Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16

 

 

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दैवासुरसम्पद्विभागयोग-  सोलहवाँ अध्याय

अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग

 

आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।

यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः॥16.15॥

अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।

प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ॥16.16॥

 

आढ्यः-धनी; अभिजनवान् – कुलीन संबंधियों के साथ; अस्मि-मैं; कः-कौन; अन्यः-दूसरा; अस्ति – है; सदृशः-समान; मया – मेरे द्वारा; यक्ष्ये-मैं यज्ञ करूँगा; दास्यामि-मैं दान दूंगा; मोदिष्ये-मैं आनंद मनाऊँगा; इति-इस प्रकार; अज्ञान-आनतावश; विमोहिताः-मोहग्रस्त।अनेक-कई; चित्त-कल्पनाएँ; विभ्रान्ताः-भ्रमित; मोह-मोह में; जाल-जाल; समावृताः-आच्छादित; प्रसक्ताः-आसक्त; कामभोगेषु – इन्द्रिय सुखों की तृप्तिः पतन्ति-गिर जाते हैं; नरके-नरक में; अशुचौ-अंधा नर्क

 

 मैं अत्यंत धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ। मैं श्रेष्ठ कुल में जन्मा हूँ । मेरे समान दूसरा कौन है? मैं कई यज्ञ करूँगा, दान दूँगा, आमोद-प्रमोद करूँगा , सुखों का भोग करूँगा। इस प्रकार अज्ञान के कारण मोह ग्रस्त रहने वाले तथा कई प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरुपी जाल से घिरे हुए और पदार्थों और विषय भोगों में अत्यन्त आसक्त आसुरलोग घोर, भयंकर और अपवित्र नरक में गिरते हैं ॥16.15-16.16॥

 

आसुर स्वभाव वाले व्यक्ति अभिमान के परायण होकर इस प्रकार के मनोरथ करते हैं – आढ्योऽभिजनवानस्मि – कितना धन हमारे पास है ; कितना सोना , चाँदी , मकान , खेत , जमीन हमारे पास है , कितने अच्छे आदमी , ऊँचे पदाधिकारी हमारे पक्ष में हैं , हम धन और जन के बल पर रिश्वत और सिफारिश के बल पर जो चाहें वही कर सकते हैं। कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया – आप इतने घूमे-फिरे हो , आपको कई आदमी मिले होंगे पर आप बताओ , हमारे समान आपने कोई देखा है क्या ? यक्ष्ये दास्यामि – हम ऐसा यज्ञ करेंगे , ऐसा दान करेंगे कि सब पर टाँग फेर देंगे , थोड़ा सा यज्ञ करने से , थोड़ा सा दान देने से , थोड़े से ब्राह्मणों को भोजन कराने आदि से क्या होता है ? हम तो ऐसे यज्ञ , दान आदि करेंगे जैसे आज तक किसी ने न किये हों। क्योंकि मामूली यज्ञ , दान करने से लोगों को क्या पता लगेगा कि इन्होंने यज्ञ किया , दान दिया। बड़े यज्ञ , दान से हमारा नाम अखबारों में निकलेगा। किसी धर्मशाला में मकान बनवायेंगे तो उसमें हमारा नाम खुदवाया जायेगा जिससे हमारी यादगारी रहेगी। मोदिष्ये – हम कितने बड़े आदमी हैं हमें सब तरह से सब सामग्री सुलभ है। अतः हम आनन्द से मौज करेंगे। इस प्रकार अभिमान को लेकर मनोरथ करने वाले आसुर लोग केवल करेंगे करेंगे – ऐसा मनोरथ ही करते रहते हैं  वास्तव में करते कराते कुछ नहीं। वे करेंगे भी तो वह भी नाममात्र के लिये करेंगे (जिसा उल्लेख आगे 17वें श्लोकमें आया है)। कारण कि इत्यज्ञानविमोहिताः — इस प्रकार 13वें , 14वें और 15वें श्लोक में वर्णित मनोरथ करने वाले आसुर लोग अज्ञान से मोहित रहते हैं अर्थात् मूढ़ता के कारण ही उनकी ऐसे मनोरथ वाली वृत्ति होती है। परमात्मा से विमुख हुए आसुरी सम्पदा वालों को जीते जी अशान्ति , जलन , संताप आदि तो होते ही हैं पर मरने पर उनकी क्या गति होती है ? इसको आगे के श्लोक में बताते हैं।

 

16.16    अनेकचित्तविभ्रान्ताः – उन आसुर मनुष्यों का एक निश्चय न होने से उनके मनमें अनेक तरह की चाहना होती है और उस एक-एक चाहना की पूर्ति के लिये अनेक तरह के उपाय होते हैं तथा उन उपायों के विषय में उनका अनेक तरह का चिन्तन होता है। उनका चित्त किसी एक बात पर स्थिर नहीं रहता , अनेक तरह से भटकता ही रहता है। मोहजालसमावृताः – जड का उद्देश्य होने से वे मोहजाल से ढके रहते हैं। मोहजाल का तात्पर्य है कि 13वें से 15वें श्लोक तक काम , क्रोध और अभिमान को लेकर जितने मनोरथ बताये गये हैं उन सबसे वे अच्छी तरह से आवृत रहते हैं । अतः उनसे वे कभी छूटते नहीं। जैसे मछली जाल में फँस जाती है ऐसे ही वे प्राणी मनोरथ रूप मोहजाल में फँसे रहते हैं। उनके मनोरथों में भी केवल एक तरफ ही वृत्ति नहीं होती प्रत्युत दूसरी तरफ भी वृत्ति रहती है जैसे – इतना धन तो मिल जायगा पर उसमें अमुक-अमुक बाधा लग जायगी तो हमारे पास दो नम्बर की इतनी पूँजी है , इसका पता राजकीय अधिकारियों को लग जायगा तो । हमारे मुनीम , नौकर आदि हमारी शिकायत कर देंगे तो । हम अमुक व्यक्ति को मार देंगे पर हमारी न चली और दशा विपरीत हो गयी तो हम अमुक का नुकसान करेंगे पर उससे हमारा नुकसान हो गया तो । इस प्रकार मोहजाल में फँसे हुए आसुरी सम्पदा वालों में काम , क्रोध और अभिमान के साथ-साथ भय भी बना रहता है। इसलिये वे निश्चय नहीं कर पाते। कहीं पर जाते हैं ठीक करने के लिये पर हो जाता है बेठीक । मनोरथ सिद्ध न होने से उनको जो दुःख होता है उसको तो वे ही जानते हैं । प्रसक्ताः कामभोगेषु – वस्तु आदि का संग्रह करने और उसका उपभोग करने में तथा मान-बड़ाई , सुख-आराम आदि में वे अत्यन्त आसक्त रहते हैं। पतन्ति नरकेऽशुचौ – मोहजाल उनके लिये जीतेजी ही नरक है और मरने के बाद उन्हें कुम्भीपाक , महारौरव आदि स्थानविशेष नरकों की प्राप्ति होती है। उन नरकों में भी वे घोर यातना वाले नरकों में गिरते हैं। ‘नरके अशुचौ’ कहने का तात्पर्य यह है कि जिन नरकों में महान असह्य यातना और भयंकर दुःख दिया जाता है । ऐसे घोर नरकों में वे गिरते हैं (टिप्पणी प0 822) क्योंकि जिनकी जैसी स्थिति होती है मरने के बाद भी उनकी वैसी (स्थिति के अनुसार) ही गति होती है। भगवत्प्राप्ति के उद्देश्य से विमुख हुए आसुरीसम्पदा वालों के दुराचारों का फल नरकप्राप्ति बताकर , दुराचारों द्वारा बोये गये दुर्भावों से वर्तमान में उनकी कितनी भयंकर दुर्दशा होती है और भविष्य में उसका क्या परिणाम होता है ? इसे बताने के लिये आगे का (चार श्लोकों का) प्रकरण आरम्भ करते हैं।

 

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