Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16

 

 

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दैवासुरसम्पद्विभागयोग-  सोलहवाँ अध्याय

अथ षोडशोऽध्यायः- दैवासुरसम्पद्विभागयोग

 

आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन

 

 

Shrimad Bhagavad Gita Chapter 16प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः।

न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते॥16.7॥

 

प्रवृत्तिम्-उचित कर्म; च-और; निवृत्तिम्-अनुचित कर्म करना; च-और; जना:-लोग; न-नहीं; विदुः-समझते हैं; आसुराः-आसुरी गुण से युक्त; न-न हीं; शौचम्-पवित्रता; न-न तो; अपि-भी; च-और; आचारः-आचरण; न-न ही; सत्यम्-सत्यता; तेषु-उनमें; विद्यते-होता है।

 

आसुर स्वभाव वाले मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति- इन दोनों को ही नहीं जानते। इसलिए उनमें न तो बाहर की शुद्धि है न भीतर की शुद्धि है, न श्रेष्ठ आचरण है और न ही सत्य भाषण ही है अर्थात वे जो आसुरी गुणों से युक्त होते हैं वे यह नहीं समझ पाते कि उचित और अनुचित कर्म क्या हैं। इसलिए उनमें न तो शारीरिक और मानसिक पवित्रता है , न ही सदाचरण है और न ही उनमें सत्यता पायी जाती है।॥16.7॥

 

प्रवृत्तिं च निवृत्तिं च जना न विदुरासुराः – आजकल के उच्छृङ्खल वातावरण , खान-पान , शिक्षा आदि के प्रभाव से प्रायः मनुष्य प्रवृत्ति और निवृत्ति को अर्थात् किसमें प्रवृत्त होना चाहिये और किससे निवृत्त होना चाहिये – इसको नहीं जानते और जानना चाहते भी नहीं। कोई इसको बताना चाहे तो उसकी मानते नहीं प्रत्युत उसकी हँसी उड़ाते हैं , उसे मूर्ख समझते हैं और अभिमान के कारण अपने को बड़ा बुद्धिमान समझते हैं। कुछ लोग (प्रवृत्ति और निवृत्ति को) जानते भी हैं पर उन पर आसुरीसम्पदा का विशेष प्रभाव होने से उनकी विहित कार्यों में प्रवृत्ति और निषिद्ध कार्यों से निवृत्ति नहीं होती। इस कारण सबसे पहले आसुरीसम्पत्ति आती है – प्रवृत्ति और निवृत्ति को न जानने से प्रवृत्ति और निवृत्ति को कैसे जाना जाय ? इसे गुरु के द्वारा , ग्रन्थ के द्वारा , विचार के द्वारा जाना जा सकता है। इसके अलावा उस मनुष्य पर कोई आफत आ जाय , वह मुसीबत में फँस जाय , कोई विचित्र घटना घट जाय तो विवेकशक्ति जाग्रत् हो जाती है। किसी महापुरुष के दर्शन हो जाने से पूर्वसंस्कारवश मनुष्य की वृत्ति बदल जाती है अथवा जिन स्थानों पर बड़े-बड़े प्रभावशाली सन्त हुए हैं उन स्थलों में , तीर्थों में जाने से भी विवेकशक्ति जाग्रत् हो जाती है। विवेकशक्ति प्राणिमात्र में रहती है परन्तु पशु-पक्षी आदि योनियों में इसको विकसित करने का अवसर , स्थान और योग्यता नहीं है एवं मनुष्य में उसको विकसित करने का अवसर , स्थान और योग्यता भी है। पशु-पक्षी आदि में वह विवेकशक्ति केवल अपने शरीरनिर्वाह तक ही सीमित रहती है पर मनुष्य उस विवेकशक्ति से अपना और अपने परिवार का तथा अन्य प्राणियों का भी पालन-पोषण कर सकता है और दुर्गुण-दुराचारों का त्याग करके सद्गुण-सदाचारों को भी ला सकता है। मनुष्य इसमें सर्वथा स्वतन्त्र है क्योंकि वह साधनयोनि है परन्तु पक्षु-पक्षी इसमें स्वतन्त्र नहीं हैं क्योंकि वह भोगयोनि है। जब मनुष्यों की खाने-पीने आदि में ही विशेष वृत्ति रहती है तब उनमें कर्तव्य-अकर्तव्य का होश नहीं रहता। ऐसे मनुष्यों में पशुओं की तरह दैवीसम्पत्ति छिपी हुई रहती है , सामने नहीं आती। ऐसे मनुष्यों के लिये भी भगवान ने ‘जनाः’ पद दिया है अर्थात् वे भी मनुष्य कहलाने के लायक हैं क्योंकि उनमें दैवीसम्पत्ति प्रकट हो सकती है। विशेष बात- जनाः (16। 7) से लेकर ‘नराधमान्’ (16। 19) पद तक बीच में आये हुए श्लोकों में कहीं भी भगवान ने मनुष्यवाचक शब्द नहीं दिया है। इसका तात्पर्य यह है कि यद्यपि मनुष्य में आसुरीसम्पत्ति का त्याग करने की तथा दैवीसम्पत्ति को धारण करने की योग्यता है तथापि जो मनुष्य होकर भी दैवीसम्पत्ति को धारण न करके आसुरीसम्पत्ति को बनाये रखते हैं वे मनुष्य कहलाने लायक नहीं हैं। वे पशुओं से और नारकीय प्राणियों से भी गये-बीते हैं क्योंकि पशु और नारकीय प्राणी तो पापों का फल भोगकर पवित्रता की तरफ जा रहे हैं और ये आसुर स्वभाव वाले मनुष्य जिस पुण्य से मनुष्यशरीर मिला है उसको नष्ट करके और यहाँ नये-नये पाप बटोरकर पशु-पक्षी आदि योनियों तथा नरकों की तरफ जा रहे हैं। अतः उनकी दुर्गति का वर्णन इसी अध्याय के 16वें और 19वें श्लोकों में किया गया है। भगवान ने आसुर मनुष्यों के जितने लक्षण बताये हैं उनमें उनको पशु आदि का विशेषण न देकर ‘अशुभान्’ , ‘नराधमान्’ विशेषण दिये हैं। कारण यह कि पशु आदि इतने पापी नहीं हैं और उनके दर्शन से पाप भी नहीं लगता पर आसुर मनुष्यों में विशेष पाप होते हैं और उनके दर्शन से पाप लगता है , अपवित्रता आती है। इसी अध्याय के 22वें श्लोक में ‘नरः’ पद देकर यह बताते हैं कि जो काम-क्रोध-लोभ रूप नरक के द्वारों से छूटकर अपने कल्याण का आचरण करता है वही मनुष्य कहलाने लायक है। पाँचवें अध्याय के 23वें श्लोक में भी ‘नरः’ पद से इसी बात को पुष्ट किया गया है। न शौचं नापि चाचारो न सत्यं तेषु विद्यते – प्रवृत्ति और निवृत्ति को न जानने से उन आसुर स्वभाव वालों में शुद्धि-अशुद्धि का खयाल नहीं रहता। उनको सांसारिक बर्ताव का , व्यवहार का भी खयाल नहीं होता अर्थात् माता-पिता आदि बड़े-बूढ़ों के साथ तथा अन्य मनुष्यों के साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये और कैसे नहीं करना चाहिये ? इस बात को वे जानते ही नहीं। उनमें सत्य नहीं होता अर्थात् वे असत्य बोलते हैं और आचरण भी असत्य ही करते हैं। इन सबका तात्पर्य यह है कि वे पुरुष असुर हैं। खाना-पीना , आराम से रहना तथा मैं जीता रहूँ , संसार का सुख भोगता रहूँ और संग्रह करता रहूँ आदि उद्देश्य होने से उनकी शौचाचार और सदाचार की तरफ दृष्टि ही नहीं जाती। भगवान ने दूसरे अध्याय के 44वें श्लोक में बताया है कि वैदिक प्रक्रिया के अनुसार सांसारिक भोग और संग्रह में लगे हुए पुरुषों में भी परमात्मा की प्राप्ति का एक निश्चय नहीं होता। भाव यह है कि आसुरीसम्पदा का अंश रहने के कारण जब ऐसे शास्त्रविधि से यज्ञादि कर्मों में लगे हुए पुरुष भी परमात्मा का एक निश्चय नहीं कर पाते तब जिन पुरुषोंमें आसुरीसम्पदा विशेष बढ़ी हुई है अर्थात् जो अन्यायपूर्वक भोग और संग्रह में लगे हुए हैं उनकी बुद्धि में परमात्मा का एक निश्चय होना कितना कठिन है। (टिप्पणी प0 815) जहाँ सत्कर्मों में प्रवृत्ति नहीं होती वहाँ सद्भावों का भी निरादर होता है अर्थात् सद्भाव दबते चले जाते हैं – अब इसको बताते हैं।

 

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