BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12 | भक्तियोग ~ अध्याय बारह
अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग
01 – 12 साकार और निराकार के उपासकों की उत्तमता का निर्णय और भगवत्प्राप्ति के उपाय का विषय
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव ।
मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि ॥12.10॥
अभ्यासे-अभ्यास में; अपि – यदि; असमर्थ:-असमर्थ; असि-हो; मत्कर्मपरम-कर्म को मेरे प्रति समर्पित करना; भव-बनो; मत्अर्थम् – मेरे लिए; अपि-भी; कर्माणि-कर्म; कुर्वन्-करते हुए; सिद्धिम् – पूर्णता को; अवाप्स्यसि – तुम प्राप्त करोगे।
यदि तू उपर्युक्त अभ्यास में भी असमर्थ है अर्थात यदि तुम भक्ति मार्ग के पालन के साथ मेरा स्मरण करने का अभ्यास नहीं कर सकते तो केवल मेरे लिए कर्म करने के ही परायण हो जा अर्थात स्वार्थ को त्यागकर तथा परमेश्वर को ही परम आश्रय और परम गति समझकर, निष्काम प्रेमभाव से सती-शिरोमणि, पतिव्रता स्त्री की भाँति मन, वाणी और शरीर द्वारा परमेश्वर के ही लिए यज्ञ, दान और तपादि सम्पूर्ण कर्तव्य कर्मों को कर अर्थात मेरी सेवा के लिए कर्म करने का अभ्यास करो। इस प्रकार मेरे लिए कर्मों को करता हुआ भी तू मेरी प्राप्ति रूप सिद्धि को ही प्राप्त होगा अर्थात पूर्णता की अवस्था को प्राप्त कर लेगा ॥12.10॥
(स्वार्थ को त्यागकर तथा परमेश्वर को ही परम आश्रय और परम गति समझकर, निष्काम प्रेमभाव से सती-शिरोमणि, पतिव्रता स्त्री की भाँति मन, वाणी और शरीर द्वारा परमेश्वर के ही लिए यज्ञ, दान और तपादि सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों के करने का नाम ‘भगवदर्थ कर्म करने के परायण होना’ है।)
अभ्यासेऽप्यसमर्थोऽसि मत्कर्मपरमो भव – यहाँ ‘अभ्यासे’ पद का अभिप्राय पीछे के (नवें ) श्लोक में वर्णित अभ्यासयोग से है। गीता की यह शैली है कि पहले कहे हुए विषय का आगे संक्षेप में वर्णन किया जाता है। आठवें श्लोक में भगवान ने अपने में मन-बुद्धि लगाने के साधन को नवें श्लोक में ‘पुनः चित्तं समाधातुम्’ पदों से कहा अर्थात् ‘चित्तम् ‘ पद के अन्तर्गत मन-बुद्धि दोनों का समावेश कर लिया। इसी प्रकार नवें श्लोक में आये हुए अभ्यासयोग के लिये यहाँ (दसवें श्लोक में) ‘अभ्यासे’ पद आया है। भगवान कहते हैं कि अगर तू पूर्वश्लोक में वर्णित अभ्यासयोग में भी असमर्थ है तो केवल मेरे लिये ही सम्पूर्ण कर्म करने के परायण हो जा। तात्पर्य यह है कि सम्पूर्ण कर्मों (वर्णाश्रमधर्मानुसार) शरीर-निर्वाह और आजीविका सम्बन्धी लौकिक एवं भजन , ध्यान , नाम-जप आदि पारमार्थिक कर्मों ) का उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रह न होकर एकमात्र भगवत्प्राप्ति ही हो। जो कर्म भगवत्प्राप्ति के लिये भगवदाज्ञानुसार किये जाते हैं उनको मत्कर्म कहते हैं। जो साधक इस प्रकार कर्मों के परायण हैं वे ‘मत्कर्मपरम’ कहे जाते हैं। साधक का अपना सम्बन्ध भी भगवान से हो और कर्मों का सम्बन्ध भी भगवान के साथ रहे तभी मत्कर्म-परायणता सिद्ध होगी। साधक का ध्येय जब संसार (भोग और संग्रह) नहीं रहेगा तब निषिद्ध क्रियाएँ सर्वथा छूट जायँगी क्योंकि निषिद्ध क्रियाओं के अनुष्ठान में संसार की कामना ही हेतु है (गीता 3। 37)। अतः भगवत्प्राप्ति का ही उद्देश्य होने से साधक की सम्पूर्ण क्रियाएँ शास्त्रविहित और भगवदर्थ ही होंगी। मदर्थमपि कर्माणि कुर्वन्सिद्धिमवाप्स्यसि – भगवान ने जिस साधन की बात इसी श्लोक के पूर्वार्ध में ‘मत्कर्मपरमो भव ‘ पदों से कही है वही बात इन पदों में पुनः कही गयी है। भाव यह है कि केवल परमात्मा का उद्देश्य होने से उस साधक की और जगह स्थिति हो ही कैसे सकती है ? जिस प्रकार भगवान ने आठवें श्लोक में मन-बुद्धि अपने में अर्पण करने के साधन को तथा नवें श्लोक में अभ्यासयोग के साधन को अपनी प्राप्ति का स्वतन्त्र साधन बताया उसी प्रकार यहाँ भगवान ‘मत्कर्मपरमो भव’ (केवल मेरे लिये कर्म करने के परायण हो ) – इस साधन को भी अपनी प्राप्ति का स्वतन्त्र साधन बता रहे हैं। जैसे धनप्राप्ति के लिये व्यापार आदि कर्म करने वाले मनुष्य को ज्यों ज्यों धन प्राप्त होता है त्यों-त्यों उसके मन में धन का लोभ और कर्म करने का उत्साह बढ़ता है – ऐसे ही साधक जब भगवान के लिये ही सम्पूर्ण कर्म करता है तब उसके मन में भी भगवत्प्राप्ति की उत्कण्ठा और साधन करने का उत्साह बढ़ता रहता है। उत्कण्ठा तीव्र होने पर जब उसको भगवान का वियोग असह्य हो जाता है तब सर्वत्र परिपूर्ण भगवान उससे छिपे नहीं रहते। भगवान अपनी कृपा से उसको अपनी प्राप्ति करा ही देते हैं। यदि साधक का उद्देश्य भगवत्प्राप्ति ही है और सम्पूर्ण क्रियाएँ वह भगवान के लिये ही करता है तो इसका अभिप्राय यह है कि उसने अपनी सारी समझ , सामग्री , सामर्थ्य और समय भगवत्प्राप्ति के लिये ही लगा दिया। इसके सिवाय वह और कर भी क्या सकता है ? भगवान उस साधक से इससे अधिक अपेक्षा भी नहीं रखते। अतः उसे अपनी प्राप्ति करा देते हैं। इसका कारण यह है कि भगवान किसी साधन-विशेषसे खरीदे नहीं जा सकते। भगवान के महत्त्व के सामने सृष्टिमात्र का महत्त्व भी कुछ नहीं है फिर एक व्यक्ति के द्वारा अर्पित सीमित सामग्री और साधन से उनका मूल्य चुकाया ही कैसे जा सकता है ? अतः अपनी प्राप्ति के लिये भगवान साधक से इतनी ही अपेक्षा रखते हैं कि वह अपनी पूरी योग्यता , सामर्थ्य आदि को मेरी प्राप्ति में लगा दे अर्थात् अपने पास बचाकर कुछ न रखे और इन योग्यता , सामर्थ्य आदि को अपना भी न समझे – स्वामी रामसुखदास जी