दैवासुरसम्पद्विभागयोग- सोलहवाँ अध्याय
अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग
शास्त्रविपरीत आचरणों को त्यागने और शास्त्रानुकूल आचरणों के लिए प्रेरणा
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय तमोद्वारैस्त्रिभिर्नरः।
आचरत्यात्मनः श्रेयस्ततो याति परां गतिम्॥16.22॥
एतैः-इन; विमुक्तः-मुक्त होकर; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र अर्जुन; तमोद्वारैः-अंधकार के द्वार; त्रिभिः-तीन; नरः-व्यक्ति; आचरति-प्रयास करता है; आत्मन:-आत्मा; श्रेयः-कल्याण; ततः-तत्पश्चात; यति-प्राप्त करता है; पराम्-सर्वोच्च; गतिम्-लक्ष्य।
हे कौन्तेय ! जो मनुष्य इन तीन अंधकार रूपी नरक के द्वारों से मुक्त होते हैं, वे अपनी आत्मा के कल्याण के लिए चेष्टा करते हैं और इस प्रकार से परम लक्ष्य को प्राप्त करते हैं अर्थात इन तीनों नरक के द्वारों से मुक्त पुरुष अपने कल्याण का आचरण करता है, इससे वह परमगति को जाता है अर्थात् मुझको प्राप्त हो जाता है ॥16.22॥
(अपने उद्धार के लिए भगवदाज्ञानुसार बरतना ही ‘अपने कल्याण का आचरण करना’ है)
एतैर्विमुक्तः कौन्तेय ৷৷. ततो याति परां गतिम् – पूर्वश्लोक में जिनको नरक का दरवाजा बताया गया है उन्हीं काम , क्रोध और लोभ को यहाँ तमोद्वार कहा गया है। तम नाम अन्धकार का है जो अज्ञान से उत्पन्न होता है – तमस्त्वज्ञानजं विद्धि (गीता 14। 8)। तात्पर्य है कि इन काम आदि के कारण मेरे साथ ये धन-सम्पत्ति , स्त्री-पुरुष , घर-परिवार आदि पहले भी नहीं थे और पीछे भी नहीं रहेंगे और अब भी इनसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है । अतः इनमें ममता करने से आगे मेरी क्या दशा होगी ? आदि बातों की तरफ दृष्टि जाती ही नहीं अर्थात् बुद्धि में अन्धकार छाया रहता है। अतः इन काम आदि से मुक्त होकर जो अपने कल्याण का आचरण करता है वह परमगतिको प्राप्त हो जाता है। इसलिये साधक को इस बात की विशेष सावधानी रखनी चाहिये कि वह काम , क्रोध और लोभ – तीनों से सावधान रहे। कारण कि इन तीनों को साथ में रखते हुए जो साधन करता है वह वास्तव में असली साधक नहीं है। असली साधक वह होता है जो इन दोषों को अपने साथ रहने ही नहीं देता। ये दोष उसको हर समय खटकते रहते हैं क्योंकि इनको साथ में रहने का अवसर देना ही बड़ी भारी गलती है। मनुष्य साधन की तरफ तो ध्यान देते हैं पर साथ में जो कामक्रोधादि दोष रहते हैं उनसे हमारा कितना अहित होता है – इस तरफ वे ध्यान कम देते हैं। इस कमी के कारण ही साधन करते हुए सदाचार भी होते रहते हैं और दुराचार भी होते रहते हैं , सद्गुण भी आते हैं और दुर्गुण भी साथ रहते हैं। जप , ध्यान , कीर्तन , सतसङ्ग , स्वाध्याय , तीर्थ , व्रत आदि करके हम अपनेको शुद्ध बना लेंगे – ऐसा भाव साधक में विशेष रहता है परन्तु जो हमें अशुद्ध कर रहे हैं उन दुर्गुण-दुराचारों को हटाने का खयाल साधक में कम रहता है इसलिये – आसुप्तेरामृते कालं नयेद् वेदान्तचिन्तया। न वा दद्यादवसरं कामादीनां मनागपि।। नींद खुलने से लेकर नींद आने तक और जिस दिन पता लगे उस दिन से लेकर मौत आने तक – सब का सब समय परमात्मतत्त्व के (सगुण-निर्गुण के ) चिन्तन में ही लगाये। चिन्तन के सिवाय काम आदि को किञ्चिन्मात्र भी अवसर न दे। एतैर्विमुक्तः का यह मतलब नहीं है कि जब हम दुर्गुण-दुराचारों से सर्वथा छूट जायेंगे तब साधन करेंगे किंतु साधक को भगवत्प्राप्ति का मुख्य उद्देश्य रखकर इनसे छूटने का भी लक्ष्य रखना है। कारण कि झूठ , कपट , बेईमानी , काम , क्रोध आदि हमारे साथ में रहेंगे तो नयी-नयी अशुद्धि , नये-नये पाप होते रहेंगे जिससे साधन का साक्षात् लाभ नहीं होगा। यही कारण है कि वर्षों तक साधन में लगे रहने पर भी साधक अपनी वास्तविक उन्नति नहीं देखते उनको अपने में विशेष परिवर्तन का अनुभव नहीं होता। इन दोषों से रहित होने पर शुद्धि स्वतःस्वाभाविक आती है। जीव में अशुद्धि तो संसार की तरफ लगने से ही आयी है अन्यथा परमात्मा का अंश होने से वह तो स्वतः ही शुद्ध है – ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुखरासी।।(मानस 7। 117। 1) श्रेयः आचरति का तात्पर्य यह है कि काम , क्रोध और लोभ – इनमें से किसी को भी लेकर आचरण नहीं होना चाहिये अर्थात् असाधन (निषिद्ध आचरण) से रहित शुद्ध साधन होना चाहिये। भीतर में कभी कोई वृत्ति आ भी जाय तो उसको आचरण में न आने दे। अपनी तरफ से तो (काम , क्रोधादि की) वृत्तियों को दूर करने का ही उद्योग करे। अगर अपने उद्योग से न दूर हों तो हे नाथ ! हे नाथ ! हे नाथ ! ऐसे भगवान को पुकारे। गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज कहते हैं — मम हृदय भवन प्रभु तोरा। तहँ बसे आइ बहु चोरा।। अति कठिन करहिं बरजोरा। मानहिं नहिं बिनय निहोरा।।(विनयपत्रिका 125। 2 — 3)जो अपने कल्याण के लिये शास्त्रविधि के अनुसार चलते हैं उनको तो परमगति की प्राप्ति होती है पर जो ऐसा न करके मनमाने ढङ्ग से आचरण करते हैं उनकी क्या गति होती है ? यह आगे के श्लोक में बताते हैं।