कर्मयोग ~ अध्याय तीन
36-43 पापके कारणभूत कामरूपी शत्रु को नष्ट करने का उपदेश
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥3 .40॥
इन्द्रियाणि-इन्द्रियाँ; मन:-मन; बुद्धिः-बुद्धि; अस्य-इसका; अधिष्ठानम्-निवासस्थान; उच्यते-कहा जाता है; एतैः-इनके द्वारा; विमोहयति–मोहित करती है; एषः-यह काम-वासना; ज्ञानम्- ज्ञान को; आवृत्य-ढक कर; देहिनम्-देहधारी को।
इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि- ये सब इसके ( कामना के ) निवास स्थान कहे जाते हैं जिनके द्वारा ही यह काम वासना देहधारियों के ज्ञान को आच्छादित करके जीवात्मा को मोहित करती है। ॥3 .40॥
“इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ” काम पाँच स्थानों में दिखता है (1) पदार्थों में (गीता 3। 34) (2) इन्द्रियों में (3) मन में (4) बुद्धि में और (5) माने हुए अहम् (मैं) अर्थात् कर्ता में (गीता 2। 51)। इन पाँच स्थानों में दिखने पर भी काम वास्तव में माने हुएअहम् (चिज्जडग्रन्थि) में ही रहता है परन्तु उपर्युक्त पाँच स्थानों में दिखायी देने के कारण ही वे इस काम के वासस्थान कहे जाते हैं। समस्त क्रियाएँ शरीर , इन्द्रियों , मन और बुद्धि से ही होती हैं। ये चारों कर्म करने के साधन हैं। यदि इनमें काम रहता है तो वह परमार्थिक कर्म नहीं होने देता। इसलिये कर्मयोगी निष्काम , निर्मम और अनासक्त होकर शरीर , इन्द्रियों , मन और बुद्धि के द्वारा अन्तःकरण की शुद्धि के लिये कर्म करता है (गीता 5। 11)। वास्तव में काम अहम् (जडचेतन के तादात्म्य ) में ही रहता है। अहम् अर्थात मैंपन केवल माना हुआ है। मैं अमुक वर्ण , आश्रम , सम्प्रदाय वाला हूँ यह केवल मान्यता है। मान्यता के सिवाय इसका दूसरा कोई प्रमाण नहीं है। इस माने हुए सम्बन्ध में ही कामना रहती है। कामना से ही सब पाप होते हैं। पाप तो फल भुगता कर नष्ट हो जाते हैं पर अहम् से कामना दूर हुए बिना नये-नये पाप होते रहते हैं। इसलिये कामना ही जीव को बाँधने वाली है। महाभारत में कहा है “कामबन्धनमेवैकं नान्यदस्तीह बन्धनम्।कामबन्धनमुक्तो हि ब्रह्मभूयाय कल्पते।। ” (शान्तिपर्व 251। 7)जगत् में कामना ही एकमात्र बन्धन है दूसरा कोई बन्धन नहीं है। जो कामना के बन्धन से छूट जाता है वह ब्रह्मभाव प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है। “एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्” कामना के कारण मनुष्य को जो करना चाहिये वह नहीं करता और जो नहीं करना चाहिये वह कर बैठता है। इस प्रकार कामना देहाभिमानी पुरुष को मोहित कर देती है। दूसरे अध्याय में भगवान ने कहा है कि कामना से क्रोध उत्पन्न होता है – “कामात् क्रोधोऽभिजायते” (2। 62) और क्रोध से सम्मोह (अत्यन्त मूढ़भाव) उत्पन्न होता है – “क्रोधाद्भवति सम्मोहः” (2। 63)। इससे यह समझना चाहिये कि कामना में बाधा पहुँचने पर तो क्रोध उत्पन्न होता है पर यदि कामना में बाधा न पहुँचे तो कामना से लोभ और लोभ से सम्मोह उत्पन्न होता है (टिप्पणी प0 197.1)। तात्पर्य यह कि कामना से पदार्थ न मिले तो क्रोध उत्पन्न होता है और पदार्थ मिले तो लोभ उत्पन्न होता है। उनसे फिर मोह उत्पन्न होता है। कामना रजोगुण का कार्य है और मोह तमोगुण का कार्य। रजोगुण और तमोगुण पास – पास रहते हैं (टिप्पणी प0 197.2)। अतः काम , क्रोध , लोभ और मोह पास-पास ही रहते हैं। काम इन्द्रियों , मन और बुद्धि के द्वारा देहाभिमानी पुरुष को मोहित (बेहोश) कर देता है। इस प्रकार काम रजोगुण का कार्य होते हुए भी तमोगुण का कार्य मोह हो जाता है। कामना उत्पन्न होने पर मनुष्य पहले इन्द्रियों से भोग भोगने की कामना करता है। पहले तो भोगपदार्थ मिलते नहीं और मिल भी जायँ तो टिकते नहीं। इसलिये उन्हें किसी तरह प्राप्त करने के लिये वह मन में तरह-तरह की कामनाएँ करता है। बुद्धि में उन्हें प्राप्त करने के लिये तरह-तरह के उपाय सोचता है। इस प्रकार कामना पहले इन्द्रियों को संयोगजन्य सुख के प्रलोभन में लगाती है। फिर इन्द्रियाँ मन को अपनी ओर खींचती हैं और उसके बाद इन्द्रियाँ और मन मिलकर बुद्धि को भी अपनी ओर खींच लेते हैं। इस तरह काम देहाभिमानी के ज्ञान को ढक कर इन्द्रियोँ , मन और बुद्धि के द्वारा उसे मोहित कर देता है तथा उसे पतन के गड्ढे में डाल देता है। यह सिद्धान्त है कि नौकर अच्छा हो पर मालिक तिरस्कारपूर्वक उसे निकाल दे तो फिर उसे अच्छा नौकर नहीं मिलेगा। ऐसे ही मालिक अच्छा हो पर नौकर उसका तिरस्कार कर दे तो फिर उसे अच्छा मालिक नहीं मिलेगा। इसी प्रकार मनुष्य परमात्मप्राप्ति किये बिना शरीर को सांसारिक भोग और संग्रह में ही खो देता है तो फिर उसे मनुष्य शरीर नहीं मिलेगा। अच्छी वस्तु का तिरस्कार होता है अन्तःकरण अशुद्ध होने से और अन्तःकरण अशुद्ध होता है कामना से। इसलिये सबसे पहले कामना का नाश करना चाहिये। “देहिनम् विमोहयति ” पदों का तात्पर्य यह है कि यह काम देहाभिमानी पुरुष को ही मोहित करता है। शरीर को मैं और मेरा मानने वाला ही देहाभिमानी होता है। भगवान ने अपने उपदेश के आरम्भ में ही देह (शरीर) और देही (शरीरी आत्मा ) का विवेचन किया है (गीता 2। 11 30)। देह और देही दोनों अलग-अलग हैं , यह सबका अनुभव है। यह काम ज्ञान को ढककर देहाभिमानी (देह से अपना सम्बन्ध मानने वाले) को बाँधता है , देही (शुद्ध स्वरूप ) को नहीं। जो देह के साथ अपना सम्बन्ध नहीं मानता उसे यह बाँध नहीं सकता। देह को मैं , मेरा और मेरे लिये मानने से ही मनुष्य उत्पत्तिविनाशशील जड वस्तुओं को महत्त्व देता है जिससे उसमें जडता का राग उत्पन्न हो जाता है। राग उत्पन्न होने पर जडता से सम्बन्ध हो जाता है। जडता से सम्बन्ध होने पर ही कामना की उत्पत्ति होती है। कामना उत्पन्न होने पर जीव मोहित होकर संसार-बन्धन में बँध जाता है। अब आगे के तीन श्लोकों में भगवान् काम को मारने का प्रकार बताते हुए उसे मारनेकी आज्ञा देते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )