कर्मयोग ~ अध्याय तीन
17-24 ज्ञानवानऔर भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥3 .22॥
न-नहीं; मे–मुझे; पार्थ-पृथापुत्र अर्जुन; अस्ति-है; कर्तव्यम्-निर्धारित कर्त्तव्य; त्रिषु तीनों में; लोकेषु-लोकों में; किञ्चन-कोई; न-कुछ नहीं; अनवाप्तम्-अप्राप्त; अवाप्तव्यम्-प्राप्त करने योग्य ; वर्त-संलग्न रहते हैं; एव-निश्चय ही; च–भी; कर्मणि-नियत कर्त्तव्य।
हे पार्थ! तीनों लोकों में मेरे लिए न तो कोई कर्म निश्चित है अर्थात न तो कुछ कर्त्तव्य है , न ही मुझे किसी पदार्थ का अभाव है अर्थात न कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है और न ही मुझ में कुछ पाने की अपेक्षा है फिर भी मैं निश्चित कर्म करता हूँ अर्थात अपने कर्तव्य-कर्म में ही लगा रहता हूँ ।।3.22।।
“न मे पार्थास्ति ৷৷ नानवाप्तमवाप्तव्यम् ” भगवान किसी एक लोक में सीमित नहीं है। इसलिये वे तीनों लोकों में अपना कोई कर्तव्य न होने की बात कह रहे हैं।भगवान के लिये त्रिलोकी में कोई भी कर्तव्य शेष नहीं है क्योंकि उनके लिये कुछ भी पाना शेष नहीं है।कुछ न कुछ पाने के लिये ही सब (मनुष्य , पशु , पक्षी आदि) कर्म करते हैं। भगवान कह रहे हैं कि कुछ भी करना और पाना शेष न होने पर भी मैं कर्म करता हूँ। अपने लिये कोई कर्तव्य न होने पर भी भगवान केवल दूसरों के हित के लिये अवतार लेते हैं और साधु पुरुषों का उद्धार , पापी पुरुषों का विनाश तथा धर्म की संस्थापना करने के लिये कर्म करते हैं (गीता 4। 8)। अवतार के सिवाय भगवान की सृष्टि रचना भी जीवमात्र के उद्धार के लिये ही होती है। स्वर्गलोक पुण्यकर्मों का फल भुगताने के लिये है और चौरासी लाख योनियाँ एवं नरक पापकर्मों का फल भुगताने के लिये हैं। मनुष्ययोनि पुण्य और पाप दोनों से ऊँचे उठकर अपना कल्याण करने के लिये है। ऐसा तभी सम्भव है जब मनुष्य अपने लिये कुछ न करे। वह सम्पूर्ण कर्म स्थूल शरीर से होने वाली क्रिया , सूक्ष्म शरीर से होने वाला चिन्तन और कारण शरीर से होने वाली स्थिरता केवल दूसरों के हित के लिये ही करे अपने लिये नहीं। कारण कि जिनसे सब कर्म किये जाते हैं वे स्थूल , सूक्ष्म और कारण तीनों ही शरीर संसार के हैं अपने नहीं। इसलिये कर्मयोगी शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , पदार्थ आदि सम्पूर्ण सामग्री को (जो वास्तव में संसार की ही है) संसार की ही मानता है और उसे संसार की सेवा में लगाता है। अगर मनुष्य संसार की वस्तु को संसार की सेवा में न लगाकर अपने सुखभोग में लगाता है तो बड़ी भारी भूल करता है। संसार की वस्तु को अपनी मान लेने से ही फल की इच्छा होती है और फलप्राप्ति के लिये कर्म होता है। इस तरह जब तक मनुष्य कुछ पाने की इच्छा से कर्म करता है तब तक उसके लिये कर्तव्य अर्थात् करना शेष रहता है। गम्भीरतापूर्वक विचार किया जाय तो मालूम होता है कि मनुष्यमात्र का अपने लिये कोई कर्तव्य है ही नहीं। कारण कि प्रापणीय वस्तु (परमात्मतत्त्व) नित्यप्राप्त है और स्वयं (स्वरूप) भी नित्य है जबकि कर्म और कर्मफल अनित्य अर्थात् उत्पन्न एवं नष्ट होनेवाला है। अनित्य (कर्म और फल ) का सम्बन्ध नित्य (स्वयं ) के साथ हो ही कैसे सकता है ? कर्म का सम्बन्ध पर (शरीर और संसार ) से है स्व से नहीं। कर्म सदैव पर के द्वारा और पर के लिये ही होता है। इसलिये अपने लिये कुछ करना है ही नहीं। जब मनुष्यमात्र के लिये कोई कर्तव्य नहीं है तब भगवान के लिये कोई कर्तव्य हो ही कैसे सकता है ? कर्मयोग से सिद्ध हुए महापुरुष के लिये भगवान ने इसी अध्याय के 17वें और 18वें श्लोकों में कहा है कि उस महापुरुष के लिये कोई कर्तव्य नहीं है क्योंकि उसकी रति , तृप्ति और संतुष्टि अपने-आप में ही होती है। इसलिये उसे संसार में करने अथवा न करने से कोई प्रयोजन नहीं रहता तथा उसका किसी भी प्राणी से किञ्चिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता। ऐसा होने पर भी वह महापुरुष लोकसंग्रहार्थ कर्म करता है। इसी प्रकार यहाँ भगवान अपने लिये कहते हैं कि कोई भी कर्तव्य न होने तथा कुछ भी पाना बाकी न होने पर भी मैं लोकसंग्रहार्थ कर्म करता हूँ। तात्पर्य है कि तत्त्वज्ञ महापुरुष की भगवान के साथ एकता होती है । “मम साधर्म्यमागताः” (गीता 14। 2)। जैसे भगवान त्रिलोकी में आदर्श पुरुष हैं (गीता 3। 23 4। 11) ऐसे ही संसार में तत्त्वज्ञ पुरुष भी आदर्श हैं (गीता 3। 25)। “वर्त एव च कर्मणि यहाँ एव पद से भगवान का तात्पर्य है कि मैं उत्साह एवं तत्परता से आलस्यरहित होकर सावधानीपूर्वक साङ्गोपाङ्ग कर्तव्यकर्मों को करता हूँ। कर्मों का न त्याग करता हूँ न उपेक्षा।जैसे इंजन के पहियों के चलने से इंजन से जुड़े हुए डिब्बे भी चलते रहते हैं ऐसे ही भगवान् और सन्तमहापुरुष (जिनमें करने और पाने की इच्छा नहीं है) इंजन के समान कर्तव्यकर्म करते हैं जिससे अन्य मनुष्य भी उन्हीं का अनुसरण करते हैं। अन्य मनुष्यों में करने और पाने की इच्छा रहती है। ये इच्छाएँ निष्कामभावपूर्वक कर्तव्य कर्म करने से ही दूर होती हैं। यदि भगवान् और सन्त महापुरुष कर्तव्यकर्म न करें तो दूसरे मनुष्य भी कर्तव्यकर्म नहीं करेंगे जिससे उनमें प्रमाद और आलस्य आ जायगा और वे अकर्तव्य करने लग जायँगे फिर उन मनुष्यों की इच्छाएँ कैसे मिटेंगी इसलिये सम्पूर्ण मनुष्यों के हित के लिये भगवान और सन्त महापुरुषों के द्वारा स्वाभाविक ही कर्तव्यकर्म होते हैं। भगवान सदैव कर्तव्यपरायण रहते हैं कभी कर्तव्यच्युत नहीं होते। अतः भगवत्परायण साधक को भी कभी कर्तव्यच्युत नहीं होना चाहिये। कर्तव्यच्युत होने से ही वह भगवत्तत्त्व के अनुभव से वञ्चित रहता है। नित्य कर्तव्यपरायण रहने से साधक को भगवत् तत्व का अनुभव सुगमतापूर्वक हो सकता है- स्वामी रामसुखदास जी