कर्मयोग ~ अध्याय तीन
01-08 ज्ञानयोग और कर्मयोग के अनुसार अनासक्त भाव से नियत कर्म करने की आवश्यकता
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुध्दिं मोहयसीव मे।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्।।3.2।।
व्यामिश्रेण-तुम्हारे अनेकार्थक शब्दों से ; इव-मानो; वाक्येन-वचनों से; बुद्धिम् – बुद्धि; मोहयसि–मैं मोहित हो रहा हूँ; इव-मानो; मे -मेरी; तत्-उस; एकम्-एकमात्र; वद-अवगत कराए; निश्चित्य-निश्चित रूप से; येन-जिससे; श्रेयः-अति श्रेष्ठ, अहम्-मैं; आप्नुयाम्-प्राप्त कर सकूं।
आपके अनेकार्थक उपदेशों से मेरी बुद्धि भ्रमित ( मोहित ) हो गयी है अर्थात आपके मिले हुए वचनों से मैं मोहित हो रहा हूँ। कृपया मुझे निश्चित रूप से कोई एक ऐसा मार्ग बताएँ जो मेरे लिए सर्वाधिक लाभदायक हो जिससे मैं कल्याणको प्राप्त हो जाऊँ ।। 3 .2।।
“व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव” मे इन पदों में अर्जुन का भाव है कि कभी तो आप कहते हैं कि कर्म करे कुरु कर्माणि (2। 48) और कभी आप कहते हैं कि ज्ञान का आश्रय लो बुद्धौ शरणमन्विच्छ (2। 49)। आपके इन मिले हुए वचनों से मेरी बुद्धि मोहित सी हो रही है अर्थात् मैं यह स्पष्ट नहीं समझ पा रहा हूँ कि मेरे को कर्म करने चाहिये या ज्ञान की शरण लेनी चाहिये। यहाँ दो बार इव पद के प्रयोग से भगवान पर अर्जुन की श्रद्धा का द्योतन हो रहा है। श्रद्धा के कारण अर्जुन भगवान के वचनों को ठीक मान रहे हैं और यह भी समझ रहे हैं कि भगवान् मेरी बुद्धि को मोहित नहीं कर रहे हैं परन्तु भगवान के वचनों को ठीक-ठीक न समझने के कारण अर्जुन को भगवान के वचन मिले हुए से लग रहे हैं और उनको ऐसा दिख रहा है कि भगवान् अपने वचनों से मेरी बुद्धि को मोहित सी कर रहे हैं। अगर भगवान् अर्जुन की बुद्धि को मोहित करते तो फिर अर्जुन के मोह को दूर करता ही कौन ?? ” तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम् ” मेरा कल्याण कर्म करने से होगा या ज्ञान से होगा इनमें से आप निश्चय करके मेरे लिये एक बात कहिये जिससे मेरा कल्याण हो जाय। मैंने पहले भी कहा था कि जिससे मेरा निश्चित कल्याण हो वह बात मेरे लिये कहिये यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे (2। 7) और अब भी मैं वही बात कर रहा हूँ। अब आगे के तीन (तीसरे , चौथे और पाँचवें) श्लोकों में भगवान् अर्जुनके व्यामिश्रेणेव वाक्येन (मिले हुएसे वचनों) पदोंका उत्तर देते हैं- स्वामी रामसुखदास जी )