Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16

 

 

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दैवासुरसम्पद्विभागयोग-  सोलहवाँ अध्याय

अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग

 

आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।

मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्‌॥16.20॥

 

आसुरीम्-आसुरी; योनिम्-गर्भ में; आपन्ना:-प्राप्त हुए;मूढाः-मूर्ख; जन्मनि जन्मनि – जन्म जन्मांतर; माम्-मुझको; अप्राप्य-पाने में असफल; एव-भी; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; ततः-तत्पश्चात, उसके बाद , फिर ; यान्ति-जाते हैं; अधमाम् – निन्दित; गतिम्-गंतव्य को।

 

हे कौन्तेय ! ये अज्ञानी आत्माएँ बार-बार आसुरी प्रकृति के गर्भों में जन्म लेती हैं। मुझ तक पहुँचने में असफल होने के कारण वे जन्म जन्मान्तरों में अति अधम जीवन प्राप्त करते जाते हैं अर्थात वे मूढ़ मुझको न प्राप्त होकर जन्म- जन्मांतर में आसुरी योनि को प्राप्त होते हैं, उसके पश्चात उससे भी अधिक अति नीच और अधम गति को प्राप्त होते हैं अर्थात्‌ घोर और भयंकर नरकों में चले जाते हैं ॥16.20॥

 

आसुरीं योनिमापन्ना ৷৷. मामप्राप्यैव कौन्तेय – पीछे के श्लोक में भगवान ने आसुर मनुष्यों को बार-बार पशु-पक्षी आदि की योनियों में गिराने की बात कही। अब उसी बात को लेकर भगवान यहाँ कहते हैं कि मनुष्यजन्म में मुझे प्राप्त करने का दुर्लभ अवसर पाकर भी वे आसुर मनुष्य मेरी प्राप्ति न करके पशु , पक्षी आदि आसुरी योनियों में चले जाते हैं और बार-बार उन आसुरी योनियों में ही जन्म लेते रहते हैं। ‘मामप्राप्यैव’ पद से भगवान पश्चात्ताप के साथ कहते हैं कि अत्यन्त कृपा करके मैंने जीवों को मनुष्यशरीर देकर इन्हें अपना उद्धार करने का मौका दिया और यह विश्वास किया कि ये अपना उद्धार अवश्य कर लेंगे परन्तु ये नराधम इतने मूढ़ और विश्वासघाती निकले कि जिस शरीर से मेरी प्राप्ति करनी थी उससे मेरी प्राप्ति न करके उलटे अधम गति को चले गये । मनुष्यशरीर प्राप्त हो जाने के बाद वह कैसा ही आचरणवाला क्यों न हो अर्थात् दुराचारी से दुराचारी क्यों न हो वह भी यदि चाहे तो थो़ड़े से थोड़े समय में (गीता 9। 30 — 31) और जीवन के अन्तकाल में (गीता 8। 5) भी भगवान को प्राप्त कर सकता है। कारण कि ‘समोऽहं सर्वभूतेषु’ (गीता 9। 29) कहकर भगवान ने अपनी प्राप्ति सबके लिये अर्थात् प्राणिमात्र के लिये खुली रखी है। हाँ ! यह बात हो सकती है कि पशु-पक्षी आदि में उनको प्राप्त करने की योग्यता नहीं है परन्तु भगवान की तरफ से तो किसी के लिये भी मना नहीं है। ऐसा अवसर सर्वथा प्राप्त हो जाने पर भी ये आसुर मनुष्य भगवान को प्राप्त न करके अधम गति में चले जाते हैं तो इनकी इस दुर्गति को देखकर परम दयालु प्रभु दुःखी होते हैं। ततो यान्त्यधमां गतिम् – आसुरी योनियों में जाने पर भी उनके सभी पाप पूरे नष्ट नहीं होते। अतः उन बचे हुए पापों को भोगने के लिये वे उन आसुरी योनियों से भी भयङ्कर अधम गति को अर्थात् नरकों को प्राप्त होते हैं। यहाँ शङ्का हो सकती है कि आसुरी योनियों को प्राप्त हुए मनुष्यों को तो उन योनियों में भगवान को प्राप्त करने का अवसर ही नहीं है और उनमें वह योग्यता भी नहीं है फिर भगवान ने ऐसा क्यों कहा कि वे मेरे को प्राप्त न करके उससे भी अधम गति में चले जाते हैं ? इसका समाधान यह है कि भगवान का ऐसा कहना आसुरी योनियों को प्राप्त होने से पूर्व मनुष्यशरीर को लेकर ही है। तात्पर्य है कि मनुष्यशरीर को पाकर , मेरी प्राप्ति का अधिकार पाकर भी वे मनुष्य मेरी प्राप्ति न करके जन्मजन्मान्तर में आसुरी योनियों को प्राप्त होते हैं। इतना ही नहीं वे उन आसुरी योनियों से भी नीचे कुम्भीपाक आदि घोर नरकों में चले जाते हैं। विशेष बात – भगवत्प्राप्ति के अथवा कल्याण के उद्देश्य से दिये गये मनुष्यशरीर को पाकर भी मनुष्य कामना , स्वार्थ एवं अभिमान के वशीभूत होकर चोरी-डकैती , झूठ-कपट , धोखा , विश्वासघात , हिंसा आदि जिन कर्मों को करते हैं उनके दो परिणाम होते हैं – (1) बाहरी फल अंश और (2) भीतरी संस्कार अंश। दूसरों को दुःख देने पर उनका (जिनको दुःख दिया गया है) तो वही नुकसान होता है जो प्रारब्ध से होने वाला है परन्तु जो दुःख देते हैं वे नया पाप करते हैं जिसका फल नरक उन्हें भोगना ही पड़ता है। इतना ही नहीं दुराचारोंके द्वारा जो नये पाप होने के बीज बोये जाते हैं अर्थात् उन दुराचारों के द्वारा अहंता में जो दुर्भाव बैठ जाते हैं उनसे मनुष्य का बहुत भयंकर नुकसान होता है। जैसे चोरीरूप कर्म करने से पहले मनुष्य स्वयं चोर बनता है क्योंकि वह चोर बनकर ही चोरी करेगा और चोरी करने से अपने में (अहंता में) चोर का भाव दृढ़ हो जायगा (टिप्पणी प0 827.1)। इस प्रकार चोरी के संस्कार उसकी अहंता में बैठ जाते हैं। ये संस्कार मनुष्य का बड़ा भारी पतन करते हैं – उससे बार-बार चोरीरूप पाप करवाते है और फलस्वरूप नरकों में ले जाते हैं। अतः जब तक वह मनुष्य अपना कल्याण नहीं कर लेता अर्थात् जब तक वह अपनी अहंता में बैठाये हुए दुर्भावों को नहीं मिटाता तब तक वे दुर्भाव जन्मजन्मान्तर तक दुराचारों को बल देते रहेंगे , उकसाते रहेंगे और उनके कारण वे आसुरी योनियों में तथा उससे भी भयङ्कर नरक आदि में दुःख , सन्ताप , आफत आदि पाते ही रहेंगे। उन आसुरी योनियों में भी उनकी प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुसार यह देखा जाता है कि कई पशु-पक्षी , भूत-पिशाच , कीट-पतंग आदि सौम्यप्रकृतिप्रधान होते हैं और कई क्रूरप्रकृतिप्रधान होते हैं। इस तरह उनकी प्रकृति (स्वभाव) में भेद उनकी अपनी बनायी हुई शुद्ध या अशुद्ध अहंता के कारण ही होते हैं। अतः उन योनियों में अपने-अपने कर्मों का फलभोग होने पर भी उनकी प्रकृति के भेद वैसे ही बने रहते हैं। इतना ही नहीं सम्पूर्ण योनियों को और नरकों को भोगने के बाद किसी क्रम से अथवा भगवत्कृपा से उनको मनुष्यशरीर प्राप्त हो भी जाता है तो भी उनकी अहंता में बैठे हुए कामक्रोधादि दुर्भाव पहले जैसे ही रहते हैं (टिप्पणी प0 827.2)। इसी प्रकार जो स्वर्गप्राप्ति की कामना से यहाँ शुभ कर्म करते हैं और मरने के बाद उन कर्मों के अनुसार स्वर्ग में जाते हैं वहाँ उनके कर्मों का फलभोग तो हो जाता है पर उनके स्वभाव का परिवर्तन नहीं होता अर्थात् उनकी अहंता में परिवर्तन नहीं होता (टिप्पणी प0 827.3)। स्वभाव को बदलने का , शुद्ध बनाने का मौका तो मनुष्यशरीर में ही है। पूर्वश्लोक में भगवान ने कहा कि ये जीव मनुष्यशरीर में मेरी प्राप्ति का अवसर पाकर भी मुझे प्राप्त नहीं करते जिससे मुझे उनको अधम योनि में भेजना पड़ता है। उनका अधम योनि में और अधम गति (नरक) में जाने का मूल कारण क्या है ? इसको भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं।

 

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