कर्मयोग ~ अध्याय तीन
17-24 ज्ञानवानऔर भगवान के लिए भी लोकसंग्रहार्थ कर्मों की आवश्यकता
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥3 .23॥
यदि – यदि; हि-निश्चय ही; अहम्–मैं; न-नहीं; वर्तेयम्-इस प्रकार संलग्न रहता हूँ; जातु-सदैव; कर्मणि-नियत कर्मों के निष्पादन में; अतन्द्रितः सावधानी से; मम-मेरा; वर्त्म- मार्ग का; अनुवर्तन्ते–अनुसरण करेंगे; मनुष्या:-सभी मनुष्य; पार्थ-पृथापुत्र, अर्जुन; सर्वश:-सभी प्रकार से।
यदि मैं सावधानी पूर्वक नियत कर्त्तव्य कर्म नहीं करता या नियत कर्मों के निष्पादन में इस प्रकार संलग्न न रहूँ तो हे पार्थ! सभी लोगों ने निश्चित रूप से सभी प्रकार से मेरे मार्ग का ही अनुसरण किया होता।।3 .23।।
(22वें श्लोक में भगवान ने अन्वयरीति से कर्तव्यपालन की आवश्यकता का प्रतिपादन किया और इन श्लोकों में भगवान व्यतिरेकरीति से कर्तव्यपालन न करने से होने वाली हानि का प्रतिपादन करते हैं। “यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः” पूर्वश्लोक में आये “वर्त एव च कर्मणि” पदों की पुष्टि के लिये यहाँ “हि ” पद आया है। भगवान कहते हैं कि मैं सावधानीपूर्वक कर्म न करूँ ऐसा हो ही नहीं सकता परन्तु यदि ऐसा मान लें कि मैं कर्म न करूँ इस अर्थ में भगवान ने यहाँ यदि जातु पदों का प्रयोग किया है। “अतन्द्रितः” पद का तात्पर्य यह है कि कर्तव्यकर्म करने में आलस्य और प्रमाद नहीं करना चाहिये अपितु उन्हें बहुत सावधानी और तत्परता से करना चाहिये। सावधानीपूर्वक कर्तव्यकर्म न करने से मनुष्य आलस्य और प्रमाद के वश में होकर अपना अमूल्य जीवन नष्ट कर देता है। कर्मों में शिथिलता (आलस्य-प्रमाद) न लाकर उन्हें सावधानी एवं तत्परतापूर्वक करने से ही कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद होता है। जैसे वृक्ष की कड़ी टहनी जल्दी टूट जाती है पर जो अधूरी टूटने के कारण लटक रही है ऐसी शिथिल (ढीली) टहनी जल्दी नहीं टूटती , ऐसे ही सावधानी एवं तत्परतापूर्वक कर्म करने से कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है पर आलस्यप्रमादपूर्वक (शिथिलतापूर्वक) कर्म करने से कर्मों से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं होता। इसीलिये भगवान ने 19वें श्लोक में ‘समाचर ‘ पद का तथा इस श्लोक में ‘अतन्द्रितः’ पद का प्रयोग किया है। अगर किसी कर्म की बार-बार याद आती है तो यही समझना चाहिये कि कर्म करने में कोई त्रुटि (कामना , आसक्ति , अपूर्णता , आलस्य , प्रमाद , उपेक्षा आदि) हुई है जिसके कारण उस कर्म से सम्बन्ध-विच्छेद नहीं हुआ है। कर्म से सम्बन्ध-विच्छेद न होने के कारण ही किये गये कर्म की याद आती है। “मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः” इन पदों से भगवान मानो यह कहते हैं कि मेरे मार्ग का अनुसरण करने वाले ही वास्तव में मनुष्य कहलाने योग्य हैं। जो मुझे आदर्श न मानकर आलस्यप्रमादवश कर्तव्यकर्म नहीं करते और अधिकार चाहते हैं , वे आकृति से मनुष्य होने पर भी वास्तव में मनुष्य कहलाने योग्य नहीं हैं। इसी अध्याय के 21वें श्लोक में भगवान् ने कहा था कि श्रेष्ठ पुरुष के आचरण और प्रमाण के अनुसार सब मनुष्य उनका अनुसरण करते हैं और इस श्लोक में भगवान कहते हैं कि मनुष्य सब प्रकार से मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि श्रेष्ठ पुरुष तो एक ही लोक (मनुष्यलोक) में आदर्श पुरुष हैं पर मैं तीनों ही लोकों में आदर्श पुरुष हूँ। मनुष्य को संसार में कैसे रहना चाहिये यह बताने के लिये भगवान मनुष्य लोक में अवतरित होते हैं। संसार में अपने लिये रहना ही नहीं है यही संसार में रहने की विद्या है। संसार वस्तुतः एक विद्यालय है जहाँ हमें कामना , ममता , स्वार्थ आदि के त्यागपूर्वक दूसरों के हित के लिये कर्म करना सीखना है और उसके अनुसार कर्म करके अपना उद्धार करना है। संसार के सभी सम्बन्धी एक दूसरे की सेवा (हित) करने के लिये ही हैं। इसीलिये पिता , पुत्र , पति , पत्नी , भाई , बहन आदि सबको चाहिये कि वे एक-दूसरे के अधिकार की रक्षा करते हुए अपने-अपने कर्तव्य पालन करें और एक दूसरे के कल्याण की चेष्टा करें- स्वामी रामसुखदास जी )