारि॥
सुंदरस्याम-मनोहर-मूरति रहिहौं छबिहि निहारि।
रंचक सेष रही सूर प्रभु अब जनि डारौ मारि॥१५१॥

इसमें गोपियों के वियोग में व्यथित गोपियों की मार्मिक दशा का वर्णन हुआ है । वियोग में गोपियों को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि श्री कृष्ण का प्रेम प्रेम न हो कर उन सबों के लिए तलवार की भाँति घातक है ।

श्री कृष्ण के प्रति गपियों का कथन है कि हे श्याम ! यह तुम्हारा प्रेम है की तलवार है । आशय यह है कि तुमने संयोग की घड़ियों में जो अपने प्रेम का जादू हम सब गोपियों पर डाला आज वियोग में वह हमारे लिए तलवार की भांति चुभ रहा है । तुमने वृन्दावन रुपी रण क्षेत्र में जो अपनी तीक्ष्ण चितवन रुपी तलवार की धार से चोट की । उसके कारण घायल हो कर आज भी ब्रज की युवतियां पड़ी हुयी तड़प रही हैं और रणस्थल में घायल होकर भी अपनी पराजय स्वीकार नहीं करतीं । प्रेम के इस युद्ध में उन्हें विश्वास है कि विजय उन्हीं की होगी । हे कृष्ण ! तुम्हारे वियोग में प्रेम की तलवार से घायल हम सब रो रही हैं और क्षण – क्षण तुम्हारे चंद्र- मुख के कान्ति रुपी अमृत जल से अपने प्राणों की रक्षा करती रहीं । व्यंजना यह है कि स्मृति पटल पर अंकित तुम्हारे सौंदर्य का अवलोकन करके हम सब जीवित हैं और भविष्य में भी हे श्यामसुंदर ! तुम्हारी मनोहारिणी मूर्ति की शोभा को देख कर अपने जीवन को बिता देंगीं । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ श्री कृष्ण से कह रही हैं कि तुम्हारी प्रेम रुपी तलवार से घायल हम सबों का जीवन अब बहुत थोड़ा शेष रह गया है अर्थात अब हम सब मरणोन्मुख हैं । अब हमें मत मारिये । इस थोड़े से जीवन में तो अपना दर्शन दे दें क्योंकि हम इसी आशा में टिकी हैं कि शायद श्यामसुंदर का दर्शन हो जाये ।

राग धनाश्री

मधुकर! कौन मनायो मानै?
अबिनासी अति अगम अगोचर कहा प्रीति-रस जानै?
सिखवहु ताहि समाधि की बातें जैहैं लोग सयाने।
हम अपने ब्रज ऐसेहि बसिहैं बिरह-बाय-बौराने॥
सोवत जागत सपने सौंतुख रहिहैं सो पति माने।
बालकुमार किसोर को लीलासिंधु सो तामें साने॥
पर्‌यो जो पयनिधि बूंद अलप सो को जो अब पहिचाने?
जाके तन धन प्रान सूर हरि-मुख-मुसुकानि बिकाने॥१५२॥

गोपियाँ उद्धव के निर्गुण ब्रह्म को किसी भी रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं । उनका समस्त व्यक्तित्व श्री कृष्ण के लीला समुद्र में डूब चुका है अतः पृथकता का भाव वे किसी भी रूप में नहीं कर सकतीं । इन्ही सब कारणों से वे उद्धव के निर्गुण ब्रह्म कि उपासना के प्रति अपनी पूर्ण असमर्थता प्रकट कर रही हैं ।

हे भ्रमर उद्धव ! तुम्हारे पूर्ण समझने पर भी इस निर्गुण ब्रह्म की उपासना पद्धति को कौन स्वीकार करे ? भला वह अविनाशी अत्यंत अगम्य अर्थात जहाँ तक पहुँचना कठिन है , अगोचर अर्थात दृष्टि द्वारा जिसे देखा नहीं जा सकता प्रेम के रस को क्या समझे ? अर्थात हमारे ह्रदय में सगुण रूप श्री कृष्ण का जो प्रेम है और उस प्रेम से हमें जो सुख प्राप्त होता है उसे तुम्हारा निर्गुण ब्रह्म क्या जाने ? तुम योगियों की समाधि विषयक बातें उन्हें सिखाओ जो चतुर लोग हैं । आशय यह है कि यहाँ तो इन बातों को समझने वाले नहीं हैं। हाँ मथुरा में कृष्ण और कुब्जा आदि तुम्हारी बातों को ग्रहण करने में सक्षम हैं । वे सब योगी होने के कारण योग के मर्म को आसानी से समझ सकते हैं और इसकी उन्हें आवश्यकता भी है लेकिन हम तो श्री कृष्ण के वियोग सन्निपात से ग्रस्त बावली की भाँति इस ब्रज में भास्कर अपना जीवन बिता देंगीं । हमें वियोग में बावरी हो कर ब्रज में जीवन बिताने में जो आनंद और सुख आता है वो तुम्हारी निर्गुण ब्रह्मोपासना में कहाँ है ? हम तो सोते समय , जागृत अवस्था में , स्वप्न में और प्रत्यक्ष श्री कृष्ण को पति मान कर ही इस जीवन को बिता देंगीं किन्तु दूसरों को पति के रूप में कदापि वरण नहीं करेंगीं । हम श्री कृष्ण की बाल , कुमार और किशोरावस्था के लिलरूपी समुद्र में अपने स्वतन्त्र अस्तित्व को डुबा चुकी हैं । अब हमारा मानस उनकी लीला में तन्मय हो चुका है । अब हमारे किये उस समुद्र से निकलना उसी प्रकार कठिन है जैसे समुद्र में यदि थोड़ी सी बूँद गिर जाये तो कौन ऐसा है जो उसे पहचान सके अर्थात बूंदों के स्वतन्त्र अस्तित्व का कौन उल्लेख कर सकता है । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हमारे लिए तो श्री कृष्ण के मुख की मुस्कराहट ही तन , मन ,धन और प्राण तुल्य है और हम सब उस मुस्कराहट के वशीभूत हैं ।152

राग मलार

मधुकर! ये मन बिगरि परे।
समुझत नाहिं ज्ञानगीता को हरि-मुसुकानि अरे॥
बालमुकुंद-रूप-रसराचे तातें बक्र खरे।
होय न सूधी स्वान पूँछि ज्यों कोटिक जतन करे॥
हरि-पद-नलिन बिसारत नाहीं सीतल उर संचरे।
जोग गंभीर है अंधकूप तेहि देखत दूरि डरे॥
हरि-अनुराग सुहाग भाग भरे अमिय तें गरल गरे।
सूरदास बरु ऐसेहि रहिहैं कान्हबियोग-भरे॥१५३॥

गोपियाँ इस पद में उद्धव के समक्ष अपने मन की विवशता प्रकट कर रही हैं । उनके अनुसार यह मन इस सीमा तक बिगड़ चुका है कि उद्धव की बातों पर थोड़ा भी ध्यान नहीं देता ।

हे भ्रमर ! हम तुम्हारी ज्ञान की बातों को नहीं सुनतीं लेकिन हमारा मन इस प्रकार बिगड़ चुका है कि वह तुम्हारी गीता का ज्ञान नहीं समझता और श्री कृष्ण की मुस्कराहट में अड़ गया है । हम सब बस मुस्कराहट को ही देखा करती हैं वहां से हमारा मन हटना ही नहीं चाहता । ये श्री कृष्ण के सौंदर्य रास में सदैव अनुरक्त रहते हैं इसीलिए इन्हें गर्व हो गया है और बहुत टेढ़े स्वभाव के हो गए हैं । श्री कृष्ण के सौंदर्य का आनंद प्राप्त कर के ये किसी को कुछ नहीं समझते और सदैव वक्र बने रहते हैं । अब इनके स्वभाव में किसी भी प्रकार का परिवर्तन नहीं हो सकता जैसे कितना ही यत्न किया जाये लेकिन कुत्ते की टेढ़ी पूँछ सीधी नहीं हो सकती उसी प्रकार इनके स्वभाव की वक्रता दूर नहीं हो सकती । ये श्री कृष्ण के उन कमलवत चरणों को नहीं भूल पाते जो ह्रदय में शीतल रूप में संचारित या व्याप्त हो गए हैं अर्थात श्री कृष्ण के उन कमलवत चरणों का निरंतर ध्यान किया करते हैं जिनसे इनका ह्रदय शीतल हो जाता है । इन्हें तुम योग की शिक्षा देना चाहते हो लेकिन ये तो योग को गहरे अंधकूप की भांति दूर से ही देख कर ही दर जाते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि योग की जटिलताओं से हम लोगों का मन सदैव उदासीन रहता है । इनका तो यह संकल्प है कि श्री कृष्ण के प्रेम रुपी सौभाग्य या सिन्दूर को मस्तक पर धारण करके यदि इन्हें अमृत को छोड़ कर अर्थात अमरता से अलग हो कर विष अर्थात नश्वरता में गलना पड़े तो स्वीकार है अर्थात सुख की जगह चाहे इन्हें दुःख झेलना पड़े परन्तु ये तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की ओर नहीं जायेंगे । तात्पर्य यह है कि श्री कृष्ण के अनुराग को धारण करने पर चाहे जो भी कष्ट मिलें उस से यह भयभीत नहीं होने वाले । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि श्री कृष्ण के वियोग को धारण किये हुए – श्री कृष्ण की वियोगाग्नि में जलते हुए ये भले ही ऐसे ही जीवन बिता दें किन्तु योग साधना को स्वीकार न करेंगे ।

राग मलार 

मधुकर! जौ तुम हितू हमारे।
तौ या भजन-सुधानिधि में जनि डारौ जोग-जल खारे॥
सुनु सठ रीति, सुरभि पयदायक क्यों न लेत हल फारे?
जो भयभीत होत रजु देखत क्यों बढ़वत अहि कारे॥
निज कृत बूझि, बिना दसनन हति तजत धाम नहिं हारे।
सो बल अछत निसा पंकज में दल-कपाट नहिं टारे॥
रे अलि, चपल मोदरस-लंपट! कतहि बकत बिन काज?
सूर स्याम-छबि क्यों बिसरत है नखसिख अंग बिराज?॥१५४॥

इस पद में गोपियाँ क्रुद्ध हो कर कहती हैं कि यदि तुम हमारे सच्चे हितैषी हो तो योग की शिक्षा मत दो । हमारे लिए तुम्हारा यह उपदेश नीति के विरुद्ध है ।

हे भ्रमर ! हे उद्धव ! यदि तुम हमारे सच्चे हितैषी बनते हो तो श्री कृष्ण के भजन रुपी अमृत के समुद्र में योग रुपी खारा जल मत डालो । कहने का तात्पर्य यह है कि श्री कृष्ण के भजन में हमें अमृत जैसा सुख और आनंद की प्राप्ति होती है और तुम्हारे योग की बातें सुनकर हमें कडुवाहट और खारेपन का अनुभव होता है । रे दुष्ट भ्रमर ! क्या तुम्हें इस रीति का ज्ञान नहीं है कि जिसका जो काम होता है वही उस काम को करता है – उसे दूसरा नहीं कर सकता । तुम इस रीति को सुनो और समझो । यदि ऐसा नहीं है तो दूध दुहने वाली गाय हल और फाल क्यों नहीं लेती अर्थात हल में तो बैल ही जुतता है गाय नहीं । उसी प्रकार नारियों को योग कि शिक्षा नियम विरुद्ध है और यह गाय को हल में जोतने के समान है । तुम बार – बार हमें निर्गुण ब्रह्म की बातें बताते हो । भला जो रस्सी को सर्प समझ कर डर जाता है उसके आगे काले सर्प को क्यों बढ़ाते हो ? आशय यह है कि जो योग की बातों को सुनकर डर जाती है उन्हें श्री कृष्ण को छोड़ कर निर्गुण ब्रह्मोपासना में लगा कर क्यों डराते हो ? तुम दूसरों को तो उपदेश देते फिरते हो किन्तु पहले अपनी करनी को तो देखो कि दांतों से बिना काटे अपने उस गृह से अर्थात छत्ते से बाहर नहीं निकलते बल्कि उनको काट कर बाहर निकल आते हो किन्तु तुम्हारे पास काटने कि शक्ति होते हुए भी तुम रात्रि बेला में कमल में बस जाते हो और उसकी पंखुड़ी रुपी दरवाजे को नहीं खोलते । उसमें बंद रह कर घुटन सह कर भी उसे नष्ट नहीं करते । अरे चंचल और सुरभि एवं मकरंद के लोभी भ्रमर क्यों बड़ – बड़ कर रहे हो ? व्यर्थ प्रलाप क्यों कर रहे हो ? सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे भ्रमर ! श्री कृष्ण की मधुर छवि तो हमारे प्रत्येक अंग में विराजमान है वह हमें कैसे भूल सकती है अर्थात उसे हम किसी भी स्थिति में नहीं भूल सकतीं ।

राग सोरठ

मधुकर! कौन गाँव की रीति?
ब्रजजुवतिन को जोग-कथा तुम कहत सबै बिपरीति॥
जा सिर फूल फुलेल मेलिकै हरि-कर ग्रंथैं छोरी।
ता सिर भसम, मसान पै सेवन, जटा करत आघोरी॥
रतनजटित ताटंक बिराजत अरु कमलन की जोति।
तिन स्रवनन पहिरावत मुद्रा तोहिं दया नहिं होति॥
बेसरि नाक, कंठ मनिमाला, मुखनि सार असवास।
तिन मुख सिंगी कहौ बजावन, भोजन आक, पलास॥
जा तन को मृगमद घसि चंदन सूछम पट पहिराए।
ता तन को रचि चीर पुरातन दै ब्रजनाथ पठाए॥
वै अबिनासी ज्ञान घटैगो यहि बिधि जोग सिखाए।
करैं भोग भरिपूर सूर तहँ, जोग करैं ब्रज आए॥१५५॥

इस पद में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! तुम यह नहीं देखते कि योग साधना किसके लिए है तथा भोग और योग के अंतर को तुम बिलकुल नहीं समझ रहे हो । भला यह तो बताओ कि जो अभी तक भोगमय जीवन में लगी रहीं , उन्हें यह योग साधना कैसे अच्छी लग सकती है ?

हे भ्रमर उद्धव ! यह किस गाँव की रीति है कि तुम ब्रज कि युवतियों को योग कथा बता रहे हो जो सब प्रकार से नीति विरुद्ध है । व्यंजना यह है कि क्या तुम्हारे मथुरा में ऐसी ही उलटी नीति का व्यव्हार होता है और क्या वहां नव युवतियों को योग की शिक्षा दी जाती है ? हमारे जिस सिर को श्री कृष्ण ने फूलों से अलंकृत किया और सुगन्धित तेल लगा कर उन्होंने इसकी गांठें खोलीं । आज तुम उसी सिर पर भस्म मलने के लिए कह रहे हो और अघोरपंथी की भांति सिर पर जाता बाँध कर शमशान की साधना करने पर बल दे रहे हो । यह कैसे संभव हो सकता है ? जिन कानों में रत्नजड़ित कर्णफूल आभूषण शोभित होता था और जिनमें मोतियों की कांति दीप्त होती थी , उन कानों में योगियों की भांति कांच के कुण्डलों को पहनाते समय तुम्हें दया नहीं आ रही है अर्थात तुम इतने निष्ठुर हो रहे हो की जिन कोमल कानों में सुन्दर आभूषण शोभित होते थे उनमें अब तुम बलात कुण्डल पहना रहे हो । हमारी नाक में नथनियाँ शोभित होती थीं , गले में मणिमाला और मुख कपूर से सदैव सुगन्धित रहता था आज तुम उस मुख को सिंगी बाजा ( योगियों का एक बाजा ) बजने को कह रहे हो और भोजन में खाने के लिए मदार और ढाक बता रहे हो , तुम्हें लज्जा नहीं आती । हमने अपने जिस तन पर चन्दन और चन्दन का लेप किया , जिस पर रेशमी वस्त्र धारण किया आज उस को सजाने के लिए पुराण वस्त्र भिजवाया है । तुम श्री कृष्ण को अविनाशी ब्रह्म कह रहे हो । तुम्हारे कहने से हमने उन्हें ब्रह्म मान लिया लेकिन पात्र अपात्र का विचार किये बिना जो युवतियों को इस प्रकार योग सीखा रहे हो उस से तुम्हारा ज्ञान घटेगा , तुम अज्ञानी माने जाओगे । वे वहां मथुरा में भले ही पूर्णरूपेण भोग की साधना करें लेकिन हम तो उन्हें तब समझेंगीं जब वे ब्रज में आकर योग साधना हमारे साथ करें । योग साधना कितनी कठिन है यह उन्हें पता चल जायेगा क्योंकि वे मथुरा में बैठे-बैठे हमारे पास योग सन्देश तो भेजा करते हैं पर स्वयं योग साधना के लिए यहाँ नहीं आते । व्यंजना यह है कि यहाँ आने पर वे अपनी योग साधना की बातें गोपियों को देखते ही भूल जाएंगे और उनके साथ वे भी भोगमय जीवन की साधना में जुट जाएंगे ।

राग नट

मधुकर! ये नयना पै हारे।
निरखि निरखि मग कमलनयन को प्रेममगन भए भारे॥
ता दिन तें नींदौ पुनि नासी, चौंकि परत अधिकारे।
सपन तुरी जागत पुनि सोई जो हैं हृदय हमारे॥
यह निगुन लै ताहि बतावो जो जानैं याके सारे।
सूरदास गोपाल छाँड़ि कै चूसैं टेटी खारे॥१५६॥

इस पद में गोपियों ने अपने नेत्रों की दशा का वर्णन उद्धव के समक्ष किया है ।

हे भ्रमर ! हमारे ये नेत्र कमलनेत्र श्री कृष्ण का मार्ग देखते – देखते थक गए और अंततः उनके प्रेम में अतिशय मग्न हो गए । जब से श्री कृष्ण यहाँ से गए हैं उसी दिन से इनकी नींद भी चली गयी है । ये सोते नहीं उन्हें देखते ही रहते हैं और किसी समय उनके ध्यान में ये अधिक चौंक पड़ते हैं । इन्हें तो स्वप्न में , तुरीयावस्था में और जाग्रतावस्था में हमारे प्राणस्वरूप वे ही श्री कृष्ण दिखाई पड़ते हैं । कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक स्थिति में हमारे ध्यान में श्री कृष्ण का ही चित्र रहता है । तुम यह देखते हुए भी बार – बार निर्गुण की महत्ता प्रतिपादित करते रहते हो । अरे निर्गुण की बात तो उन्हें बताओ जो इसके तत्व को , इसके गूढ़ मर्म को समझते हो । हम सब निर्गुण के बारे में क्या जाएं ? कहने का आशय यह है कि इसे कृष्ण जैसे योगी और कुब्जा जैसी योगिनी को समझाओ , ये सब इसे सहर्ष ग्रहण करेंगे । हम सब तो गोपाल की उपासिका हैं , उनकी रूप माधुरी का निरंतर आनंद लिया करती हैं । भला ऐसे मधुर रस को छोड़ कर तुम्हारे निर्गुण के रस को जो करेले के कड़ुए फल की भांति है इसे कौन पसंद करेगा । तात्पर्य यह है कि जैसे कोई मधुर फल का रसास्वादन करने के पश्चात् करेले के कड़ुए फल को नहीं चाहता ठीक उसी प्रकार गोपाल के आनंद को प्राप्त कर के इस निर्गुण के कड़ुए स्वाद से कौन संतुष्ट होगा ?

राग धनाश्री

मधुकर! कह कारे की जाति?
ज्यों जल मीन, कमल पै अलि की, त्यों नहिं इनकी प्रीति॥
कोकिल कुटिल कपट बायस छलि फिरि नहिं वहि वन जाति।
तैसेहि कान्ह केलि-रस अँचयो बैठि एक ही पाँति॥
सुत-हित जोग जज्ञ ब्रत कीजत बहु बिधि नींकी भाँति।
देखहु अहि मन मोहमया तजि ज्यों जननी जनि[१] खाति॥
तिनको क्यों मन बिसमौ कीजै औगुन लौं सुख-सांति।
तैसेइ सूर सुनौ जदुनंदन, बजी एकस्वर तांति॥१५७॥

इस पद में गोपियों ने काले वर्ण वालों का बहुत उपहास किया है । श्याम वर्ण के होने के कारण श्री कृष्ण को लेकर श्याम रंग वालों के प्रति बहुत चुभता हुआ व्यंग्य किया है ।

हे भ्रमर ! क्या काले रंग वालों की भी कोई जाति होती है ? क्या इनमें कुलीनता के कुछ गुण होते हैं ? आशय यह है कि काले रंग वाले बड़े कुटिल , छली और निष्ठुर होते हैं । जिस प्रकार जल से मछली का और कमल से भौंरे का प्रेम होता है । वैसा सच्चा और दृढ प्रेम इन कालों जैसे उद्धव , श्री कृष्ण और उद्धव आदि का नहीं है , ये सब भी काले माने गए हैं । काली कोयल को देखो वह कितनी कुटिल और कपटी है । वह कपट से अपने बच्चों को कौए के घोंसले में रख आती है और जब वे बच्चे बड़े हो जाते हैं तो कोकिल कुल में मिल जाते हैं और कोकिला अपने बच्चों को प्राप्त कर के पुनः उस वन में नहीं जाती और कौए से किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखती । उसी प्रकार ये काले कृष्ण ने भी हम लोगों की पंक्ति में बैठ कर , हम लोगों के साथ में रहकर नाना प्रकार की क्रीड़ाओं के रस को प्राप्त किया लेकिन अंत में धोखा देकर वे मथुरा चले गए और हम लोगों की याद भुला दी । इसी प्रकार लोग जहाँ पुत्र प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के यज्ञ करते हैं , व्रत रखते हैं तब बड़ी कठिनाई के साथ वह मिलता है , वहीं सर्पिणी को तो देखो , यह जैसे ही बच्चों को जन्म देती है , उसी क्षण समस्त माया मोह को छोड़ कर , निष्ठुर होकर अपने बच्चों को खा जाती है । यही है काले रंग की निष्ठुरता । उनके सम्बन्ध में वस्तुतः मन में आश्चर्य करने की आवश्यकता नहीं है जिन्हें अवगुण ग्रहण करने में ही सुख और शांति मिलती है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि इसी तरह यशोदा के पुत्र श्री कृष्ण भी हैं । ये भी उसी रंग में रँगे हुए हैं । एक ही रंगत हैं और इनके यहाँ भी एक ही ढंग कि तंत्री बजी । एक ही प्रकार का स्वर निकला अर्थात इनमें भी उक्त कालों के गुण उपस्थित हैं ।

राग रामकली

मधुकर! ल्याए जोग-संदेसो।
भली स्याम-कुसलात सुनाई, सुनतहिं भयो अंदेसो॥
आस रही जिय कबहुँ मिलन की, तुम आवत ही नासी।
जुवतिन कहत जटा सिर बांधहु तो मिलिहैं अबिनासी॥
तुमको जिन गोकुलहिं पठायो ते बसुदेव-कुमार।
सूर स्याम मनमोहन बिहरत ब्रज में नंददुलार॥१५८॥

गोपियों को यह विश्वास नहीं है कि नंदकुमार ने उनके पास यह योग सन्देश भिजवाया है । उनके अनुसार नन्द कुमार तो ब्रज में हैं और योग सन्देश भिजवाने वाले राजा वसुदेव के पुत्र हैं ।

हे भ्रमर उद्धव ! तुम तो योग सन्देश क्या लाये उसी के बहाने श्याम का अच्छा कुशल सुनाया जिसे सुनते ही हमारे मन में शंका उत्पन्न हो गयी । शंका इस बात की है कि यह सन्देश कृष्ण का भेजा हुआ नहीं है । वे ऐसी बातें भिजवा ही नहीं सकते हैं । व्यंगात्मक अर्थ यह है कि तुमने श्याम का जो समाचार दिया है वह बड़ा दुःखद है उसने हमारे मन में शंका और उद्विग्नता उत्पन्न कर दी है । अभी तक तो हमारे मन में यह आशा बनी हुई थी कि श्री कृष्ण कभी आवेंगे किन्तु तुम्हारे आते ही और इस योग सन्देश को सुते ही हमारी सभी आशाएं नष्ट हो गयीं और हम सब निराश हो गयीं । तुम तो हम युवतियों को सिर पर जटा बाँधने का उपदेश दे रहे हो । हमें योगिनी बना रहे हो और यह कहते हो कि ऐसा करने से उस अविनाशी ब्रह्म का साक्षात्कार होगा परन्तु हमें इस बात की शंका है कि इस प्रकार का उपदेश देने के लिए श्री कृष्ण ने तुम्हें गोकुल भेजा है बल्कि वसुदेव पुत्र मथुराधिपति ने यह सन्देश तुम्हारे द्वारा भिजवाया है । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हमारे नन्द कुमार तो हमारे साथ बृज में विचरण कर रहे हैं और वे यहीं रहते हैं । सन्देश भिजवाने वाले ये नहीं हैं , वे कोई दूसरे हैं अर्थात वसुदेव पुत्र हैं ।

राग सोरठ

स्याम विनोदी रे मधुबनियाँ।
अब हरि गोकुल कांहे को आवहिं चाहत नवयौवनियाँ॥
वे दिन माधव भूलि बिसरि गए गोद खिलाए कनियाँ।
गुहि गुहि देते नंद जसोदा तनक कांच के मनियाँ॥
दिना चारि तें पहिरन सीखे पट पीतांबर तनियाँ।
सूरदास प्रभु तजी कामरी अब हरि भए चिकनियाँ॥१५९॥

यद्यपि श्री कृष्ण गोकुल से जा कर मथुरा में राजा हो गए हैं किन्तु गोपियाँ ब्रज के बाल कृष्ण को आज भी नहीं भूल नहीं सकी हैं । व्यंग्य विनोद के साथ वे कृष्ण के पूर्व रूप और कार्य कलाप को स्मरण करती हुयी उलाहना दे रही हैं ।

गोपियाँ परस्पर कह रही हैं कि हे सखी ! कृष्ण तो अब मथुरा के रसिक बन गए हैं, बड़े लोगों के साथ रहने लगे हैं , वे अब गोकुल क्यों आएंगे ? गोकुल में अब क्या धरा है ? अब तो वे मथुरा की युवतियों को पसंद करेंगे । यहाँ उन्हें ऐसी युवतियां कहाँ मिलेंगी। उन्हें अब हमारी चाह क्यों होगी ? अब तो कृष्ण अपने बचपन के उन दिनों को बिलकुल भूल गए हैं जब हमनें उन्हें गोद में खिलाया और प्यार में उन्हें अपने कंधे पर चढ़ाया । हे सखी ! हम उन दिनों को याद करती हैं जब यशोदा और नन्द कांच की छोटी – छोटी गुरियों की माला गुह कर उन्हें पहना देते थे । तब वे मणि – मुक्त की बात नहीं जानते थे । उन्होंने रेशमी पीताम्बर और कुरता तो थोड़े समय से ही पहनना सीखा है जब से वे मथुरा के राज कुमार बने हैं । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे सखी ! कि अब तो श्री कृष्ण अपनी कमरी त्याग कर मथुरा के छैला बन गए हैं । अब वे कम्बल और लाठी ले कर गाय चराना भूल गए और छैला जैसी बातें करने लगे हैं । तात्पर्य यह है कि मथुरा जाते ही श्री कृष्ण का स्वभाव बिलकुल बदल गया है ।

राग धनाश्री

ऊधो! हम ही हैं अति बौरी।
सुभग कलेवर कुंकुम खौरी। गुंजमाल अरु पीत पिछौरी॥
रूप निरखि दृग लागे ढोरी। चित चुराय लयो मूरति सो, री!
गहियत सो जा समय अंकोरी। याही तें बुधि कहियत बौरी॥
सूर स्याम सों कहिय कठोरी! यह उपदेस सुने तें बौरी॥१६०॥

गोपियाँ उद्धव को बता रही हैं कि हम सब पगली थीं कि जो उनके मनोहर रूप को देखकर मुग्ध हो गयीं । यह दोष हमारा ही था । यदि हम उन पर मोहित न होतीं तो आज कृष्ण के कठोर हो जाने पर हमें दुःख क्यों होता ?

हे उद्धव ! हम सब अति पगली हैं । यदि पगली न होतीं तो उनके सुन्दर शरीर , कुमकुम का टीका, गले में पड़ी गुंजा की माला और पीताम्बर की शोभा को देख कर हमारे नेत्र उनके पीछे क्यों लगते और हमें इस प्रकार कष्ट क्यों होता ? उनकी उस मूर्ति ने हमारे चित्त को चुरा लिया । हमारा चित्त उनके वशीभूत हो गया । जिस समय हम उन्हें अपनी गोद में लेकर अपने गले लगाती थीं उस समय लोग हमें मंद बुद्धि की नारियां कहते थे किन्तु हमने उनकी बातों की परवाह नहीं की । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! तुम श्याम से कह देना कि तुम अब अतिशय कठोर हो गए हो , यदि कठोर न होते तो योग का सन्देश हमारे पास क्यों भेजते ? किन्तु तुम यह बता देना कि तुम्हारे योग सन्देश को सुनते ही सब गोपियाँ पागल हो गयी हैं । उनकी चित्त वृत्ति ठिकाने पर नहीं रहती पागल की तरह घूमती रहती हैं ।

राग धनाश्री 

कहाँ लगि मानिए अपनी चूक?
बिन गोपाल, ऊधो, मेरी छाती ह्वै न गई द्वै टूक॥
तन, मन, जौबन वृथा जात है ज्यों भुवंग की फूँक।
हृदय अग्नि को दवा बरत है, कठिन बिरह की हूक॥
जाकी मनि हरि लई सीस तें कहा करै अहि मूक?
सूरदास ब्रजबास बसीं हम मनहूँ दाहिने सूक॥161

गोपियाँ अंततः अपनी ही गलती स्वीकार करती हैं और उनके अनुसार अपने अपराधों के कारण ही उन्हें यह कष्ट भोगना पड़ रहा है। यदि कृष्ण के जाते ही उनकी छाती फट गयी होती तो इस असह्य पीड़ा की अनुभूति उन्हें न होती । वे कृष्ण के बिना अपने जीवन को निरर्थक समझती हैं और इसे स्पष्टतया उद्धव से बता रही हैं ।

हे उद्धव ! मैं अपनी गलती कहाँ तक बताऊँ । मैंने इतने अपराध किये हैं कि उन सबों को बताना मेरे लिए संभव नहीं । अभी तक गोपाल के बिना मैं जी रही हूँ यही एक बाद अपराध है क्योंकि उनके जाते ही मेरी यह छाती दो टुकड़ों में क्यों नहीं फट गयी । यदि यह दो टुकड़ों में बँट गयी होती तो आज मुझे यह पीड़ा न अनुभव करनी पड़ती । अब तो श्री कृष्ण के बिना मेरा यह तन , मन व्यर्थ में निरुद्देश्य बीत रहा है । यह उसी प्रकार नष्ट हो रहा है जैसे सर्प की फुफकार अर्थात सर्प जैसे बिना किसी को काटे ही व्यर्थ में फुफकारता रहता है यही मेरी दशा है । कृष्ण के बिना वियोग की पीड़ा मुझे अत्यंत कष्ट दे रही है और ह्रदय में निरंतर वियोग का दावानल जलता रहता है । ह्रदय शीतल नहीं हो पाता। भला जिस सर्प की मणि छीन ली गयी गयी हो वह वाणी विहीन मूक सर्प क्या करे अर्थात मेरी दशा उस सर्प की भांति हो रही है जिसकी श्री कृष्ण रुपी मणि छीन ली गयी हो । हे सखी ! मुझे तो ऐसा लगता है की ब्रज में शुभ मुहूर्त में नहीं बसी । बसते समय मानो शुक्र दक्षिण थे । कहा जाता है कि शुक्र के दक्षिण होने पर शुभ कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि ज्योतिष के अनुसार यह शुभ नहीं होता ।

राग कल्याण

ऊधों! जोग जानै कौन?
हम अबला कह जोग जानैं जियत जाको रौन॥
जोग हमपै होय न आवै, धरि न आवै मौन।
बाँधिहैं क्यों मन-पखेरू साधिहैं क्यों पौन?
कहौ अंबर पहिरि कै मृगछाल ओढ़ै कौन?
गुरु हमारे कूबरी-कर-मंत्र-माला जौन॥
मदनमोहन बिन हमारे परै बात न कौन?
सूर प्रभु कब आयहैं वे श्याम दुख के दौन?॥१६२॥

गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि जिस योग की साधना पर आप बल दे रहे हैं क्या वह हमारे लिए उचित है ? योग तो विधवाओं के लिए है । हमारे स्वामी श्री कृष्ण तो अभी जीवित हैं , फिर हमें योग की क्या आवश्यकता है ?

हे उद्धव ! यह तुम्हारा योग कौन समझे ? हमारे यहाँ तुम्हारे योग का साधक कोई नहीं है । भला हम अबलाएं योग क्या जानें जिनके पति श्री कृष्ण जीवित हैं अर्थात तुम योग उन विधवाओं को समझाओ जिनके पति नहीं हैं और अनाथ हैं । हमसे योग साधते नहीं बनता और न हम सब मौन धारण करना ही जानती हैं, ऐसी स्थिति में तुम्हारी बातों को हम किस प्रयोजन से ग्रहण करें । आशय यह है कि तुम ठीक स्थान पर नहीं पहुंचे , वहां जाओ जहाँ इसके सम्बन्ध में लोग जानते हों । हम सब अपने मन रुपी पक्षी को कैसे बांधें । चंचल मन को कैसे नियंत्रित करें क्योंकि बिना चित्तवृत्ति निरोध के योग साधना संभव ही नहीं है और अपने श्वासों को प्राणायाम द्वारा कैसे साधें ? हम तो वियोग की सांसें निरंतर लेती हैं अतः श्वासों को संयमित करने का हमारे लिए कोई प्रश्न ही नहीं है । अब आप ही बताइये कि जिस शरीर पर हमने अच्छे वस्त्रों को धारण किया उसकी जगह योगिनी के रूप में कौन मृगछाला ओढ़े ? हे उद्धव ! हमारे जो गुरु श्री कृष्ण हैं वे तो कूबरी के हाथों मंत्र माला हैं । जैसे मंत्र जपने की माला को लोग घुमाया करते हैं । कूबरी भी श्री कृष्ण को अपने ढंग से मंत्र माला की तरह घुमाया करती हैं । वह उन्हें अपने वश में किये हुए हैं । जिधर वह घुमाती है श्री कृष्ण उधर ही नाचा करते हैं किन्तु सच बात तो यह है कि बिना श्री कृष्ण के हमारे मन में कोई बात बैठती ही नहीं । उनके बिना हमें कुछ भी अच्छा नहीं लगता । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से पूछ रही हैं कि हमारे दुःख दूर करने वाले वे श्री कृष्ण कब आएगें ?

राग केदारो

फिर ब्रज बसहु गोकुलनाथ।
बहुरि न तुमहिं जगाय पठवौं गोधनन के साथ॥
बरजौं न माखन खात कबहूँ, दैहौं देन लुटाय।
कबहूँ न दैहौं उराहनो जसुमति के आगे जाय॥
दौरि दाम न देहुँगी, लकुटी न जसुमति-पानि।
चोरी न देहुँ उघारि, किए औगुन न कहिहौं आनि॥
करिहौं न तुमसों मान हठ, हठिहौं न माँगत दान।
कहिहौं न मृदु मुरली बजावन, करन तुमसों गान॥
कहिहौं न चरनन देन जावक, गुहन बेनी फूल।
कहिहौं न करन सिंगार बट-तर, बसन जमुना-कूल॥
भुज भूषननयुत कंध धरिकै रास नृत्य न कराउँ।
हौं संकेत-निकुंज बसिकै दूति-मुख न बुलाउँ।
एक बार जु दरस दिखवहु प्रीति-पंथ बसाय।
चँवर करौं, चढ़ाय आसन, नयन अंग अंग लाय॥
देहु दरसन नंदनंदन मिलन ही की आस।
सूर प्रभु की कुँवर-छंबि को मरत लोचन प्यास॥१६३॥

गोपियों को इस बात की शंका है कि जब श्री कृष्ण ब्रज में थे तो उन्होंने उसके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया । इसी कारण कुपित हो कर कदाचित श्री कृष्ण मथुरा चले गए । गोपियाँ अपने इस दुर्व्यवहार के लिए पश्चाताप कर रही हैं और कृष्ण को आश्वासन दे रही हैं कि भविष्य में वे सब उनके साथ इस प्रकार का व्यवहार नहीं करेंगी । वे निश्चिन्त हो कर पुनः ब्रज में आ कर रहने लगे । कोई कुछ नहीं कहेगा ।

कृष्ण के प्रति किसी गोपी या राधा का कथन – उद्धव के माध्यम से कोई गोपी श्री कृष्ण के प्रति अपना सन्देश भेजते हुए कह रही है कि हे गोकुलनाथ ! अब मेरा निवेदन है कि आप पुनः ब्रज में आकर रहने लगें । जब आप ब्रज में थे तो हम सबों ने आपके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया । अब फिर तुम्हें प्रातः काल जगाकर ग्वालों के साथ बन में गायों को चराने के लिए नहीं भेजूंगी । कभी तुम्हें मक्खन खाने से भी नहीं रोकूंगी और यदि तुम ग्वालों के बच्चों दही लुटाना चाहोगे तो ऐसा करने से भी तुम्हें नहीं रोकूंगी । तुम जो दही लुटाते थे उसके लिए कभी भी अब यशोदा के समक्ष इस सम्बन्ध में उलाहना भी नहीं दूँगी । यशोदा के हाथ में दौड़ कर न रस्सी दूँगी न डंडा । ए.बी.ए. ऐसा अवसर नहीं आएगा कि यशोदा तुम्हें दही और मक्खन चुराने पर रस्सी से बांधे और दंड से तुम्हें मारे । हम सब न तो तुम्हारी चोरी की कलई यशोदा के सामने खोलेंगी और न तुम्हारे किये हुए अवगुणों को ही आकर कहेंगीं । अब न तुमसे वंशी बजाने का आग्रह करूंगी और न गीत गाने के लिए ही कहूँगी । पहले मैं तुमसे अपने पैरों में महावर लगवाती थी पर अब ऐसा नहीं करूंगी और न सर में चोटी गूंथने को कहूँगी और न उसे फूलों से अलंकृत करवाउंगी । न ही वट वृक्ष के नीचे बैठ कर तुम्हें श्रृंगार करने को कहूँगी और न यह आग्रह करूंगी कि तुम हमारे साथ यमुना तट पर निवास करो । मैं आभूषणों से अपनी भुजाओं को तुम्हरे कन्धों पर नहीं रखूंगी और रास मंडल में नृत्य करने के लिए भी नहीं कहूँगी । यदि तुम एक बार भी अपने दर्शन देकर प्रेम मार्ग को सफल कर दोगे तो तुम्हें आसन पर बैठाकर तुम्हारे ऊपर चंवर डुलाऊँगी अपने नेत्रों से तुम्हारे अंगों कि शोभा देखूँगी । हे कृष्ण ! अब विलम्ब न कीजिये । हमें अपने दर्शन दें । हम आपके दर्शनों के लिए आतुर हैं और तुमसे मिलने की मन में बड़ी आशा है । हमारे नेत्र तुम्हारी कुमारावस्था की शोभा का रसास्वादन करने के लिए आतुर हैं । हमारे नेत्रों में तुम्हारे दर्शनों की उत्कट चाह है ।

राग सारंग

कबहूँ सुधि करत गोपाल हमारी?
पूछत नंद पिता ऊधो सों अरु जसुमति महतारी॥
कबहुँ तौ चूक परी अनजानत, कह अबके पछिताने?
बासुदेव घर-भीतर आए हम अहीर नहिं जाने॥
पहिले गरग कह्यो हो हमसों, ‘या देखे जनि भूलै’।
सूरदास स्वामी के बिछुरे राति-दिवस उर सूलै॥१६४॥

नन्द और यशोदा उद्धव से पूछते हैं कि क्या श्री कृष्ण कभी हमारी याद भी करते हैं ? इसमें श्री कृष्ण के ईशरत्व का संकेत भी मिलता है ।

नन्द और यशोदा वात्सल्य भाव से प्रेरित हो कर उद्धव से कहते हैं कि हे उद्धव ! क्या श्री कृष्ण कभी हमारी भी याद करते हैं ? शायद अनजाने में हमसे कोई गलती हो गयी इसी कारण श्री कृष्ण हमसे नाराज हैं और ब्रज नहीं आ रहे हैं । किन्तु अब पश्चाताप करने से क्या लाभ । हमें गलती करनी ही नहीं चाहिए थी । वस्तुतः श्री कृष्ण जो ईश्वर के अवतार थे हमारे घर में आये । बहुत समय तक हमारे साथ रहे लेकिन हम गंवार अहीर इस मर्म को समझ नहीं सके । उन्हें साधारण मनुष्य ही समझा । गर्ग मुनि ने हमें पहले ही संकेत कर दिया था कि इन्हें देख कर भूल मत जाना अर्थात ये परब्रह्म के अवतार हैं । इसे स्मरण रखना । लेकिन माया मोह में हमने इस पर ध्यान नहीं दिया और उन्हें भूल गए । सूरदास के शब्दों में नन्द और यशोदा कह रहे हैं कि स्वामी श्री कृष्ण के बिछुड़ जाने से हम दोनों का ह्रदय रात दिन निरंतर पीड़ित रहता है । उनके बिछड़ने की पीड़ा ह्रदय से जाती नहीं ।

राग बिलावल

भली बात सुनियत हैं आज।
कोऊ कमलनयन पठयो है तन बनाय अपनो सो साज॥
बूझौ सखा कहौ कैसे कै, अब नाहीं कीबे कछु काज।
कंस मारि बसुदेव गृह आने, उग्रसेन को दीनो राज॥
राजा भए कहाँ है यह सुख, सुरभि-संग बन गोप-समाज?
अब जो सूर करौ कोउ कोटिक नाहिंन कान्ह रहत ब्रज आज॥१६५॥

उद्धव के आगमन पर कोई सखी किसी सखी से कह रही है कि लगता है श्री कृष्ण ने अपने ही जैसा रूप बनाकर किसी को यहाँ भेजा है 

हे सखी ! ब्रज में एक अच्छा समाचार सुना है । वह यह कि कमल नेत्र श्री कृष्ण ने किसी को अपने जैसे रूप में सज्जित कर के यहाँ भेजा है । चलो उनसे पूछें कि तुम्हारे सखा श्री कृष्ण का क्या समाचार है ? अब हमें कुछ अन्य कार्य नहीं करना है अर्थात उनसे मिलकर श्री कृष्ण का समाचार पूछने की इतनी जिज्ञासा बढ़ गयी है कि अन्य कार्य में अब मन नहीं लग रहा है । उनसे ऐसा समाचार मिला है कि श्री कृष्ण कंस को मार कर अपने पिता वसुदेव को बंदी गृह से छुड़ा कर लाये हैं और उन्होंने अपने नाना उग्रसेन को राज्य सौंप दिया है । ये यद्यपि अब राजा हो गए हैं लेकिन जो सुख उन्हें वहां मिल रहा है गाय के संग वन में और गोप समाज में वह सुख कहाँ मिलेगा ? इसी कारण हे सखी ! चाहे कोई करोड़ों उपाय करे, श्री कृष्ण अब ब्रज में आकर बसने वाले नहीं हैं । अब राज कुमार होने के बाद उनका स्वभाव पूर्णतया बदल गया है ।

राग नट

उधो! हम आजु भईं बड़भागी।
जैसे सुमन-गंध लै आवतु पवन मधुप अनुरागी।
अति आनंद बढ़्यो अँग अँग मैं, परै न यह सुख त्यागी।
बिसरे सब दुख देखत तुमको स्यामसुन्दर हम लागी[१]॥
ज्यों दर्पन मधि दृग निरखत जहँ हाथ तहाँ नहिं जाई।
त्यों ही सूर हम मिलीं साँवरे बिरह-बिथा बिसराई॥१६६॥

इसमें उद्धव को देखकर गोपियाँ कृष्ण मिलन जैसा सुख प्राप्त करती हैं और उनके दर्शन से अपने को सौभाग्यशालिनी समझती हैं ।

हे उद्धव ! आज आपका दर्शन करके हम सब अतिशय भाग्यशालिनी हो गयी हैं क्योंकि तुम हमारे प्रियतम श्री कृष्ण का सन्देश लेकर आये हो । तुम्हारे आगमन से हमारे अंग – प्रत्यंग में उसी प्रकार का सुख प्राप्त हुआ जैसे पवन पुष्पों की सुगंध ले कर जब आता है तो उन पुष्पों का प्रेमी मधुप उसे प्राप्त करके अपने अंग – अंग में आनंद का अनुभव करता है और ऐसे आनंद को उस से छोड़ते नहीं बनता । वह ऐसे आनंद में मग्न हो जाता है। तुम्हें देखते ही हम अपनी वियोग जन्य समस्त पीड़ा भूल गयीं और ऐसा लगा मानो हम सब श्याम सुन्दर से मिल गयीं । जैसे हम सबों को श्याम सुन्दर का दर्शन हो गया । तुम्हें नेत्रों से देखकर श्याम सुन्दर का प्रतिबिम्ब उसी प्रकार झलकने लगा जैसे दर्पण के मध्य प्रतिबिम्ब किन्तु उसे हाथों से स्पर्श नहीं किया जा सकता । हाथ वहां तक नहीं पहुँच सकते हैं । आशय यह है कि श्री कृष्ण की छाया ही तुम में दिखाई पड़ी । वास्तविक श्री कृष्ण को प्राप्त नहीं कर सकीं लेकिन इस प्रतिबिम्ब में हमें वही सुख मिला जो वास्तविक रूप में मिलता है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! उस दर्पण की छाया की भांति हमने अपने श्याम सुन्दर का दर्शन करके अपने सभी दुखों को भुला दिया । आपको देख कर ऐसा लगा कि मानो साक्षात श्री कृष्ण ही आ गए हों। अतः इतना आनंद मिला कि सभी वियोग पीड़ा नष्ट हो गयी ।

राग सारंग

पाती सखि! मधुबन तें आई।
ऊधो-हाथ स्याम लिखि पठई, आय सुनौ, री माई!
अपने अपने गृह तें दौरीं लै पाती उर लाई।
नयनन नीर निरखि नहिं खंडित प्रेम न बिथा बुझाई॥
कहा करौं सूनो यह गोकुल हरि बिनु कछु न सुहाई।
सूरदास प्रभु कौन चूक तें स्याम सुरति बिसराई?॥१६७॥

उद्धव द्वारा प्रेषित श्री कृष्ण के पत्र को जान ने की जिज्ञासा से ब्रज मंडल की युवतियां अपने – अपने घर से निकल पड़ीं और उद्धव से पत्र को ले कर अपने ह्रदय से लगाने लगीं ।

हे सखी ! सुना है कि मथुरा से श्री कृष्ण का पत्र आया है । यह पत्र श्री कृष्ण ने स्वयं लिख कर उद्धव के हाथ से भिजवाया है । आकर सुनो तो उसमें उन्होनें क्या – क्या बातें लिखी हैं । पत्र की बातों को जानने की जिज्ञासा से गोपियाँ अपने – अपने घर से निकल पड़ीं और उद्धव के पास पहुंची तथा उनसे पत्र लेकर स्नेह से उसे अपने ह्रदय से लगाने लगी । गोपियों को वह पत्र अतिशय प्रिय लगा क्योंकि इसे श्याम ने अपने हाथों से लिखा है । वे श्री कृष्ण के उस प्रेममयी पत्र को पढ़ने लगीं । उस पत्र को देख कर उनके नेत्रों से अखंड जल की धारा अर्थात न रुकने वाले आंसू निकलने लगे और गोपियों के प्रेम और वियोग की पीड़ा इस से शांत न हो सकी और वे उद्धव से कहने लगीं कि हे उद्धव ! क्या करें श्री कृष्ण के बिना यह गोकुल सूना – सूना लग रहा है और उनके बिना कुछ भी अच्छा नहीं लगता अर्थात ब्रज और गोकुल में सब कुछ होते हुए भी श्री कृष्ण के बिना जैसे कुछ रह नहीं गया । यह सूना पन हम सब को खाये जा रहा है। सूरदास के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि हमसे क्या अपराध हो गया जिसके कारण श्याम ने हमारी सुधि भुला दी अर्थात हमें भुला दिया । गोपियाँ अपने ही अपराध को स्वीकार करती हैं और उपास्य को सर्वथा निरपराध समझती हैं ।

उद्धव-वचन

राग नट

सुनु गोपी हरि को सँदेस।
करि समाधि अंतर-गति चितवौ प्रभु को यह उपदेस॥
वै अबिगत, अबिनासी, पूरन, घटघट रहे समाय।
तिहि निश्चय कै ध्यावहु ऐसे सुचित कमलमन लाइ॥
यह उपाय करि बिरह तजौगी मिलै ब्रह्म तब आय।
तत्त्वज्ञान बिनु मुक्ति न होई निगम सुनाबत गाय॥
सुनत सँदेस दुसह माधव के गोपीजन बिलखानी।
सूर बिरह की कौन चलावै, नयन ढरत अति पानी॥१६८॥

 इस पद में उद्धव गोपियों को निर्गुण ब्रह्म की उपासना का उपदेश दे रहे हैं ।

हे गोपियों ! श्री कृष्ण ने जो सन्देश हमें तुम्हारे द्वारा भेजा है उसे सुनो । तुम सब समाधिस्थ हो कर अपने ह्रदय के भीतर देखो । वे परब्रह्म , अज्ञात , अविनाशी , पूर्ण और प्रत्येक के अंतःकरण में व्याप्त हैं । उस ब्रह्म को इस प्रकार स्वस्थ चित्त से दृढ़तापूर्वक कमल अर्थात योगियों के षट्चक्र जो कमल के रूप में माने जाते हैं उनमें मन लगाकर ध्यान करो अर्थात षट्चक्रों की साधना द्वारा उस ब्रह्म को प्राप्त करने की चेष्टा करो । इस प्रकार के उपायों द्वारा जब तुम श्री कृष्ण के वियोग को त्याग दोगी तब ब्रह्म का साक्षात्कार होगा अर्थात जब तुम श्री कृष्ण के प्रति अपने आसक्ति के भाव को त्याग कर एक मात्र ब्रह्मोपासना में अपने मन को लीन करो तभी ईश्वर की प्राप्ति होगी । वेद और शास्त्र भी यही कहते हैं कि बिना तत्वज्ञान के मुक्ति संभव नहीं है । श्री कृष्ण के ऐसे असह्य सन्देश को सुनते ही गोपियाँ व्याकुल हो उठीं । गोपियों को यह आशा नहीं थी कि श्री कृष्ण इस प्रकार के नीरस और दुखद सन्देश भिजवा कर उनके मानस को संतप्त करेंगे । सूरदास के शब्दों में गोपियों के विरह दुःख की चर्चा कौन करे । वे इतनी व्यकुलमना हो गयीं कि बिलख – बिलख कर रोने लगीं ।

राग सारंग

मधुकर! भली सुमति मति खोई।
हाँसी होन लगी या ब्रज में जोगै राखौ गोई॥
आतमराम लखावत डोलत घटघट व्यापक जोई।
चापे काँख फिरत निर्गुन को, ह्याँ गाहक नहिं कोई॥
प्रेम-बिथा सोई पै जानै जापै बीती होई।
तू नीरस एती कह जानै? बूझि देखिबे ओई॥
बड़ो दूत तू, बड़े ठौर को, कहिए बुद्धि बड़ोई।
सूरदास पूरीषहि षटपद! कहत फिरत है सोई॥१६९॥

गोपियाँ उद्धव के निर्गुण ज्ञान का उपहास कर रही हैं और कहती हैं कि तुम अपने इस योग को छिपा लो , अब मत दिखाओ क्योंकि ब्रज में सब जगह लोग इसकी हंसी उड़ाने लगे हैं।

हे भ्रमर ! तुमने योग क्या सीखा अपनी अच्छी बुद्धि भी खो दी अर्थात अब तुम्हारी गणना पागलों और अज्ञानियों में होने लगी है । इस ब्रजमंडल में सर्वत्र तुम्हारे ऊपर व्यंग कसे जा रहे हैं , हंसी उड़ाई जा रही है । अतः अपनी मर्यादा बचाना चाहते हो तो इस योग को छिपा कर रखो । अब इसे किसी को मत दिखाओ । आश्चर्य है कि तुम उस अंतर्यामी का साक्षात्कार कराते फिर रहे हो , रहे हो जो सबकी अंतरात्मा में व्याप्त है । तुम अपने निर्गुण ज्ञान को अपनी कांख में दबाये इसधर – उधर नाच रहे हो , अपनी बगल में दबाये चिंतित हो रहे हो , परन्तु यह अच्छे से समझ लो कि यहाँ इसका कोई भो ग्राहक नहीं है । इस योग और निर्गुण ब्रह्म विषयक चर्चा को सुनने वाला यहाँ कोई नहीं है । हे भ्रमर , हमारी प्रेम पीड़ा को तो निश्चित वही जान सकता है जिस पर बीती हो , जिसने इसका अनुभव किया हो । तुम नीरस शुष्क ज्ञानी इस प्रेम की महत्ता को क्या समझो ? यदि तुम जानना ही चाहते हो तो उसी कृष्ण से इसे पूछ के देखो । वे रसिक हैं , प्रेम तत्व के मर्म को जानते हैं , वे तुम्हें समझा देंगे । अरे तुम तो बहुत बड़े दूत हो , सब कुछ समझते हो और बड़े स्थान अर्थात मथुरा के निवासी हो तथा तुम्हारी बुद्धि भी बड़ी कही जाती है ।

राग सारंग

सुनियत ज्ञानकथा अलि गात।
जिहि मुख सुधा बेनुरवपूरित हरि प्रति छनहिं सुनात॥
जहँ लीलारस सखी-समाजहिं कहत कहत दिन जात।
बिधिना फेरि दियो सब देखत, तहँ षटपद समुझात॥
बिद्यमान रसरास लड़ैते कत मन इत अरुझात?
रूपरहित कछु बकत बदन ते मति कोउ ठग भुरवात॥
साधुबाद स्रुतिसार जानिकै उचित न मन बिसरात।
नँदनंदन कर-कमलन को छबि मुख उर पर परसात॥
एक एक ते सबै सयानी ब्रजसुँदरि न सकात।
सूर स्याम-रससिंधुगामिनी नहिं वह दसा हिरात॥१७०॥

इस पद में सखियाँ परस्पर उद्धव की बातों की निंदा कर रही हैं । उनका कहना है कि जहाँ जिस कृष्ण प्रेम में उनका मन अटक चुका है , वहां से हटा कर निर्गुण ब्रह्म की ओर उसे लगाना कहाँ तक उचित है ? यही नहीं ब्रह्मा द्वारा परिवर्तित इस स्थिति से गोपियों का मानस क्षुब्ध है ।

सखियाँ परस्पर कह रही हैं कि हे सखी ! श्री कृष्ण अपने जिस मुख से प्रति क्षण अमृतयुक्त वंशी की ध्वनि सुनाया करते थे , आज हम लोगों को बलात उद्धव की ज्ञान गाथा सुनाई पड़ रही है । एक समय ऐसा भी था जब श्री कृष्ण की नाना प्रकार की लीलाओं के आनंद की चर्चा करती हुयी सखियों का समय व्यतीत हो जाता था । आज ब्रह्मा ने उसे सब के देखते – देखते पलट दिया । वे सुखमय दिन समाप्त हो गए और आज ये अज्ञानी भ्रमर अर्थात उद्धव हमें निर्गुण का ज्ञान बिना किसी संकोच के सुना रहा है । रास में नृत्य का आनंद देने वाले प्रिय कृष्ण के होते हुए यह हमारा मन निर्गुण की ओर क्यों उलझे ? आनंद राशि श्री कृष्ण को छोड़ कर हमारा मन उद्धव की नीरस और आकर्षणहीन बातों में नहीं फंस सकता । वह किसी निराकार के सम्बन्ध में अपने मुख से कुछ उसी तरह मीठी – मीठी बातें कर रहा है जैसे कोई ठग किसी भोले – भाले व्यक्ति की बुद्धि को अपनी मीठी – मीठी बातों लगाने की चेष्टा करता है अर्थात अपनी चिकनी – चुपड़ी बातों से उसे ठग लेता है । हमें यह उद्धव उसी प्रकार का लग रहा है । पुनः गोपियाँ उद्धव को सम्बोधित करके कहने लगीं – हे उद्धव ! तुम्हारे इस वेद तत्व को जानकर हम सब प्रसन्न हैं । तुमने जो ऐसी वेदांत की बातें सुनाईं उसके लिए धन्यवाद किन्तु तुम हमारे मन को भुलाना चाहते हो अर्थात कृष्ण की ओर से हटा कर निर्गुण की ओर उन्मुख करना चाहते हो किन्तु हमारा मन विवश है और वह कृष्ण को छोड़कर अन्यत्र नहीं जा सकता । वह जो कृष्ण को नहीं भुला पाता हमारी दृष्टि में उचित और तर्क संगत है । हे उद्धव ! आज भी श्री कृष्ण के कमलवत हाथों से हमारे मुख और ह्रदय को स्पर्श करते थे तो उनके हाथों का वह लावण्य अमिट रूप से मुख और ह्रदय पर छा जाता था , उसका प्रभाव अभी भी बना हुआ है । ह्रदय उस छवि को भूलता नहीं है और मुख हाथों के कोमल स्पर्श से गदगद है । उद्धव जी ! यह अच्छे से जान लो कि ब्रज की सभी युवतियां एक से एक चतुर और कुशला हैं , वे किसी से डरती नहीं हैं । तुम्हारे निर्गुण ज्ञान से भी वे विचलित होने वाली नहीं हैं । सूर के शब्दों में वे श्री कृष्ण रुपी आनंद सागर में नदी की भाँति प्रवाहमान हैं । उसी ओर प्रवाहित हैं । जैसे नदियां अपने प्रियतम सागर में मिलकर आनंद का अनुभव करती हैं उसी प्रकार ये युवतियां प्रियतम श्री कृष्ण के आनंद की ओर उन्मुख हैं और अपने गंतव्य या लक्ष्य की दिशा को भूल नहीं सकतीं । मिलन की अवस्था उनके लिए अविस्मरणीय है ।

राग सारंग 

ऊधो! इतनी कहियो जाय।
अति कृसगात भई हैं तुम बिनु बहुत दुखारी गाय॥
जल समूह बरसत अँखियन तें, हूंकत लीने नाँव।
जहाँ जहाँ गोदोहन करते ढूँढ़त सोइ सोई ठाँव॥
परति पछार खाय तेहि तेहि थल अति व्याकुल ह्वै दीन।
मानहुँ सूर काढ़ि डारे हैं बारि मध्य तें मीन॥१७१॥

इसमें गोपियों ने उद्धव के समक्ष श्री कृष्ण के वियोग में व्याकुल गायों का बड़ा ही मार्मिक और यथार्थ वर्णन किया है ।

हे उद्धव ! तुम श्री कृष्ण से इतनी बातों का निवेदन अवश्य कर देना कि तुम्हारे वियोग में अति व्याकुलमना और दुःखित गायें बहुत क्षीणकाय हो गयी हैं । उनकी आँखों से निरंतर अश्रु की धारा बहती रहती है और यदि कोई तुम्हारा नाम लेता है तो वे हुंकारें मारने लगती हैं । वे बड़ी आतुरता से तुम्हें उन उन स्थानों पर ढूंढा करती हैं जहाँ तुमने उनका दुग्ध दोहन किया है और जब वे तुम्हें उन स्थलों पर नहीं पातीं तो वहीं पछाड़ खा कर गिर जाती हैं । उनकी दशा अत्यंत दयनीय है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि वे श्री कृष्ण के वियोग में इस प्रकार संतप्त और मरणासन्न हैं जैसे पानी के बीच से मछलियों को निकाल दिए जाने पर वे निष्प्राण हो जाती हैं ।

राग सारंग 

ऊधो जोग सिखावन आए।
सिंघी , भस्म, अधारी, मुद्रा लै ब्रजनाथ पठाए॥
जौपै जोग लिख्यो गोपिन को, कत रसरास खिलाए?
तबहिं ज्ञान काहे न उपदेस्यो, अधर-सुधारस प्याए॥
मुरली सब्द सुनत बन गवनति सुत पति गृह बिसराए।
सूरदास रंग छाँड़ि स्याम को मनहिं रहे पछिताए॥१७२॥

योग की शिक्षा देने पर गोपियाँ उद्धव से क्रोधित हो कर कहती हैं कि क्या ब्रजनाथ ने तुम्हें इसी प्रयोजन से यहाँ भेजा है ?

हे उद्धव ! क्या तुम हम सब को योग का उपदेश देने के लिए पधारे हो ? ब्रजनाथ ने क्या तुम्हें इसी प्रयोजन से सिंघी , भस्म , अधारी और कुण्डल लेकर तुम्हारे हाथों भिजवाया है किन्तु हम लोगों कि समझ में यह बात नहीं आती कि यदि गोपियों के भाग्य में योग की शिक्षा ही लिखी थी तो श्री कृष्ण ने रास मंडल की नृत्य आदि क्रीड़ा हमारे साथ क्यों की । प्रारम्भ से ही उन्हें योग की शिक्षा देनी चाहिए थी । जब वे अपने अधरों के रस का पान कराते थे तब क्यों उन्होंने योग का उपदेश नहीं दिया ? अब मथुरा जाने पर उन्हें योग सूझ पड़ा । हम सब मुरली की ध्वनि सुनते ही पुत्र , पति और घर की सुधि भुलाकर वन की ओर चल पड़ती थीं । सूरदास के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि श्री कृष्ण का साथ छोड़ देने से आज भी हमारे मन में पछतावा है क्योंकि जब से हम श्री कृष्ण के सत्संग से वंचित हुयी हैं वैसा आनंदमय सुख हमें आज तक न मिला ।

राग सारंग

ऊधो! लहनौ अपनो पैए।
जो कछु विधना रची सो भइए आन दोष न लगैए॥
कहिए कहा जु कहत बनाई सोच हृदय पछितैए।
कुब्जा बर पावै मोहन सो, हमहीं जोग बतैए॥
आज्ञा होय सोई तुम कहिबो, बिनती यहै सुनैए।
सूरदास प्रभु-कृपा जानि जो दरसन सुधा पिबैए॥१७३॥

इस पद में गोपियाँ उद्धव के समक्ष अपना ही दोष स्वीकार करती हैं । इसमें गोपियों का दैन्य भाव व्यक्त हुआ है ।

हे उद्धव ! अपने भाग्य में जो लिखा है वह अवश्य मिलता है । अतः दूसरों को दोष नहीं देना चाहिए क्योंकि ब्रह्मा ने जो भाग्य में रच दिया उसे कोई काट नहीं सकता , उसे वह निश्चय ही भोगेगा । तुम जो निर्गुण ज्ञान विषयक बहुत सी बातें गढ़ – गढ़ कर यहाँ कह रहे हो उनके सम्बन्ध में हम अधिक क्या कहें । यह हमारे कर्मों का ही फल है जो ऐसी बातें सुन रही हैं , जिन्हें सुन कर हमारे ह्रदय में अत्यंत पश्चाताप होता है । जब हम अपने भाग्य के बारे में सोचती हैं तो अपार दुःख होता है । भाग्य की ही बात है कि कुब्जा जैसी कुपात्री मोहन जैसे सत्पात्र वर को प्राप्त करे और हमें योग की शिक्षा दी जाये । यदि भाग्य की बात न होती तो क्या तुम हमें योग की शिक्षा देते और कुब्जा श्री कृष्ण को पति के रूप में वरण करती ? हे उद्धव! तुम्हें श्री कृष्ण की जो आज्ञा हुयी तुम उसका पालन करो अर्थात श्री कृष्ण ने तुम्हें हमारे सम्बन्ध में जो कुछ कहने को कहा हो तुम हमसे वही कहो , कुछ और नहीं सुनाओ । अंत में तुम हमारी एक प्रार्थना उनसे अवश्य कह देना कि हम अपने प्रति तुम्हारी बहुत बड़ी कृपा समझेंगीं । यदि तुम ब्रज में आकर एक बार अपने दर्शन का अमृत हम सब को पिला दो तो हम स्वयं को धन्य समझेंगे ।

राग सारंग 

ऊधो! कहा करैं लै पाती?
जौ लगि नाहिं गोपालहिं देखति बिरह दहति मेरी छाती॥
निमिष एक मोहिं बिसरत नाहिंन सरद-समय की राती।
मन तौ तबही तें हरि लीन्हों जब भयो मदन बराती॥
पीर पराई कह तुम जानौ तुम तो स्याम-सँघाती।
सूरदास स्वामी सों तुम पुनि कहियो ठकुरसुहाती॥१७४॥

यद्यपि श्री कृष्ण ने गोपियों को संतुष्ट करने के लिए उद्धव द्वारा पत्र भेजा है लेकिन गोपियाँ श्री कृष्ण के इस पत्र से संतुष्ट नहीं हैं । वे तो श्री कृष्ण के प्रत्यक्ष दर्शन द्वारा ही संतुष्ट हो सकती हैं । इस पद में वे उद्धव से अपनी यही बात कह रही हैं ।

हे उद्धव ! कृष्ण के इस पत्र को लेकर क्या करें । इस से हमारे वास्तविक उद्देश्य की पूर्ति तो होती नहीं क्योंकि जब तक श्री कृष्ण को हम इन आँखों से नहीं देख लेतीं तब तक हमारा यह ह्रदय उनके वियोग ताप से जलता ही रहेगा । हमें एक – एक पल के लिए शरद की उस रात का आनंद नहीं भूलता जब कृष्ण ने हमें वशीभूत कर लिया । अब श्री कृष्ण के वियोग में जो पीड़ा होती है उसे पराये की पीड़ा न समझने वाले तुम क्या जानो । तुम भी तो श्री कृष्ण के मित्र हो अर्थात तुम दोनों का स्वभाव एक समान है , जैसे दूसरों की पीड़ा श्री कृष्ण नहीं समझते । हमारे मन को मोहित कर के छोड़ दिया उसी प्रकार तुम भी हमारी दशा और वियोग की पीड़ा को नहीं समझ पा रहे हो । सूरदास के शब्दों में वियोगिनियाँ गोपियाँ कह रही हैं कि हे उद्धव ! तुम तो यहाँ से जाने पर पुनः ठकुर सुहाती कहोगे अर्थात वही बात श्री कृष्ण के पास जा कर कहोगे जो उन्हें भाती है । हमारी दशा से तुम्हें क्या प्रयोजन ? तात्पर्य यह है कि सत्य और यथार्थ बात तुम कहने वाले नहीं हो और तुम ब्रज की सच्ची – सच्ची बातों का उल्लेख नहीं करते तो श्री कृष्ण हम सब की यथार्थ दशा के बारे में क्या जान सकते हैं ?

राग सारंग 

ऊधौ! बिरहौ प्रेमु करै।
ज्यों बिनु पुट पट गहै न रंगहिं , पुट गहे रसहि परै॥
जौ आँवौ घट दहत अनल तनु तौ पुनि अमिय भरै।
जौ धरि बीज देह अंकुर चिरि तौ सत फरनि फरै॥
जौ सर सहत सुभट संमुख रन तौ रबिरथहि सरै।
सूर गोपाल प्रेमपथ-जल तें कोउ न दुखहिं डरै॥१७५॥

इस पद में गोपियों ने अपने विरह को भी अच्छा बताया है । उनके अनुसार जितनी अधिक वियोग की पीड़ा बढ़ती है उतना ही विरही के ह्रदय में अपने प्रियतम के लिए प्रेम भाव बढ़ता है ।

हे उद्धव ! हमारे लिए विरह भी अच्छा ही है क्योंकि विरह से प्रेम अपेक्षाकृत अधिक बढ़ता है । जैसे बिना पुट दिए वस्त्र रंग नहीं पकड़ता है अर्थात रंग पक्का नहीं होता और पुट देने पर रंग चढ़ जाता है और पक्का हो जाता है वैसे ही विरह से हमारे प्रेम का रंग पक्का होता जा रहा है । जैसे आंवां में घड़ा अपने शरीर को पहले जलाता है । आँवा में घड़ा जब बहुत पक्का हो जाता है तब वह अमृत धारण करने में समर्थ होता है क्योंकि कच्चा घड़ा तो अमृत या जल आदि धारण करने पर गाल जायेगा । तात्पर्य यह है कि जब तक विरह की पीड़ा बढ़ती नहीं तब तक सुधोपम प्रेम का स्वाद नहीं मिल सकता । इसी प्रकार जब बीज का शरीर पृथ्वी के नीचे फट कर अपने शरीर में अंकुर धारण करता है अर्थात पृथ्वी के नीचे जब बीज अपने को गलाता है तो उसमे अंकुर उत्पन्न होते हैं तब वही अंकुर वृक्ष के रूप में सैंकड़ों फल फैलने में समर्थ होता है । यदि अंकुर न होता तो सैंकड़ों सुन्दर फलों की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी । आशय यह है कि दुःखों का सामना किये बिना आनंद की उपलब्धि नहीं होती । जैसे योद्धा जब युद्धस्थल में अपनी छाती में शत्रु के बाणों की चोट सहता है तब वह सूर्य मंडल को भेदते हुए स्वर्ग की प्राप्ति करता है । ऐसा माना जाता है कि युद्ध स्थल में जो योद्धा युद्ध स्थल में अपने धर्म का पालन करते हुए मरता है वह सीधे स्वर्ग पहुँचता है । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन है कि अब श्री कृष्ण के प्रेम मार्ग पर चल कर कौन ऐसी है जो सुख और दुःख से दर जाये अर्थात सुख दुःख के भय से ब्रज में ऐसा कोई नहीं है जो प्रेम मार्ग को छोड़ दे ।

राग सारंग

ऊधो ! इतनी जाय कहो ।
सब बल्लभी कहत हरि सों ये दिन मधुपुरी रहो।।
आज काल तुमहूँ देखत हौ तपत तरनि सैम चंद ।
सुन्दर स्याम परम कोमल तनु क्यों सहिहैं नन्द नन्द ।।
मधुर मोर पिक परुष प्रबल अति बन उपवन चढ़ि बोलत ।
सिंह , बृकन सैम गाय बच्छ ब्रज बीथिन – बीथिन डोलत।।
आसन, असन, बसन , विष अहि सम भूषन भवन भण्डार ।
जित तित फिरत दुसह द्रुम द्रुम प्रति धनुष लए सत मार ।।
तुम तौ परम साधु कोमल मन जानत हाउ सब रीति ।
सूर स्याम को क्यों बोलैं ब्रज बिन टारे यह ईति।।176

गोपियाँ संकट की इस बेला में श्री कृष्ण को ब्रज मंडल में बुलाना नहीं चाहतीं । वियोग में आज वसंत ऋतु की सभी सुखद वस्तुएं दुखद हो गयीं हैं । अनुकूल परिस्थितियां प्रतिकूल हो गयी हैं अतः गोपियाँ ऐसे वातावरण में श्री कृष्ण को बुलाकर कष्ट नहीं देना चाहतीं । वे उद्धव से कहती हैं कि हे उद्धव ! श्री कृष्ण से कह देना कि अभी वे वहीं रहे यहाँ न आवें क्योंकि ब्रज में बसंत का आगमन हो गया है ।

हे उद्धव ! तुम हमारी इतनी बातें श्री कृष्ण से जाकर कह देना कि तुम्हारी सभी प्रेमिकाएं तुमसे यही निवेदन करती हैं कि तुम इस समय ब्रजमंडल में न आओ । यहाँ अभी आने पर तुम्हे कष्ट होगा जो हमें वांछनीय नहीं है । अभी तुम मथुरा में ही रहो । उद्धव जी ! तुमसे क्या छुपा है , तुम भी देख रहे हो कि आजकल शीतलता प्रदान करने वाला चन्द्रमा भी सूर्य की भांति संतप्त कर रहा है । भला सुन्दर श्याम और कोमल शरीर वाले हमारे श्याम सुन्दर इस ताप को कैसे सहन कर सकते हैं । उद्धव जी ! आप देख रहे हैं कि मधुर वाणी बोलने वाले मोर और कोयल बन और उपवन के वृक्षों पर चढ़कर आज अतिशय कठोर वाणी बोल कर हम सब को संत्रस्त कर रहे हैं । आशय यह है कि श्री कृष्ण के वियोग में इनकी मधुर वाणी भी कठोर और कटु प्रतीत होती है । समय के बदल जाने पर जो गायें और बछड़े हमें सुखद प्रतीत होते थे वे ही सिंह और भेड़िये के समान ब्रज की गली – गली में घूमते हुए प्रतीत हो रहे हैं । आशय यह है कि उन्हें देख कर हम सब उसी प्रकार डर जाती हैं जैसे सिंह और भेड़ियों को देख कर लोग संत्रस्त हो जाते हैं । श्री कृष्ण के चले जाने पर जब गोपियाँ गायों और बछड़ों को देखती हैं तो उनके मानस में श्री कृष्ण की मधुर स्मृतियाँ जाग उठती हैं और वे व्याकुल हो उठती हैं । आज वियोग में शय्या , भोजन और वस्त्र आदि सब विष के समान जला रहे हैं और आभूषण , भवन और भवन की वस्तुओं के भण्डार सर्पवत भयंकर लग रहे हैं । इन्हें देखने की इच्छा नहीं होती । यत्र – तत्र सर्वत्र प्रत्येक वृक्ष पर सैंकड़ों कामदेव असहनीय धनुष लिए घूम रहे हैं । हे उद्धव ! तुम तो बड़े ही कोमल स्वभाव के संत हो और चतुर भी हो । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि हे उद्धव ! अब तुम्ही बताओ कि इन सब बाधाओं को दूर किये बिना हम श्री कृष्ण को यहाँ कैसे बुलाएं ? अर्थात उन्हें भी हमारी भांति यहाँ आने पर कष्ट होगा ।176

राग मलार

जो पै ऊधो ! हिरदय माँझ हरी ।
तौ पै इती अवज्ञा उन पै कैसे सही परी?
तबहि दवा द्रुम दहन न पाए , अब क्यों देह जरी?
सुन्दर स्याम निकसि उर तें हम सीतल क्यों न करी ?
इन्द्र रिसाय बरस नयनन मग , घटत न के घरी ।
भीजत सीत भीत तन काँपत रहे , गिरि क्यों न घरी ।।
कर कंकन दर्पन लै दोऊ अब यहि अनख मरी।
एतो मान सूर सुनि योग जु बिरहिनि बिरह धरी ।। 177

उद्धव का यह कथन कि श्री कृष्ण ब्रह्म रूप में सबके घाट में व्याप्त हैं , गोपियों को मान्य नहीं है । वे प्रश्न करती हैं कि यदि ब्रह्म रूप श्री कृष्ण ह्रदय में हैं तो हम लोगों के ऐसे संकट के समय में वे प्रकट क्यों नहीं होते ?

हे उद्धव ! यदि तुम्हारे कथनानुसार ब्रह्म रूप श्री कृष्ण ह्रदय में ही हैं तो हम सबों के ऐसे संकट को देखकर भी वे क्यों नहीं प्रकट होते ? उनसे हम लोगों की ऐसी उपेक्षा कैसे करते बना ? पहले जब वे ब्रज में थे तो उन्होंने दावाग्नि लगने पर एक भी वृक्ष को जलने नहीं दिया । सब की रक्षा की और आज जब हम सब वियोगाग्नि जल रही हैं तो वे कहाँ हैं ? हमें क्यों नहीं बचाते ? अब यह शरीर उन्होंने क्यों जलने दिया और श्यामसुंदर ने ह्रदय से निकल कर क्यों नहीं इस जलते शरीर को शीतल किया ? तात्पर्य यह है कि तुम जिस कृष्ण को ब्रह्म के रूप में घट – घट वासी कहते हो उसमें हमारा विश्वास नहीं है । हमारे कृष्ण तो मथुरा में हैं और हमें वियोगिनी के रूप में छोड़ कर चले गए । यदि कृष्ण यहाँ होते तो इस समय जो इन्द्र नाराज होकर नेत्रों के मार्ग से जल वृष्टि कर रहा है और जो जल एक घड़ी के लिए भी बंद नहीं होता उसे देख कर वे चुप कैसे बैठते ? क्योंकि एक समय इन्द्र के नाराज होने पर उन्होंने गोवर्धन पर्वत उठा कर हमारी रक्षा की थी और इस अखंड अश्रु – प्रवाह से भीग कर शीतलता के भय से कांपती हुयी हम सब की दशा को देख कर गोवर्धन पर्वत क्यों नहीं धारण करते ? हे उद्धव ! हाथों में कंकण और दर्पण ले कर हम सब अब कुढ़न से मरी जा रही हैं अर्थात जब वियोग में शरीर की कृशता से ढीले कंकण को और हाथ में दर्पण ले कर मुख के पीलेपन की ओर देखती हैं तो बड़ी कुढ़न पैदा होती है । सूर के शब्दों में गोपियाँ कह रही हैं कि वियोग का इतना अधिक कष्ट सहने पर भी हमारे लिए अब योग से बढ़ कर वियोग ही है । व्यंजना यह है कि अब हम योग से भी अधिक कष्ट जब वियोग में सह रही हैं तो योग साधना की क्या आवश्यकता है ? हमारे लिए योग से बढ़ कर वियोग ही है ।

राग मलार

ऊधो ! इतै हितूकर रहियो ।
या ब्रज के ब्योहार जिते हैं सब हरि सों कहियो ।।
देखि जात अपनी इन आँखिन दावानल दहियो ।
कहँ लौं कहौं बिथा अति लाजति यह मन को सहियो।।
कितौ प्रहार करत मकरध्वज ह्रदय फारि चहियो ।
यह तन नहिं जरि जात सूर प्रभु नयनन को बहियो ।।178

गोपियाँ इस पद में उद्धव से निवेदन कर रहीं हैं कि इस समय ब्रजवासियों की जो दशा है लेकिन इधर भी अपनी कृपा दृष्टि बनाये रखना अर्थात कृपालु होकर इस ब्रज मंडल की समस्त बातों का निवेदन श्री कृष्ण से सत्य – सत्य कह देना ।

हे उद्धव ! तुम अपनी आँखों से देखे ही जा रहे हो कि हम सब किस प्रकार वियोग की दावग्नि में जल रही हैं अतः तुमसे बढ़ कर यहाँ की यथार्थता का वर्णन अन्य कौन कर सकता है ? हे उद्धव ! हम अपने इस मन की सहनशीलता का वर्णन तुमसे क्या करें । इसमें इतनी व्यथा और पीड़ा रहती है कि उसे वह निरंतर सहता रहता है । इस सहनशीलता को देख कर स्वयं व्यथा भी लज्जित हो जाती है । सूर के शब्दों में गोपियों का कथन है कि यह शरीर वियोग की ज्वाला में भस्म हो जाता लेकिन अश्रु प्रवाह के कारण यह निरंतर शीतल होता रहता है इस से यह नष्ट होने से बच जाता है ।

 

राग मल्हार 

ऊधो ! यहि ब्रज बिरह बढ्यो।
घर , बाहर , सरिता , बन , उपवन , बल्ली द्रुमन चढ़्यो ।।
बासर – रैन सधूम भयानक दिसि दिसि तिमिर मढ़्यो ।
द्वन्द करत अति प्रबल होत पुर , पय सों अनल डढ़्यो।
जरि किन होत भस्म छान महियाँ हा हरि , मंत्र पढ्यो।
सूरदास प्रभु नन्द नंदन नाहिन जात कढ्यो।।179

 

इस पद में गोपियों के वियोग का अति रंजना पूर्ण वर्णन हुआ है गोपियों के वियोग की यह आग उनके शरीर तक ही सीमित नहीं है बल्कि वह प्रकृति की प्रत्येक वस्तु में व्याप्त हो गयी है ।

हे उद्धव ! इस ब्रजमंडल में वियोग की जवाला बढ़ गयी है और वह इतनी अधिक बढ़ गयी है कि केवल हम लोगों के शरीर को ही दग्ध नहीं कर रही है बल्कि वियोग की इस ज्वाला से समस्त प्रकृति प्रभावित है । यह वियोगाग्नि घर , बाहर , नदी , वन , उपवन , लता और वृक्षों में चढ़ गयी है । सभी इस ज्वाला से जल रहे हैं । यह ज्वाला धूम्र से युक्त है । इस आग से इतने धुएं निकल रहे हैं कि प्रत्येक दिशा में भयानक अन्धकार छा गया , कुछ भी दिखाई नहीं पड़ता । यह विरहानल गाँव – गाँव में अति प्रबल होकर उत्पात मचा रहा है और पानी पड़ने से अर्थात अश्रु प्रवाह से और बढ़ जाता है । हे उद्धव ! हम सब इसमें इसलिए भस्म होने से बच जाती हैं कि निरंतर ‘ हा हरि , हा हरि ‘ रुपी मंत्र पढ़ा करती हैं अर्थात हम सबों का व्यथित मन से ‘ हा हरि , हा हरि ‘ शब्दों का उच्चारण ही मंत्र समान है जिस से हम सब वियोगानल से अपने प्राणों की रक्षा करती हैं । सूरदास के शब्दों में गोपियों का कथन हैं कि हे उद्धव ! वियोग की यह आग चतुर्दिक लग गयी है अतः नन्द नंदन के बिना उस से निकलने का कोई उपाय नहीं सूझता । आशय यह है कि जब तक श्री कृष्ण का दर्शन न होगा तब तक यह वियोगाग्नि शांत होने वाली नहीं है ।

 

राग धना श्री

ऊधो ! तुम कहियो ऐसे गोकुल आवैं ।
दिन दस रहे सो भली कीनी अब जनि गहरु लगावैं ।।
तुम बिनु कछु न सुहाय प्रानपति कानन भवन न भावैं ।
बाल बिलख , मुख गो न चरत तृन, बछरनि छीर न प्यावैं ।।
देखत अपनी आँखिन , ऊधो , हम कहि कहा जनावैं।
सूर स्याम बिनु तपति रैन दिनु हरिहि मिले सचुपावैं ।।180

गोपियाँ उद्धव से निवेदन करते हुए कहती हैं कि तुम श्री कृष्ण को यहाँ की मार्मिक दशा का वर्णन इस ढंग से करना कि वे इस से प्रभावित होकर गोकुल लौट आवें ।

हे उद्धव ! तुम ब्रजमंडल कि दशा का उल्लेख इस प्रकार से करना जिस से प्रभावित हो कर श्री कृष्ण गोकुल लौट आवें । उनसे कह देना कि थोड़े दिन वे मथुरा में बस गए यह अच्छा ही हुआ किन्तु अब यहाँ आने में देरी न करें । हे प्राणपति ! तुम्हारे बिना हमें कुछ अच्छा नहीं लगता । अब न तो हमें घर भाता है न बन । कहीं भी रहने पर तुम्हारी चिंता हमें लगी रहती है । तुम्हारे बिना ब्रज के सभी बच्चे सदा रोते रहते हैं और गायें तो इतनी दुखी रहती हैं कि मुख से घास भी नहीं चरती अर्थात खाना – पीना छोड़ के बैठी हैं और अपने बछड़ों को दूध भी नहीं पिलातीं । तुम तो यहाँ की दशा अपनी आँखों से देख ही रहे हो , उसे कह कर तुम्हें क्या बताएं । सूर के शब्दों में गोपियाँ उद्धव से कह रही हैं कि हे उद्धव ! हम सब वियोग की ज्वाला में दिन – रात जलती रहती हैं और हम लोगों को शान्ति नहीं मिलती । हम सबों को सुख और शांति श्री कृष्ण के दर्शन से ही मिल सकती है ।

राग धनाश्री

ऊधो ! अब जो कान्ह न ऐहैं।
जिय जानौ अरु ह्रदय बिचारौ हम न इते दुःख सेहैं ।।
बूझौ जाय कौन के ढोटा , का उत्तर तब दैहैं ?
खायो , खेल्यो संग हमारे , ताको कहा बनैहैं।।
गोकुलमनि मथुरा के बासी कौ लों झूठो कैहैं ।
अब हम लिखि पठवन चाहति हैं वहां पाँति नहिं पैहैं ।।
इन गैयन चरिबो छांड्यौ है जो नहिं लाल चरैहैं ।
एते पै नहिं मिलत सूर प्रभु फिरि पाछे पछितैहैं ।। 181

कृष्ण दर्शन से वंचित गोपियाँ अब वियोग का कष्ट अधिक नहीं सह सकतीं अतः असमर्थ होकर उन्हें कहना पड़ा कि इतने कष्ट पर भी यदि वे दर्शन नहीं देते तो अंततः उन्हें पछताना पड़ेगा क्योंकि मथुरा में उनकी कलई खोल देने पर वे जाति बहिष्कृत हो जाएंगे और यहाँ आने पर हमें न पाएंगे । ये दोनों ओर से चले जाएंगे ।

हे उद्धव ! इतनी प्रतीक्षा के पश्चात यदि अब कृष्ण नहीं आते तो इसे अपने मन में समझ लो और ह्रदय में विचार कर लो , हम सब उनके बिना इतना दुःख सहने को तैयार नहीं हैं । श्री कृष्ण के वियोग की जितनी पीड़ा हम लोगों ने सही है शायद ही कोई सह सके । इस पीड़ा की हद हो गयी । यदि तुम जाकर उनसे पूछो कि वे किसके पुत्र हैं तो वे इसका क्या उत्तर देंगे ? उनके पास इसका कोई उत्तर नहीं है । वे बचपन से तो हमारे साथ ही खेलते खाते रहे । अन्यत्र तो कहीं गए नहीं । इसके सम्बन्ध में वे क्या बात गढ़ लेंगे । इसको वे कहाँ तक छुपायेंगे क्योंकि इस बात को तो सारा संसार जानता है । वे कब तक गोकुल के शिरोमणि हो कर अपने को झूठे रूप में मथुरावासी सिद्ध करते फिरेंगे । वस्तुतः वे तो गोकुल के ही हैं , यहीं उनका बचपन बीता , अब थोड़े दिनों से वे मथुरा में रहने लगे तो क्या वे मथुरावासी हो जायेंगे ? गोपियाँ श्री कृष्ण के मथुरावासी रूप को स्वीकार नहीं करतीं । उनके लिए तो गोकुलवासी श्री कृष्ण ही पूज्य हैं । अभी तक तो हम सब श्री कृष्ण के साथ सनकोच करती रहीं , अब सभी संकोच को त्याग कर मथुरावासियों के पास एक पत्र भेजकर इनकी सब कलई खोल देना चाहती हैं । इनकी वास्तविकता का ज्ञान हो जाने पर ये अपनी जाति से बहिष्कृत कर दिए जाएंगे और अपने जाति वालों की  पंगत में नहीं बैठ पाएंगे । यह भी कह देना कि जब से तुम गए हो तुम्हारी इन गायों ने चरना छोड़ दिया है और आकर इन्हें पहले की भांति नहीं चराओगे तो ये निश्चित ही मर जायेंगीं । ब्रज की इन दशाओं का भान होने पर भी यदि तुम्हारा दर्शन नहीं होता तो इसके लिए तुम्हें पछताना पड़ेगा ।

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