kathopnishad with hindi meaning

 

 

कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय तृतीय वल्ली

 

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वल्ली ३

 

ऊर्ध्वमूलोऽवाक्‍शाख एषोऽश्वत्थः सनातनः।
तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म तदेवामृतमुच्यते।
तस्मिंल्लोकाः श्रिताः सर्वे तदु नात्येति कश्चन। एतद्वै तत्‌ ॥1

 

ऊपर की ओर मूल ( जड़ ) वाला नीचे की ओर शाखा-वाला यह (प्रत्यक्ष जगत) सनातन पीपल का वृक्ष है, इसका मूलभूत वह (परमेश्वर) ही विशुद्ध तत्त्व है, वही तेजोमय है ,वही एकमेव ब्रह्म है, (और) वही अमृत कहलाता है , सब लोक उसी के आश्रित हैं, कोई भी उसको लांघ नहीं सकता, उसके परे नहीं जा सकता । यही है वह (परमात्मा, जिसके विषय में तुमने पूछा था) ||१||

 

यदिदं किं च जगत्सर्वं प्राण एजति निःसृतम्‌।
महद् भयं वज्रमुद्यतं य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥2

 

(परब्रह्म परमेश्वर से) निकला हुआ यह जो कुछ भी सम्पूर्ण जगत हैउस प्राण स्वरुप परमेश्वर में ही चेष्टा करता है। इस उठे हुए वज्र के समान महान भयस्वरुप (सर्वशक्तिमान) परमेश्वर को जो जानते हैं वे अमर हो जाते हैं अर्थात जन्म-मरण से छूट जाते हैं ||||

 

भयादस्याग्निस्तपति भयात्तपति सूर्यः।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चमः ॥3

 

इसी के भय से अग्नि तपता है (प्रज्ज्वलित होता है)  , (इसी के) भय से सूर्य तपता हैतथा इसी के भय से इंद्रवायु और पांचवे मृत्यु देवता (अपने-अपने काम में प्रवृत्त हो रहे हैं)  || ||

 

इह चेदशकद्‌बोद्धुं प्राक् शरीरस्य विस्रसः।
ततः सर्गेषु लोकेषु शरीरत्वाय कल्पते ॥4

 

यदि शरीर का पतन होने से पहले-पहले इस मनुष्य शरीर में ही (साधक) परमात्मा का साक्षात्कार ( बोध ) कर सका (तब तो ठीक है ) नहीं तो फिर अनेक कल्पों तक नाना लोक और योनियों में शरीर धारण करने को विवश होता है ||||

 

यथाऽऽदर्शे तथाऽऽत्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके।
यथाऽप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके छायातपयोरिव ब्रह्मलोके ॥5

 

जैसे दर्पण में (सामने आयी हुई वस्तु दिखती है ) वैसे ही शुद्ध अंतःकरण में (ब्रह्म के दर्शन होते हैं) जैसे स्वप्न में (वस्तु अस्पष्ट दिखलाई देती है ) उसी प्रकार पितृलोक में (परमेश्वर दिखता है) जैसे जल में (वस्तु के रूप की झलक पड़ती है ) उसी प्रकार गन्धर्व लोक में परमात्मा की झलक-सी पड़ती है (और) ब्रह्म लोक में (तो ) छाया और धूप की भांति (आत्मा और परमात्मा दोनों का स्वरुप पृथक-पृथक स्पष्ट दिखलाई देता है ) ||||

 

इन्द्रियाणां पृथग्भावमुदयास्तमयौ च यत्‌।
पृथगुत्पद्यमानानां मत्वा धीरो न शोचति ॥6

 

(अपने-अपने कारण से ) भिन्न-भिन्न रूपों में उत्पन्न हुई जो पृथक-पृथक सत्ता है और जो उनका उदय और लय हो जाना रूप स्वभाव हैउसे जानकर (आत्मा का स्वरुप उनसे विलक्षण समझने वाला ) धीर पुरुष शोक नहीं करता ||||

 

इन्द्रियेभ्यः परं मनो मनसः सत्त्वमुत्तमम्‌।
सत्त्वादधि महानात्मा महतोऽव्यक्तमुत्तमम्‌ ॥7

 

‘इन्द्रियों’ से ‘मन’ श्रेष्ठ है, ‘मन’ से ‘बुद्धि’ ( सत्त्व ) उत्तम है, ‘बुद्धि’ से उसका स्वामी ‘महत तत्व ‘अर्थात ‘महान आत्मा’ ( जीवात्मा ) ऊँचा है (और)  उस ‘महतत्त्व’ से भी उच्च है ‘अव्यक्त शक्ति’  ||||

 

अव्यक्तात्तु परः पुरुषो व्यापकोऽलिङ्ग एव च।
यं ज्ञात्वा मुच्यते जन्तुरमृतत्वं च गच्छति ॥8

 

अव्यक्त से भी श्रेष्ठ और परे है वह ‘पुरुष ‘ जो सर्वव्यापक और सर्वथा आकार रहित है। ‘उस’ अद्वितीय का न कोई चिह्न है, न कोई लक्षण। ‘उस’ का ज्ञान प्राप्त करके प्राणी ( जीवात्मा ) मुक्त हो जाता है तथा अमृत तत्त्व ( आनंदमय ब्रह्म ) को प्राप्त हो जाता है।  ||||

 

न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम्‌।
हृदा मनीषा मनसाऽभिक्लृप्तो य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति ॥9

 

उस परमेश्वर का वास्तविक स्वरुप अपने सामने प्रत्यक्ष विषय के रूप में नहीं ठहरताइसको कोई भी चर्मचक्षुओं ( भौतिक या शरीक आँखों ) द्वारा नहीं देख पाता, ‘उसने’ ‘अपने’ शरीर को (अपने रूप को) हम सब की दृष्टि की पहुँच में नहीं रखा है। परन्तु मन से बार-बार चिंतन करके ध्यान में लाया हुआ (वह परमात्मा ) निर्मल और निश्छल ह्रदय से (और) विशुद्ध बुद्धि के द्वारा देखने में आता है अर्थात ध्यान के द्वारा मन की आँखों से अंतर ह्रदय में उसे देखा जा सकता है जो इसको जानते हैं वे अमृत (आनन्द) स्वरुप हो जाते है ||||

 

यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह।
बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम्‌ ॥10

 

जब मन के सहित पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँभली-भांति शांत होकर स्थिर हो जाती हैंऔर बुद्धि भी किसी प्रकार की चेष्टा नहीं करतीउस उच्चतम अवस्था या स्थिति को (योगी) परमगति कहते है ||१०||

 

तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्‌।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ ॥11

 

उस स्थिर दशा को जिसमें इन्द्रियाँ मन की धारणा की अवस्था के अधीन हैं, ‘योग’ कहते हैं; उस दशा में मनुष्य सर्वथा सचेतन-जागरूक और प्रमाद रहित हो जाता है; क्योंकि ‘योग’ ही पदार्थों का उद्भव तथा लय दोनों ही है अर्थात योग उदय और अस्त होने वाला है ।

 

नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्यो न चक्षुषा।
अस्तीति ब्रुवतोऽन्यत्र कथं तदुपलभ्यते ॥12

 

(वह परब्रह्म परमेश्वर) न तो वाणी सेन मन से (और) न ही नेत्रों से प्राप्त किया जा सकता है । अर्थात मनुष्य न मन के द्वारा ‘परमेश्वर’ को देख सकता है, न ही वाणी के द्वारा और न ही चक्षु के द्वारा। (फिर) ‘ वह अवश्य है’ इस प्रकार कहने वाले मनुष्य के अतिरिक्त दूसरे को कैसे मिल सकता है ||१२||

 

अस्तीत्येवोपलब्धव्यस्तत्त्वभावेन चोभयोः।
अस्तीत्येवोपलब्धस्य तत्त्वभावः प्रसीदति ॥13

 

(उस परमात्मा को पहले तो) वह अवश्य है ’ इस प्रकार निश्चय पूर्वक ग्रहण करना चाहिएअर्थात पहले उसके अस्तित्व का दृढ़ करना चाहिएतदन्तर तत्त्व भाव से भी उसे प्राप्त करना चाहिएइन दोनों प्रकार से वह अवश्य है ‘ इस प्रकार निश्चय पूर्वक परमात्मा की सत्ता को स्वीकार करने वाले साधक के लिए परमात्मा का तात्विक स्वरुप (अपने-आप) (शुद्ध ह्रदय में ) प्रत्यक्ष हो जाता है ||१३||

 

यदा सर्वे प्रमुच्यन्ते कामा येऽस्य हृदि श्रिताः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्यत्र ब्रह्म समश्नुते ॥14

 

जब मनुष्य (साधक) के ह्रदय में स्थित जो कामनाएं (हैं) (वे) सब की सब जब समूल नष्ट हो जाती हैं , तब मरणधर्मा मनुष्य अमर हो जाता है (और) (वह) यहीं इसी शरीर में ब्रह्म का रसास्वादन अर्थात भली- भाँति अनुभव कर लेता है ||१४||

 

यथा सर्वे प्रभिद्यन्ते हृदयस्येह ग्रन्थयः।
अथ मर्त्योऽमृतो भवत्येतावद्ध्यनुशासनम्‌ ॥15

 

जब (इसके) ह्रदय की सम्पूर्ण ग्रंथियां भली- भाँति खुल जाती हैं अर्थात जब इसी मानव जीवन में हृदय-ग्रन्थियाँ छिन्न-भिन्न हो जाती हैं तब मरणधर्मा मनुष्य इसी शरीर में अमर हो जाता हैबस इतना ही सनातन उपदेश है। यही श्रुतियों की सम्पूर्ण शिक्षा है, अनुशासन है। ||१५||

 

शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैका।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विश्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्ति ॥16

 

ह्रदय की (कुल मिलाकर) एक सौ एक नाड़ियाँ हैंउनमें से एक मूर्धा (कपाल) की ओर बहार निकली हुई है ( इसे ही सुषुम्ना कहते है ), इसके द्वारा अन्तरात्मा ऊर्ध्वारोहण करते हुए अपने अमृतधाम को (अमृतत्व) प्राप्त करती है अर्थात उसके द्वारा ऊपर के लोकों में जाकर (मनुष्य) अमृतभाव को प्राप्त हो जाता है। दूसरी एक सौ नाड़ियाँ प्रयाद करने पर या मरणकाल में (जीव को ) नाना प्रकार की योनियों में ले जाने की हेतु ( मार्ग ) होती हैं अर्थात अनेक प्रकार के जन्मों की परिस्थितियों में ले जाती हैं||१६||

 

अङ्गुष्ठमात्रः पुरुषोऽन्तरात्मा सदा जनानां हृदये संनिविष्टः।
तं स्वाच्छरीरात्प्रवृहेन्मुञ्जादिवेषीकां धैर्येण।
तं विद्याच्छुक्रममृतं तं विद्याच्छुक्रममृतमिति ॥17

 

सबका अन्तर्यामी वह परम ‘पुरुष’, ‘ अंतरात्मा ‘ जो मात्र अंगुष्ठ मात्र परिमाण वाला है , सदैव सभी प्राणियों के ह्रदय में भली- भांति प्रविष्ट ( आसीन ) है। उसको अपने से (और) शरीर से धीरता पूर्वक पृथक करके उसी प्रकार देखें जैसे कोई मूँज से उसकी सींक को पृथक् करता है। उसी को तुम विशुद्ध तेजोमय अमृतस्वरूप तत्व जानो , हाँ उसी को विशुद्ध तेजोमय अमृत स्वरुप तत्व जानो || १ ७||

** मूँज – सरकंडों के ऊपरी भाग का छिलका (जैसे—मूँज की रस्सी)।

 

मृत्युप्रोक्तां नचिकेतोऽथ लब्ध्वा विद्यामेतां योगविधिं च कृत्स्नम्‌।
ब्रह्मप्राप्तो विरजोऽभूद्विमृत्यु रन्योऽप्येवं यो विदध्यात्ममेव ॥18

 

इस प्रकार उपदेश सुनने के बाद नचिकेतायमराज द्वारा बतलायी हुई इस विद्या को और सम्पूर्ण योग की विधि को प्राप्त करके मृत्यु से रहित (और) सब प्रकार के विकारों से शून्य और विशुद्ध हो कर ब्रह्म को प्राप्त हो गया। इसी प्रकार अन्य भी जो कोई इस अध्यात्म विद्या को इस प्रकार जानने वाला हैवह भी ऐसा ही हो जाता है अर्थात मृत्यु और विकारों से रहित हो कर ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ||१८|

 

 

कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय तृतीय वल्ली शांतिपाठ

 

सह नाववतु । सह नौ भुनक्तु । सह वीर्यं करवावहै ।

तेजस्वि नावधीतमस्तु । मा विद्विषावहै ॥ १९॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

 

इति कठोपनिषद् द्वितीय अध्याय तृतीय वल्ली समाप्त ॥

 

इति कठोपनिषद् समाप्त ॥

 

 

 

 

 

कठोपनिषद् प्रथम अध्याय सार   

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कठोपनिषद् प्रथम अध्याय प्रथम वल्ली

कठोपनिषद् प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली सार 

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