Chapter 3 Bhagavad Gita Karm Yog

 

 

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कर्मयोग ~ अध्याय तीन

25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा

 

 

The Bhagavad Gita Chapter 3

न बुध्दिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङगिनाम्।
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान् युक्तः समाचरन्।।3.26।।

 

न-नहीं; बुद्धिभेदम् – बुद्धि में मतभेद; जनयेत् – उत्पन्न होना चाहिए; अज्ञानाम्-अज्ञानियों का; कर्म-संङ्गिनाम्-कर्म-फलों में आसक्त; जोषयेत्-प्रेरित करना चाहिए; सर्व-सारे; कर्माणि-कर्म; विद्वान्–ज्ञानवान व्यक्ति; युक्तः-प्रबुद्ध, समाचरन्-आचरण करते हुए।

 

परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुए तत्वज्ञ ज्ञानी महापुरुष तथा ज्ञानवान मनुष्यों को चाहिए कि वे शास्त्रविहित कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानी लोगों को जिनकी आसक्ति सकाम कर्म करने में रहती है, उन्हें कर्म करने से रोक कर उनकी बुद्धि में भ्रम या कर्मों में अश्रद्धा  उत्पन्न न करें अपितु स्वयं ज्ञानयुक्त होकर शास्त्र-विहित समस्त कर्म भली-भाँति करता हुआ उन अज्ञानी लोगों को भी अपने नियत कर्म करने के लिए प्रेरित करे या उनसे भी वैसे ही करवाए॥3 .26॥

 

( “न बुद्धिभेदं ৷৷. विद्वानयुक्तः समाचरन् ” 25वें श्लोक में “असक्तः विद्वान्” पदों से जिसका वर्णन हुआ है उसी आसक्तिरहित विद्वान को यहाँ “युक्तः विद्वान्” पदों से कहा गया है। जिसके अन्तःकरण में स्वतः स्वाभाविक समता है जिसकी स्थिति निर्विकार है , जिसकी समस्त इन्द्रियाँ अच्छी तरह जीती हुई हैं और जिसके लिये मिट्टी , पत्थर और स्वर्ण समान हैं ऐसा तत्त्वज्ञ महापुरुष ही ‘युक्तः विद्वान्’ कहलाता है (गीता 6। 8)। पीछे के (25वें) श्लोक में ‘सक्ताः अविद्वांसः’ पदों से जिनका वर्णन हुआ है उन्हीं शास्त्रविहित शुभकर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानी पुरुषों को यहाँ ‘कर्मसङ्गिनाम् अज्ञानम्’ पदों से कहा गया है। शास्त्रविहित कर्मों को अपने लिये (सुख-भोग , मान-बड़ाई आदि की प्राप्ति के लिये) करने के कारण इन पुरुषों को कर्मसङ्गी और अज्ञानी कहा गया है। श्रेष्ठ पुरुष पर विशेष जिम्मेवारी होती है क्योंकि दूसरे लोग स्वाभाविक ही उसका अनुसरण करते हैं। इसलिये भगवान उपर्युक्त पदों से विद्वान को आज्ञा देते हैं कि उसे ऐसा कोई आचरण नहीं करना चाहिये और ऐसी कोई बात नहीं कहनी चाहिये जिसे अज्ञानी (कामनायुक्त) पुरुषों का वर्तमान स्थिति से पतन हो जाय। अज्ञानी पुरुष अभी जिस स्थिति में हैं उस स्थिति से उन्हें विचलित करना (नीचे गिराना ) ही उनमें बुद्धिभेद उत्पन्न करना है। अतः विद्वान को सबके हित का भाव रखते हुए अपने वर्णाश्रम धर्म के अनुसार शास्त्र विहित शुभकर्मों का आचरण करते रहना चाहिये जिससे दूसरे पुरुषों को भी निष्कामभाव से कर्तव्यकर्म करने की प्रेरणा मिलती रहे। समाज एवं परिवार के मुख्य व्यक्तियों पर भी यही बात लागू होती है। उनको भी सावधानीपूर्वक अपने कर्तव्यकर्मों का अच्छी तरह आचरण करते रहना चाहिये जिससे समाज और परिवार पर अच्छा प्रभाव पड़े। बुद्धि-भेद पैदा करने के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं । १। कर्मों में क्या रखा है ? कर्मों से जो जीव बँधता है , कर्म निकृष्ट हैं , कर्म छोड़कर ज्ञान में लगना चाहिये आदि उपदेश देना अथवा इस प्रकार के अपने आचरणों और वचनों से दूसरों में कर्तव्यकर्मों के प्रति अश्रद्धा , अविश्वास उत्पन्न करना। 2. जहाँ देखो वहीं स्वार्थ है स्वार्थ के बिना कोई रह नहीं सकता सभी स्वार्थ के लिये कर्म करते हैं । मनुष्य कोई कर्म करे तो फल की इच्छा रहती ही है फल की इच्छा न रहे तो सभी कर्म करेगा ही क्यों आदि उपदेश देना। 3. फल की इच्छा रखकर (अपने लिये ) कर्म करने से (फल भोगने के लिये ) बार-बार जन्म लेना पड़ता है आदि उपदेश देना। इस प्रकार के उपदेशों से कामना वाले पुरुषों का कर्मफल पर विश्वास नहीं रहता। फलस्वरूप उनकी (फल में ) आसक्ति तो छूटती नहीं , शुभकर्म जरूर छूट जाते हैं। बन्धन का कारण आसक्ति ही है कर्म नहीं। इस प्रकार लोगों में बुद्धिभेद उत्पन्न न करके तत्त्वज्ञ पुरुष को चाहिये कि वह अपने वर्णाश्रमधर्म के अनुसार स्वयं कर्तव्यकर्म करे और दूसरों से भी वैसे ही करवाये। उसे चाहिये कि वह अपने आचरणों और वचनों के द्वारा अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम पैदा न करते हुए उन्हें वर्तमान स्थिति से क्रमशः ऊँचे उठाये। जिन शास्त्रविहित शुभकर्मों को अज्ञानी पुरुष अभी कर रहे हैं उनकी वह विशेषरूप से प्रशंसा करे और उनके कर्मों में होने वाली त्रुटियों से उन्हें अवगत कराये जिससे वे उन त्रुटियों को दूर करके साङ्गोपाङ्ग विधि से कर्म कर सकें। इसके साथ ही ज्ञानी पुरुष उन्हें यह उपदेश दें कि यज्ञ , दान , पूजा , पाठ आदि शुभकर्म करना तो बहुत अच्छा है पर उन कर्मों में फल की इच्छा रखना उचित नहीं क्योंकि हीरे को कंकड़ – पत्थरों के बदले बेचना बुद्धिमत्ता नहीं है। अतः सकामभाव का त्याग करके शुभकर्म करने से बहुत जल्दी लाभ होता है। इस प्रकार सकामभाव से निष्कामभाव की ओर जाना बुद्धिभेद नहीं है बल्कि वास्तविकता है। इसी तरह उपासना के विषय में भी तत्त्वज्ञ पुरुष को बुद्धिभेद पैदा नहीं करना चाहिये। जैसे प्रायः लोग कह दिया करते हैं कि नामजप करते समय भगवान ने मन नहीं लगा तो नामजप करना व्यर्थ है परन्तु तत्त्वज्ञ पुरुष को ऐसा न कहकर यह उपदेश देना चाहिये कि नामजप कभी व्यर्थ हो ही नहीं सकता क्योंकि भगवान के प्रति कुछ न कुछ भाव रहने से ही नामजप होता है। भाव के बिना नामजप में प्रवृत्ति ही नहीं होती। अतः नामजप का किसी भी अवस्था में त्याग नहीं करना चाहिये। जो यह कहा गया है कि “मनुवाँ तो चहुँ दिसि फिरै ” यह तो सुमिरन नाहिं इसका भी यही अर्थ है कि मन न लगने से यह सुमिरन (स्मरण) नहीं है जप तो है ही। हाँ , मन लगाकर ध्यानपूर्वक नामजप करने से बहुत जल्दी लाभ होता है। कोई भी मनुष्य सर्वथा गुणरहित नहीं होता। उसमें कुछ न कुछ गुण रहते ही हैं। इसलिये तत्त्वज्ञ महापुरुष को चाहिये कि अगर किसी व्यक्ति को (उसकी उन्नति के लिये) कोई शिक्षा देनी हो कोई बात समझानी हो तो उस व्यक्ति की निन्दा या अपमान न करके उसके गुणों की प्रशंसा करे। गुणों की प्रसंशा करते हुए आदरपूर्वक उसे जो शिक्षा दी जायगी उस शिक्षा का उस पर विशेष असर पड़ेगा। समाज और परिवार के मुख्य व्यक्तियों को भी इसी रीति से दूसरों को शिक्षा देनी चाहिये। “समाचरन् और जोषयेत् ” पदों से भगवान विद्वान को दो आज्ञाएँ देते हैं (1) स्वयं सावधानीपूर्वक शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मों को अच्छी तरह करे और (2) कर्मों में आसक्त अज्ञानी पुरुषों से भी वैसे ही कर्म करवाये। लोगों को दिखाने के लिये कर्म करना दम्भ है जो पतन करने वाली आसुरी सम्पत्ति का लक्षण है (गीता 16। 4)। अतः भगवान लोगों को दिखाने के लिये नहीं बल्कि लोकसंग्रह के लिये ही कर्तव्यकर्म करने की आज्ञा देते हैं। तत्त्वज्ञ पुरुष को चाहिये कि कर्म करने से अपना कोई प्रयोजन न रहने पर भी वह समस्त कर्तव्यकर्मों को सुचारु रूप से करता रहे , जिससे कर्मों में आसक्त पुरुषों की निष्कामकर्मों के प्रति महत्त्वबुद्धि जाग्रत हो और वे भी निष्कामभाव से कर्म करने लगें। तात्पर्य यह है कि उस महापुरुष के आसक्तिरहित आचरणों को देखकर अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करने की चेष्टा करने लगेंगे। इस प्रकार ज्ञानी पुरुष को चाहिये कि वह कर्मों में आसक्त पुरुषों को आदरपूर्वक समझाकर उन से निषिद्धकर्मों का स्वरूप से (सर्वथा ) त्याग करवाये और विहितकर्मों में से सकाम भाव का त्याग करने की प्रेरणा करे। ज्ञानी और अज्ञानी में क्या अन्तर है इसको भगवान आगे के श्लोकमें बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )

 

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