Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16

 

 

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दैवासुरसम्पद्विभागयोग-  सोलहवाँ अध्याय

अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग

 

आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16द्वौ भूतसर्गौ लोकऽस्मिन्दैव आसुर एव च।

दैवो विस्तरशः प्रोक्त आसुरं पार्थ में श्रृणु॥16.6॥

 

द्वौ-दो; भूतसर्गौ-जीवों की सृष्टियाँ; लोके-संसार में; अस्मिन्- इस; दैवः-दिव्य; आसुरः-आसुरी; एव-निश्चय ही; च-और; दैव:-दिव्य; विस्तरश:-विस्तृत रूप से; प्रोक्त:-कहा गया; आसुरम् आसुरी लोगः पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; मे-मुझसे;शृणु-सुनो।

 

 हे पार्थ ! इस लोक में भूतों की सृष्टि या मनुष्य समुदाय दो ही प्रकार का है। दैवी और आसुरी- एक तो दैवी प्रकृति वाला और दूसरा आसुरी प्रकृति वाला। उनमें से दैवी प्रकृति वाला तो विस्तारपूर्वक कहा गया, अब तू आसुरी प्रकृति वाले मनुष्य समुदाय को भी विस्तारपूर्वक मुझसे सुन अर्थात संसार में दो प्रकार के प्राणी हैं-एक वे जो दैवीय गुणों से सम्पन्न हैं और दूसरे वे जो आसुरी गुणों से संपन्न हैं। मैं दैवीय गुणों वाले देवों का स्वभाव तो विस्तार से वर्णन कर चुका हूँ अब तुम मुझसे आसुरी स्वभाव वाले लोगों के संबंध में सुनो। ॥16.6॥

 

द्वौ भूतसर्गौ लोकेऽस्मिन्दैव आसुर एव च – आसुरीसम्पत्ति का विस्तारपूर्वक वर्णन करने के लिये उसका उपक्रम करते हुए भगवान कहते हैं कि इस लोक में प्राणिसमुदाय दो तरह का है – दैव और आसुर। तात्पर्य यह है कि प्राणिमात्र में परमात्मा और प्रकृति – दोनों का अंश है। (गीता 10। 39 18। 40)। परमात्मा का अंश चेतन है और प्रकृति का अंश जड है। वह चेतन अंश जब परिवर्तनशील जड अंश के सम्मुख हो जाता है तब उसमें आसुरीसम्पत्ति आ जाती है और जब वह जड प्रकृति से विमुख होकर केवल परमात्मा के सम्मुख हो जाता है तब उसमें दैवीसम्पत्ति जाग्रत् हो जाती है। देव नाम परमात्मा का है। परमात्मा की प्राप्ति के लिये जितने भी सद्गुण-सदाचार आदि साधन हैं वे सब दैवीसम्पदा हैं। जैसे भगवान नित्य हैं – ऐसे ही उनकी साधनसम्पत्ति भी नित्य है। भगवान ने परमात्मप्राप्ति के साधन को अव्यय अर्थात् अविनाशी कहा है – इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् (गीता 4। 1)। ‘द्वौ भूतसर्गौ’ में भूत शब्द से मनुष्य , देवता , असुर , राक्षस , भूत , प्रेत , पिशाच , पशु , पक्षी , कीट , पतंग , वृक्ष , लता आदि सम्पूर्ण स्थावर-जंगम प्राणी लिये जा सकते हैं परन्तु आसुर स्वभाव का त्याग करने की विवेकशक्ति मुख्यरूप से मनुष्यशरीर में ही है। इसलिये मनुष्य को आसुर स्वभाव का सर्वथा त्याग करना चाहिये। उसका त्याग होते ही दैवीसम्पत्ति स्वतः प्रकट हो जाती है। मनुष्य में दैवी और आसुरी – दोनों सम्पत्तियाँ रहती हैं – सुमति कुमति सब कें उर रहहीं। नाथ पुरान निगम अस कहहीं।। (मानस 5। 40। 3) क्रूर से क्रूर कसाई में भी दया रहती है , चोर से चोर में भी साहूकारी रहती है। इसी तरह दैवीसम्पत्ति से रहित कोई हो ही नहीं सकता क्योंकि जीवमात्र परमात्मा का अंश है। उसमें दैवीसम्पत्ति स्वतः स्वाभाविक है और आसुरी सम्पत्ति अपनी बनायी हुई है। सच्चे हृदय से परमात्मा की तरफ चलने वाले साधकों को आसुरीसम्पत्ति निरन्तर खटकती है , बुरी लगती है और उसको दूर करने का वे प्रयत्न भी करते हैं परन्तु जो लोग भजन-स्मरण के साथ आसुरीसम्पत्ति का भी पोषण करते रहते हैं अर्थात् कुछ भजन-स्मरण , नित्यकर्म आदि भी कर लेते हैं और सांसारिक भोग तथा संग्रह में भी सुख लेते हैं और उसे आवश्यक समझते हैं वे वास्तव में साधक नहीं कहे जा सकते। कारण कि कुछ दैव स्वभाव और कुछ आसुर स्वभाव तो नीच से नीच प्राणी में भी स्वाभाविक रहता है। एक विशेष ध्यान देने की बात है कि अहंता के अनुरूप प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्ति के अनुसार अहंता की दृढ़ता होती है। जिसकी अहंता में मैं सत्यवादी हूँ – ऐसा भाव होगा वह सत्य बोलेगा और सत्य बोलने से उसकी सत्यनिष्ठा दृढ़ हो जायगी। फिर वह कभी असत्य नहीं बोल सकेगा परन्तु जिसकी अहंता में मैं संसारी हूँ और संसार के भोग भोगना और संग्रह करना मेरा काम है – ऐसे भाव होंगे उसको झूठ-कपट करते देरी नहीं लगेगी। झूठ -कपट करने से उसकी अहंता में ये भाव दृढ़ हो जाते हैं कि बिना झूठ-कपट किये किसी का काम नहीं चल ही नहीं सकता जिसमें भी आजकल के जमाने में तो ऐसा करना ही पड़ता है , इससे कोई बच नहीं सकता आदि। इस प्रकार अहंता में दुर्भाव आने से ही दुराचारों से छूटना कठिन हो जाता है और इसी कारण लोग दुर्गुण-दुराचार को छोड़ना कठिन या असम्भव मानते हैं। परमात्मा का अंश होने से सद्भाव से रहित कोई नहीं हो सकता और शरीर के साथ अंहता-ममता रखते हुए दुर्भाव से सर्वथा रहित कोई नहीं हो सकता। दुर्भावों के आने पर भी सद्भाव का बीज कभी नष्ट नहीं होता क्योंकि सद्भाव सत् है और सत का कभी अभाव नहीं होता – नाभावो विद्यते सतः (2। 16)। इसके विपरीत दुर्भाव ‘कुसङ्ग ‘ से उत्पन्न होने वाले हैं और उत्पन्न होने वाली वस्तु नित्य नहीं होती – नासतो विद्यते भावः (2। 16)। मनुष्यों की सद्भाव या दुर्भाव की मुख्यता को लेकर ही प्रवृत्ति होती है। जब सद्भाव की मुख्यता होती है तब वह सदाचार करता है और जब दुर्भाव की मुख्यता होती है तब वह दुराचार करता है। तात्पर्य है कि जिसका उद्देश्य परमात्मप्राप्ति का हो जाता है उसमें सद्भाव की मुख्यता हो जाती है और दुर्भाव मिटने लगते हैं और जिसका उद्देश्य सांसारिक भोग और संग्रह का हो जाता है उसमें दुर्भाव की मुख्यता हो जाती है और सद्भाव छिपने लगते हैं। ‘लोकेऽस्मिन्’ का तात्पर्य है कि नये-नये अधिकार पृथ्वीमण्डल में ही मिलते हैं। पृथ्वीमण्डल में भी भारतक्षेत्र में विलक्षण अधिकार प्राप्त होते हैं। भारत भूमि पर जन्म लेने वाले मनुष्यों की देवताओं ने भी प्रशंसा की है (टिप्पणी प0 812)। कल्याण का मौका मनुष्य लोक में ही है। इस लोक में आकर मनुष्य को विशेष सावधानी से दैवीसम्पत्ति जाग्रत् करनी चाहिये। भगवान ने विशेष कृपा करके ही यह मनुष्यशरीर दिया है -कबहुँक करि करुना नर देही । देत ईस बिनु हेतु सनेही।। (मानस 7। 44। 3) जिन प्राणियों को भगवान मनुष्य बनाते हैं उन पर भगवान विश्वास करते हैं कि ये अपना कल्याण (उद्धार) करेंगे। इसी आशा से वे मनुष्यशरीर देते हैं। भगवान ने विशेष कृपा करके मनुष्य को अपनी प्राप्ति की सामग्री और योग्यता दे रखी है और विवेक भी दे रखा है। इसलिये ‘लोकेऽस्मिन्’ पद से विशेषरूप से मनुष्य की ओर ही लक्ष्य है परन्तु भगवान तो प्राणिमात्र में समानरूप से रहते हैं – समोऽहं सर्वभूतेषु (गीता 9। 29)। जहाँ भगवान रहते हैं वहाँ उनकी सम्पत्ति भी रहती है इसलिये ‘भूतसर्गौ’ पद दिया है। इससे यह सिद्ध हुआ कि प्राणिमात्र भगवान की तरफ चल सकता है। भगवान की तरफ से किसी को मना नहीं है। मनुष्यों में जो सर्वथा दुराचारों में लगे हुए हैं वे चाण्डाल और पशु-पक्षी , कीट-पतंगादि पापयोनि वालों की अपेक्षा भी अधिक दोषी हैं। कारण कि पापयोनि वालों का तो पहले के पापों के कारण परवशता से पापयोनि में जन्म होता है और वहाँ उनका पुराने पापों का फलभोग होता है परन्तु दुराचारी मनुष्य यहाँ जानबूझ कर बुरे आचरणों में प्रवृत्त होते हैं अर्थात् नये पाप करते हैं। पापयोनि वाले तो पुराने पापों का फल भोगकर उन्नति की ओर जाते हैं और दुराचारी नये-नये पाप कर के पतन की ओर जाते हैं। ऐसे दुराचारियों के लिये भी भगवान ने कहा है कि यदि अत्यन्त दुराचारी भी मेरे अनन्य शरण होकर मेरा भजन करता है तो वह भी सदा रहने वाली शान्ति को प्राप्त कर लेता है (9। 30 — 31)। ऐसे ही पापी से पापी भी ज्ञानरूपी नौका से सब पापों को तरकर अपना उद्धार कर लेता है (4। 36)। तात्पर्य यह कि जब दुराचारी से दुराचारी और पापी से पापी व्यक्ति भी भक्ति और ज्ञान प्राप्त करके अपना उद्धार कर सकता है तो फिर अन्य पापयोनियों के लिये भगवान की तरफ से मना कैसे हो सकती है ? इसलिये यहाँ भूत (प्राणिमात्र) शब्द दिया है। मानवेतर प्राणियों में भी दैवी प्रकृति के पाये जाने की बहुत बातें सुनने , पढ़ने तथा देखने में आती हैं। ऐसे कई उदाहरण आते हैं जिसमें पशु-पक्षियों की योनि में भी दैवी गुण होने की बात आती है (टिप्पणी प0 813)। कई कुत्ते ऐसे भी देखे गये हैं जो अमावस्या , एकादशी आदि का व्रत रखते हैं और उस दिन अन्न नहीं खाते। सत्सङ्ग में भी मनुष्येतर प्राणियों के आकर बैठने की बातें सुनी हैं। सत्सङ्ग में साँप को भी आते देखा है। गोरखपुर में जब बारह महीनों का कीर्तन हुआ था तब एक काला कुत्ता कीर्तनमण्डल के बीच में चलता और जहाँ सत्सङ्ग होता वहाँ बैठ जाता। ऋषिकेश (स्वर्गाश्रम) में वटवृक्ष के नीचे एक साँप आया करता था। वहाँ एक सन्त थे। एक दिन उन्होंने साँप से कहा ठहर तो वह ठहर गया। सन्त ने उसे गीता सुनायी तो वह चुपचाप बैठ गया। गीता पूरी होते ही साँप वहाँ से चला गया और फिर कभी वहाँ नहीं आया। (इस तरह के पशु-पक्षियों में ऐसी प्रकृति पूर्व संस्कारवश स्वाभाविक होती है।) इस प्रकार पशु-पक्षियों में भी दैवीसम्पत्ति के गुण देखने में आते हैं। हाँ ! यह अवश्य है कि वहाँ दैवीसम्पत्ति के गुणों के विकास का क्षेत्र और योग्यता नहीं है। उनके विकास का क्षेत्र और योग्यता केवल मनुष्यशरीर में ही है। पशु , पक्षी , जड़ी , बूटी , वृक्ष , लता आदि जितने भी जङ्गम-स्थावर प्राणी हैं उन सभी में दैवी और आसुरीसम्पत्ति वाले प्राणी होते हैं। मनुष्य को उन सबकी रक्षा करनी ही चाहिये क्योंकि सबकी रक्षा के लिये सबका प्रबन्ध करने के लिये ही यह मनुष्य बनाया गया है। उनमें भी जो सात्त्विक पशु , पक्षी , जड़ी , बूटी आदि हैं उनकी तो विशेषता से रक्षा करनी चाहिये क्योंकि उनकी रक्षा से हमारे में दैवीसम्पत्ति बढ़ती है। जैसे गोमाता हमारी पूजनीया है तो हमें उसकी रक्षा और पालन करना चाहिये क्योंकि गाय सम्पूर्ण सृष्टि का कारण है – गावो विश्वस्य मातरः। गाय के घी से ही यज्ञ होता है , भैंस आदि के घी से नहीं। यज्ञ से वर्षा होती है। वर्षा से अन्न और अन्न से प्राणी पैदा होते हैं। उन प्राणियों में खेती के लिये बैलों की जरूरत होती है। वे बैल गायों के होते हैं। बैलों से खेती होती है अर्थात् बैलों से हल आदि जोतकर तथा कुएँ आदि के जल से सींचकर खेती की जाती है। खेती से अन्न , वस्त्र आदि निर्वाह की चीजें पैदा होती हैं जिनसे मनुष्य , पशु आदि सभी का जीवननिर्वाह होता है। निर्वाह में भी गाय के घी , दूध हमारे खाने-पीने के काम आते हैं। उन घी-दूध से हमारे शरीर में बल और अन्तःकरण में सात्त्विक भाव बढ़ते हैं। इसी तरह से जितनी जड़ी-बूटियाँ हैं उनमें से सात्त्विक जड़ी-बूटी से कायाकल्प होता है , रोग दूर होता है और शरीर पुष्ट होता है। इसलिये हम लोगों को सात्त्विक पशु , पक्षी , जड़ी-बूटी आदि की विशेष रक्षा करनी चाहिये जिससे हमारे इहलोक और परलोक दोनों सुधर जाएं। दैवो विस्तरशः प्रोक्तः – भगवान कहते हैं कि दैवीसम्पत्ति का मैंने विस्तार से वर्णन कर दिया। इसी अध्याय के पहले श्लोक में नौ , दूसरे श्लोक में ग्यारह और तीसरे श्लोक में छः – इस तरह दैवीसम्पत्ति के कुल छब्बीस लक्षणों का वर्णन किया गया है। इससे पहले भी गुणातीत के लक्षणों में , (14। 22 — 25) ज्ञान के बीस साधनों में (13। 7 — 11) , भक्तों के लक्षणों में (12। 13 — 19) , कर्मयोगी के लक्षणों मे (6। 7 — 9) और स्थितप्रज्ञ के लक्षणों में (2। 55 — 71) दैवीसम्पत्ति का विस्तार से वर्णन हुआ है। आसुरं पार्थ मे श्रृणु – भगवान कहते हैं कि अब तू मुझसे आसुरीसम्पत्ति को विस्तारपूर्वक सुन अर्थात् जो मनुष्य केवल प्राणपोषणपरायण होते हैं उनका स्वभाव कैसा होता है ? यह मेरे से सुन। भगवान से विमुख मनुष्य में आसुरीसम्पत्ति किस क्रम से (टिप्पणी प0 814) आती है ? उसका आगे के श्लोक में वर्णन करते हैं।

 

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