BhaktiYog ~ Bhagwat Geeta Chapter 12 | भक्तियोग ~ अध्याय बारह
अथ द्वादशोऽध्यायः- भक्तियोग
13 – 20 भगवत्-प्राप्त पुरुषों के लक्षण
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति।
शुभाशुभपरित्यागी भक्तिमान्यः स मे प्रियः॥12 .17॥
यः-जो; न – न तो; हृष्यति-प्रसन्न होता है; न-नहीं; द्वेष्टि-निराश होता है; न – कभी नहीं; शोचति-शोक करता है; न-न तो; काङ्क्षति-सुख की लालसा करता है; शुभाशुभपरित्यागी-शुभ और अशुभ कर्मों का त्याग करने वाला; भक्तिमान्यः – भक्ति से परिपूर्णमान् भक्त; यः-जो; स:-वह है; मे-मेरा; प्रियः-प्रिय।
वे जो न तो लौकिक सुखों से हर्षित होते हैं और न ही सांसारिक दुखों से निराश होते हैं तथा न ही किसी हानि के लिए शोक करते हैं एवं न ही लाभ की लालसा करते हैं, वे शुभ और अशुभ कर्मों का परित्याग करते हैं। ऐसे भक्त जो भक्ति भावना से परिपूर्ण होते हैं, मुझे अति प्रिय हैं॥12 .17॥
यो न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति – मुख्य विकार चार हैं – (1) राग (2) द्वेष (3) हर्ष और (4) शोक (टिप्पणी प0 656.2)। सिद्ध भक्त में ये चारों ही विकार नहीं होते। उसका यह अनुभव होता है कि संसार का प्रतिक्षण वियोग हो रहा है और भगवान से कभी वियोग होता ही नहीं। संसार के साथ कभी संयोग था नहीं , है नहीं , रहेगा नहीं और रह सकता भी नहीं। अतः संसार की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है – इस वास्तविकता का अनुभव कर लेने के बाद (जडता का कोई सम्बन्ध न रहने पर) भक्त का केवल भगवान के साथ अपने नित्यसिद्ध सम्बन्ध का अनुभव अटल रूप से रहता है। इस कारण उसका अन्तःकरण राग-द्वेषादि विकारों से सर्वथा मुक्त होता है। भगवान का साक्षात्कार होने पर ये विकार सर्वथा मिट जाते हैं। साधनावस्था में भी साधक ज्यों-ज्यों साधन में आगे बढ़ता है त्यों ही त्यों उसमें रागद्वेषादि कम होते चले जाते हैं। जो कम होने वाला होता है वह मिटने वाला भी होता है। अतः जब साधनावस्था में ही विकार कम होने लगते हैं तब सहज ही यह अनुमान लगाया जा सकता है कि सिद्धावस्था में भक्त में ये विकार नहीं रहते , पूर्णतया मिट जाते हैं। हर्ष और शोक, दोनों राग-द्वेष के ही परिणाम हैं। जिसके प्रति राग होता है उसके संयोग से और जिसके प्रति द्वेष होता है उसके वियोगसे हर्ष होता है। इसके विपरीत जिसके प्रति राग होता है? उसके वियोग या वियोग की आशङ्का से और जिसके प्रति द्वेष होता है , उसके संयोग या संयोग की आशङ्का से शोक होता है। सिद्ध भक्त में राग-द्वेष का अत्यन्ताभाव होने से स्वतः एक साम्यावस्था निरन्तर रहती है। इसलिये वह विकारों से सर्वथा रहित होता है। जैसे रात्रि के समय अन्धकार में दीपक जलाने की कामना होती है , दीपक जलाने से हर्ष होता है , दीपक बुझाने वाले के प्रति द्वेष या क्रोध होता है और पुनः दीपक कैसे जले ? – ऐसी चिन्ता होती है। रात्रि होने से ये चारों बातें होती हैं परन्तु मध्याह्न का सूर्य तपता हो तो दीपक जलाने की कामना नहीं होती , दीपक जलाने से हर्ष नहीं होता , दीपक बुझाने वाले के प्रति द्वेष या क्रोध नहीं होता और (अँधेरा न होने से) प्रकाश के अभाव की चिन्ता भी नहीं होती। इसी प्रकार भगवान से विमुख और संसार के सम्मुख होने से शरीरनिर्वाह और सुख के लिये अनुकूल पदार्थ , परिस्थिति आदि के मिलने की कामना होती है इनके मिलने पर हर्ष होता है , इनकी प्राप्ति में बाधा पहुँचाने वाले के प्रति द्वेष या क्रोध होता है और इनके न मिलने पर कैसे मिलें ? ऐसी चिन्ता होती है परन्तु जिसको (मध्याह्न के सूर्य की तरह ) भगवत्प्राप्ति हो गयी है उसमें ये विकार कभी नहीं रहते। वह पूर्णकाम हो जाता है। अतः उसको संसार की कोई आवश्यकता नहीं रहती। शुभाशुभपरित्यागी – ममता , आसक्ति और फलेच्छा से रहित होकर ही शुभ कर्म करने के कारण भक्त के कर्म अकर्म हो जाते हैं। इसलिये भक्त को शुभ कर्मों का भी त्यागी कहा गया है। राग-द्वेष का सर्वथा अभाव होने के कारण उससे अशुभ कर्म होते ही नहीं। अशुभ कर्मों के होने में कामना , ममता , आसक्ति ही प्रधान कारण हैं और भक्त में इनका सर्वथा अभाव होता है। इसलिये उसको अशुभ कर्मों का भी त्यागी कहा गया है। भक्त शुभकर्मों से तो राग नहीं करता और अशुभकर्मों से द्वेष नहीं करता। उसके द्वारा स्वाभाविक शास्त्रविहित शुभ कर्मों का आचरण और अशुभ (निषिद्ध एवं काम्य ) कर्मों का त्याग होता है? राग-द्वेषपूर्वक नहीं। राग-द्वेष का सर्वथा त्याग करने वाला ही सच्चा त्यागी है। मनुष्य को कर्म नहीं बाँधते बल्कि कर्मों में राग-द्वेष ही बाँधते हैं। भक्त के सम्पूर्ण कर्म राग-द्वेष रहित होते हैं , इसलिये वह शुभाशुभ सम्पूर्ण कर्मों का परित्यागी है। शुभाशुभ परित्यागी पद का अर्थ शुभ और अशुभ कर्मों के फल का त्यागी भी लिया जा सकता है परन्तु इसी श्लोक के पूर्वार्ध में आये ‘न हृष्यति न द्वेष्टि न शोचति न काङ्क्षति ‘ पदों का सम्बन्ध भी शुभ (अनुकूल ) और अशुभ (प्रतिकूल ) कर्मफल के त्याग से ही है। अतः यहाँ ‘शुभाशुभपरित्यागी’ पद का अर्थ शुभाशुभ कर्मफल का त्यागी मानने से पुनरुक्तिदोष आता है। इसलिये इस पद का अर्थ शुभ एवं अशुभ कर्मों में राग-द्वेष का त्यागी ही मानना चाहिये। ‘भक्तिमान्यः स मे प्रियः’ – भक्त की भगवान में अत्यधिक प्रियता रहती है। उसके द्वारा स्वतःस्वाभाविक भगवान का चिंतन , स्मरण , भजन होता रहता है। ऐसे भक्त को यहाँ भक्तिमान कहा गया है। भक्त का भगवान में अनन्य प्रेम होता है इसलिये वह भगवान को प्रिय होता है। अब आगे के दो श्लोकों में सिद्ध भक्त के दस लक्षणों वाला पाँचवाँ और अन्तिम प्रकरण कहते हैं।