दैवासुरसम्पद्विभागयोग- सोलहवाँ अध्याय
अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग
फलसहित दैवी और आसुरी संपदा का कथन
दैवी सम्पद्विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता।
मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव॥16.5॥
दैवी-दिव्य; सम्पत्-गुण; विमोक्षाय-मुक्ति की ओर; निबन्धाय-बन्धन; आसुरी-आसुरी गुण; मता-माने जाते हैं; मा-नहीं; शुचः-शोक; सम्पदम्-गुणों; दैवीम् – दैवीय; अभिजात:-जन्मे; असि-तुम हो; पाण्डव-पाण्डुपुत्र, अर्जुन।
दैवीय गुण या दैवीय सम्पदा मुक्ति की ओर ले जाते हैं या मोक्ष का कारण होते हैं जबकि आसुरी गुण या आसुरी सम्पदा निरन्तर बंधन का कारण होते हैं। हे पांडव ! शोक मत करो क्योंकि तुम दैवीय गुणों के साथ जन्मे हो ॥16.5॥
दैवी सम्पद्विमोक्षाय – मेरे को भगवान की तरफ ही चलना है – यह भाव साधक में जितना स्पष्टरूप से आ जाता है उतना ही वह भगवान के सम्मुख हो जाता है। भगवान के सम्मुख होने से उसमें संसार से विमुखता आ जाती है। संसार से विमुखता आ जाने से आसुरीसम्पत्ति के जितने दुर्गुण-दुराचार हैं वे कम होने लगते हैं और दैवीसम्पत्ति के जितने सद्गुण-सदाचार हैं वे प्रकट होने लगते हैं। इससे साधक की भगवान में और भगवान के नाम , रूप , लीला , गुण , चरित्र आदि में रुचि हो जाती है। इसमें विशेषता से ध्यान देने की बात है कि साधक का उद्देश्य जितना दृढ़ होगा उतना ही उसका परमात्मा के साथ जो अनादिकाल का सम्बन्ध है वह प्रकट हो जायगा और संसार के साथ जो माना हुआ सम्बन्ध है वह मिट जायगा। मिट क्या जायगा? वह तो प्रतिक्षण मिट ही रहा है । वास्तव में प्रकृति के साथ सम्बन्ध है नहीं। केवल इस जीव ने सम्बन्ध मान लिया है। इस माने हुए सम्बन्ध की सद्भावना पर अर्थात् शरीर ही मैं हूँ और शरीर ही मेरा है – इस सद्भावना पर ही संसार टिका हुआ है। इस सद्भावना के मिटते ही संसार से माना हुआ सम्बन्ध मिट जायगा और दैवीसम्पत्ति के सम्पूर्ण गुण प्रकट हो जायेंगे जो कि मुक्ति के हेतु हैं। दैवीसम्पत्ति केवल अपने लिये ही नहीं है प्रत्युत मात्र प्राणियों के कल्याण के लिये है। जैसे गृहस्थ में छोटे , बड़े , बूढ़े आदि अनेक सदस्य होते हैं पर सबका पालन-पोषण करने के लिये गृहस्वामी (घर का मुखिया) स्वयं उद्योग करता है – ऐसे ही संसारमात्र का उद्धार करने के लिये भगवान ने मनुष्य को बनाया है। वह मनुष्य और तो क्या भगवान की दी हुई विलक्षण शक्ति के द्वारा भगवान के सम्मुख होकर भगवान की सेवा करके उन्हें भी अपने वश में कर सकता है। ऐसा विचित्र अधिकार उसे दिया है। अतः मनुष्य उस अधिकार के अनुसार यज्ञ , दान , तप , तीर्थ , व्रत , जप , ध्यान , स्वाध्याय , सत्सङ्ग आदि जितना साधनसमुदाय है उसका अनुष्ठान केवल अनन्त ब्रह्माण्डों के अनन्त जीवों के कल्याण के लिये ही करे और दृढ़ता से यह संकल्प रखते हुए प्रार्थना करे कि हे नाथ ! मात्र जीवों का कल्याण हो , मात्र जीव जीवन्मुक्त हो जाएं , मात्र जीव आपके अनन्य प्रेमी भक्त बन जाएं पर हे नाथ ! यह होगा केवल आपकी कृपा से ही। मैं तो केवल प्रार्थना कर सकता हूँ और वह भी आपकी दी हुई सद्बुद्धि के द्वारा ही ऐसा भाव रखते हुए अपनी कहलाने वाली इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , शरीर , धन-सम्पत्ति आदि सभी चीजों को मात्र दुनिया के कल्याण के लिये भगवान के अर्पण कर दे (टिप्पणी प0 805.1)। ऐसा करने से अपनी कहलाने वाली चीजों की तो संसार के साथ और अपनी भगवान के साथ स्वतःसिद्ध एकता प्रकट हो जायगी। इसे भगवान ने ‘दैवी सम्पद्विमोक्षाय’ पदों से कहा है। निबन्धायासुरी मता – जो जन्म-मरण को देने वाली है वह सब आसुरीसम्पत्ति है। जब तक मनुष्य की अहंता का परिवर्तन नहीं होता तब तक अच्छे-अच्छे गुण धारण करने पर वे निरर्थक तो नहीं जाते पर उनसे उसकी मुक्ति हो जायगी – ऐसी बात नहीं है। तात्पर्य यह है कि जब तक मेरा शरीर बना रहे , मेरे को सुख-आराम मिलता रहे – इस प्रकार के विचार अहंता में बैठे रहेंगे तब तक ऊपर से भरे हुए दैवीसम्पत्ति के गुण मुक्तिदायक नहीं होंगे। हाँ , यह बात तो हो सकती है कि वे गुण उसको शुभ फल देने वाले हो जायेंगे , ऊँचे लोक देने वाले हो जायेंगे पर मुक्ति नहीं देंगे। जैसे बीज को मिट्टी में मिला देने पर मिट्टी , जल , हवा , धूप – ये सभी उस बीज को ही पुष्ट करते हैं , आकाश भी उसे अवकाश देता है , बीज से उसी जाति का वृक्ष पैदा होता है और उस वृक्ष में उसी जाति के फल लगते हैं। ऐसे ही अहंता (मैंपन) में संसार के संस्काररूपी बीज रखते हुए जिस शुभकर्म को करेंगे वह शुभकर्म उन बीजों को ही पुष्ट करेगा और उन बीजों के अनुसार ही फल देगा। तात्पर्य यह है कि सकाम मनुष्य की अहंता के भीतर संसार के जो संस्कार पड़े हैं उन संस्कारों के अनुसार उसकी सकाम साधना में अणिमा, गरिमा आदि सिद्धियाँ आयेंगी। उसमें और कुछ विशेषता भी आयेगी तो वह ब्रह्मलोक आदि लोकों में जाकर वहाँ के ऊँचे-ऊँचे भोग प्राप्त कर सकता है पर उसकी मुक्ति नहीं होगी (गीता 8। 16)। अब प्रश्न यह होता है कि मनुष्य मुक्ति के लिये क्या करे ? उत्तर यह है कि जैसे बीज को भून दिया जाय या उबाल दिया जाय तो वह बीज अङ्कुर नहीं देगा (टिप्पणी प0 805.2)। उस बीज को बोया जाय तो पृथ्वी उसको अपने साथ मिला लेगी। फिर यह पता ही नहीं चलेगा कि बीज था या नहीं ऐसे ही मनुष्य का जब दृढ़ निश्चय हो जायगा कि मुझे केवल परमात्मप्राप्ति ही करनी है तो संसार के सब बीज ( संस्कार) अहंता में से नष्ट हो जायँगे। शरीरप्राणों में एक प्रकार की आसक्ति होती है कि मैं सुखपूर्वक जीता रहूँ , मेरे को मान-बड़ाई मिलती रहे , मैं भोग भोगता रहूँ आदि। इस प्रकार जो व्यक्तित्व को रखकर चलते हैं उनमें अच्छे गुण आने पर भी आसक्ति के कारण उनकी मुक्ति नहीं हो सकती क्योंकि ऊँच-नीच योनियों में जन्म लेने का कारण प्रकृति का सम्बन्ध ही है (गीता 13। 21)। तात्पर्य यह है कि जिसने प्रकृति से अपना सम्बन्ध जोड़ा हुआ है वह शुभकर्म करके ब्रह्मलोक तक भी चला जाय तो भी वह बन्धन में ही रहेगा। मार्मिक बात- भगवान ने इस अध्याय में आसुरीसम्पदा के तीन फल बताये हैं जिनमें से इस श्लोक में ‘निबन्धायासुरी मता’ पदों से बन्धनरूप सामान्य फल बताया है। दूसरे अध्याय के 41वें से 44वें श्लोकों में वर्णित और नवें अध्याय के 20वें-21वें श्लोकों में वर्णित सकाम उपासक भी इसी में आ जाते हैं। जिनका उद्देश्य केवल भोग भोगना और संग्रह करना है ऐसे मनुष्यों की बहुत शाखाओं वाली अनन्त बुद्धियाँ होती हैं अर्थात् उनकी कामनाओं का कोई अन्त नहीं होता। जो कामनाओं में तन्मय हैं और कर्मफल के प्रशंसक वेद-वाक्यों में ही प्रीति रखते हैं वे वैदिक यज्ञादि को विधि-विधान से करते हैं पर कामनाओं के कारण उनको जन्ममरणरूप बन्धन होता है (गीता 2। 41 — 44)। ऐसे ही जो यहाँ के भोगों को न चाहकर स्वर्ग के दिव्य भोगों की कामना से शास्त्रविहित यज्ञ करते हैं वे यज्ञ के फलस्वरूप (स्वर्ग के प्रतिबन्धक पाप नष्ट होने से) स्वर्ग में जाकर दिव्य भोग भोगते हैं। जब उनके (स्वर्ग देने वाले) पुण्य क्षीण हो जाते हैं तब वे वहाँ से लौटकर आवागमन को प्राप्त हो जाते हैं (गीता 9। 20 — 21)। अब यहाँ शङ्का यह होती है कि जिस कृष्णमार्ग (गीता 8। 25) से उपर्युक्त सकाम पुरुष जाते हैं उसी मार्ग से योगभ्रष्ट पुरुष (गीता 6। 41) भी जाते हैं । अतः दोनों का मार्ग एक होने से और दोनों पुनरावर्ती होने से सकाम पुरुषों के समान योगभ्रष्ट पुरुषों को भी ‘निबन्धायासुरी मता’ वाला बन्धन होना चाहिये। इसका समाधान यह है कि योगभ्रष्टों को यह बन्धन नहीं होता। कारण कि पूर्व (मनुष्यजन्म में की हुई) साधना में उनका उद्देश्य अपने कल्याण का रहा है और अन्त समय में वासना , बेहोशी , पीड़ा आदि के कारण उनको विघ्नरूप से स्वर्गादि में जाना पड़ता है। अतः इन योगभ्रष्टों के इस मार्ग से जाने के कारण ही (गीता 8। 25 में) सकाम पुरुषों के लिये भी योगी पद आया है अन्यथा सकाम पुरुष योगी कहे ही नहीं जा सकते। आसुरीसम्पत्ति का दूसरा फल है – पतन्ति नरकेऽशुचौ (गीता 16। 16)। जो कामना के वशीभूत होकर पाप , अन्याय , दुराचार आदि करते हैं उनको फलस्वरूप स्थानविशेष नरकों की प्राप्ति होती है। आसुरीसम्पत्ति का तीसरा फल है – आसुरीष्वेव योनिषु ततो यान्त्यधमां गतिम् (गीता 16। 19 — 20)। जिनके भीतर दुर्गुण-दुर्भाव रहते हैं और कभी-कभी उनसे प्रेरित होकर वे दुराचार भी कर बैठते हैं उनको दुर्गुण-दुर्भाव के अनुसार पहले तो आसुरी योनि की प्राप्ति और फिर दुराचार के अनुसार अधम गति (नरकों) की प्राप्ति बतायी गयी है। मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव – केवल अविनाशी परमात्मा को चाहने वाले की दैवीसम्पत्ति होती है जिससे मुक्ति होती है और विनाशी संसार के भोग तथा संग्रह को चाहने वाले की आसुरीसम्पत्ति होती है जिससे बन्धन होता है – इस बात को सुनकर अर्जुन के मन में कहीं यह शङ्का पैदा न हो जाय कि मुझे तो अपने में दैवीसम्पत्ति दिखती ही नहीं । इसलिये भगवान कहते हैं कि भैया अर्जुन ! तुम दैवीसम्पत्ति को प्राप्त हुए हो । अतः शोक-संदेह मत करो। दैवीसम्पत्ति को प्राप्त हो जाने पर साधक के द्वारा कर्मयोग , ज्ञानयोग या भक्तियोग का साधन स्वाभाविक ही होता है। कर्तव्यपालन से कर्मयोगी के और ज्ञानाग्नि से ज्ञानयोगी के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं (गीता 4। 23? 37) परंतु भक्तियोगी के सभी पाप भगवान नष्ट करते हैं (गीता 18। 66) और संसार से उसका उद्धार करते हैं (गीता 12। 7)। मा शुचः (टिप्पणी प0 806) – तीसरे श्लोक में भारत , चौथे श्लोक में पार्थ और इस पाँचवें श्लोक में पाण्डव – इन तीन सम्बोधनों का प्रयोग करके भगवान अर्जुन को उत्साह दिलाते हैं कि भारत ! तुम्हारा वंश बड़ा श्रेष्ठ है। पार्थ ! तुम उस माता (पृथा) के पुत्र हो जो वैरभाव रखने वालों की भी सेवा करने वाली है । पाण्डव ! तुम बड़े धर्मात्मा और श्रेष्ठ पिता (पाण्डु) के पुत्र हो। तात्पर्य है कि वंश , माता और पिता – इन तीनों ही दृष्टियों से तुम श्रेष्ठ हो । अतः तुम्हारे में दैवीसम्पत्ति भी स्वाभाविक है। इसलिये तुम्हें शोक नहीं करना चाहिये। गीता में दो बार ‘मा शुचः’ पद आये हैं – एक यहाँ और दूसरा 18वें अध्याय के 66वें श्लोक में। इन पदों का दो बार प्रयोग करके भगवान अर्जुन को समझाते हैं कि तुझे साधन और सिद्धि – दोनों के ही विषय में चिन्ता नहीं करनी चाहिये। साधन के विषय में यहाँ यह आश्वासन दिया कि तू दैवीसम्पत्ति को प्राप्त हुआ है और सिद्धि के विषय (18। 66) में यह आश्वासन दिया कि मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा। तात्पर्य यह है कि साधक को अपने साधन में जो कमियाँ दिखती हैं उनको तो वह दूर करता रहता है पर कमियों के कारण उसके अन्तःकरण में नम्रता के साथ एक निराशासी रहती है कि मेरे में अच्छे गुण कहाँ हैं जिससे साध्य की प्राप्ति हो ? साधक की इस निराशा को दूर करने के लिय भगवान अर्जुन को साधकमात्र का प्रतिनिधि बनाकर उसे यह आश्वासन देते हैं कि तुम साधन और साध्य के विषय में चिन्ता-शोक मत करो , निराश मत होओ। दैवीसम्पत्तिवाले पुरुषों का यह स्वभाव होता है कि उनके सामने अनुकूल या प्रतिकूल कोई भी परिस्थिति , घटना आये , उनकी दृष्टि हमेशा अपने कल्याण की तरफ ही रहती है। युद्ध के मौके पर जब भगवान ने अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के बीच में खड़ा किया तब उन सेनाओं में खड़े अपने कुटुम्बियों को देखकर अर्जुन में कौटुम्बिक स्नेहरूपी मोह पैदा हो गया और वे करुणा तथा शोक से व्याकुल होकर युद्धरूप कर्तव्य से हटने लगे। उन्हें विचार हुआ कि युद्ध में कुटुम्बियों को मारने से मुझे पाप ही लगेगा जिससे मेरे कल्याण में बाधा लगेगी। इन्हें मारने से हमें नाशवान राज्य और सुख की प्राप्ति तो हो जायगी पर उससे श्रेय (कल्याण) की प्राप्ति रुक जायगी। इस प्रकार अर्जुन में कुटुम्ब का मोह और पाप (अन्याय , अधर्म) का भय – दोनों एक साथ आ जाते हैं। उनमें जो कुटुम्ब का मोह है वह आसुरीसम्पत्ति है और पाप के कारण अपने कल्याण में बाधा लग जाने का जो भय है वह दैवीसम्पत्ति है। इसमें भी एक खास बात है। अर्जुन कहते हैं कि हमने जो युद्ध करने का निश्चय कर लिया है यह भी एक महान पाप है – अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् (1। 45)। वे युद्धक्षेत्र में भी भगवान से बार-बार अपने कल्याण की बात पूछते हैं – यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे (2। 7) तदेंक वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् (3। 2) यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् (5। 1)। यह उनमें दैवीसम्पत्ति होने के कारण ही है। इसके विपरीत जिनमें आसुरीसम्पत्ति है – ऐसे दुर्योधन आदि में राज्य और धन का इतना लोभ है कि वे कुटुम्ब के नाश से होने वाले पाप की तरफ देखते ही नहीं (1। 38)। इस प्रकार अर्जुन में दैवीसम्पत्ति आरम्भ से ही थी। मोहरूप आसुरीसम्पत्ति तो उनमें आगन्तुक रूप से आयी थी जो आगे चलकर भगवान की कृपा से नष्ट हो गयी – नष्टो मोहः स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत (18। 73)। इसीलिये यहाँ भगवान कहते हैं कि भैया अर्जुन ! तू चिन्ता मत कर क्योंकि तू दैवीसम्पत्ति को प्राप्त है। अर्जुन को अपने में दैवीसम्पत्ति नहीं दिखती इसलिये भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तुम्हारे में दैवीसम्पत्ति प्रकट है। कारण कि जो श्रेष्ठ पुरुष होते हैं उनको अपने में अच्छे गुण नहीं दिखते और अवगुण उनमें रहते नहीं। अपने में गुण न दिखने का कारण यह है कि उनकी गुणों के साथ अभिन्नता होती है। जैसे आँख में लगा हुआ अंजन आँख को नहीं दिखता क्योंकि वह आँख के साथ एक हो जाता है । ऐसे ही दैवीसम्पत्ति के साथ अभिन्नता होने पर गुण नहीं दिखते। जब तक अपने में गुण दिखते हैं तब तक गुणों के साथ एकता नहीं हुई है। गुण तभी दिखते हैं जब वे अपने से कुछ दूर होते हैं। अतः भगवान अर्जुन को आश्वासन देते हैं कि तुम्हारे में दैवीसम्पत्ति स्वाभाविक है भले ही वह तुम्हें न दिखे इसलिये तुम चिन्ता मत करो। मार्मिक बात- भगवान ने कृपा कर के मानवशरीर दिया है तो उसकी सफलता के लिये अपने भावों और आचरणों का विशेष ध्यान रखना चाहिये। कारण कि शरीर का कुछ पता नहीं कि कब प्राण चले जायँ। ऐसी अवस्था में जल्दी से जल्दी अपना उद्धार करने के लिये दैवीसम्पत्ति का आश्रय और आसुरीसम्पत्ति का त्याग करना बहुत आवश्यक है। दैवीसम्पत्ति में देव शब्द परमात्मा का वाचक है और उनकी सम्पत्ति दैवीसम्पत्ति कहलाती है – देवस्येयं दैवी। परमात्मा का ही अंश होने से जीव में दैवीसम्पत्ति स्वतःस्वाभाविक है। जब जीव अपने अंशी परमात्मा से विमुख होकर जड प्रकृति के सम्मुख हो जाता है अर्थात् उत्पत्तिविनाशशील शरीरादि पदार्थों का सङ्ग (तादात्म्य) कर लेता है तब उसमें आसुरीसम्पत्ति आ जाती है। कारण कि काम , क्रोध , लोभ , मोह , दम्भ , द्वेष आदि जितने भी दुर्गुण-दुराचार हैं वे सब के सब नाशवान के सङ्ग से ही पैदा होते हैं। जो प्राणों को बनाये रखना चाहते हैं , प्राणों में ही जिनकी रति है – ऐसे प्राणपोषणपरायण लोगों का वाचक असुर शब्द है – असुषु प्राणेषु रमन्ते इति असुराः। इसलिये मैं सुखपूर्वक जीता रहूँ – यह इच्छा आसुरीसम्पत्ति का खास लक्षण है। दैवी और आसुरीसम्पत्ति सब प्राणियों में पायी जाती है (गीता 16। 6)। ऐसा कोई भी साधारण प्राणी नहीं है जिसमें ये दोनों सम्पत्तियाँ न पायी जाती हों। हाँ ! इसमें जीवन्मुक्त , तत्त्वज्ञ महापुरुष तो आसुरीसम्पत्ति से सर्वथा रहित हो जाते हैं (टिप्पणी प0 807) पर दैवीसम्पत्ति से रहित कभी कोई हो ही नहीं सकता। कारण कि जीव देव अर्थात् परमात्मा का सनातन अंश है। परमात्मा का अंश होने से इसमें दैवीसम्पत्ति रहती ही है। आसुरीसम्पत्ति की मुख्यता होने से दैवीसम्पत्ति दब सी जाती है , मिटती नहीं क्योंकि सत्वस्तु कभी मिट नहीं सकती। इसलिये कोई भी मनुष्य सर्वथा दुर्गुणी-दुराचारी नहीं हो सकता , सर्वथा निर्दयी नहीं हो सकता , सर्वथा असत्यवादी नहीं हो सकता , सर्वथा व्यभिचारी नहीं हो सकता। जितने भी दुर्गुण-दुराचार हैं , वे किसी भी व्यक्ति में सर्वथा हो ही नहीं सकते। कोई भी , कभी भी , कितना ही दुर्गुणी-दुराचारी क्यों न हो उसके साथ आंशिक सद्गुण-सदाचार रहेंगे ही। दैवीसम्पत्ति प्रकट होने पर आसुरीसम्पत्ति मिट जाती है क्योंकि दैवीसम्पत्ति परमात्मा की होने से अविनाशी है और आसुरीसम्पत्ति संसार की होने से नाशवान है। सच्चिदानन्दस्वरूप परमात्मा का अंश होने से मैं सदा जीता रहूँ अर्थात् कभी मरूँ नहीं , मैं सब कुछ जान लूँ अर्थात् कभी अज्ञानी न रहूँ , मैं सर्वदा सुखी रहूँ अर्थात् कभी दुःखी न होऊँ – इस तरह सत्चित्आनन्द की इच्छा प्राणिमात्र में रहती है। पर उससे गलती यह होती है कि मैं रहूँ तो शरीरसहित रहूँ , मैं जानकर बनूँ तो बुद्धि को लेकर जानकार बनूँ , मैं सुख लूँ तो इन्द्रियों और शरीर को लेकर सुख लूँ – इस तरह इन इच्छाओं को नाशवान संसार से ही पूरी करना चाहता है। इस प्रकार प्राणों का मोह होने से आसुरीसम्पत्ति रहती ही है (टिप्पणी प0 808)। इसमें एक मार्मिक बात है कि प्राणी में नित्य-निरन्तर रहने की इच्छा होती है तो यह नित्य-निरन्तर रह सकता है और मैं मरूँ नहीं यह इच्छा होती है तो यह मरता नहीं। जीता रहना अच्छा लगता है तो जीते रहना इसका स्वाभाविक है और मरने से भय लगता है तो मरना इसका स्वाभाविक नहीं है। ऐसे ही अज्ञान बुरा लगता है तो अज्ञान इसका साथी नहीं है। दुःख बुरा लगता है तो दुःख इसका साथी नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि इसका स्वरूप सत् है। असत् इसका स्वरूप नहीं है। सत्स्वरूप होकर भी यह सत् को यह क्यों चाहता है ? कारण कि इसने नष्ट होने वाले असत् शरीरादि को मैं तथा मेरा मान लिया है और उनमें आसक्त हो गया है। तात्पर्य यह कि असत् को स्वीकार करने से स्वयं सत् होते हुए भी सत् की इच्छा होती है , जडता को स्वीकार करने से स्वयं ज्ञानस्वरूप होते हुए भी ज्ञान की इच्छा होती है , दुःखरूप संसार को स्वीकार करने से स्वयं सुखस्वरूप होते हुए भी सुख की इच्छा होती है। पर उसकी पूर्ति भी असत-जड़-दुःख रूप संसार के द्वारा ही करना चाहता है। तादात्म्य के कारण यह शरीर को ही रखना चाहता है , बुद्धि से ही ज्ञानी बनना चाहता है , शरीर से ही श्रेष्ठ और सुखी बनना चाहता है , अपने नाम और रूप को ही स्थायी रखना चाहता है। अपने नाम को तो मरने के बाद भी स्थायी रखना चाहता है। इस प्रकार असत के सङ्ग से आसुरीसम्पत्ति आती है। ऐसे ही असत के सङ्ग का त्याग करने से आसुरीसम्पत्ति नष्ट हो जाती है और दैवीसम्पत्ति प्रकट हो जाती है। जब सत्सङ्ग , स्वाध्याय आदि के द्वारा मनुष्य में परमात्मप्राप्ति करने का विचार होता है तब वह इसके लिये दैवीसम्पत्ति को धारण करना चाहता है। दैवीसम्पत्ति को वह कर्तव्यरूप से उपार्जित करता है कि मुझे सत्य बोलना है , मुझे अहिंसक बनना है , मुझे दयालु बनना है आदि आदि। इस प्रकार जितने भी दैवीसम्पत्ति के गुण हैं उन गुणों को वह अपने बल से उपार्जित करना चाहता है। यह सिद्धान्त है कि कर्तव्यरूप से प्राप्त की हुई और अपने बल (पुरुषार्थ) से उपार्जित की हुई चीज स्वाभाविक नहीं होती प्रत्युत कृत्रिम होती है। इसके अलावा अपने पुरुषार्थ से उपार्जित मानने के कारण अभिमान आता है कि मैं बड़ा सत्यभाषी हूँ , मैं बड़ा अच्छा आदमी हूँ आदि। जितने भी दुर्गुण-दुराचार हैं सब के सब अभिमान की छाया में रहते हैं और अभिमान से ही पुष्ट होते हैं। इसलिये अपने उद्योग से किया हुआ जितना भी साधन होता है उस साधन में अहंकार ज्यों का त्यों रहता है और अहंकार में आसुरीसम्पत्ति रहती है। अतः जब तक वह दैवीसम्पत्ति के लिये उद्योग करता रहता है तब तक आसुरीसम्पत्ति छूटती नहीं। अन्त में वह हार मान लेता है अथवा उसका उत्साह कम हो जाता है उसका प्रयत्न मंद हो जाता है और मान लेता है कि यह मेरे वश की बात नहीं है। साधक की ऐसी दशा क्यों होती है ? कारण कि उसने अभी तक यह जाना नहीं कि आसुरीसम्पत्ति मेरे में कैसे आयी ? आसुरीसम्पत्ति का कारण है – नाशवान का सङ्ग। इसका सङ्ग जब तक रहेगा तब तक आसुरीसम्पत्ति रहेगी ही। वह नाशवान के सङ्ग को नहीं छोड़ता तो आसुरीसम्पत्ति उसे नहीं छोड़ती अर्थात् आसुरीसम्पत्ति से वह सर्वथा रहित नहीं हो सकता। इसलिये यदि वह दैवीसम्पत्ति को लाना चाहे तो नाशवान जड के सङ्ग का त्याग कर दे। नाशवान के सङ्ग का त्याग करने पर दैवीसम्पत्ति स्वतः प्रकट होगी क्योंकि परमात्मा का अंश होने से परमात्मा की सम्पत्ति उसमें स्वतःसिद्ध है , कर्तव्यरूप से उपार्जित नहीं करनी है। इसमें एक और मार्मिक बात है। दैवीसम्पत्ति के गुण स्वतःस्वाभाविक रहते हैं। इन्हें कोई छोड़ नहीं सकता। इसका पता कैसे लगे ? जैसे कोई विचार करे कि मैं सत्य ही बोलूँगा तो वह उम्रभर सत्य बोल सकता है परन्तु कोई विचार करे कि मैं झूठ ही बोलूँगा तो वह आठ पहर भी झूठ नहीं बोल सकता। सत्य ही बोलने का विचार होने पर वह दुःख भोग सकता है पर झूठ बोलने के लिये बाध्य नहीं हो सकता परन्तु झूठ ही बोलूँगा – ऐसा विचार होने पर तो खाना-पीना , बोलना-चलना तक उसके लिये मुश्किल हो जायगा। भूख लगी हो और झूठ बोले कि भूख नहीं है तो जीना मुश्किल हो जायगा। यदि वह ऐसी प्रतिज्ञा कर ले कि झूठ बोलने से बेशक मर जाऊँ पर झूठ ही बोलूँगा तो यह प्रतिज्ञा सत्य हो जायगी। अतः या तो प्रतिज्ञाभङ्ग होने से सत्य आ जायगा या प्रतिज्ञा सत्य हो जायगी। सत्य कभी छूटेगा नहीं क्योंकि सत्य मनुष्यमात्र में स्वाभाविक है। इस तरह दैवीसम्पत्ति के जितने भी गुण हैं सब के विषय में ऐसी ही बात है। वे तो नित्य रहने वाले और स्वाभाविक हैं। केवल नाशवान के सङ्ग का त्याग करना है। नाशवान का सङ्ग अनित्य और अस्वाभाविक है। आसुरीसम्पत्ति आगन्तुक है। दुर्गुण-दुराचार बिलकुल ही आगन्तुक हैं। कोई आदमी प्रसन्न रहता है तो लोग ऐसा नहीं कहते कि तुम प्रसन्न क्यों रहते हो ? पर कोई आदमी दुःखी रहता है तब कहते हैं कि दुःखी क्यों रहते हो ? क्योंकि प्रसन्नता स्वाभाविक है और दुःख अस्वाभाविक (आगन्तुक) है। इसलिये अच्छे आचरण करने वाले को कोई नहीं कहता कि तुम अच्छे आचरण क्यों करते हो ? पर बुरे आचरणवाले को सब कहते हैं कि तुम बुरे आचरण क्यों करते हो ? अतः सद्गुण-सदाचार स्वतः रहते हैं और दुर्गुण-दुराचार सङ्ग से आते हैं इसलिये आगन्तक हैं। अर्जुन में दैवीसम्पत्ति विशेषता से थी। जब उनमें कायरता आ गयी तब भगवान ने आश्चर्य से कहा कि तेरे में यह कायरता कहाँ से आ गयी ? (2। 2 — 3) तात्पर्य यह है कि अर्जुन में यह दोष स्वाभाविक नहीं , आगन्तुक है। पहले उनमें यह दोष था नहीं। अर्जुन आगे कहते हैं कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो , ऐसी बात कहिये (2। 7 3। 2 5। 1)। युद्ध के प्रसङ्ग में भी अर्जुन में मेरा कल्याण हो जाय यह इच्छा है। तो इससे प्रतीत होता है कि अर्जुन के स्वभाव में पहले से ही दैवीसम्पत्ति थी नहीं तो उर्वशी जैसी अप्सरा को एकदम ठुकरा देना कोई मामूली आदमी की बात नहीं थी। वे अर्जुन विचार करते हैं कि मेरे को दैवीसम्पत्ति प्राप्त है कि नहीं मैं उसका अधिकारी हूँ कि नहीं । अतः उसे आश्वासन देते हुए भगवान कहते हैं कि तू शोक मत कर , तू दैवीसम्पत्ति को प्राप्त है – मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव (16। 5)। सत् (चेतन) और असत् (जड) के तादात्म्य से अहम भाव पैदा होता है। मनुष्य शुभ या अशुभ कोई भी काम करता है तो अपने अहंकार को लेकर करता है। जब वह परमात्मा की तरफ चलता है तब उसके अहंभाव में सत्अंश की मुख्यता होती है और जब संसार की तरफ चलता है तब उसके अहंभाव में नाशवान असत्अंश की मुख्यता होती है। सत्अंश की मुख्यता होने से वह दैवीसम्पत्ति का अधिकारी कहा जाता है और असत्अंश की मुख्यता होने से वह उसका अनधिकारी कहा जाता है। असत्अंश को मिटाने के लिये ही मानवशरीर मिला है। अतः मनुष्य निर्बल नहीं है , पराधीन नहीं है प्रत्युत यह सर्वथा सबल है , स्वाधीन है। नाशवान , असत्अंश तो सबका मिटता ही रहता है पर वह उससे अपना सम्बन्ध बनाये रखता है। यह भूल होती है। नाशवान से सम्बन्ध बनाये रखने के कारण आसुरीसम्पत्ति का सर्वथा अभाव नहीं होता। अहंभाव नाशवान और असत के सम्बन्ध से ही होता है। असत का सम्बन्ध मिटते ही अहंभाव मिट जाता है। प्रकृति के अंश को पकड़ने से ही अहंभाव है। अहम में जड-चेतन दोनों हैं। तादात्म्य होने से पुरुष (चेतन) ने जड के साथ अपने को एक मान लिया। भोगपदार्थों की सब इच्छाएँ असत्अंश में ही रहती हैं परन्तु सुख-दुःख के भोक्तापन में पुरुष हेतु बनता है – पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते (13। 20)। वास्तव में हेतु है नहीं क्योंकि वह प्रकृतिस्थ होने से ही भोक्ता बनता है – पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते (13। 21)। अतः सुखदुःखरूप जो विकार होता है वह मुख्यता के जडअंश में ही होता है परन्तु तादात्म्य होने से उसका परिणाम ज्ञाता चेतन पर होता है कि मैं सुखी हूँ , मैं दुःखी हूँ। जैसे विवाह होने पर स्त्री की जो आवश्यकता होती है वह अपनी आवश्यकता कहलाती है। पुरुष जो गहने आदि खरीदता है वह स्त्री के सम्बन्ध से ही (स्त्री के लिये) खरीदता है नहीं तो उसे अपने लिये गहने आदि की आवश्यकता नहीं है। ऐसे ही जड अंश के सम्बन्ध से ही चेतन में जड की इच्छा और जड का भोग होता है। जड का भोग जड अंश में ही होता है पर जड से तादात्म्य होने से भोग का परिणाम केवल जड में नहीं हो सकता अर्थात् सुख-दुःख का भोक्ता केवल जड अंश नहीं बन सकता। परिणाम का ज्ञाता चेतन ही भोक्ता बनता है। जितनी क्रियाएँ होती हैं सब प्रकृति में होती हैं (3। 27 13। 29) पर तादात्म्य के कारण चेतन उन्हें अपने में मान लेता है कि मैं कर्ता हूँ। तादात्म्य में चेतन (परमात्मा) की इच्छा में चेतन की मुख्यता और जड (संसार) की इच्छा में जड की मुख्यता रहती है। जब चेतन की मुख्यता रहती है तब दैवीसम्पत्ति आती है और जब जड की मुख्यता रहती है तब आसुरीसम्पत्ति आती है। जड से तादात्म्य रहने पर भी सत् , चित् और आनन्द की इच्छा चेतन में ही रहती है। संसार की ऐसी कोई इच्छा नहीं है जो इन तीन (सदा रहना , सब कुछ जानना और सदा सुखी रहना) इच्छाओं में सम्मिलित न हो। इससे गलती यह होती है कि इन इच्छाओं की पूर्ति जड (संसार) के द्वारा करना चाहता है। जड को और आसुरीसम्पत्ति को स्वयं (चेतन) ने स्वीकार किया है। जड में यह ताकत नहीं है कि वह स्वयं के साथ स्थिर रह जाय। जड में तो हरदम परिवर्तन होता रहता है। चेतन उसको न पकड़े तो वह अपने आप छूट जायगा। कारण कि चेतन में कभी विकार नहीं होता। वह सदा ज्यों का त्यों रहता है पर असत् प्रकृति नित्य-निरन्तर , हरदम बदलती रहती है। वह कभी एकरूप रह ही नहीं सकती। चेतन ने प्रकृति के साथ सम्बन्ध स्वीकार कर लिया। उस सम्बन्ध की सत्ता यह मैं और मेरेरूप से स्वीकार कर लेता है। अतः जड का सम्बन्ध और उससे पैदा होने वाली आसुरीसम्पत्ति आगन्तुक है। यदि यह स्वयं में होती तो इसका कभी नाश नहीं होता क्योंकि स्वयं का कभी नाश नहीं होता और आसुरीसम्पत्ति के त्याग की बात ही नहीं होती। अनित्य होने पर भी चेतन के सम्बन्ध से यह नित्य दिखने लगती है। अविनाशी के सम्बन्ध से विनाशी भी अविनाशी की तरह दिखने लगता है। इसलिये जिस मनुष्य में आसुरीसम्पत्ति होती है वह आसुरीसम्पत्ति का त्याग कर सकता है और कल्याण का आचरण करके परमात्मा को प्राप्त हो सकता है (16। 22)। परमात्मा के सम्मुख होते ही आसुरीसम्पत्ति मिटने लगती है – सनमुख होइ जीव मोहि जबहीं। जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।। (मानस 5। 44। 1) कारण कि जन्म कोटि अघ प्रकृति से सम्बन्ध स्वीकार करने से ही हुए हैं। प्रकृति को स्वीकार न करें तो फिर कैसे जन्म-मरण होगा ? जन्म-मरण में कारण प्रकृति से सम्बन्ध ही है – कारणं गुणसङ्गोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु (गीता 13। 21) परन्तु जीवात्मा प्रकृति की क्रिया को अपने में मान लेता है और प्रकृति के कार्य शरीर में मैं-मेरापन कर लेता है जिससे जन्मता-मरता रहता है। वास्तव में यह कर्ता भी नहीं है और लिप्त भी नहीं है – शरीरस्थोऽपि कौन्तये न करोति न लिप्यते (13। 31)। इस वास्तविकता का अनुभव करना ही कर्म में अकर्म तथा अकर्म में कर्म देखना है। इन दोनों बातों का अभिप्राय यह है कि कर्म करते हुए भी यह सर्वथा निर्लिप्त तथा अकर्ता है और निर्लिप्त तथा अकर्ता रहते हुए ही यह कर्म करता है अर्थात् कर्म करते समय और कर्म न करते समय यह (आत्मा) नित्य-निरन्तर निर्लिप्त तथा अकर्ता रहता है। इस वास्तविकता का अनुभव करने वाला ही मनुष्यों में बुद्धिमान है (4। 18)। जिसमें कर्तापन का भाव नहीं है और जिसकी बुद्धि में लिप्तता नहीं है अर्थात् कोई भी कामना नहीं है वह यदि सब प्राणियों को मार दे तो भी पाप नहीं लगता ( 18। 17)। अर्जुन ने पूछा कि मनुष्य किससे प्रेरित होकर पाप करता है ? तो भगवान ने कहा – कामना से (3। 36 — 37)। कामना के कारण ही सब पाप होते हैं। शरीर के तादात्म्य से भोग और संग्रह की कामना होती है (टिप्पणी प0 810)। अतः जड का सङ्ग (महत्त्व) ही सम्पूर्ण पापों का – आसुरीसम्पत्ति का कारण है। जड का सङ्ग न हो तो दैवीसम्पत्ति स्वतःसिद्ध है। अर्जुन साधकमात्र के प्रतिनिधि हैं। इसलिये अर्जुन के निमित्त से भगवान साधकमात्र को आश्वासन देते हैं कि चिन्ता मत करो । अपने में आसुरीसम्पत्ति दिख जाय तो घबराओ मत क्योंकि तुम्हारे में दैवीसम्पत्ति स्वतःस्वाभाविक विद्यमान है – मा शुचः सम्पदं दैवीमभिजातोऽसि पाण्डव।। (16। 5) तात्पर्य यह हुआ कि साधक को पारमार्थिक उन्नति से कभी निराश नहीं होना चाहिये क्योंकि परमात्मा का ही अंश होने से मनुष्यमात्र में परमात्मा की सम्पत्ति (दैवीसम्पत्ति) रहती ही है। परमात्मप्राप्ति का ही उद्देश्य होने से दैवीसम्पत्ति स्वतः प्रकट हो जाती है। परमात्मा का अंश होने के नाते साधक को परमात्मप्राप्ति से कभी निराश नहीं होना चाहिये क्योंकि परमात्मा ने कृपा करके मनुष्यशरीर अपनी प्राप्ति के लिये ही दिया है। इसलिये परमात्मा का संकल्प तो हमारे कल्याण का ही है। यदि हम अपना अलग कोई संकल्प न रखें प्रत्युत परमात्मा के संकल्प में ही अपना संकल्प मिला दें तो फिर उनकी कृपा से स्वतः कल्याण हो ही जाता है। सम्पूर्ण प्राणियों में चेतन और जड – दोनों अंश रहते हैं। उनमें से कई प्राणियों का जडता से विमुख होकर चेतन (परमात्मा) की ओर मुख्यता से लक्ष्य रहता है और कई प्राणियों का चेतन से विमुख होकर जडता (भोग और संग्रह) की ओर मुख्यता से लक्ष्य रहता है। इस प्रकार चेतन और जड की मुख्यता को लेकर प्राणियों के दो भेद हो जाते हैं जिनको भगवान आगे के श्लोक में बताते हैं।