कर्मयोग ~ अध्याय तीन
09-16 यज्ञादि कर्मों की आवश्यकता तथा यज्ञ की महिमा का वर्णन
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥3 .10॥
सह-के साथ; यज्ञाः-यज्ञों; प्रजाः-मानव जाति; सृष्ट्वा-सृजन करना; पुरा–आरम्भ में; उवाच-कहा; प्रजापतिः-ब्रह्मा; अनेन-इससे; प्रसविष्यध्वम्-अधिक समृद्ध होना; एषः-इन; वः-तुम्हारा; अस्तु-होगा; इष्टकामधुक-सभी वांछित पदार्थं प्रदान करने वाला;।
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा ने मानव जाति को उनके नियत कर्तव्यों सहित जन्म दिया और कहा “इन यज्ञों का धूम-धाम से अनुष्ठान करने पर तुम्हें सुख समृद्धि प्राप्त होगी और इनसे तुम्हें सभी वांछित वस्तुएँ प्राप्त होंगी ” ।।3 .10।।
( प्रजापति ब्रह्माजी ने सृष्टि या कल्प के आदि काल में कर्तव्य-कर्मों के विधान सहित प्रजा-( मनुष्य आदि ) की रचना करके उनसे (प्रधानतया मनुष्यों से) कहा कि तुम लोग इस यज्ञ ( कर्तव्य ) के द्वारा वृद्धि को प्राप्त करो और वह कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ तुम लोगों को कर्तव्य-पालन की आवश्यक सामग्री और इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो।)
( “सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः ” ब्रह्माजी प्रजा (सृष्टि) के रचयिता एवं उसके स्वामी हैं अतः अपने कर्तव्य का पालन करने के साथ वे प्रजा की रक्षा तथा उसके कल्याण का विचार करते रहते हैं। कारण कि जो जिसे उत्पन्न करता है उसकी रक्षा करना उसका कर्तव्य हो जाता है। ब्रह्माजी प्रजा की रचना करते उसकी रक्षा में तत्पर रहते तथा सदा उसके हित की बात सोचते हैं। इसलिये वे प्रजापति कहलाते हैं। सृष्टि अर्थात् सर्ग के आरम्भ में ब्रह्माजी ने कर्तव्यकर्मों की योग्यता और विवेकसहित मनुष्यों की रचना की है (टिप्पणी प0 128)। अनुकूल और प्रतिकूल परिस्थिति का सदुपयोग कल्याण करने वाला है। इसलिये ब्रह्माजी ने अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिका सदुपयोग करने का विवेक साथ देकर ही मनुष्यों की रचना की है। सत असत का विचार करने में पशु , पक्षी , वृक्ष आदि के द्वारा स्वाभाविक परोपकार (कर्तव्यपालन) होता है किन्तु मनुष्य को तो भगवत्कृपा से विशेष विवेक-शक्ति मिली हुई है। अतः यदि वह अपने विवेक को महत्त्व देकर अकर्तव्य न करे तो उसके द्वारा भी स्वाभाविक लोकहितार्थ कर्म हो सकते हैं। देवता , ऋषि , पितर , मनुष्य तथा अन्य पशु , पक्षी , वृक्ष आदि सभी प्राणी प्रजा हैं। इनमें भी योग्यता अधिकार और साधन की विशेषता के कारण मनुष्य पर अन्य सब प्राणियों के पालन की जिम्मेवारी है। अतः यहाँ “प्रजाः “पद विशेषरूप से मनुष्यों के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। कर्मयोग अनादिकाल से चला आ रहा है। चौथे अध्याय के तीसरे श्लोक में “पुरातनः” पद से भी भगवान् कहते हैं कि यह कर्मयोग बहुत काल से प्रायः लुप्त हो गया था जिसको मैंने तुम्हें फिर से कहा है। उसी बात को यहाँ भी “पुरा ” पद से वे दूसरी रीति से कहते हैं कि मैंने ही नहीं बल्कि ब्रह्माजी ने भी सर्ग के आदिकाल में कर्तव्यसहित प्रजा को रचकर उनको उसी कर्मयोग का आचरण करने की आज्ञा दी थी। तात्पर्य यह है कि कर्मयोग ( निःस्वार्थभाव से कर्तव्यकर्म करने ) की परम्परा अनादिकाल से ही चली आ रही है। यह कोई नयी बात नहीं है। चौथे अध्याय में (24से 30वें श्लोक तक) परमात्मप्राप्ति के जितने साधन बताये गये हैं वे सभी यज्ञ के नाम से कहे गये हैं जैसे – द्रव्ययज्ञ , तपयज्ञ , योगयज्ञ , प्राणायाम आदि। प्रायः यज्ञ शब्द का अर्थ हवन से सम्बन्ध रखने वाली क्रिया के लिये ही प्रसिद्ध है परन्तु गीता में यज्ञ शब्द शास्त्रविधि से की जाने वाली सम्पूर्ण विहित क्रियाओं का वाचक भी है। अपने वर्ण , आश्रम , धर्म , जाति , स्वभाव , देश , काल आदि के अनुसार प्राप्त कर्तव्यकर्म यज्ञ के अन्तर्गत आते हैं। दूसरे के हित की भावना से किये जाने वाले सब कर्म भी यज्ञ ही हैं। ऐसे यज्ञ (कर्तव्य) का दायित्व मनुष्य पर ही है। “अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्” (टिप्पणी प0 129.1) ब्रह्माजी मनुष्यों से कहते हैं कि तुम लोग अपने-अपने कर्तव्यपालन के द्वारा सबकी वृद्धि करो , उन्नति करो । ऐसा करने से तुम लोगों को कर्तव्यकर्म करने में उपयोगी सामग्री प्राप्त होती रहे उसकी कभी कमी न रहे। अर्जुन की कर्म न करने में जो रुचि थी उसे दूर करने के लिये भगवान् कहते हैं कि प्रजापति ब्रह्माजी के वचनों से भी तुम्हें कर्तव्यकर्म करने की शिक्षा लेनी चाहिये। दूसरों के हित के लिये कर्तव्यकर्म करने से ही तुम्हारी लौकिक और पारलौकिक उन्नति हो सकती है। निष्कामभाव से केवल कर्तव्यपालन के विचार से कर्म करने पर मनुष्य मुक्त हो जाता है और सकामभाव से कर्म करने पर मनुष्य बन्धन में पड़ जाता है। प्रस्तुत प्रकरण में निष्कामभाव से किये जाने वाले कर्तव्य कर्म का विवेचन चल रहा है। अतः यहाँ “इष्टकाम ” पद का अर्थ इच्छित भोगसामग्री (जो सकामभाव का सूचक है ) लेना उचित प्रतीत नहीं होता। यहाँ इस पद का अर्थ है यज्ञ (कर्तव्यकर्म) करने की आवश्यक सामग्री (टिप्पणी प0 129.2)। कर्मयोगी दूसरों की सेवा अथवा हित करने के लिये सदा ही तत्पर रहता है। इसलिये प्रजापति ब्रह्माजी के विधान के अनुसार दूसरों की सेवा करने की सामग्री , सामर्थ्य और शरीरनिर्वाह की आवश्यक वस्तुओं की उसे कभी कमी नहीं रहती। उसको ये उपयोगी वस्तुएँ सुगमतापूर्वक मिलती रहती हैं। ब्रह्माजी के विधान के अनुसार कर्तव्यकर्म करने की सामग्री जिस-जिस को जो-जो भी मिली हुई है वह कर्तव्यपालन करने के लिये उस-उस को पूरी की पूरी प्राप्त है। कर्तव्यपालन की सामग्री कभी किसी के पास अधूरी नहीं होती। ब्रह्माजी के विधान में कभी फरक नहीं पड़ सकता क्योंकि जब उन्होंने कर्तव्यकर्म करने का विधान निश्चित किया है तब जितने से कर्तव्य का पालन हो सके उतनी सामग्री देना भी उन्हीं पर निर्भर है। वास्तव में मनुष्य शरीर भोग भोगने के लिये है ही नहीं – “एहि तन कर फल बिषय न भाई ” (मानस 7। 44। 1)। इसीलिये सांसारिक सुखों को भोगो , ऐसी आज्ञा या विधान किसी भी सत्शास्त्र में नहीं है। समाज भी स्वच्छन्द भोग भोगने की आज्ञा नहीं देता। इसके विपरीत दूसरों को सुख पहुँचाने की आज्ञा या विधान शास्त्र और समाज दोनों ही देते हैं। जैसे पिता के लिये यह विधान तो मिलता है कि वह पुत्र का पालन-पोषण करे पर यह विधान कहीं भी नहीं मिलता कि पुत्र से पिता सेवा ले ही। इसी प्रकार पुत्र , पत्नी आदि अन्य सम्बन्धों के लिये भी समझना चाहिये। कर्मयोगी सदा देने का ही भाव रखता है लेने का नहीं क्योंकि लेने का भाव ही बाँधनेवाला है। लेने का भाव रखने से कल्याण-प्राप्ति में बाधा लगने के साथ ही सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति में भी बाधा उपस्थित हो जाती है। प्रायः सभी का अनुभव है कि संसार में लेने का भाव रखने वाले को कोई देना नहीं चाहता। इसलिये ब्रह्माजी कहते हैं कि बिना कुछ चाहे निःस्वार्थ-भाव से कर्तव्य-कर्म करने से ही मनुष्य अपनी उन्नति (कल्याण) कर सकता है – स्वामी रामसुखदास जी )