दैवासुरसम्पद्विभागयोग- सोलहवाँ अध्याय
अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग
शास्त्रविपरीत आचरणों को त्यागने और शास्त्रानुकूल आचरणों के लिए प्रेरणा
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि॥16.24॥
तस्मात् – इसलिए; शास्त्रम्-धार्मिक ग्रंथ; प्रमाणम्-प्राधिकारी; ते – तुम्हारा; कार्य-कर्त्तव्य; अकार्य-निषिद्ध कर्म; व्यवस्थितौ – निश्चित करने में; ज्ञात्वा-जानकर; शास्त्र – धार्मिक ग्रंथ; विधान-विधिविधान; उक्तम्-जैसा कहा गया; कर्म-कर्म; कर्तुम्-संपन्न करना; इह-इस संसार में; अर्हसि – तुम्हें चाहिए।
इसलिए क्या करना और क्या नहीं करना चाहिए? यह निश्चित करने के लिए शास्त्रों में वर्णित विधानों को स्वीकार करो और शास्त्रों के निर्देशों व उपदेशों को समझो तथा फिर तदानुसार संसार में अपने कर्तव्यों का पालन करो अर्थात तुम्हारे कर्तव्य-अकर्तव्य का निर्णय करने में शास्त्र ही प्रमाण है – ऐसा जानकर तुम्हें इस संसार में शास्त्र विधि से नियत कर्त्तव्य कर्म ही करने चाहिए ॥16.24॥
तस्मात् शास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ – जिन मनुष्यों को अपने प्राणों से मोह होता है वे प्रवृत्ति और निवृत्ति अर्थात् कर्तव्य और अकर्तव्य को न जानने से विशेषरूप से आसुरीसम्पत्ति में प्रवृत्त होते हैं। इसलिये तू कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय करने के लिये शास्त्र को सामने रख। जिनकी महिमा शास्त्रों ने गायी है और जिनका बर्ताव शास्त्रीय सिद्धान्त के अनुसार होता है ऐसे संत-महापुरुषों के आचरणों और वचनों के अनुसार चलना भी शास्त्रों के अनुसार ही चलना है। कारण कि उन महापुरुषों ने शास्त्रो को आदर दिया है और शास्त्रों के अनुसार चलने से ही वे श्रेष्ठ पुरुष बने हैं। वास्तव में देखा जाय तो जो महापुरुष परमात्मतत्त्व को प्राप्त हुए हैं उनके आचरणों , आदर्शों , भावों आदि से ही शास्त्र बनते हैं। शास्त्रं प्रमाणम् का तात्पर्य यह है कि लोक-परलोक का आश्रय लेकर चलने वाले मनुष्यों के लिये कर्तव्य-अकर्तव्य की व्यवस्था में शास्त्र ही प्रमाण है। ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्तुमिहार्हसि (टिप्पणी प0 831) – प्राणपोषणपरायण मनुष्य शास्त्रविधि को (कि किसमें प्रवृत्त होना है और किससे निवृत होना है ?) नहीं जानते (गीता 16। 7) इसलिये उनको सिद्धि आदि की प्राप्ति नहीं होती। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तू तो दैवीसम्पत्ति को प्राप्त है । अतः तू शास्त्रविधि को जानकर कर्तव्य का पालन करने योग्य है। अर्जुन पहले अपनी धारणा से कहते थे कि युद्ध करने से मुझे पाप लगेगा जबकि भाग्यशाली श्रेष्ठ क्षत्रियों के लिये अपने आप प्राप्त हुआ युद्ध स्वर्ग को देने वाला है (गीता 2। 32)। भगवान कहते हैं कि भैया तू पाप-पुण्य का निर्णय अपने मनमाने ढंग से कर रहा है । तुझे तो इस विषय में शास्त्र को प्रमाण रखना चाहिये। शास्त्र की आज्ञा समझकर ही तुझे कर्तव्यकर्म करना चाहिये। इसका तात्पर्य यह है कि युद्धरूप क्रिया बाँधने वाली नहीं है प्रत्युत स्वार्थ और अभिमान रखकर की हुई शास्त्रीय क्रिया (यज्ञ , दान आदि) ही बाँधने वाली होती है और मनमाने ढंग से (शास्त्रविपरीत) की हुई क्रिया तो पतन करने वाली होती है। स्वतः प्राप्त युद्धरूप क्रिया क्रूर और हिंसारूप दिखती हुई भी पापजनक नहीं होती (गीता 18। 47)। तात्पर्य है कि स्वभावनियत कर्म करता हुआ सर्वथा स्वार्थरहित मनुष्य पाप को प्राप्त नहीं होता अर्थात् ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य और शूद्र – इनके स्वभाव के अनुसार शास्त्रों ने जो आज्ञा दी है उसके अनुसार कर्म करने से मनुष्य को पाप नहीं लगता। पाप लगता है – स्वार्थ से अभिमान से और दूसरों का अनिष्ट सोचने से। मनुष्यजन्म की सार्थकता यही है कि वह शरीरप्राणों के मोह में न फँसकर केवल परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य से शास्त्रविहित कर्मों को करे।
ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्नीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुन दैवासुरसम्पद्विभागयोगो नाम षोडशोऽध्यायः ॥16॥
इस प्रकार ॐ तत् सत् – इन भगवन्नामों के उच्चारणपूर्वक ब्रह्मविद्या और योगशास्त्रमय श्रीमद्भगवद्गीतोपनिषद्रूप श्रीकृष्णार्जुनसंवाद में दैवासुरसम्पद्विभागयोग नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ।।16।।
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