Chapter 3 Bhagavad Gita Karm Yog

 

 

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कर्मयोग ~ अध्याय तीन

25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा

 

 

The Bhagavad Gita Chapter 3

इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ॥3 .34।।

 

इन्द्रियस्य – इन्द्रिय का; इन्द्रियस्य अर्थ — इन्द्रियों के विषयों में; राग-आसक्ति; द्वेषौ-विमुखता; व्यस्थितौ- स्थित; तयोः-उनके; न – कभी नहीं; वशम् – नियंत्रित करना; आगच्छेत्—आना चाहिए; तौ-उन्हें; हि-निश्चय ही; अस्य-उसके लिए; परिपन्थिनौ – शत्रु।

 

इन्द्रियों का इन्द्रिय विषयों के साथ स्वाभाविक रूप से राग ( आसक्ति ) और द्वेष ( विमुखता ) होता है किन्तु मनुष्य को इनके वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म कल्याण के मार्ग के अवरोधक और शत्रु हैं॥3 .34॥

 

 (” इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ ” प्रत्येक इन्द्रिय के प्रत्येक विषय में रागद्वेष को अलग-अलग स्थित बताने के लिये यहाँ इन्द्रियस्य पद दो बार प्रयुक्त हुआ है। तात्पर्य यह है कि प्रत्येक इन्द्रिय (श्रोत्र , त्वचा , नेत्र , रसना और घ्राण ) के प्रत्येक विषय (शब्द , स्पर्श , रूप , रस और गन्ध ) में अनुकूलता-प्रतिकूलता की मान्यता से मनुष्य के राग-द्वेष स्थित रहते हैं। इन्द्रिय के विषय में अनुकूलता का भाव होने पर मनुष्य का उस विषय में राग हो जाता है और प्रतिकूलता का भाव होने पर उस विषय में द्वेष हो जाता है। वास्तव में देखा जाय तो रागद्वेष इन्द्रियों के विषयों में नहीं रहते। यदि विषयों में राग-द्वेष स्थित होते तो एक ही विषय सभी को समान रूप से प्रिय अथवा अप्रिय लगता परन्तु ऐसा होता नहीं जैसे वर्षा किसान को तो प्रिय लगती है पर कुम्हार को अप्रिय। एक मनुष्य को भी कोई विषय सदा प्रिय या अप्रिय नहीं लगता जैसे ठंडी हवा गरमी में अच्छी लगती है पर सरदी में बुरी। इस प्रकार सब विषय अपने अनुकूलता या प्रतिकूलता के भाव से ही प्रिय अथवा अप्रिय लगते हैं अर्थात् मनुष्य विषयों में अपना अनुकूल या प्रतिकूल भाव करके उनको अच्छा या बुरा मानकर राग-द्वेष कर लेता है। इसलिये भगवान ने राग-द्वेष को प्रत्येक इन्द्रिय के प्रत्येक विषय में स्थित बताया है। वास्तव में राग-द्वेष माने हुए अहम् (मैंपन) में रहते हैं (टिप्पणी प0 176)। शरीर से माना हुआ सम्बन्ध ही अहम् कहलाता है। अतः जब तक शरीर से माना हुआ सम्बन्ध रहता है तब तक उसमें राग-द्वेष रहते हैं और वे ही राग-द्वेष , बुद्धि , मन , इन्द्रियों तथा इन्द्रियों के विषयों में प्रतीत होते हैं। इसी अध्याय के 37से 43वें श्लोक तक भगवान ने इन्हीं राग-द्वेष को काम और क्रोध के नाम से कहा है। राग और द्वेष के ही स्थूलरूप काम और क्रोध हैं। 40वें श्लोक में बताया है कि यह काम इन्द्रियों मन और बुद्धि में रहता है। विषयों की तरह इनमें (इन्द्रियों ,मन और बुद्धि में) काम की प्रतीति होने के कारण ही भगवान ने इनको काम का निवास-स्थान बताया है। जैसे विषयों में राग-द्वेष की प्रतीतिमात्र है ऐसे ही इन्द्रियों , मन और बुद्धि में भी राग-द्वेष की प्रतीतिमात्र है। ये इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि तो केवल कर्म करने के करण (औजार) हैं। इनमें काम-क्रोध अथवा राग-द्वेष हैं ही कहाँ ? इसके सिवाय दूसरे अध्याय के 59वें श्लोक में भगवान् कहते हैं कि इन्द्रियों के द्वारा विषयों को ग्रहण न करने वाले पुरुष के विषय तो निवृत्त हो जाते हैं पर उनमें रहने वाला उसका राग निवृत्त नहीं होता। यह राग परमात्मा का साक्षात्कार होने पर निवृत्त हो जाता है। “तयोर्न वशमागच्छेत् ” इन पदों से भगवान् साधक को आश्वासन देते हैं कि रागद्वेष की वृत्ति उत्पन्न होने पर उसे साधन और साध्य से कभी निराश नहीं होना चाहिये अपितु राग-द्वेष की वृत्ति के वशीभूत होकर उसे किसी कार्यमें प्रवृत्त अथवा निवृत्त नहीं होना चाहिये। कर्मों में प्रवृत्ति या निवृत्ति शास्त्र के अनुसार ही होनी चाहिये (गीता 16।24)। यदि राग-द्वेष को लेकर ही साधक की कर्मों में प्रवृत्ति या निवृत्ति होती है तो इसका तात्पर्य यह होता है कि साधक राग-द्वेष के वशमें हो गया। रागपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होने से राग पुष्ट होता है और द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होने से द्वेष पुष्ट होता है। इस प्रकार राग-द्वेष पुष्ट होने के फलस्वरूप पतन ही होता है। जब साधक संसार का कार्य छोड़कर भजन में लगता है तब संसार की अनेक अच्छी और बुरी स्फुरणाएँ उत्पन्न होने लगती हैं जिनसे वह घबरा जाता है। यहाँ भगवान् साधक को मानो आश्वासन देते हैं कि उसे इन स्फुरणाओं से घबराना नहीं चाहिये। इन स्फुरणाओं की वास्तव में सत्ता ही नहीं है क्योंकि ये उत्पन्न होती हैं और यह सिद्धान्त है कि उत्पन्न होने वाली वस्तु नष्ट होने वाली होती है। अतः विचारपूर्वक देखा जाय तो स्फुरणाएँ आ नहीं रही हैं बल्कि जा रही हैं। कारण यह है कि संसार का कार्य करते समय अवकाश न मिलने से स्फुरणाएँ दबी रहती हैं और संसार का कार्य छोड़ते ही अवकाश मिलने से पुराने संस्कार स्फुरणाओं के रूप में बाहर निकलने लगते हैं। अतः साधक को इन अच्छी या बुरी स्फुरणाओं से भी रागद्वेष नहीं करना चाहिये बल्कि सावधानीपूर्वक इनकी उपेक्षा करते हुए स्वयं तटस्थ रहना चाहिये। इसी प्रकार उसे पदार्थ , व्यक्ति , विषय आदि में भी राग-द्वेष नहीं करना चाहिये। राग-द्वेष पर विजय पाने के उपाय – राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्म करने से रागद्वेष पुष्ट (प्रबल) होते हैं और अशुद्ध प्रकृति (स्वभाव) का रूप धारण कर लेते हैं। प्रकृति के अशुद्ध होने पर प्रकृति की अधीनता रहती है। ऐसी अशुद्ध प्रकृति की अधीनता से होने वाले कर्म मनुष्य को बाँधते हैं। अतः राग-द्वेष के वश में होकर कोई प्रवृत्ति या निवृत्ति नहीं होनी चाहिये यह उपाय यहाँ बताया गया। इससे पहले भगवान् कह चुके हैं कि जो मेरे मत का अनुसरण करता है वह कर्मबन्धन से छूट जाता है (गीता 3। 31)। इसलिये राग-द्वेष की वृत्ति के वश में न होकर भगवान् के मत के अनुसार कर्म करने से राग-द्वेष सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं। तात्पर्य यह कि साधक सम्पूर्ण कर्मों को और अपने को भी भली-भाँति भगवद- अर्पण कर दे और ऐसा मान ले कि कर्म मेरे लिये नहीं हैं बल्कि भगवान् के लिये ही हैं । जिनसे कर्म होते हैं वे शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि भी भगवान् के ही हैं और मैं भी भगवान् का ही हूँ। फिर निष्काम , निर्मम और निःसन्ताप होकर कर्तव्यकर्म करने से राग-द्वेष मिट जाते हैं। इस प्रकार भगवान् के मत अर्थात् सिद्धान्त को सामने रखकर ही किसी कार्य में प्रवृत्त या निवृत्त होना चाहिये। सम्पूर्ण सृष्टि प्रकृति का कार्य है और शरीर सृष्टि का एक अंश है। जब तक शरीर के प्रति ममता रहती है तभी तक राग-द्वेष होते हैं अर्थात् मनुष्य रुचि या अरुचिपूर्वक वस्तुओं का ग्रहण और त्याग करता है। यह रुचि-अरुचि ही राग-द्वेष का सूक्ष्म रूप है। राग-द्वेषपूर्वक प्रवृत्ति या निवृत्ति होने से राग-द्वेष पुष्ट होते हैं परन्तु शास्त्र को सामने रखकर किसी कर्म में प्रवृत्त या निवृत्त होने से राग-द्वेष मिट जाते हैं। कारण कि शास्त्र के अनुसार चलने से अपनी रुचि और अरुचि की मुख्यता नहीं रहती। यदि कोई मनुष्य शास्त्र को नहीं जानता तो उसके लिये महर्षि वेदव्यासजी के वचन हैं “श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्।आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत्।।” (पद्मपुराण सृष्टि0 19। 35556)C हे मनुष्यों ! तुम लोग धर्म का सार सुनो और सुनकर धारण करो कि जो हम अपने लिये नहीं चाहते उसको दूसरों के प्रति न करें। जीवन्मुक्त महापुरुष भी शास्त्रमर्यादा को ही आदर देते हैं। इसीलिये श्राद्ध में पिण्डदान करते समय पिताजी का हाथ प्रत्यक्ष दिखायी देने पर भी भीष्म पितामह ने शास्त्र के आज्ञानुसार कुशों पर ही पिण्डदान किया (महाभारत अनुशासन0 84। 1520)। अतः साधक को सम्पूर्ण कर्म शास्त्र के आज्ञानुसार ही करने चाहिये। राग-द्वेष मिटाने के इच्छुक साधकों के लिये तो कर्म करने में शास्त्रप्रमाण की आवश्यकता रहती है पर राग-द्वेष से सर्वथा रहित महापुरुष का अन्तःकरण इतना शुद्ध – निर्मल होता है कि उसमें स्वतः वेदों का तात्पर्य प्रकट हो जाता है चाहे वह पढ़ा-लिखा हो या न हो। उसके अन्तःकरण में जो बात आती है वह शास्त्रानुकूल ही होती है (टिप्पणी प0 178)। राग-द्वेष का सर्वथा अभाव होने के कारण उस महापुरुष के द्वारा शास्त्रनिषिद्ध क्रियाएँ कभी होती ही नहीं। उसका स्वभाव स्वतः शास्त्र के अनुसार बन जाता है। यही कारण है कि ऐसे महापुरुष के आचरण और वचन दूसरे मनुष्यों के लिये आदर्श होते हैं (गीता 3। 21)। अतः उस महापुरुष के आचरणों और वचनों का अनुसरण करने से साधक के रागद्वेष भी मिट जाते हैं। कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि रागद्वेष अन्तःकरण के धर्म हैं अतः इनको मिटाया नहीं जा सकता पर यह बात युक्तिसंगत नहीं दीखती। वास्तव में राग-द्वेष अन्तःकरण के आगन्तुक विकार हैं धर्म नहीं। यदि ये अन्तःकरण के धर्म होते तो जिस समय अन्तःकरण जाग्रत् रहता है उस समय राग-द्वेष भी रहते अर्थात् इनकी सदा ही प्रतीति होती परन्तु इनकी प्रतीति सदा न होकर कभी-कभी ही होती है। साधन करने पर राग-द्वेष उत्तरोत्तर कम होते हैं यह साधकोंका अनुभव है। कम होने वाली वस्तु मिटने वाली होती है। इससे भी सिद्ध होता है कि राग-द्वेष अन्तःकरण के धर्म नहीं हैं। भगवान ने राग-द्वेष को मनोगत कहा है ” कामान् सर्वान् पार्थ मनोगतान् ” (गीता 2। 55) अर्थात् ये मन में आने वाले हैं सदा रहने वाले नहीं। इसके अतिरिक्त भगवान ने राग-द्वेष को विकार कहा है (गीता 13। 6) और प्रिय-अप्रिय की प्राप्ति में चित्त के सदा सम रहनेको साधन कहा है (गीता 13। 9)। यदि राग-द्वेष अन्तःकरण के धर्म होते तो यह समचित्ततारूप साधन बन ही नहीं सकता। धर्म स्थायी रहता है और विकार अस्थायी अर्थात् आने जाने वाले होते हैं। रागद्वेष अन्तःकरण में आने जाने वाले हैं अतः इनको मिटाया जा सकता है। प्रकृति (जड) और पुरुष (चेतन) दोनों भिन्न-भिन्न हैं। इन दोनों का विवेक स्वतःसिद्ध है। पुरुष इस विवेक को महत्त्व न देकर प्रकृतिजन्य शरीर से एकता कर लेता है और अपने को एकदेशीय मान लेता है। यह जड-चेतन का तादात्म्य ही अहम् (मैं) कहलाता है और इसी में राग-द्वेष रहते हैं। तात्पर्य यह है कि अहंता (मैंपन ) में राग-द्वेष रहते हैं और राग-द्वेष से अहंता पुष्ट होती है। यही राग-द्वेष बुद्धि में प्रतीत होते हैं जिससे बुद्धि में सिद्धान्त आदि को लेकर अपनी मान्यता प्रिय और दूसरों की मान्यता अप्रिय लगती है। फिर ये राग-द्वेष मन में प्रतीत होते हैं जिससे मन के अनुकूल बातें प्रिय और प्रतिकूल बातें अप्रिय लगती हैं। फिर यही रागद्वेष इन्द्रियोंमें प्रतीत होते हैं जिससे इन्द्रियोंके अनुकूल विषय प्रिय और प्रतिकूल विषय अप्रिय लगते हैं। यही राग-द्वेष इन्द्रियों के विषयों (शब्द , स्पर्श रूप रस और गन्ध) में अपनी अनुकूल और प्रतिकूल भावना को लेकर प्रतीत होते हैं। अतः जड-चेतन की ग्रन्थिरूप अहंता (मैंपन) के मिटने पर राग-द्वेष का सर्वथा अभाव हो जाता है क्योंकि अहंता पर ही राग-द्वेष टिके हुए हैं। मैं सेवक हूँ , मैं जिज्ञासु हूँ , मैं भक्त हूँ , ये सेवक , जिज्ञासु और भक्त जिस ” मैं ” में रहते हैं उसी मैं में राग-द्वेष भी रहते हैं। राग-द्वेष न तो केवल जड में रहते हैं और न केवल चेतन में ही रहते हैं पर जडचेतन के माने हुए सम्बन्ध में रहते हैं। जड चेतन के माने हुए सम्बन्ध में रहते हुए भी ये राग-द्वेष प्रधानतः जड में रहते हैं। जड चेतन के तादात्म्य में जड का आकर्षण जड अंश में ही होता है पर तादात्म्यके कारण वह चेतनमें दीखता है। जडका आकर्षण ही राग है। अतः जब साधक शरीर(जड) को ही अपना स्वरूप मान लेता है तब उसे राग-द्वेष को मिटाने में कठिनाई प्रतीत होती है परन्तु अपने चेतनस्वरूप की ओर दृष्टि रहने से उसे राग-द्वेष को मिटाने में कठिनाई प्रतीत नहीं होती। कारण कि रागद्वेष स्वतःसिद्ध नहीं हैं बल्कि जड (असत्) के सम्बन्ध से उत्पन्न होनेवाले हैं। यदि सत्सङ्ग , भजन , ध्यान आदि में राग होगा तो संसार से द्वेष होगा परन्तु प्रेम होने पर संसार से द्वेष नहीं होगा बल्कि संसार की उपेक्षा (विमुखता) होगी (टिप्पणी प0 179)। संसार के किसी एक विषय में राग होने से दूसरे विषय में द्वेष होता है पर भगवान् में प्रेम होने से संसार से वैराग्य होता है। वैराग्य होने पर संसार से सुख लेने की भावना समाप्त हो जाती है और संसार की स्वतः सेवा होती है। इससे शरीर , इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि के साथ ‘अहम्’ भी स्वतः संसार की सेवा में लग जाता है। परिणामस्वरूप शरीरादि के साथ-साथ अहम् से भी सम्बन्ध-विच्छेद होने पर उसमें रहने वाले राग-द्वेष सर्वथा नष्ट हो जाते हैं।मनुष्य की क्रियाएँ स्वभाव अथवा सिद्धान्त को लेकर होती हैं। केवल आध्यात्मिक उन्नति के लिये कर्म करना सिद्धान्त को लेकर कर्म करना है। स्वभाव दो प्रकार का होता है – रागद्वेषरहित (शुद्ध) और रागद्वेषयुक्त (अशुद्ध)। स्वभाव को मिटा तो नहीं सकते पर उसे शुद्ध अर्थात् रागद्वेषरहित अवश्य बना सकते हैं। जैसे गङ्गा गङ्गोत्री से निकलती है गङ्गोत्री जितनी ऊँचाई पर है अगर उतना अथवा उससे अधिक ऊँचा बाँध बनाया जाय तो गङ्गा के प्रवाह को रोका जा सकता है परन्तु ऐसा करना सरल कार्य नहीं है। हाँ , गङ्गा में नहरें निकालकर उसके प्रवाह को बदला जा सकता है। इसी प्रकार स्वाभाविक कर्मों के प्रवाह को मिटा तो नहीं सकते पर उसको बदल सकते हैं अर्थात् उसको राग-द्वेष रहित बना सकते हैं यह गीता का मार्मिक सिद्धान्त है। राग-द्वेष को लेकर जो क्रियाएँ होती हैं उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति उतनी बाधक नहीं है जितने कि रागद्वेष बाधक हैं। इसीलिये भगवान ने राग-द्वेष का त्याग करने वाले को ही सच्चा त्यागी कहा है (गीता 18। 10)। राग-द्वेष की ओर प्रायः साधक का ध्यान नहीं जाता इसलिये उसकी प्रवृत्ति और निवृत्ति राग-द्वेषपूर्वक होती है। अतः राग-द्वेष से रहित होने के लिये साधक को सिद्धान्त सामने रखकर ही समस्त क्रियाएँ करनी चाहिये। फिर उसका स्वभाव स्वतः सिद्धान्त के अनुरूप और शुद्ध बन जायगा। रागद्वेषयुक्त स्फुरणा के उत्पन्न होने पर उसके अनुसार कर्म करने से राग-द्वेष पुष्ट होते हैं और उसके अनुसार कर्म न करके सिद्धान्त के अनुसार कर्म करने से राग-द्वेष मिट जाते हैं। मन की शुभ और अशुभ स्फुरणाओं में राग-द्वेष नहीं होने चाहिये। साधक को चाहिये कि वह मन में होने वाली स्फुरणाओं को स्वयं में न मानकर उनसे किसी भी प्रकार सम्बन्ध न जोड़े , उनका न समर्थन करे , न विरोध करे। यदि साधक राग-द्वेष को दूर करने में अपने को असमर्थ पाता है तो उसे सर्वसमर्थ परम सुहृद् प्रभु की शरण में चले जाना चाहिये। फिर प्रभु की कृपा से उसके राग-द्वेष दूर हो जाते हैं (गीता 7। 14) और परमशान्ति की प्राप्ति हो जाती है (गीता 18। 62)। माने हुए अहम सहित शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , प्राण और सांसारिक पदार्थ सब के सब भगवान के ही हैं ऐसा मानना ही भगवान के शरण होना है। फिर भगवान की प्रसन्नता के लिये भगवान की दी हुई सामग्री से भगवान के ही जनों की केवल सेवा कर देनी है और बदले में अपने लिये कुछ नहीं चाहना है। बदले में कुछ भी चाहने से जड के साथ सम्बन्ध बना रहता है। निष्कामभावपूर्वक संसार की सेवा करना रागद्वेष को मिटाने का अचूक उपाय है। अपने पास स्थूल , सूक्ष्म और कारणशरीर से लेकर माने हुए अहम् तक जो कुछ है उसे संसार की ही सेवा में लगा देना है। कारण कि ये सब पदार्थ तत्त्वतः संसार से अभिन्न हैं। इनको संसार से भिन्न (अपना) मानना ही बन्धन है। स्थूलशरीर से क्रियाओं और पदार्थों का सुख सूक्ष्मशरीर से चिन्तन का सुख और कारणशरीर से स्थिरता का सुख नहीं लेना है। वास्तव में मनुष्यशरीर अपने सुख के लिये है ही नहीं “एहि तन कर फल बिषय न भाई।” (मानस 7। 44। 1) दूसरी बात जिन शरीर , इन्द्रियों , मन , बुद्धि , पदार्थ आदि से सेवा होती है वे सब संसार के ही अंश हैं। जब संसार ही अपना नहीं तो फिर उसका अंश अपना कैसे हो सकता है इन शरीरादि पदार्थों को अपना मानने से सच्ची सेवा हो ही नहीं सकती क्योंकि इससे ममता और स्वार्थभाव उत्पन्न हो जाता है। इसलिये इन पदार्थों को उसी के मानने चाहिये जिसकी सेवा की जाय। जैसे भक्त पदार्थों को भगवान का ही मानकर भगवान के अर्पण करता है ” त्वदीयं वस्तु गोविन्द तुभ्यमेव समर्पये ” ऐसे ही कर्मयोगी पदार्थों को संसार का ही मानकर संसार के अर्पण करता है।सेवा सम्बन्धी मार्मिक बात सेवा वही कर सकता है जो अपने लिये कभी कुछ नहीं चाहता। सेवा करने के लिये धनादि पदार्थों  की चाह तो कामना है ही सेवा करने की चाह भी कामना ही है क्योंकि सेवा की चाह होने से ही धनादि पदार्थों की कामना होती है। इसलिये अवसर प्राप्त हो और योग्यता हो तो सेवा कर देनी चाहिये पर सेवा की कामना नहीं करना चाहिये। दूसरे को सुख पहुँचाकर सुखी होना मेरे द्वारा लोगों को सुख मिलता है ऐसा भाव रखना सेवा के बदले में किञ्चित् भी मान-बड़ाई चाहना और मान-बड़ाई मिलने पर राजी होना वास्तव में भोग है , सेवा नहीं। कारण कि ऐसा करने से सेवा सुखभोग में परिणत हो जाती है अर्थात् सेवा अपने सुख के लिये हो जाते है। अगर सेवा करने में थोड़ा भी सुख लिया जाय तो वह सुख-धनादि पदार्थों में महत्त्वबुद्धि पैदा कर देता है जिससे क्रमशः ममता और कामना की उत्पत्ति होती है। मैं किसी को कुछ देता हूँ ऐसा जिसका भाव है उसे यह बात समझ में नहीं आती तथा कोई उसे आसानी से समझा भी नहीं सकता कि सेवा में लगने वाले पदार्थ उसी के हैं जिसकी सेवा की जाती है। उसी की वस्तु उसे ही दे दी तो फिर बदलेमें कुछ चाहनेका हमें अधिकार ही क्या है उसीकी धरोहर उसी को देने में एहसान कैसा अपने हाथों से अपना मुख धोने पर बदले में क्या हम कुछ चाहते हैं शङ्का – सेवा तो धनादि वस्तुओं के द्वारा ही होती है। वस्तुओं के बिना सेवा कैसे हो सकती है , अतः सेवा करने के लिये भी वस्तुओं की चाह न करने से क्या तात्पर्य है ? समाधान – स्थूल वस्तुओं से सेवा करना तो बहुत स्थूल बात है। वास्तव में सेवा भाव है कर्म नहीं। कर्म से बन्धन और सेवा से मुक्ति होती है। सेवा का भाव होने से अपने पास जो वस्तुएँ हैं वे स्वतः सेवा में लगती हैं। भाव होने से अपने पास जितनी वस्तुएँ हैं उन्हीं से पूर्ण सेवा हो जाती है इसलिये और वस्तुओं को चाहने की आवश्यकता ही नहीं है। वास्तविक सेवा वस्तुओं में महत्त्वबुद्धि न रहने से ही हो सकती है। स्थूल वस्तुओं से भी वही सेवा कर सकता है जिसकी वस्तुओं में महत्त्वबुद्धि नहीं है। वस्तुओं में महत्त्वबुद्धि रखते हुए सेवा करने से सेवा का अभिमान आ जाता है। जब तक अन्तःकरण में वस्तुओं का महत्त्व रहता है तब तक सेवक में भोग बुद्धि रहती ही है चाहे कोई जाने या न जाने। वास्तव में सेवा भाव से होती है वस्तुओं से नहीं। वस्तुओं से कर्म होते हैं सेवा नहीं। अतः वस्तुओं को दे देना ही सेवा नहीं है। वस्तुएँ तो दुकानदार भी देता है पर साथ में लेने का भाव रहने से उससे पुण्य नहीं होता। ऐसे ही प्रजा राजा को कर रूप से धन देती है पर वह दान नहीं होता। किसी को जल पिलाने पर मैंने उसे जल पिलाया तभी वह सुखी हुआ ऐसे भाव का रहना दुकानदारी ही है। हम मान-बड़ाई नहीं चाहते पर जल पिलाने से पुण्य होगा अथवा दान करने से पुण्य होगा , ऐसा भाव रहने पर भी फल के साथ सम्बन्ध होने के कारण अन्तःकरण में जल , धन आदि वस्तुओं का महत्त्व अङ्कित हो जाता है। वस्तुओं का महत्त्व अङ्कित होने पर फिर वास्तविक सेवा नहीं होती बल्कि लेने का भाव रहने से असत के साथ सम्बन्ध बना रहता है चाहे जानें या न जानें। इसलिये वस्तुओं को दूसरों की सेवा में लगाकर दान-पुण्य नहीं करना है बल्कि उन वस्तुओं से अपना सम्बन्ध तोड़ना है। हमारे द्वारा वस्तु उसी को मिल सकती है जिसका उस वस्तु पर अधिकार है अर्थात् वास्तव में जिसकी वह वस्तु है। उसे वस्तु देने से हमारा ऋण उतरता है। यदि दूसरे को किसी वस्तु की हमसे अधिक आवश्यकता (भूख) है तो उस वस्तु का वही अधिकारी है। दूसरा अपने अधिकार (हक) की ही वस्तु लेता है। हमारे अधिकार की वस्तु दूसरा ले ही नहीं सकता। एक बात खास ध्यान देने की है कि सच्चे हृदय से दूसरों की सेवा करने से जिसकी वह सेवा करता है उस (सेव्य) के हृदय में भी सेवाभाव जाग्रत् होता है यह नियम है। सच्चे हृदय से सेवा करने वाला पुरुष स्थूलदृष्टि से तो पदार्थों को सेव्य की सेवा में लगाता है पर सूक्ष्मदृष्टि से देखा जाय तो वह सेव्य के हृदय में सेवाभाव जाग्रत् करता है। यदि सेव्य के हृदय में सेवाभाव जाग्रत् न हो तो साधक को समझ लेना चाहिये कि सेवा करने में कोई त्रुटि (अपने लिये कुछ पाने या लेने की इच्छा) है। अतः साधक को इस विषय में विशेष सावधानी रखते हुए ही दूसरों की सेवा करना चाहिये और अपनी त्रुटियों को खोजकर निकाल देना चाहिये। दूसरे मुझे अच्छा कहें ऐसा भाव सेवा में बिलकुल नहीं रखना चाहिये। ऐसा भाव आते ही उसे तुरंत मिटा देना चाहिये क्योंकि यह भाव अभिमान बढ़ाने वाला है। प्रत्येक साधक के लिये संसार केवल कर्तव्यपालन का क्षेत्र है सुखी-दुःखी होने का क्षेत्र नहीं। संसार सेवा के लिये है। संसार में साधक को सेवा ही सेवा करनी है। सेवा करने में सबसे पहले साधक का यह भाव होना चाहिये कि मेरे द्वारा किसी का किञ्चिन्मात्र भी अहित न हो। संसार में कुछ प्राणी दुःखी रहते हैं और कुछ प्राणी सुखी रहते हैं। दुःखी प्राणी को देखकर दुःखी हो जाना और सुखी प्राणी को देखकर सुखी हो जाना भी सेवा है क्योंकि इससे दुःखी और सुखी दोनों व्यक्तियों को सुख का अनुभव होता है और उन्हें बल मिलता है कि हमारा भी कोई साथी है , दूसरा दुःखी है तो उसके साथ हम भी हृदय से दुःखी हो जायँ कि उसका दुःख कैसे मिटे उससे प्रेमपूर्वक बात करें और सुनें। उससे कहें कि प्रतिकूल परिस्थिति आने पर घबराना नहीं चाहिये ऐसी परिस्थिति तो भगवान् राम एवं राजा नल , राजा हरिश्चन्द्र आदि अनेक बड़े-बड़े पुरुषों पर भी आयी है , आजकल तो अनेक लोग तुम्हारेसे भी ज्यादा दुःखी हैं हमारे लायक कोई काम हो तो कहना आदि। ऐसी बातों से वह राजी हो जायगा, खुश हो जायेगा । ऐसे ही सुखी व्यक्ति से मिलकर हम भी हृदय से सुखी हो जायँ कि बहुत अच्छा हुआ तो वह राजी हो जायगा। इस प्रकार हम दुःखी और सुखी दोनों व्यक्तियों की सेवा कर सकते हैं। दूसरे के दुःख और सुख दोनों में सहमत होकर हम दूसरों को सुख पहुँचा सकते हैं। केवल दूसरों के हित का भाव निरन्तर रहने की आवश्यकता है। जो दूसरों के दुःख से दुःखी और दूसरों के सुख से सुखी होते हैं वे सन्त होते हैं -गोस्वामी तुलसीदासजी महाराज ने संतों के लक्षणों में कहा है पर दुख दुख सुख सुख देखे पर (मानस 7। 38। १) यहाँ शङ्का होती है कि यदि हम दूसरों के दुःख से दुःखी होने लगें तो फिर हमारा दुःख कभी मिटेगा ही नहीं क्योंकि संसार में दुःखी तो मिलते ही रहेंगे इसका समाधान यह है कि जैसे हमारे ऊपर कोई दुःख आने से हम उसे दूर करने की चेष्टा करते हैं ऐसे ही दूसरे को दुःखी देखकर अपनी शक्ति के अनुसार उसका दुःख दूर करने की चेष्टा होनी चाहिये। उसका दुःख दूर करने की सच्ची भावना होनी चाहिये। अतः दूसरे के दुःख से दुःखी होने का तात्पर्य उसके दुःख को दूर करने का भाव तथा चेष्टा करने में है जिससे हमें प्रसन्नता ही होगी दुःख नहीं। दूसरे के दुःख से दुःखी होने पर हमारे पास शक्ति योग्यता पदार्थ आदि जो कुछ भी है वह सब स्वतः दूसरे का दुःख दूर करने में लग जायगा। दुःखी व्यक्ति को सुखी बना देना तो हमारे हाथ की बात नहीं है पर उसका दुःख दूर करने के लिये अपनी सुखसामग्री को उसकी सेवा में लगा देना हमारे हाथ की बात है। सुख सामग्री के त्याग से तत्काल शान्ति की प्राप्ति होती है। सेवा करने का अर्थ है सुख पहुँचाना। साधक का भाव ‘मा कश्चिद् दुःखभाग्भवेत् ‘ (किसी को किञ्चिन्मात्र भी दुःख न हो) होने से वह सभी को सुख पहुँचाता है अर्थात् सभी की सेवा करता है। साधक भले ही सबको सुखी न कर सके पर वह ऐसा भाव तो बना ही सकता है। भाव बनाने में सब स्वतन्त्र हैं कोई पराधीन नहीं। इसलिये सेवा करने में धनादि पदार्थों की आवश्यकता नहीं है बल्कि सेवाभाव की ही आवश्यकता है। क्रियाएँ और पदार्थ चाहे जितने हों सीमित ही होते हैं। सीमित क्रियाओं और पदार्थों से सेवा भी सीमित ही होती है फिर सीमित सेवा से असीम तत्त्व (परमात्मा ) की प्राप्ति कैसे हो सकती है परन्तु भाव असीम होता है। असीमभाव से सेवा भी असीम होती है और असीम सेवा से असीम तत्त्व की प्राप्ति होती है। इसलिये सेवाभाव वाले व्यक्ति की क्रियाएँ और पदार्थ कम होने पर भी उसकी सेवा कम नहीं समझनी चाहिये क्योंकि उसका भाव असीम होता है। यद्यपि साधक के कर्तव्यपालन का क्षेत्र सीमित ही होता है तथापि उसमें जिन-जिन से उसका व्यवहार होता है उनमें वह सुखी को देखकर सुखी एवं दुःखी को देखकर दुःखी होता है। पदार्थ , शरीर , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि आदि को जो अपना नहीं मानता वही दूसरों के सुख में सुखी एवं दुःख में दुःखी हो सकता है। शरीर , इन्द्रियाँ , मन आदि अपने और अपने लिये हैं ही नहीं यह वास्तविकता है। देश , काल , वस्तु , व्यक्ति , योग्यता , सामर्थ्य आदि कुछ भी व्यक्तिगत नहीं है। इन पदार्थों में भूल से माने हुए अपनेपन का त्याग प्रत्येक मनुष्य कर सकता है चाहे वह दरिद्र से दरिद्र हो अथवा धनी से धनी पढ़ा-लिखा हो अथवा अनपढ़। इस त्याग में सब के सब स्वाधीन तथा समर्थ हैं। सच्चे सेवक की वृत्ति नाशवान् वस्तुओं पर जाती ही नहीं क्योंकि उसके अन्तःकरण में वस्तुओं का महत्त्व नहीं होता। अन्तःकरण में वस्तुओं का महत्त्व होने पर ही वस्तुएँ व्यक्तिगत (अपनी) प्रतीत होती हैं। साधक को चाहिये कि वह पहले से ही ऐसा मान ले कि वस्तुएँ मेरी नहीं हैं और मेरे लिये भी नहीं हैं। वस्तुओं को अपनी और अपने लिये मानने से भोग ही होता है सेवा नहीं। इस प्रकार वस्तुओं को अपनी और अपने लिये न मानकर सेव्य की ही मानते हुए सेवा में लगा देने से रागद्वेष सुगमतापूर्वक मिट जाते हैं। “तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ ” पारमार्थिक मार्ग में रागद्वेष ही साधक की साधन सम्पत्ति को लूटने वाले मुख्य शत्रु हैं परन्तु इस ओर प्रायः साधक ध्यान नहीं देता। यही कारण है कि साधन करने पर भी साधक की जितनी आध्यात्मिक उन्नति होनी चाहिये उतनी होती नहीं। प्रायः साधकों की यह शिकायत रहती है कि मन नहीं लगता पर वास्तव में मन का न लगना उतना बाधक नहीं है जितने बाधक रागद्वेष हैं। इसलिये साधक को चाहिये कि वह मन की एकाग्रता को महत्त्व न दे और जहाँ-जहाँ राग-द्वेष दिखायी दें वहाँ-वहाँ से उनको तत्काल हटा दे। राग-द्वेष हटाने पर मन लगना भी सुगम हो जायगा। स्वाभाविक कर्मों का त्याग करना तो हाथ की बात नहीं है पर उन कर्मों को राग-द्वेषपूर्वक करना या न करना बिलकुल हाथ की बात है। साधक जो कर सकता है वही करने के लिये भगवान् आज्ञा देते हैं कि रागद्वेषयुक्त स्फुरणा उत्पन्न होने पर भी उसके अनुसार कर्म मत करो क्योंकि वे दोनों ही पारमार्थिक मार्ग के लुटेरे हैं। ऐसा करने में साधक स्वतन्त्र है। वास्तव में रागद्वेष स्वतः नष्ट हो रहे हैं पर साधक उन राग-द्वेष को अपने में मानकर उन्हें सत्ता दे देता है और उसके अनुसार कर्म करने लगता है। इसी कारण वे दूर नहीं होते। यदि साधक रागद्वेष को अपने में न मानकर उसके अनुसार कर्म न करे तो वे स्वतः नष्ट हो जायँगे। राग-द्वेष के वश में न होकर क्या करना चाहिये और क्या नहीं करना चाहिये इसका उत्तर भगवान् आगे के श्लोक में देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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