दैवासुरसम्पद्विभागयोग- सोलहवाँ अध्याय
अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग
फलसहित दैवी और आसुरी संपदा का कथन
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम्॥16.2॥
अहिंसा-अहिंसा; सत्यम्-सत्यता; अक्रोधः-क्रोध से मुक्ति; त्यागः-त्याग; शन्तिः – शान्तिप्रियता; अपैशुनम्-दोषारोपण से दूर, किसी की निन्दा न करना, चुगली न करना; दया – करुणा; भूतेषु-सभी जीवों के प्रति; अलोलुप्त्वम्-लोभ से मुक्ति; मार्दवम्-भद्रता; ह्री:-लज्जा; अचापलम्-अस्थिरहीनता;
अहिंसा, सत्य भाषण, क्रोध न करना, संसार की कामना का त्याग, अन्तःकरण में राग-द्वेष जनित हलचल का न होना, किसी की निन्दा न करना, प्राणियों पर दया करना, सांसारिक विषयों में न ललचाना, अन्तःकरण की कोमलता, अकर्तव्य करने में लज्जा, चपलता का अभाव अर्थात मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, सत्य और प्रिय भाषण , अपना अपकार और अपमान करने वाले पर भी क्रोध का न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, चित्त की चञ्चलता का अभाव, किसी की भी चुगली और निंदा आदि न करना, सब भूतप्राणियों में दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होने पर भी उनमें आसक्ति का न होना, ह्रदय की कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण करने में लज्जा आना और व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव॥16.2॥
(अन्तःकरण और इन्द्रियों के द्वारा जैसा निश्चय किया हो, वैसे-का-वैसा ही प्रिय शब्दों में कहने का नाम ‘सत्यभाषण’ है)
अहिंसा – शरीर , मन , वाणी , भाव आदि के द्वारा किसी का भी किसी प्रकार से अनिष्ट न करने को तथा अनिष्ट न चाहने को अहिंसा कहते हैं। वास्तव में सर्वथा अहिंसा तब होती है जब मनुष्य संसार की तरफ से विमुख होकर परमात्मा की तरफ ही चलता है। उसके द्वारा अहिंसा का पालन स्वतः होता है परन्तु जो रागपूर्वक भोगबुद्धि से भोगों का सेवन करता है वह कभी सर्वथा अहिंसक नहीं हो सकता। वह अपना पतन तो करता ही है जिन पदार्थों आदि को वह भोगता है उनका भी नाश करता है। जो संसार के सीमित पदार्थों को व्यक्तिगत (अपने) न होने पर भी व्यक्तिगत मानकर सुखबुद्धि से भोगता है वह हिंसा ही करता है। कारण कि समष्टि संसार से सेवा के लिये मिले हुए पदार्थ , वस्तु , व्यक्ति आदि में से किसी को भी अपने भोग के लिये व्यक्तिगत मानना हिंसा ही है। यदि मनुष्य समष्टि संसार से मिली हुई वस्तु , पदार्थ , व्यक्ति आदि को संसार की ही मानकर निर्ममतापूर्वक संसार की सेवा में लगा दे तो वह हिंसा से बच सकता है और वही अहिंसक हो सकता है। जो सुख और भोगबुद्धि से भोगों का सेवन करता है उसको देखकर जिनको वे भोगपदार्थ नहीं मिलते – ऐसे अभावग्रस्तों को दुःख-संताप होता है। यह उनकी हिंसा ही है क्योंकि भोगी व्यक्ति में अपना स्वार्थ और सुख-बुद्धि रहती है तथा दूसरों के दुःख की लापरवाही रहती है परन्तु जो संत-महापुरुष केवल दूसरों का हित करने के लिये ही जीवन-निर्वाह करते हैं उनको देखकर किसी को दुःख हो भी जायगा तो भी उनको हिंसा नहीं लगेगी क्योंकि वे भोग-बुद्धि से जीवन-निर्वाह करते ही नहीं – शारीरं केवलं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्बिषम् (गीता 4। 21)। केवल परमात्मा की ओर चलने वाले के द्वारा हिंसा नहीं होती क्योंकि वह भोगबुद्धि से पदार्थ आदि का सेवन नहीं करता। परमात्मा की ओर चलने वाला साधक शरीर , मन , वाणी के द्वारा कभी किसी को दुःख नहीं पहुँचाता। यदि उसकी बाह्य क्रियाओं से किसी को दुःख होता है तो यह दुःख उसके खुद के स्वभाव से ही होता है। साधक की तो भीतर से कभी किसी को किञ्चिन्मात्र भी दुःख देने की भावना नहीं होनी चाहिये। उसका भाव निरन्तर सबका हित करने का होना चाहिये – सर्वभूतहिते रताः। साधक के साधन में कोई बाधा डाल दे तो उसे उस पर क्रोध नहीं आता और न उसके मन में उसके अहित की भावना (हिंसा) ही पैदा होती है। हाँ , परमात्मा की ओर चलने में बाधा पड़ने से उसको दुःख हो सकता है पर वह दुःख भी सांसारिक दुःख की तरह नहीं होता। साधक को बाधा लगती है तो वह भगवान को पुकारता है कि हे नाथ ! मेरी कहाँ भूल हुई जिससे बाधा लग रही है । ऐसा विचार करके उसे रोना आ सकता है पर बाधा डालने वाले के प्रति क्रोध , द्वेष नहीं हो सकता। बाधा लगने पर साधक में तत्परता और सावधानी आती है। यदि उसमें बाधा डालने वाले के प्रति द्वेष होता है तो जितने अंश में द्वेषवृत्ति रहती है उतने अंश में तत्परता की कमी है , अपने साधन का आग्रह है। साधक में एक तत्परता होती है और एक आग्रह होता है। तत्परता होने से साधन में रुचि रहती है और आग्रह होने से साधन में राग होता है। रुचि होने से अपने साधन में कहाँ-कहाँ कमी है उसका ज्ञान होता है और उसे दूर करने की शक्ति आती है तथा उसे दूर करने की चेष्टा भी होती है परन्तु राग होने से साधन में विघ्न डालने वाले के साथ द्वेष होने की सम्भावना रहती है। वास्तव में देखा जाय तो साधन में हमारी रुचि कम होने से ही दूसरा हमारे साधन में बाधा डालता है। अगर साधन में हमारी रुचि कम न हो तो दूसरा हमारे साधन में बाधा नहीं डालेगा प्रत्युत यह सोचकर उपेक्षा कर देगा कि यह जिद्दी है , मानेगा नहीं । अतः जैसा चाहे वैसा करने दो। पुष्प से सुगन्ध स्वतः फैलती है । ऐसे ही साधक से स्वतः पारमार्थिक परमाणु फैलते हैं और वायुमण्डल शुद्ध होता है। इससे उसके द्वारा स्वतः स्वाभाविक प्राणिमात्र का बड़ा भारी उपकार एवं हित होता रहता है परन्तु जो अपने दुर्गुण-दुराचारों के द्वारा वायुमण्डल को अशुद्ध करता रहता है वह प्राणिमात्र की हिंसा करने का अपराधी होता है। सत्यम् – अपने स्वार्थ और अभिमान का त्याग करके केवल दूसरों के हित की दृष्टि से जैसा सुना , देखा , पढ़ा , समझा और निश्चय किया है उससे न अधिक और न कम – वैसा का वैसा प्रिय शब्दों में कह देना सत्य है। सत्यस्वरूप परमात्मा को पाने और जानने का एकमात्र उद्देश्य हो जाने पर साधक के द्वारा मन , वाणी और क्रिया से असत्य व्यवहार नहीं हो सकता। उसके द्वारा सत्य व्यवहार , सबके हित का व्यवहार ही होता है। जो सत्य को जानना चाहता है वह सत्य के ही सम्मुख रहता है। इसलिये उसके मन , वाणी , शरीर से जो क्रियाएं होती हैं वे सभी उत्साहपूर्वक सत्य की ओर चलने के लिये ही होती हैं। अक्रोधः – दूसरों का अनिष्ट करने के लिये अन्तःकरण में जो जलनात्मक वृत्ति पैदा होती है वह क्रोध है। पर जब तक अन्तःकरण में दूसरों का अनिष्ट करने की भावना पैदा नहीं होती तब तक वह क्षोभ है , क्रोध नहीं। परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य से साधन करने वाला मनुष्य अपना अपकार करने वाले का भी अनिष्ट नहीं करना चाहता। वह इस बात को समझता है कि अनिष्ट करने वाला व्यक्ति वास्तव में हमारा अनिष्ट कभी कर ही नहीं सकता। यह जो हमे दुःख देने के लिये आया है यह हमने पहले कोई गलती की है उसी का फल है। अतः यह हमें शुद्ध कर रहा है , निर्मल कर रहा है। जैसे डॉक्टर किसी रुग्ण अङ्ग को काटता है तो उस पर रोगी क्रोध नहीं करता प्रत्युत उसे अच्छा मानता है , ठीक मानता है। उसके रुग्ण अङ्ग को काटना तो उसे ठीक करने के लिये ही है। ऐसे ही साधक को कोई अहित की भावना से किसी तरह से दुःख देता है तो उसमें यह भाव पैदा होता है कि वह मेरे को शुद्ध , निर्मल बनाने में निमित्त बन रहा है । अतः उस पर क्रोध कैसे , वह तो मेरा उपकार कर रहा है और भविष्य के लिये सावधान कर रहा है कि जो गलती पहले की है आगे वैसी गलती न करूँ। जो लोग साधक का हित करने वाले हैं , उसकी सेवा करने वाले हैं वे तो साधक को सुख पहुँचाकर उसके पुण्यों का नाश करते हैं। पर साधक को उन पर (उसके पुण्यों का नाश करने के कारण) क्रोध नहीं आता। उन पर साधक को यह विचार आता है कि वे जो मेरी सेवा करते हैं , मेरे अनुकूल आचरण करते हैं यह तो उनकी सज्जनता है , उनका श्रेष्ठ भाव है परन्तु पुण्यों का नाश तो तब होता है जब मैं उनकी सेवा से सुख भोगता हूँ। इस प्रकार साधक की दृष्टि सेवा करने वालों की अच्छाई , शुद्ध नीयत पर ही जाती है। अतः साधक को न तो दुःख देने वालों पर क्रोध होता है और न सुख देने वालों पर। त्यागः – संसार से विमुख हो जाना ही असली त्याग है। साधक को जीवन में बाहर का और भीतर का – दोनों का ही त्याग होना चाहिये। जैसे बाहर से पाप , अन्याय , अत्याचार , दुराचार आदि का और बाहरी सुख-आराम आदि का त्याग भी करना चाहिये और भीतर से सांसारिक नाशवान वस्तुओं की कामना का त्याग भी करना चाहिये। इससे भी बाहर के त्याग की अपेक्षा भीतर की कामना का त्याग श्रेष्ठ है। कामना का सर्वथा त्याग होने पर तत्काल शान्ति की प्राप्ति होती है – त्यागाच्छान्तिरनन्तरम् (गीता 12। 12)। साधक के लिये उत्पन्न और नष्ट होने वाली वस्तुओं की कामना ही वास्तव में सबसे ज्यादा बाधक होती है। अतः कामना का सर्वथा त्याग करना चाहिये। त्याग कब होता है ? जब साधक का उद्देश्य एकमात्र परमात्मप्राप्ति का ही हो जाता है तब उसकी कामनाएँ दूर होती चली जाती हैं। कारण कि सांसारिक भोग और संग्रह साधक का लक्ष्य नहीं होता। अतः वह सांसारिक भोग और संग्रह की कामना का त्याग करते हुए अपने साधन में आगे बढ़ता रहता है। शान्तिः – अन्तःकरण में रागद्वेषजनित हलचल का न होना शान्ति है क्योंकि संसार के साथ राग-द्वेष करने से ही अन्तःकरण में अशान्ति आती है और उनके न होने से अन्तःकरण स्वाभाविक ही शान्त , प्रसन्न रहता है। अनुकूलता से पुराने पुण्यों का नाश होता है और उसमें अपना स्वभाव सुधरने की अपेक्षा बिगड़ने की सम्भावना अधिक रहती है परन्तु प्रतिकूलता आने पर पापों का नाश होता है और स्वभाव में भी सुधार होता है। इस बात को समझने पर प्रतिकूलता में भी स्वतः शान्ति बनी रहती है। किसी परिस्थिति आदि को लेकर साधक में कभी राग-द्वेष का भाव हो भी जाता है तो उसके मन में अशान्ति पैदा हो जाती है और अशान्ति होते ही वह तुरंत सावधान हो जाता है कि रागद्वेषपूर्वक कर्म करना मेरा उद्देश्य नहीं है। इस विचार से फिर शान्ति आ जाती है और समय पाकर स्थिर हो जाती है। अपैशुनम् – किसी के दोष को दूसरे के आगे प्रकट करके दूसरों में उसके प्रति दुर्भाव पैदा करना पिशुनता है और इसका सर्वथा अभाव ही अपैशुन है। परमात्मप्राप्ति का ही उद्देश्य होने से साधक कभी किसी की चुगली नहीं करता। ज्यों-ज्यों उसका साधन आगे बढ़ता चला जाता है त्यों ही त्यों उसकी दोषदृष्टि और द्वेषवृत्ति मिटकर दूसरों के प्रति उसका स्वतः ही अच्छा भाव होता चला जाता है। उसके मन में यह विचार भी नहीं आता कि मैं साधन करने वाला हूँ और ये दूसरे (साधन न करने वाले) साधारण मनुष्य हैं प्रत्युत तत्परता से साधन होने पर उसे जैसी अपनी स्थिति (जडता से सम्बन्ध न होना) दिखायी देती है वैसी ही दूसरों की स्थिति भी दिखायी देती है कि वास्तव में उनका भी जडता से सम्बन्ध नहीं है केवल सम्बन्ध माना हुआ है। इस तरह जब उसकी दृष्टि में किसी का भी जडता से सम्बन्ध है ही नहीं तो वह किसी का दोष किसी के प्रति क्यों प्रकट करेगा ? भक्तिमार्ग वाला सर्वत्र अपने प्रभु को देखता है , ज्ञानमार्ग वाला केवल अपने स्वरूप को ही देखता है और कर्मयोगमार्ग वाला अपने सेव्य को देखता है। इसलिये साधक किसी की बुराई , निन्दा , चुगली आदि कर ही कैसे सकता है ? दया भूतेषु – दूसरों को दुःखी देखकर उनका दुःख दूर करने की भावना को दया कहते हैं। भगवान की , संत-महात्माओं की , साधकों की और साधारण मनुष्यों की दया अलग-अलग होती है (1) भगवान की दया – भगवान की दया सभी को शुद्ध करने के लिये होती है। भक्तलोग इस दया के दो भेद मानते हैं – कृपा और दया। मात्र मनुष्यों को पापों से शुद्ध करने के लिये उनके मन के विरुद्ध (प्रतिकूल) परिस्थिति को भेजना कृपा है और अनुकूल परिस्थिति को भेजना दया है। (2) संत-महात्माओं की दया – संत-महात्मा लोग दूसरों के दुःख से दुःखी और दूसरों के सुख से सुखी होते हैं – पर दुख दुख सुख सुख देखे पर (मानस 7। 38। 1)। पर वास्तव में उनके भीतर न दूसरों के दुःख से दुःख होता है और न अपने दुःख से ही दुःख होता है। अपने पर प्रतिकूल परिस्थिति आने पर वे उसमें भगवान की कृपा को देखते हैं पर दूसरों पर दुःख आने पर उन्हें सुखी करने के लिये वे उनके दुःख को स्वयं अपने पर ले लेते हैं। जैसे इन्द्र ने क्रोधपूर्वक बिना अपराध के दधीचि ऋषि का सिर काट दिया था पर जब इन्द्र ने अपनी रक्षा के लिये उनकी ह़ड्डियाँ माँगी तब दधीचि ने सहर्ष प्राण छोड़कर उन्हें अपनी हड्डियाँ दे दीं। इस प्रकार संत-महापुरुष दूसरे के दुःख को सह नहीं सकते प्रत्युत उन्हें सुख पहुँचाने के लिये अपनी सुखसामग्री और प्राण तक दे देते हैं चाहे दूसरा उनका अहित करने वाला ही क्यों न हो । (टिप्पणी प0 796) इसलिये संत-महात्माओं की दया विशेष शुद्ध , निर्मल होती है। (3) साधकों की दया – साधक अपने मन में दूसरों का दुःख दूर करने की भावना रखता है और उसके अनुसार उनका दुःख दूर करने की चेष्टा भी करता है। दूसरों को दुःखी देखकर उसका हृदय द्रवित हो जाता है क्योंकि वह अपनी ही तरह दूसरों के दुःख को भी समझता है। इसलिये उसका यह भाव रहता है कि सब सुखी कैसे हों ? सबका भला कैसे हो ? सबका उद्धार कैसे हो ? सबका हित कैसे हो ? अपनी ओर से वह ऐसी ही चेष्टा करता है परन्तु मैं सबका हित करता हूँ , सबके हित की चेष्टा करता हूँ – इन बातों को लेकर उसके मन में अभिमान नहीं होता। कारण कि दूसरों का दुःख दूर करने का सहज स्वभाव बन जाने से उसे अपने इस आचरण में कोई विशेषता नहीं दिखती। इसलिये उसको अभिमान नहीं होता। जो प्राणी भगवान की ओर नहीं चलते , दुर्गुण-दुराचारों में रत रहते हैं , दूसरों का अपराध करते हैं और अपना पतन करते हैं – ऐसे मनुष्यों पर साधक को क्रोध न आकर दया आती है। इसलिये वह हरदम ऐसी चेष्टा करता रहता है कि ये लोग दुर्गुण-दुराचारों से ऊपर कैसे उठें ? इनका भला कैसे हो ? कभी-कभी वह उनके दोषों को दूर करने में अपने को निर्बल मानकर भगवान से प्रार्थना करता है कि हे नाथ ! ये लोग इन दोषों से छूट जायँ और आपके भक्त बन जायँ। (4) साधारण मनुष्यों की दया – साधारण मनुष्य की दया में थोड़ी मलिनता रहती है। वह किसी जीव के हित की चेष्टा करता है तो यह सोचता है कि मैं कितना दयालु हूँ , मैंने इस जीव को सुख पहुँचाया तो मैं कितना अच्छा हूँ , हरेक आदमी मेरे जैसा दयालु नहीं है , कोई-कोई ही होता है इत्यादि। इस प्रकार लोग मुझे अच्छा समझेंगे , मेरा आदर करेंगे आदि बातों को लेकर अपने में महत्त्वबुद्धि रखकर जो दया की जाती है उसमें दया का अंश तो अच्छा है पर साथ में उपर्युक्त मलिनताएँ रहने से उस दया में अशुद्धि आ जाती है। इनसे भी साधारण दर्जे के मनुष्य दया तो करते हैं पर उनकी दया ममता वाले व्यक्तियों पर ही होती है। जैसे ये हमारे परिवार के हैं , हमारे मत और सिद्धान्त को मानने वाले हैं तो उनका दुःख दूर करने की इच्छा से उन्हें सुख-आराम देने का प्रयत्न करते हैं। यह दया ममता और पक्षपातयुक्त होने से अधिक अशुद्ध है।इनसे भी घटिया दर्जे के वे मनुष्य हैं जो केवल अपने सुख और स्वार्थ की पूर्ति के लिये ही दूसरों के प्रति दया का बर्ताव करते हैं।अलोलुप्त्वम् – इन्द्रियों का विषयों से सम्बन्ध होने से अथवा दूसरों को भोग भोगते हुए देखने से मन का (भोग भोगने के लिये) ललचा उठने का नाम लोलुपता है और उसके सर्वथा अभाव का नाम अलोलुप्त्व है। अलोलुपता के उपाय – (1) साधक के लिये विशेष सावधानी की बात है कि वह अपनी इन्द्रियों से भोगों का सम्बन्ध न रखे और मन में कभी भी ऐसा भाव , ऐसा अभिमान न आने दे कि मेरा इन्द्रियों पर अधिकार है अर्थात् इन्द्रियाँ मेरे वश में हैं , अतः मेरा क्या बिगड़ सकता है ? (2) मैं हृदय से परमात्मा की प्राप्ति चाहता हूँ अगर कभी हृदय में विषयलोलुपता हो गयी तो मेरा पतन हो जायगा और मैं परमात्मा से विमुख हो जाऊँगा – इस प्रकार साधक खूब सावधान रहे और कहीं अचानक विचलित होने का अवसर आ जाय तो हे नाथ बचाओ ! हे नाथ बचाओ ! ऐसे सच्चे हृदय से भगवान को पुकारे। (3) स्त्री-पुरुषों की तथा जंतुओं की कामविषयक चेष्टा न देखे। यदि दिख जाय तो ऐसा विचार करे कि यह तो बिलकुल चौरासी लाख योनियों का रास्ता है। यह चीज तो मनुष्य , पुश-पक्षी , कीट-पतङ्ग , राक्षस-असुर , भूत-प्रेत आदि मात्र जीवों में भी है पर मैं तो चौरासी लाख योनियों अर्थात् जन्म-मरण से ऊँचा उठना चाहता हूँ। मैं जन्म-मरण के मार्ग का पथिक नहीं हूँ। मेरे को तो जन्ममरणादि दुःखों का अत्यन्त अभाव करके परमात्मा की प्राप्ति करना है। इस भाव को बड़ी सावधानी के साथ जाग्रत् रखे और जहाँ तक बने ऐसी कामचेष्टा न देखे।मार्दवम् – बिना कारण दुःख देने वालों और वैर रखने वालों के प्रति भी अन्तःकरण में कठोरता का भाव न होना तथा स्वाभाविक कोमलता का रहना ‘मार्दव’ है (टिप्पणी प0 797)। साधक के हृदय में सबके प्रति कोमलता का भाव रहता है। उसके प्रति कोई कठोरता एवं अहित का बर्ताव भी करता है तो भी उसकी कोमलता में अन्तर नहीं आता। यदि साधक कभी किसी बात को लेकर किसी को कठोर जवाब भी दे दे तो वह कठोर जवाब भी उसके हित की दृष्टि से ही देता है। पर पीछे उसके मन में यह विचार आता है कि मैंने उसके प्रति कठोरता का व्यवहार क्यों किया ? मैं प्रेम से या अन्य किसी उपाय से भी समझा सकता था – इस प्रकार के भाव आने से कठोरता मिटती रहती है और कोमलता बढ़ती रहती है। यद्यपि साधकों के भावों में और वाणी में कोमलता रहती है तथापि उनकी भिन्न-भिन्न प्रकृति होने से सबकी वाणी में एक समान कोमलता नहीं होती परन्तु हृदय में साधकों का सबके प्रति कोमल भाव रहता है। ऐसे ही कर्मयोग , ज्ञानयोग और भक्तियोग आदि का साधन करने वालों के स्वभाव में विभिन्नता होने से उनके बर्ताव सबके प्रति भिन्न-भिन्न होते हैं । अतः उनके आचरणों में एक जैसी कोमलता नहीं दिखती पर भीतर में बड़ी भारी कोमलता रहती है। ह्रीः – शास्त्र और लोकमर्यादा के विरुद्ध काम करने में जो एक संकोच होता है उसका नाम ‘ह्रीः’ (लज्जा) है। साधक को साधनविरुद्ध क्रिया करने में लज्जा आती है। वह लज्जा केवल लोगों के देखने से ही नहीं आती प्रत्युत उसके मन में अपने आप ही यह विचार आता है कि राम राम ! मैं ऐसी क्रिया कैसे कर सकता हूँ ? क्योंकि मैं तो परमात्मा की तरफ चलनेवाला (साधक) हूँ। लोग भी मुझे परमात्मा की तरफ चलने वाला समझते हैं। अतः ऐसी साधन-विरुद्ध क्रियाओं को मैं एकान्त में अथवा लोगों के सामने कैसे कर सकता हूँ ? इस लज्जा के कारण साधक बुरे कर्मों से बच जाता है एवं उसके आचरण ठीक होते चले जाते हैं। जब साधक अपनी अहंता बदल देता है कि मैं सेवक हूँ , मैं जिज्ञासु हूँ , मैं भक्त हूँ तब उसे अपनी अहंता के विरुद्ध क्रिया करने में स्वाभाविक ही लज्जा आती है। इसलिये पारमार्थिक उद्देश्य रखने वाले प्रत्येक साधक को अपनी अहंता ‘मैं साधक हूँ’ , मैं सेवक हूँ , मैं जिज्ञासु हूँ , मैं भगवद्भक्त हूँ – इस प्रकार से यथारुचि बदल लेनी चाहिये जिससे वह साधनविरोधी कर्मों से बचकर अपने उद्देश्य को जल्दी प्राप्त कर सकता है। अचापलम् – कोई भी कार्य करने में चपलता का अर्थात् उतावलापन का न होना ‘अचापल’ है। चपलता (चञ्चलता) होने से काम जल्दी होता है – ऐसी बात नहीं है। सात्त्विक मनुष्य सब काम धैर्यपूर्वक करता है । अतः उसका काम सुचारुरूप से और ठीक समय पर हो जाता है। जब कार्य ठीक हो जाता है तब उसके अन्तःकरण में हलचल , चिन्ता नहीं होती। चपलता न होने से कार्य में दीर्घसूत्रता का दोष भी नहीं आता प्रत्युत कार्य में तत्परता आती है जिससे सब काम सुचारुरूप से होते हैं। अपने कर्तव्यकर्मों को करने के अतिरिक्त अन्य कोई इच्छा न होने से उसका चित्त विक्षिप्त और चञ्चल नहीं होता (गीता 18। 26)।