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मंदोदरीरावण संवाद

 

 

चौपाई :

उहाँ निसाचर रहहिं ससंका।

जब तें जारि गयउ कपि लंका॥

निज निज गृहँ सब करहिं बिचारा।

नहिं निसिचर कुल केर उबारा।1॥

 

वहाँ (लंका में) जब से हनुमान जी लंका को जलाकर गए, तब से राक्षस भयभीत रहने लगे।

अपने-अपने घरों में सब विचार करते हैं कि अब राक्षस कुल की रक्षा (का कोई उपाय) नहीं है॥1॥

 

जासु दूत बल बरनि न जाई।

तेहि आएँ पुर कवन भलाई॥

दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी।

मंदोदरी अधिक अकुलानी॥2॥

 

जिसके दूत का बल वर्णन नहीं किया जा सकता, उसके स्वयं नगर में आने पर कौन भलाई है।

(हम लोगों की बड़ी बुरी दशा होगी)? दूतियों से नगरवासियों के वचन सुनकर मंदोदरी बहुत ही व्याकुल हो गई॥2॥

 

रहसि जोरि कर पति पग लागी।

बोली बचन नीति रस पागी॥

कंत करष हरि सन परिहरहू।

मोर कहा अति हित हियँ धरहू॥3॥

 

वह एकांत में हाथ जोड़कर पति (रावण) के चरणों लगी और नीतिरस में पगी हुई वाणी बोली-

हे प्रियतम! श्री हरि से विरोध छोड़ दीजिए। मेरे कहने को अत्यंत ही हितकर जानकर हृदय में धारण कीजिए॥3॥

 

समुझत जासु दूत कइ करनी।

स्रवहिं गर्भ रजनीचर घरनी॥

तासु नारि निज सचिव बोलाई।

पठवहु कंत जो चहहु भलाई॥4॥

 

जिनके दूत की करनी का विचार करते ही (स्मरण आते ही) राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं।

हे प्यारे स्वामी! यदि भला चाहते हैं, तो अपने मंत्री को बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज दीजिए॥4॥

 

तव कुल कमल बिपिन दुखदाई।

सीता सीत निसा सम आई॥

सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हें।

हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें॥5॥

 

सीता आपके कुल रूपी कमलों के वन को दुःख देने वाली जाड़े की रात्रि के समान आई है।

हे नाथ! सुनिए, सीता को दिए (लौटाए) बिना शम्भु और ब्रह्मा के किए भी आपका भला नहीं हो सकता॥5॥

 

दोहा :

राम बान अहि गन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक॥36॥

 

श्री रामजी के बाण सर्पों के समूह के समान हैं और राक्षसों के समूह मेंढक के समान।

जब तक वे इन्हें ग्रस नहीं लेते (निगल नहीं जाते) तब तक हठ छोड़कर उपाय कर लीजिए॥36॥

 

चौपाई : 

श्रवन सुनी सठ ता करि बानी।

बिहसा जगत बिदित अभिमानी॥

सभय सुभाउ नारि कर साचा।

मंगल महुँ भय मन अति काचा॥1॥

 

मूर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण कानों से उसकी वाणी सुनकर खूब हँसा और बोला-

स्त्रियों का स्वभाव सचमुच ही बहुत डरपोक होता है। मंगल में भी भय करती हो।

तुम्हारा मन (हृदय) बहुत ही कच्चा (कमजोर) है॥1॥

 

जौं आवइ मर्कट कटकाई।

जिअहिं बिचारे निसिचर खाई॥

कंपहिं लोकप जाकीं त्रासा।

तासु नारि सभीत बड़ि हासा॥2॥

 

यदि वानरों की सेना आवेगी तो बेचारे राक्षस उसे खाकर अपना जीवन निर्वाह करेंगे।

लोकपाल भी जिसके डर से काँपते हैं, उसकी स्त्री डरती हो, यह बड़ी हँसी की बात है॥2॥

 

अस कहि बिहसि ताहि उर लाई।

चलेउ सभाँ ममता अधिकाई॥

मंदोदरी हृदयँ कर चिंता।

भयउ कंत पर बिधि बिपरीता॥3॥

 

रावण ने ऐसा कहकर हँसकर उसे हृदय से लगा लिया और ममता बढ़ाकर (अधिक स्नेह दर्शाकर) वह सभा में चला गया।

मंदोदरी हृदय में चिंता करने लगी कि पति पर विधाता प्रतिकूल हो गए॥3॥

 

बैठेउ सभाँ खबरि असि पाई।

सिंधु पार सेना सब आई॥

बूझेसि सचिव उचित मत कहहू।

ते सब हँसे मष्ट करि रहहू॥4॥

 

ज्यों ही वह सभा में जाकर बैठा, उसने ऐसी खबर पाई कि शत्रु की सारी सेना समुद्र के उस पार आ गई है।

उसने मंत्रियों से पूछा कि उचित सलाह कहिए (अब क्या करना चाहिए?)।

तब वे सब हँसे और बोले कि चुप किए रहिए (इसमें सलाह की कौन सी बात है?)॥4॥

 

जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं।

नर बानर केहि लेखे माहीं॥5॥

 

आपने देवताओं और राक्षसों को जीत लिया, तब तो कुछ श्रम ही नहीं हुआ। फिर मनुष्य और वानर किस गिनती में हैं?॥5॥

 

 

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