दैवासुरसम्पद्विभागयोग- सोलहवाँ अध्याय
अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग
आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन
आत्मसम्भाविताः स्तब्धा धनमानमदान्विताः।
यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेनाविधिपूर्वकम्॥16.17॥
आत्मसम्भाविताः -आत्मअभिमानी; स्तब्धाः-हठी; धन-संपत्ति; मान-गर्वः मद-अभिमान; अन्विताः-पूर्ण; यजन्ते–यज्ञ करते हैं; नाम-नाम मात्र के लिए; यज्ञैः-यज्ञों द्वारा; ते-वे; दम्भेन-आडंबरपूर्ण; अविधिपूर्वकम्-शास्त्रों के विधिविधानों का पालन किये बिना।
अपने-आपको ही सबसे अधिक श्रेष्ठ और पूज्य मानने वाले , आत्म अभिमानी , घमण्डी , हठी, धन – संपत्ति और मान – मद के अभिमान से चूर होकर केवल नाममात्र के लिए पाखण्ड और आडम्बर करते हुए शास्त्रविधि से रहित अर्थात शास्त्रों के विधि-विधानों का आदर न करते हुए दम्भपूर्वक यज्ञों का अनुष्ठान करते हैं ॥16.17॥
आत्मसम्भाविताः – वे धन , मान , बड़ाई , आदर आदि की दृष्टि से अपने मन से ही अपने आपको बड़ा मानते हैं , पूज्य समझते हैं कि हमारे समान कोई नहीं है । अतः हमारा पूजन होना चाहिये , हमारा आदर होना चाहिये , हमारी प्रशंसा होनी चाहिये। वर्ण , आश्रम , विद्या , बुद्धि , पद , अधिकार , योग्यता आदि में हम सब तरह से श्रेष्ठ हैं । अतः सब लोगों को हमारे अनुकूल चलना चाहिये। स्तब्धाः – वे किसी के सामने नम्र नहीं होते नमते नहीं। कोई सन्तमहात्मा या अवतारी भगवान् ही सामने क्यों न आ जायँ? तो भी वे उनको नमस्कार नहीं करेंगे। वे तो अपनेआपको ही ऊँचा समझते हैं? फिर किसके सामने नम्रता करें और किसको नमस्कार करें कहीं किसी कारणसे परवश होकर लोगोंके सामने झुकना भी पड़े तो अभिमान सहित ही झुकेंगे। इस प्रकार उनमें बहुत ज्यादा ऐंठ-अकड़ रहती है।धनमानमदान्विताः – वे धन और मान के मद से सदा चूर रहते हैं। उनमें धन का , अपने जनों का , जमीन-जायदाद और मकान आदि का मद (नशा) होता है। इधर-उधर पहचान हो जाती है तो उसका भी उनके मन में मद होता है कि हमारी तो बड़े-बड़े मिनिस्टरों तक पहचान है। हमारे पास ऐसी शक्ति है जिससे चाहे जो प्राप्त कर सकते हैं और चाहे जिसका नाश कर सकते हैं। इस प्रकार धन और मान ही उनका सहारा होता है। इनका ही उन्हें नशा होता है? गरमी होती है। अतः वे इनको ही श्रेष्ठ मानते हैं। यजन्ते नामयज्ञैस्ते दम्भेन – वे लोग ( 15वें श्लोक में आये ‘यक्ष्ये दास्यामि’ पदों के अनुसार ) दम्भपूर्वक नाममात्र के यज्ञ करते हैं। वे केवल लोगों को दिखाने के लिये और अपनी महिमा के लिये ही यज्ञ करते हैं तथा इस भाव से करते हैं कि दूसरों पर असर पड़ जाय और वे हमारे प्रभाव से प्रभावित हो जाएं , उनकी आँख खुल जाएं कि हम क्या हैं? उन्हें चेत हो जाय आदि। लोगों में हमारा नाम हो जाय , प्रसिद्धि हो जाय , आदर हो जाय – इसके लिये वे यज्ञ के नाम पर अपने नाम का खूब प्रचार करेंगे , अपने नाम का छापा (पैम्फलेट) छपवायेंगे। ब्राह्मणों के लिये भोजन करेंगे तो खीरमें कपूर डाल देंगे जिससे वे अधिक न खा सकें क्योंकि उससे खर्चा भी अधिक नहीं होगा और नाम भी हो जायगा। ऐसे ही पंक्ति में भोजन के लिये दो-दो , चार-चार , पाँच-पाँच सकोरे और पत्तलें एक साथ परोस देंगे जिससे उन सकोरे और पत्तलों को बाहर फेंकने पर उनका ढेर लग जाय और लोगों को यह पता चल जाय कि ये कितने अच्छे व्यक्ति हैं जिन्होंने इतने ब्राह्मणों को भोजन कराया है। इस प्रकार ये आसुरीसम्पदा वालों के भीतर भाव होते हैं और भावों के अनुसार ही उनके आचरण होते हैं। आसुरीसम्पत्ति वाले व्यक्ति शास्त्रोक्त यज्ञ , दान , पूजन आदि कर्म तो करते हैं और उनके लिये पैसे भी खर्च करते हैं पर करते हैं शास्त्रविधि की परवाह न करके और दम्भपूर्वक ही। मन्दिरों में जब कोई मेला महोत्सव हो और ज्यादा लोगों के आने की उम्मीद हो तथा बड़े-बड़े धनी लोग आने वाले हों तब मन्दिर को अच्छी तरह सजायेंगे , ठाकुरजी को खूब बढ़िया-बढ़िया गहने-कपड़े पहनायेंगे जिससे ज्यादा लोग आ जाएं और खूब भेंट-चढ़ावा इकट्ठा हो जाय। इस प्रकार ठाकुरजी का तो नाममात्र का पूजन होता है पर वास्तवमें पूजन होता है लोगों का। ऐसे ही कोई मिनिस्टर या अफसर आने वाला हो तो उनको राजी करने के लिये ठाकुरजी को खूब सजायेंगे और जब वे मन्दिर में आयेंगे तब उनका खूब आदर-सत्कार करेंगे , उनको ठाकुरजी की माला देंगे , प्रसाद (जो उनके लिये विशेषरूप से तैयार रखा रहता है) देंगे , इसलिये कि वे राजी हो जाएंगे तो हमारे व्यापार में , घरेलू कामों में हमारी सहायता करेंगे , मुकदमे आदि में हमारा पक्ष लेंगे आदि। इन भावों से वे ठाकुरजी का जो पूजन करते हैं वह तो नाममात्र का पूजन है। वास्तव में पूजन होता है – अपने व्यापार का , घरेलू कामों का , लड़ाई-झगड़ों का क्योंकि उनका उद्देश्य ही वही है। गौसेवी संस्था संचालक भी गोशालाओं में प्रायः दूध देने वाली स्वस्थ गायों को ही रखेंगे और उनको अधिक चारा देंगे पर लूली-लँगड़ी , अपाहिज , अन्धी और दूध न देने वाली गायों को नहीं रखेंगे तथा किसी को रखेंगे भी तो उसको दूध देने वाली गायों की अपेक्षा बहुत कम चारा देंगे परन्तु हमारी गोशाला में कितना गोपालन हो रहा है इसकी असलियत की तरफ खयाल न करके केवल लोगों को दिखाने के लिये उसका झूठा प्रचार करेंगे। छापा , लेख , विज्ञापन , पुस्तिका आदि छपवाकर बाँटेंगे जिससे पैसा तो अधिक से अधिक आये पर खर्चा कम से कम हो। धार्मिक संस्थाओं में भी जो संचालक कहलाते हैं वे प्रायः उन धार्मिक संस्थाओं के पैसों से अपने घर का काम चलायेंगे। अपने को नफा किस प्रकार हो ? हमारी दूकान किस तरह चले? पैसे कैसे मिलें ? इस प्रकार अपने स्वार्थ को लेकर केवल दिखावटीपन से सारा काम करेंगे। प्रायः साधन-भजन करने वाले भी दूसरे को आता देखकर आसन लगाकर बैठ जायेंगे , भजन-ध्यान करने लग जायेंगे , माला घुमाने लग जायेंगे परन्तु कोई देखने वाला न हो तो बातचीत में लग जायेंगे , ताश-चौपड़ खेलेंगे अथवा सो जायेंगे । ऐसा जो साधन-भजन होता है वह केवल इसलिये कि दूसरे मुझे अच्छा मानें , भक्त मानें और मेरी प्रशंसा करें , मेरा आदर-सम्मान करें , मुझे पैसे मिलें , लोगों में मेरा नाम हो जाय आदि। इस प्रकार यह साधन-भजन भगवान का तो नाममात्र के लिये होता है पर वास्तव में साधन-भजन होता है अपने नाम का , अपने शरीर का , पैसों का। इस प्रकार आसुरी प्रकृति वालों के विषय में कहाँ तक कहा जाय । अविधिपूर्वकम् – वे आसुर मनुष्य शास्त्रविधि को तो मानते ही नहीं सदा शास्त्रनिषिद्ध काम करते हैं। वे यज्ञ , दान आदि तो करेंगे पर उनको विधिपूर्वक नहीं करेंगे। दान करेंगे तो सुपात्र को न देकर कुपात्र को देंगे। कुपात्रों के साथ ही एकता रखेंगे। इस प्रकार उलटे-उलटे काम करेंगे। बुद्धि सर्वथा विपरीत होने के कारण उनको उलटी बात भी सुलटी ही दिखती है – सर्वार्थान् विपरीतांश्च (गीता 18। 32)।