Chapter 3 Bhagavad Gita Karm Yog

 

 

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कर्मयोग ~ अध्याय तीन

01-08 ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता

 

 

Chapter 3 Bhagavad Gita Karma Yog

श्रीभगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ॥3 .3।।

 

श्रीभगवान् उवाच-परम कृपालु भगवान ने कहा; लोके-संसार में; अस्मिन्-इस; द्वि-विधा-दो प्रकार की; निष्ठा-श्रद्धा; पुरा-पहले; प्रोक्ता-वर्णित; मया-मेरे द्वारा, श्रीकृष्ण; अनघ-निष्पाप; ज्ञानयोगेन-ज्ञानयोग के मार्ग द्वारा; सांख्यानाम्-वे जो चिन्तन या ज्ञान में रुचि रखते हैं; कर्मयोगेन-कर्म योग के द्वारा; योगिनाम्-योगियों का।

 

परम कृपालु भगवान ने कहा, हे निष्पाप अर्जुन! मैं पहले ही ज्ञानोदय की प्राप्ति के दो मार्गों का वर्णन कर चुका हूँ। ज्ञानयोग उन मनुष्यों के लिए है जिनकी रुचि चिन्तन में होती है और कर्मयोग उनके लिए है जिनकी रुचि कर्म करने में होती है।।3 .3।।

( श्री कृष्ण कहते हैं कि इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा (साधन की परिपक्व अवस्था अर्थात पराकाष्ठा का नाम ‘निष्ठा’ है।) मेरे द्वारा पहले कही गई है। उनमें से सांख्य योगियों की निष्ठा तो ज्ञान योग से (माया से उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरतते हैं, ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाली सम्पूर्ण क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान से रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानंदघन परमात्मा में एकीभाव से स्थित रहने का नाम ‘ज्ञान योग’ है, इसी को ‘संन्यास’, ‘सांख्ययोग’ आदि नामों से कहा गया है।) और योगियों की निष्ठा कर्मयोग से (फल और आसक्ति को त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवदर्थ समत्व बुद्धि से कर्म करने का नाम ‘निष्काम कर्मयोग’ है, इसी को ‘समत्वयोग’, ‘बुद्धियोग’, ‘कर्मयोग’, ‘तदर्थकर्म’, ‘मदर्थकर्म’, ‘मत्कर्म’ आदि नामों से कहा गया है।) होती है॥3 .3॥

 

{ अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहते थे अतः उन्होंने समतावाचक बुद्धि का अर्थ ज्ञान समझ लिया परन्तु भगवान ने पहले बुद्धि और बुद्धियोग शब्द से समता का वर्णन किया था (2। 39 49 आदि) अतः यहाँ भी भगवान ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों के द्वारा समता का वर्णन कर रहे हैं। अनघ या निष्पाप अर्जुन के द्वारा अपने श्रेय (कल्याण) की बात पूछी जानी ही उनकी निष्पापता है क्योंकि अपने कल्याण की तीव्र इच्छा होने पर साधक के पाप नष्ट हो जाते हैं। “लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मया ” यहाँ लोके पद का अर्थ मनुष्य शरीर समझना चाहिये क्योंकि ज्ञानयोग और कर्मयोग दोनों प्रकार के साधनों को करने का अधिकार अथवा साधक बनने का अधिकार मनुष्य शरीर में ही है। निष्ठा अर्थात् समभाव में स्थिति एक ही है जिसे दो प्रकार से प्राप्त किया जा सकता है ज्ञानयोग से और कर्मयोग से। इन दोनों योगों का अलग-अलग विभाग करने के लिये भगवान ने दूसरे अध्याय के 39वें श्लोक में कहा है कि इस समबुद्धि को मैंने सांख्ययोग के विषय में (11वें से 30वें श्लोक तक) कह दिया है अब इसे कर्मयोग के विषय में (39वें से 53वें श्लोक तक) सुनो – “एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां श्रृणु”। पुरा पद का अर्थ अनादिकाल भी होता है और अभी से कुछ पहले भी होता है। यहाँ इस पद का अर्थ है अभी से कुछ पहले अर्थात् पिछला अध्याय जिस पर अर्जुन की शंका है। यद्यपि दोनों निष्ठाएँ पिछले अध्याय में अलग-अलग कही जा चुकी हैं तथापि किसी भी निष्ठा में कर्मत्याग की बात नहीं कही गयी है। यहाँ भगवान ने दो निष्ठाएँ बतायी हैं – सांख्यनिष्ठा (ज्ञानयोग) और योगनिष्ठा (कर्मयोग)। जैसे लोक में दो तरह की निष्ठाएँ हैं “लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा ” ऐसे ही लोक में दो तरह के पुरुष हैं ” द्वाविमौ पुरुषौ लोके ” (गीता 15। 16) वे हैं क्षर (नाशवान् संसार) और अक्षर (अविनाशी स्वरूप)। क्षर की सिद्धि-असिद्धि , प्राप्ति-अप्राप्ति में सम रहना कर्मयोग है और क्षर से विमुख होकर अक्षर में स्थित होना ज्ञानयोग है। परन्तु क्षर- अक्षर दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है जो परमात्मा नाम से कहा जाता है । “उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः” (15। 17)। वह परमात्मा क्षर से तो अतीत या परे है और अक्षर से उत्तम है । अतः शास्त्र और वेद में वह पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्धि है (15। 18)। ऐसे परमात्मा के सर्वथा सर्वभावसे शरण हो जाना भगवन्निष्ठा (भक्तियोग) है। इसलिये क्षर की प्रधानता से कर्मयोग अक्षर की प्रधानता से ज्ञानयोग और परमात्मा की प्रधानता से भक्तियोग चलता है । सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा ये दोनों साधकों की अपनी निष्ठाएँ हैं परन्तु भगवन निष्ठां साधकों की अपनी निष्ठा नहीं है। कारण कि सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा में साधक को “मैं हूँ” और “संसार है ” इसका अनुभव होता है । अतः ज्ञानयोगी संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करके अपने स्वरूप में स्थित होता है और कर्मयोगी संसार की वस्तु (शरीरादि) को संसार की ही सेवा में लगाकर संसार से सम्बन्ध-विच्छेद करता है परन्तु भगवन निष्ठां में साधक को पहले भगवान हैं । इसका अनुभव नहीं होता पर उसका विश्वास होता है कि स्वरूप और संसार इन दोनों से भी विलक्षण कोई तत्त्व (भगवान् ) है। अतः वह श्रद्धाविश्वासपूर्वक भगवान को मानकर अपने आपको भगवान को समर्पित कर देता है। इसलिये सांख्य-निष्ठा और योग-निष्ठा में तो जानना (विवेक) मुख्य है और भगवन्निष्ठा में मानना (श्रद्धाविश्वास) मुख्य है। जानना और मानना दोनों में कोई फरक नहीं है। जैसे जानना सन्देहरहित (दृढ़ ) होता है ऐसे ही मानना भी सन्देहरहित होता है। मानी हुई बात में विचार की सम्भावना नहीं रहती। जैसे अमुक मेरी माँ है यह केवल माना हुआ है पर इस माने हुए में कभी सन्देह नहीं होता , कभी जिज्ञासा नहीं होती , कभी विचार नहीं करना पड़ता। इसलिये गीता में भक्तियोग के प्रकरण में जहाँ जानने की बात आयी है उसको मानने के अर्थ में ही लेना चाहिये। इसी तरह ज्ञानयोग और कर्मयोग के प्रकरण में जहाँ मानने की बात आयी है उसको जानने के अर्थ में ही लेना चाहिये। सांख्यनिष्ठा और योगनिष्ठा तो साधन-साध्य हैं और साधक पर निर्भर हैं पर भगवन्निष्ठा साधन साध्य नहीं है। भगवन्निष्ठा में साधक भगवान् और उनकी कृपा पर निर्भर रहता है। भगवन्निष्ठा का वर्णन गीता में जगह-जगह आया है , जैसे इसी अध्याय में पहले दो निष्ठाओं का वर्णन करके फिर तीसवें श्लोक में  ” मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्य ” पदों से भक्ति का वर्णन किया गया है । पाँचवें अध्याय में भी दो निष्ठाओं का वर्णन करके दसवें श्लोक में ” ब्रह्मण्याधाय कर्माणि “और अन्त में “भोक्तारं यज्ञतपसाम् “৷৷. आदि पदों से भक्ति का वर्णन किया गया है इत्यादि। “ज्ञानयोगेन सांख्यानाम् ” प्रकृति से उत्पन्न सम्पूर्ण गुण ही गुणों में बरत रहे हैं सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणों में इन्द्रियों में ही हो रही हैं (गीता 3। 28) और मेरा इनसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है ऐसा समझकर समस्त क्रियाओं में कर्तापन के अभिमान का सर्वथा त्याग कर देना ज्ञानयोग है। गीतोपदेश के आरम्भ में ही भगवान ने सांख्ययोग (ज्ञानयोग) का वर्णन करते हुए नाशवान शरीर और अविनाशी शरीरी का विवेचन किया है जिसे (गीता 2। 16 में) असत और सत के नाम से भी कहा गया है। “कर्मयोगेन योगिनाम् ” वर्ण ,आश्रम, स्वभाव और परिस्थिति के अनुसार जो शास्त्रविहित कर्तव्य-कर्म सामने आ जाय उसको (उस कर्म तथा उसके फल में ) कामना, ममता और आसक्ति का सर्वथा त्याग करके करना तथा कर्म की सिद्धि और असिद्धि में सम रहना कर्मयोग है। भगवान ने कर्मयोग का वर्णन दूसरे अध्याय के 47वें और 48वें श्लोक में मुख्यरूप से किया है। इनमें भी 47वें श्लोक में कर्मयोग का सिद्धान्त कहा गया है और 48वें श्लोक में कर्मयोग को अनुष्ठान में लाने की विधि कही गयी है- स्वामी रामसुखदास जी }

 

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