Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16

 

 

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दैवासुरसम्पद्विभागयोग-  सोलहवाँ अध्याय

अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग

 

आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान्‌।

क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥16.19॥

 

तान् – इन; अहम् – मैं; द्विषत:-विद्वेष; क्रूरान् – निर्दयी; संसारेषु-भौतिक संसार में; नराधामान् -नीच और दुष्ट प्राणी; क्षिपामि – डालता हूँ; अशस्त्रम्- बार बार; अशुभान्-अपवित्र; आसुरीषु-आसुरी; एव -वास्तव में; योनिषु–गर्भ में

 

मानव जाति के इन द्वेष करनेवाले , क्रूर स्वभाव वाले निर्दयी, पापाचारी , अपवित्र , घृणित , नीच और दुष्ट नराधमों को मैं निरन्तर भौतिक संसार के जीवन-मृत्यु के चक्र में उन्हीं के समान आसुरी प्रकृति के गर्भों में डालता हूँ अर्थात बार-बार आसुरी योनियों में ही गिराता रहता हूँ ॥16.19॥

 

तानहं द्विषतः क्रूरान्संसारेषु नराधमान् – 7वें अध्याय के 15वें और नवें अध्याय के 12वें श्लोक में वर्णित आसुरीसम्पदा का इस अध्याय के 7वें से 18वें श्लोक तक विस्तार से वर्णन किया गया। अब आसुरीसम्पदा के विषय का इन दो (19वें-20वें) श्लोकों में उपसंहार करते हुए भगवान कहते हैं कि ऐसे आसुर मनुष्य बिना ही कारण सबसे वैर रखते हैं और सबका अनिष्ट करने पर ही तुले रहते हैं। उनके कर्म बड़े क्रूर होते हैं जिनके द्वारा दूसरों की हिंसा आदि हुआ करती है। ऐसे वे क्रूर , निर्दयी , हिंसक मनुष्य नराधम अर्थात् मनुष्यों में महान नीच हैं – नराधमान्। उनको मनुष्यों में नीच कहने का मतलब यह है कि नरकों में रहने वाले और पशु-पक्षी आदि (चौरासी लाख योनियाँ) अपने पूर्वकर्मों का फल भोगकर शुद्ध हो रहे हैं और ये आसुर मनुष्य अन्याय-पाप करके पशु-पक्षी आदि से भी नीचे की ओर जा रहे हैं। इसलिये इन लोगों का सङ्ग बहुत बुरा कहा गया है – बरु भल बास नरक कर ताता। दुष्ट संग जनि देइ बिधाता।।(मानस 5। 46। 4) नरकों का वास बहुत अच्छा है पर विधाता (ब्रह्मा) हमें दुष्ट का सङ्ग कभी न दे क्योंकि नरकों के वास से तो पाप नष्ट होकर शुद्धि आती है पर दुष्टों के सङ्ग से अशुद्धि आती है , पाप बनते हैं , पाप के ऐसे बीज बोये जाते हैं जो आगे नरक तथा चौरासी लाख योनियाँ भोगने पर भी पूरे नष्ट नहीं होते। प्रकृति के अंश शरीर में राग अधिक होने से आसुरीसम्पत्ति अधिक आती है क्योंकि भगवान ने  कामना (राग) को सम्पूर्ण पापों में हेतु बताया है (3। 37)। उस कामना के बढ़ जाने से आसुरीसम्पत्ति बढ़ती ही चली जाती है। जैसे धन की अधिक कामना बढ़ने से झूठ , कपट , छल आदि दोष विशेषता से बढ़ जाते हैं और वृत्तियों में भी अधिक से अधिक धन कैसे मिले – ऐसा लोभ बढ़ जाता है। फिर मनुष्य अनुचित रीति से , छिपाव से , चोरी से धन लेने की इच्छा करता है। इससे भी अधिक लोभ बढ़ जाता है तो फिर मनुष्य डकैती करने लग जाता है और थोड़े धन के लिये मनुष्य की हत्या कर देने में भी नहीं हिचकता। इस प्रकार उसमें क्रूरता बढ़ती रहती है और उसका स्वभाव राक्षसों जैसा बन जाता है। स्वभाव बिगड़ने पर उसका पतन होता चला जाता है और अन्त में उसे कीट-पतङ्ग आदि आसुरी योनियों और घोर नरकों की महान यातना भोगनी पड़ती है। क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु – जिनका नाम लेना , दर्शन करना , स्मरण करना आदि भी महान अपवित्र करने वाला है – अशुभान् – ऐसे क्रूर , निर्दयी , सबके वैरी मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार ही भगवान उनको आसुरी योनि देते हैं। भगवान कहते हैं — आसुरीष्वेव योनिषु क्षिपामि अर्थात् मैं उनको उनके स्वभाव के लायक ही कुत्ता , साँप , बिच्छू , बाघ , सिंह आदि आसुरी योनियों में गिराता हूँ। वह भी एक-दो बार नहीं प्रत्युत बार-बार गिराता हूँ – अजस्रम् – जिससे वे अपने कर्मों का फल भोगकर शुद्ध , निर्मल होते रहें। भगवान का उनको आसुरी योनियों में गिराने का तात्पर्य क्या है ? भगवान का उन क्रूर , निर्दयी मनुष्यों पर भी अपनापन है। भगवान उनको पराया नहीं समझते , अपना द्वेषी-वैरी नहीं समझते प्रत्युत अपना ही समझते हैं। जैसे जो भक्त जिस प्रकार भगवान की शरण लेते हैं भगवान भी उनको उसी प्रकार आश्रय देते हैं (गीता 4। 11)। ऐसे ही जो भगवान के साथ द्वेष करते हैं उनके साथ भगवान् द्वेष नहीं करते प्रत्युत उनको अपना ही समझते हैं। दूसरे साधारण मनुष्य जिस मनुष्य से अपनापन करते हैं उस मनुष्य को ज्यादा सुख-आराम देकर उसको लौकिक सुख में फँसा देते हैं परन्तु भगवान जिनसे अपनापन करते हैं उनको शुद्ध बनाने के लिये वे प्रतिकूल परिस्थिति भेजते हैं जिससे वे सदा के लिये सुखी हो जाएं – उनका उद्धार हो जाय। जैसे हितैषी अध्यापक विद्यार्थियों पर शासन करके , उनकी ताड़ना करके पढ़ाते हैं जिससे वे विद्वान बन जाएं , उन्नत बन जाएं , सुन्दर बन जाएं । ऐसे ही जो प्राणी परमात्मा को जानते नहीं , मानते नहीं और उनका खण्डन करते हैं उनको भी परम कृपालु भगवान जानते हैं , अपना मानते हैं और उनको आसुरी योनियों में गिराते हैं जिससे उनके किये हुए पाप दूर हो जाएं और वे शुद्ध , निर्मल बनकर अपना कल्याण कर लें।

 

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