Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16

 

 

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दैवासुरसम्पद्विभागयोग-  सोलहवाँ अध्याय

अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग

 

आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः।

कामोपभोगपरमा एतावदिति निश्चिताः॥16.11॥

 

चिन्ताम -चिन्ताएँ; अपरिमेयाम्-अंतहीन; च-और; प्रलयंताम – मृत्यु काल तक; उपाश्रिताः-शरण लेना; कामोपभोग -कामनाओं की तृप्ति; परमाः-जीवन का लक्ष्य; एतावत्-फिर भी; इति-इस प्रकार; निश्चिताः-पूर्ण आश्वासन के साथ;

 

वे आसुरी प्रवृत्ति वाले लोग मृत्युपर्यन्त रहने वाली अपार चिन्ताओं का आश्रय लेने वाले अर्थात मृत्यु होने तक कभी न समाप्त होने वाली असंख्य और अंतहीन चिंताओं से ग्रस्त और पीड़ित रहते हैं परन्तु फिर भी वे पूर्ण रूप से आश्वस्त रहते हैं कि कामनाओं की तृप्ति और धन सम्पत्ति का संचय ही जीवन का परम लक्ष्य है अर्थात पदार्थों का संग्रह और विषय भोगों को भोगने में तत्पर रहने वाले, विषयों के उपभोग को ही परम लक्ष्य मानने वाले ये आसुरी लोग ‘इतना ही सुख है, इतना ही (सत्य, आनन्द) है, जो कुछ है, वह इतना ही है ‘ इस प्रकार मानने वाले होते हैं॥16.11॥

 

चिन्तामपरिमेयां च प्रलयान्तामुपाश्रिताः – आसुरीसम्पदा वाले मनुष्यों में ऐसी चिन्ताएँ रहती हैं जिनका कोई मापतौल नहीं है। जब तक प्रलय अर्थात् मौत नहीं आती तब तक उनकी चिन्ताएँ मिटती नहीं। ऐसी प्रलय तक रहने वाली चिन्ताओं का फल भी प्रलय ही प्रलय अर्थात् बार-बार मरना ही होता है। चिन्ता के दो विषय होते हैं – एक पारमार्थिक और दूसरा सांसारिक। मेरा कल्याण , मेरा उद्धार कैसे हो ? परब्रह्म परमात्मा का निश्चय कैसे हो ? (चिन्ता परब्रह्मविनिश्चयाय) इस प्रकार जिनको पारमार्थिक चिन्ता होती है वे श्रेष्ठ हैं परन्तु आसुरीसम्पदा वालों को ऐसी चिन्ता नहीं होती। वे तो इससे विपरीत सांसारिक चिन्ताओं के आश्रित रहते हैं कि हम कैसे जीयेंगे ? अपना जीवननिर्वाह कैसे करेंगे ? हमारे बिना बड़े-बूढ़े किसके आश्रित जियेंगे ? हमारा मान , आदर , प्रतिष्ठा , इज्जत , प्रसिद्धि , नाम आदि कैसे बने रहेंगे ? मरने के बाद हमारे बाल-बच्चों की क्या दशा होगी ? मर जायेंगे तो धन-सम्पत्ति , जमीनजायदाद का क्या होगा ? धन के बिना हमारा काम कैसे चलेगा ? धन के बिना मकान की मरम्मत कैसे होगी ? आदि आदि। मनुष्य व्यर्थ में ही चिन्ता करता है। निर्वाह तो होता रहेगा। निर्वाह की चीजें तो बाकी रहेंगी और उनके रहते हुए ही मरेंगे। अपने पास एक लंगोटी रखने वाले विरक्त से विरक्त की भी फटी लंगोटी और फूटी तूम्बी बाकी बचती है और मरता है पहले। ऐसे ही सभी व्यक्ति वस्तु आदि के रहते हुए ही मरते हैं। यह नियम नहीं है कि धन पास में होने से आदमी मरता न हो। धन पास में रहते-रहते ही मनुष्य मर जाता है और धन पड़ा रहता है , काम में नहीं आता। एक बहुत बड़ा धनी आदमी था। उसने तिजोरी की तरह लोहे का एक मजबूत मकान बना रखा था जिसमें बहुत रत्न रखे हुए थे। उस मकान का दरवाजा ऐसा बना हुआ था जो बंद होने पर चाबी के बिना खुलता नहीं था। एक बार वह धनी आदमी बाहर चाबी छोड़कर उस मकान के भीतर चला गया और उसने भूल से दरवाजा बंद कर लिया। अब चाबी के बिना दरवाना न खुलने से अन्न , जल , हवा के अभाव में मरते हुए उसने लिखा कि इतनी धनसम्पत्ति आज मेरे पास रहते हुए भी मैं मर रहा हूँ क्योंकि मुझे भीतर अन्न-जल नहीं मिल रहा है , हवा नहीं मिल रही है – ऐसे ही खाद्य पदार्थों के रहने से नहीं मरेगा – यह भी नियम नहीं है। भोगों के पास में होते हुए भी ऐसे ही मरेगा। जैसे पेट आदि में रोग लग जाने पर वैद्य-डाक्टर उसको (अन्न पास में रहते हुए भी) अन्न खाने नहीं देते , ऐसे ही मरना हो तो पदार्थों के रहते हुए भी मनुष्य मर जाता है। जो अपने पास एक कौड़ी का भी संग्रह नहीं करते – ऐसे विरक्त संतों को भी प्रारब्ध के अनुसार आवश्यकता से अधिक चीजें मिल जाती हैं। अतः जीवननिर्वाह चीजों के अधीन नहीं है (टिप्पणी प0 818) परन्तु इस तत्त्व को आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य नहीं समझ सकते। वे तो यही समझते हैं कि हम चिन्ता करते हैं , कामना करते हैं , विचार करते हैं , उद्योग करते हैं तभी चीजें मिलती हैं। यदि ऐसा न करें तो भूखों मरना पड़े । कामोपभोगपरमाः – जो मनुष्य धनादि पदार्थों का उपभोग करने के परायण हैं उनकी तो हरदम यही इच्छा रहती है कि सुखसामग्री का खूब संग्रह कर लें और भोग भोग लें। उनको तो भोगों के लिये धन चाहिये संसार में बड़ा बनने के लिये धन चाहिये , सुख-आराम , स्वाद-शौकीनी आदि के लिये धन चाहिये। तात्पर्य है कि उनके लिये भोगों से बढ़कर कुछ नहीं है। एतावदिति निश्चिताः – उनका यह निश्चय होता है कि सुख भोगना और संग्रह करना – इसके सिवाय और कुछ नहीं है (टिप्पणी प0 819.1)। इस संसार में जो कुछ है यही है। अतः उनकी दृष्टि में परलोक एक ढकोसला है। उनकी मान्यता रहती है कि मरने के बाद कहीं आना-जाना नहीं होता। बस यहाँ शरीर के रहते हुए जितना सुख भोग लें वही ठीक है क्योंकि मरने पर तो शरीर यहीं बिखर जायगा (टिप्पणी प0 819.2)। शरीर स्थिर रहने वाला है नहीं आदि आदि भोगों के निश्चय के सामने वे पाप-पुण्य , पुनर्जन्म आदि को भी नहीं मानते।

 

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