Chapter 3 Bhagavad Gita Karm Yog

 

 

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कर्मयोग ~ अध्याय तीन

01-08 ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता

 

 

Chapter 3 Bhagavad Gita Karma Yog

 

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः।।3.8।।

 

नियतं – निर्धारित; कुरु-निष्पादन; कर्म-वैदिक कर्तव्य; त्वं-तुम; कर्म-कर्म करना; ज्यायः-श्रेष्ठ; हि-निश्चय ही; अकर्मणः-निष्क्रिय रहने की अपेक्षा; शरीर-शरीर का; यात्रा-पालन पोषण; अपि-भी; च-भी; ते – तुम्हारा; प्रसिद्धयेत्-संभव न होना; अकर्मण:-निष्क्रिय।

 

इसलिए तुम्हें शास्त्रविधि से नियत किये हुए निर्धारित वैदिक कर्म करने चाहिए क्योंकि निष्क्रिय रहने की अपेक्षा अर्थात कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है। कर्म का त्याग करने से तुम्हारे शरीर का भरण पोषण ( शरीर-निर्वाह ) संभव नहीं होगा ।।3.8।।

 

( ” नियतं कुरु कर्म त्वम् ” शास्त्रों में विहित तथा नियत दो प्रकार के कर्मों को करने की आज्ञा दी गयी है। विहित कर्म का तात्पर्य है सामान्य रूप से शास्त्रों में बताया हुआ आज्ञारूप कर्म जैसे व्रत , उपवास , उपासना आदि। इन विहित कर्मों को सम्पूर्ण रूप से करना एक व्यक्ति के लिये कठिन है परन्तु निषिद्ध कर्मों का त्याग करना सुगम या आसान है। विहित कर्म को न कर सकने में उतना दोष नहीं है जितना निषिद्ध कर्म का त्याग करने में लाभ है जैसे झूठ न बोलना , चोरी न करना , हिंसा न करना इत्यादि। निषिद्ध कर्मों का त्याग होने से विहित कर्म स्वतः होने लगते हैं। नियतकर्म का तात्पर्य है वर्ण आश्रम , स्वभाव एवं परिस्थिति के अनुसार प्राप्त कर्तव्यकर्म जैसे भोजन करना , व्यापार करना , मकान बनवाना , मार्ग भूले हुए व्यक्ति को मार्ग दिखाना आदि। कर्मयोग की दृष्टि से जो वर्णधर्मानुकूल शास्त्रविहित कर्तव्यकर्म प्राप्त हो जाय वह चाहे घोर हो या सौम्य नियतकर्म ही है। यहाँ ” नियतं कुरु कर्म ” पदों से भगवान् अर्जुन से यह कहते हैं कि क्षत्रिय होने के नाते अपने वर्णधर्म के अनुसार परिस्थिति से प्राप्त युद्ध करना तेरा स्वाभाविक कर्म है (गीता 18। 43)। क्षत्रिय के लिये युद्धरूप हिंसात्मक कर्म घोर दिखते हुए भी वस्तुतः घोर नहीं है बल्कि उसके लिये वह नियतकर्म ही है। दूसरे अध्याय में भगवान ने कहा है कि स्वधर्म की दृष्टि से भी युद्ध करना तेरे लिये नियतकर्म है । “स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ” (2। 31)। वास्तव में तो स्वधर्म और नियतकर्म दोनों एक ही हैं। यद्यपि दुर्योधन आदि के लिये भी युद्ध वर्णधर्म के अनुसार प्राप्त कर्म है तथापि वह अन्याययुक्त होने के कारण नियतकर्म से अलग है क्योंकि वे युद्ध करके अन्यायपूर्वक राज्य छीनना चाहते हैं। अतः उनके लिये यह युद्ध नियत तथा धर्मयुक्त कर्म नहीं है। “कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ” इसी अध्याय के पहले श्लोक में (अर्जुन के प्रश्न में) आये हुए ज्यायसी पद का उत्तर भगवान् यहाँ ज्यायः पद से ही दे रहे हैं। वहाँ अर्जुन का प्रश्न है कि यदि आपको कर्म की अपेक्षा ज्ञान श्रेष्ठ मान्य है तो मुझे घोर कर्म में क्यों लगाते हैं ? इसके उत्तर में यहाँ भगवान् कहते हैं कि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना ही मुझे श्रेष्ठ मान्य है। इस प्रकार अर्जुन का विचार युद्धरूप घोर कर्म से निवृत्त होने का है और भगवान का विचार अर्जुन को युद्धरूप नियतकर्म में प्रवृत्त कराने का है। इसीलिये आगे अठारहवें अध्याय में भगवान् कहते हैं कि दोषयुक्त होने पर भी सहज (नियत) कर्म का त्याग नहीं करना चाहिये । “सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् ” (18। 48)। कारण कि इसके त्याग से दोष लगता है एवं कर्मों के साथ अपना सम्बन्ध भी बना रहता है। अतः कर्म का त्याग करने की अपेक्षा नियतकर्म करना ही श्रेष्ठ है। फिर आसक्तिरहित होकर कर्म करना तो और भी श्रेष्ठ माना गया है क्योंकि इससे कर्मों के साथ सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। अतः भगवान् इस श्लोक के पूर्वार्ध में अर्जुन को अनासक्तभाव से नियतकर्म करने की आज्ञा देते हैं और उत्तरार्ध में कहते हैं कि कर्म किये बिना तेरा जीवननिर्वाह भी नहीं होगा। कर्मयोग में “कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः” यह भगवान का प्रधान सिद्धान्त है। इसी को भगवान ने “मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि” (गीता 2। 47) पदों से स्पष्ट किया है कि अर्जुन तेरी कर्म न करने में आसक्ति न हो। कारण यह है कि कर्तव्यकर्मों से जी चुराने वाला मनुष्य प्रमाद , आलस्य और निद्रा में अपना अमूल्य समय नष्ट कर देगा अथवा शास्त्रनिषिद्ध कर्म करेगा जिससे उसका पतन होगा। स्वरूप से कर्मों का त्याग करने की अपेक्षा कर्म करते हुए ही कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद करना श्रेष्ठ है। कारण कि कामना , वासना , फलासक्ति , पक्षपात आदि ही कर्मों से सम्बध जोड़ देते हैं चाहे मनुष्य कर्म करे अथवा न करे। कामना आदि के त्याग का उद्देश्य रखकर कर्मयोग का आचरण करने से कामना आदि का त्याग बड़ी सुगमता से हो जाता है। “शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्ध्येदकर्मणः ” अर्जुन के मन में ऐसा भाव उत्पन्न हो गया था कि अगर कर्म ही न करें तो कर्मों से स्वतः सम्बन्ध-विच्छेद हो जायगा। इसलिये भगवान् नाना प्रकार की युक्तियों द्वारा उनको कर्म करने के लिये प्रेरित करते हैं। उन्हीं युक्तियों में से एक इस युक्ति का वर्णन करते हुए भगवान् कहते हैं कि अर्जुन तुम्हें कर्म तो करने ही पड़ेंगे। अन्य की तो बात ही क्या है कर्म किये बिना तेरा शरीर निर्वाह (खाना-पीना आदि) भी असम्भव हो जायगा। जैसे ज्ञानयोग में विवेक के द्वारा, संसार से सम्बन्ध-विच्छेद होता है ऐसे ही कर्मयोग में कर्तव्य-कर्म का ठीक-ठीक अनुष्ठान करने से संसार से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है। अतः ज्ञानयोग की अपेक्षा कर्मयोग को किसी भी प्रकार से कम नहीं मानना चाहिये। कर्मयोगी शरीर को संसार का ही मानकर उसको संसार की ही सेवा में लगा देता है अर्थात् शरीर में उसका कोई अपनापन नहीं रहता। वह स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीर की एकता क्रमशः स्थूल , सूक्ष्म और कारण संसार से करता है जबकि ज्ञानयोगी अपनी एकता ब्रह्म से करता है। इस प्रकार कर्मयोगी जडतत्त्व की एकता करता है और ज्ञानयोगी चेतनतत्त्व की एकता करता है। साधन सम्बन्धी मार्मिक बात – अर्जुन की कर्मों से अरुचि है अर्थात् उनके मन में कर्म न करने का आग्रह है। केवल अर्जुन की ही बात नहीं है बल्कि पारमार्थिक मार्ग के अन्य साधक भी प्रायः इस विषय में ऐसी ही बड़ी भूल करते हैं। यद्यपि उनकी इच्छा साधन करने की रहती है और साधन करते भी हैं तथापि वे अपनी मनचाही परिस्थिति , अनुकूलता और सुखबुद्धि भी साथ में रखते हैं जो उसके साधन में महान् बाधक होती है। जो साधक तत्त्वप्राप्ति में सुगमता ढूँढ़ता है और उसे शीघ्र प्राप्त करना चाहता है वह वास्तव में सुख का रागी है न कि साधन का प्रेमी। जो सुगमता से तत्त्वप्राप्ति चाहता है उसे कठिनता सहनी पड़ती है और जो शीघ्रता से तत्त्वप्राप्ति चाहता है उसे विलम्ब सहना पड़ता है। कारण कि सुगमता और शीघ्रता की इच्छा करने  से साधककी दृष्टि साधन पर न रहकर फल पर चली जाती है जिससे साधन में उकताहट प्रतीत होती है और साध्य की प्राप्ति में विलम्ब भी होता है। जिसका यह दृढ़ निश्चय या उद्देश्य है कि चाहे जैसे भी हो मुझे तत्त्व की प्राप्ति होनी ही चाहिये उसकी दृष्टि सुगमता और शीघ्रता पर नहीं जाती। तत्परता के साथ कार्य में लगा हुआ मनस्वी व्यक्ति जब अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिये कमर कसकर लग जाता है तब वह सुख और दुःख की ओर नहीं देखता – मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दुःखं न च सुखम् (भर्तृहरिनीतिशतक)। साधक की तो बात ही क्या है एक साधारण लोभी मनुष्य ही दुःख की ओर नहीं देखता। प्रायः देखा जाता है कि पसीना आ रहा है , भूख-प्यास लगी है अथवा शौच जाने की आवश्यकता जान पड़ती है फिर भी यदि माल की विशेष बिक्री हो रही है तथा पैसे आ रहे हैं तो वह लोभी व्यापारी सब कष्ट सह लेता है। ठीक लोभी व्यक्ति की तरह साधक की साध्य में निष्ठा होनी चाहिये। उसे साध्य की प्राप्ति के बिना चैन से न रहा जाय , जीवन भारस्वरूप प्रतीत होने लगे , खाना-पीना , आराम आदि कुछ भी अच्छा न लगे और हृदय में साधन का आदर और तत्परता रहे , साध्य को प्राप्ति करने की उत्कण्ठा होने पर देरी तो असह्य होती है पर वह जल्दी प्राप्त हो जाय यह इच्छा नहीं होती। उत्कण्ठा दूसरी बात है एवं शीघ्र मिलने की इच्छा दूसरी बात। आसक्तिपूर्वक साधन करने वाला साधक साधन में सुख-भोग करता है और उसमें विलम्ब या बाधा लगने से उसे क्रोध आता है एवं वह साधन में दोषदृष्टि करता है परन्तु आदर और प्रेमपूर्वक साधन करने वाला साधक साधन में विलम्ब या बाधा लगने पर आर्तभाव से रोने लगता है और उसकी उत्कण्ठा और तेजी से बढ़ती है। यही शीघ्रता और उत्कण्ठा में अन्तर है। शीघ्रता में साधक का सुख-सुविधा का भाव रहता है कि तत्त्वप्राप्ति शीघ्र हो जाय तो बाद में आराम करेंगे । इस प्रकार फल की ओर दृष्टि रहने से साधन का आदर कम हो जाता है परन्तु उत्कण्ठा में साधक अपने साधन में ही आराम मानता है कि साधन के सिवाय और करना ही क्या है , इससे बढ़िया और काम ही क्या है जिसे करें । अतः यही काम (साधन) करना है चाहे सुगमता से हो या कठिनता से , शीघ्रता से हो या देरी से। इसलिये उसकी पूरी शक्ति साधन में लग जाती है जिससे उसको शीघ्रता से तत्त्वप्राप्ति हो जाती है परन्तु शीघ्रता से सिद्धि चाहने वाला साधक साध्य की प्राप्ति में देरी होने पर निराश भी हो सकता है। अतः साधक को साध्य से भी अधिक आदर साधन को देना चाहिये जैसा कि माता पार्वती ने कहा है ” जन्म कोटि लगि रगर हमारी। बरउँ संभु न त रहउँ कुआरी।।तजउँ न नारद कर उपदेसू। आपु कहहिं सत बार महेसू।।” (मानस 1। 81। 5) माता पार्वती के भावों में शीघ्रता नहीं है। इनमें तो साधन को साध्य से भी अधिक आदर दिया गया है। प्रस्तुत श्लोक में भगवान् अर्जुन को निमित्त बनाकर साधकों को सावधान करते हैं कि उन्हें अपनी अनुकूलता तथा सुखबुद्धि (जो कि साधन में मूल बाधा है) का त्याग करके कर्तव्यकर्मों को करने में बड़ी तत्परता से लग जाना चाहिये। पीछे के श्लोक में भगवान ने कर्म किये बिना शरीर-निर्वाह भी नहीं होने की बात कही। इससे सिद्ध होता है कि कर्म करना बहुत आवश्यक है परन्तु कर्म करने से तो मनुष्य बँधता है । “कर्मणा बध्यते जन्तुः ” तो फिर मनुष्य को बन्धन से छूटने के लिये क्या करना चाहिये इसको भगवान् आगे के श्लोक में बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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