दैवासुरसम्पद्विभागयोग- सोलहवाँ अध्याय
अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग
शास्त्रविपरीत आचरणों को त्यागने और शास्त्रानुकूल आचरणों के लिए प्रेरणा
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥16.23॥
यः-जो; शास्त्र-विधिम्-शास्त्रों की आज्ञाओं को; उत्सृज्य-त्याग कर; वर्तते-करते हैं; कामकारतः-इच्छा के आवेग से प्रेरित होकर; न-न तो; सः-वे; सिद्धिम् पूर्णतः को; अवाप्नोति–प्राप्त करते हैं; न कभी नहीं; सुखम्-सुख; न कभी नहीं; पराम्-सर्वोच्च; गतिम्-लक्ष्य।
जो मनुष्य शास्त्रविधि को त्याग कर अपनी इच्छा से मनमाना आचरण करता है, वह न तो पूर्णत्व की सिद्धि ( अन्तःकरण की शुद्धि ) को , न सुख को और न परमगति को ही प्राप्त होता है अर्थात जो अपनी इच्छाओं के आवेग के अंतर्गत कर्म करते हैं और शास्त्रों के विधि-निषेधों को ठुकराते हैं वे न तो पूर्णताः प्राप्त करते हैं , न सिद्धि प्राप्त करते हैं , न सुख को प्राप्त करते हैं और न ही जीवन में परम लक्ष्य की प्राप्ति करते हैं ॥16.23॥
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते – जो लोग शास्त्रविधि की अवहेलना करके शास्त्रविहित यज्ञ करते हैं , दान करते हैं , परोपकार करते हैं , दुनिया के लाभ के लिये तरह-तरह के कई अच्छे-अच्छे काम करते हैं परन्तु वह सब करते हैं – कामकारतः (टिप्पणी प0 830) अर्थात् शास्त्रविधि की तरफ ध्यान न देकर अपने मनमाने ढङ्ग से करते हैं। मनमाने ढङ्ग से करने में कारण यह है कि उनके भीतर जो काम , क्रोध आदि पड़े रहते हैं उनकी परवाह न करके वे बाहरी आचरणों से ही अपने को बड़ा मानते हैं। तात्पर्य है कि वे बाहर के आचरणों को ही श्रेष्ठ समझते हैं। दूसरे लोग भी बाहर के आचरणों को ही विशेषता से देखते हैं। भीतर के भावों को , सिद्धान्तों को जानने वाले लोग बहुत कम होते हैं परन्तु वास्तव में भीतर के भावों का ही विशेष महत्त्व है। अगर भीतर में दुर्गुण-दुर्भाव रहते हैं और बाहर से बड़े भारी त्यागी-तपस्वी बन जाते हैं तो अभिमान में आकर दूसरों की ताड़ना कर देते हैं। इस प्रकार भीतर में ब़ढ़े हुए देहाभिमान के कारण उनके गुण भी दोष में परिणत हो जाते हैं उनकी महिमा निन्दा में परिणत हो जाती है उनका त्याग राग में , आसक्ति में , भोगों में परिणित हो जाता है और आगे चलकर वे पतन में चले जाते हैं। इसलिये भीतर में दोषों के रहने से ही वे शास्त्रविधि का त्याग करके मनमाने ढङ्ग से आचरण करते हैं। जैसे रोगी अपनी दृष्टि से तो कुपथ्य का त्याग और पथ्य का सेवन करता है पर वह आसक्तिवश कुपथ्य ले लेता है जिससे उसका स्वास्थ्य और अधिक खराब हो जाता है। ऐसे ही वे लोग अपनी दृष्टि से अच्छे-अच्छे काम करते हैं पर भीतर में काम , क्रोध और लोभ का आवेश रहने से वे शास्त्रविधि की अवहेलना करके मनमाने ढङ्ग से काम करने लग जाते हैं जिससे वे अधोगति में चले जाते हैं। न स सिद्धिमवाप्नोति – आसुरीसम्पदा वाले जो लोग शास्त्रविधि का त्याग करके यज्ञ आदि शुभ कर्म करते हैं उनको धन , मान , आदर आदि के रूप में कुछ प्रसिद्धिरूप सिद्धि मिल सकती है पर वास्तव में अन्तःकरण की शुद्धिरूप जो सिद्धि है वह उनको नहीं मिलती। न सुखम् – उनको सुख भी नहीं मिलता क्योंकि उनके भीतर में कामक्रोधादि की जलन बनी रहती है। पदार्थों के संयोग से होने वाला सुख उन्हें मिल सकता है पर वह सुख-दुःखों का कारण ही है अर्थात् उससे दुःख ही दुःख पैदा होते हैं (गीता 5। 22)। तात्पर्य यह है कि पारमार्थिक मार्ग में मिलने वाला सात्त्विक सुख उनको नहीं मिलता। न परां गतिम् – उनको परमगति भी नहीं मिलती। परमगति मिले ही कैसे ? पहले तो वे परमगतिको मानते ही नहीं और यदि मानते भी हैं तो भी वह उनको मिल नहीं सकती क्योंकि काम , क्रोध और लोभ के कारण उनके कर्म ही ऐसे होते हैं। सिद्धि , सुख और परमगति के न मिलने का तात्पर्य यह है कि वे आचरण तो श्रेष्ठ करते हैं जिससे उन्हें सिद्धि , सुख और परमगति की प्राप्ति हो सके परन्तु भीतर में काम , क्रोध , लोभ , अभिमान आदि रहने से उनके अच्छे आचरण भी बुराई में ही चले जाते हैं। इससे उनको उपर्युक्त चीजें नहीं मिलतीं। यदि ऐसा मान लिया जाय कि उनके आचरण ही बुरे होते हैं तो भगवान का ‘न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्’ — ऐसा कहना बनेगा ही नहीं क्योंकि प्राप्ति होने पर ही निषेध होता है – प्राप्तौ सत्यां निषेधः। शास्त्रविधि का त्याग करने से मनुष्य को सिद्धि आदि की प्राप्ति नहीं होती इसलिये मनुष्य को क्या करना चाहिये ? इसे आगे के श्लोक में बताते हैं।