कर्मयोग ~ अध्याय तीन
36-43 पापके कारणभूत कामरूपी शत्रु को नष्ट करने का उपदेश
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥3 . 39॥
आवृतम्-आच्छादित होना; ज्ञानम्-ज्ञान; एतेन–इससे; ज्ञानिन–ज्ञानी पुरुष; नित्यवैरिणा-कट्टर शत्रु द्वारा; कामरूपेण-कामना के रूप में; कौन्तेय-कुन्तीपुत्र, अर्जुन; दुष्पूरेण- संतुष्ट न होने वाली; अनलेन-अग्नि के समान; च-भी।
हे कुन्ती पुत्र! इस प्रकार ज्ञानी पुरुष का ज्ञान भी अतृप्त कामना रूपी नित्य शत्रु से आच्छादित रहता है जो कभी संतुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है।॥3 .39॥
( ‘एतेन’ 37वें श्लोक में भगवान ने पाप करवाने में मुख्य कारण काम अर्थात् कामना को बताया था। उसी कामना के लिये यहाँ ‘एतेन’ पद आया है। ‘दुष्पूरेणानलेन’ च जैसे अग्नि में घी की सुहाती सुहाती (अनुकूल) आहुति देते रहने से अग्नि कभी तृप्त नहीं होती बल्कि बढ़ती ही रहती है । ऐसे ही कामना के अनुकूल भोग भोगते रहने से कामना कभी तृप्त नहीं होती बल्कि अधिकाधिक बढ़ती ही रहती है (टिप्पणी प0 194)। जो भी वस्तु सामने आती रहती है कामना अग्नि की तरह उसे खाती रहती है। भोग और संग्रह की कामना कभी पूरी होती ही नहीं। जितने ही भोगपदार्थ मिलते हैं उतनी ही उनकी भूख बढ़ती है। कारण कि कामना जड की ही होती है इसलिये जड के सम्बन्ध से वह कभी मिटती नहीं बल्कि अधिकाधिक बढ़ती है। सुन्दरदासजी लिखते हैं ‘जो दस बीस पचास सत होइ हजार तो लाख मँगैगी।कोटि अरब्ब खरब्ब असंख्य पृथ्वीपति होन की चाह जगैगी।।स्वर्ग पतालको राज करौ तृष्ना अघकी अति आग लगैगी।सुन्दर एक संतोष बिना सठ तेरी तो भूख कभी न भगैगी।।’ जैसे सौ रुपये मिलने पर हजार रुपयों की भूख पैदा होती है तो इससे सिद्ध हुआ कि नौ सौ रुपयों का घाटा हुआ है। हजार रुपये मिलने पर फिर सीधे दस हजार रुपयों की भूख पैदा हो जाती है तो यह नौ हजार रुपयों का घाटा हुआ है। दस हजार रुपये मिलने पर फिर सीधे एक लाख रुपयों की भूख पैदा हो जाती है तो यह नब्बे हजार रुपयों का घाटा हुआ है। लाख रुपये मिलने पर फिर दस लाख रुपयों से सन्तोष नहीं होता बल्कि सीधे करोड़ रुपयों की भूख पैदा हो जाती है तो सिद्ध हुआ कि निन्यानबे लाख रुपयों का घाटा हुआ है। इस प्रकार वहम तो यह होता है कि लाभ बढ़ गया पर वास्तव में घाटा ही बढ़ा है। जितना धन मिलता है उतनी ही दरिद्रता (धन की भूख) बढ़ती है। वास्तव में दरिद्रता उसकी मिटती है जिसे धन की भूख नहीं है। “चाह गयी चिन्ता मिटी मनुआँ बेपरवाह ।जिनको कछू न चाहिये सो साहनपति साह।। ” वास्तव में धन उतना बाधक नहीं है जितनी बाधक उसकी कामना है। धन की कामना चाहे धनी में हो या निर्धन में , दोनों को वह परमात्मप्राप्ति से वञ्चित रखती है। कामना किसी की भी कभी पूरी नहीं होती क्योंकि यह पूरी होने वाली चीज ही नहीं है। कामना से रहित तो कामना के मिटने पर ही हो सकते हैं। ‘कामरूपेण ‘ जड के सम्बन्ध से होने वाले सुख की चाह को काम कहते हैं। नाशवान् संसार से थोड़ी भी महत्त्वबुद्धि का होना काम है। अप्राप्त को प्राप्त करने की चाह कामना है। अन्तःकरण में जो अनेक सूक्ष्म कामनाएँ दबी रहती हैं उनको वासना कहते हैं। वस्तुओं की आवश्यकता प्रतीत होना स्पृहा है। वस्तु में उत्तमता और प्रियता दिखना आसक्ति है। वस्तु मिलने की सम्भावना रखना आशा है और अधिक वस्तु मिल जाय यह लोभ या तृष्णा है। वस्तु की इच्छा अधिक बढ़ने पर याचना होती है। ये सभी काम के ही रूप हैं। “ज्ञानिनो नित्यवैरिणा” यहाँ ‘ज्ञानिनः’ पद साधन में लगे हुए विवेकशील साधकों के लिये आया है। कारण कि विवेकशील साधक ही इस कामरूप वैरी को पहचानता है और उसका नाश करता है। साधन न करने वाले दूसरे लोग तो उसे पहचानते ही नहीं बल्कि इसे सुखदायी समझते हैं। भगवान् कहते हैं कि यह काम विवेकशील साधकों का नित्य वैरी है। कामना उत्पन्न होते ही विवेकशील साधक को विचार आता है कि अब कोई न कोई आफत आयेगी। कामना में संसार का महत्त्व और आश्रय रहता है जो पारमार्थिक मार्ग में महान् बाधक है। विवेकी साधक को कामना आरम्भ से ही चुभती रहती है। परिणाम में तो कामना सबको दुःख देती ही है। इसलिये यह साधक की नित्य (निरन्तर) वैरी है। भोगों में लगे हुए अज्ञानियों को यह कामना मित्र के समान मालूम देती है क्योंकि कामना के कारण ही भोगों में सुख प्रतीत होता है। कामना न हो तो भोगपदार्थ सुख नहीं दे सकते परन्तु परिणाम में उन्हें दुःख , सन्ताप , कैद , नरक आदि प्राप्ति होते ही हैं। इसलिये वास्तव में यह कामना अज्ञानियों की भी नित्य वैरी है परन्तु अज्ञानियों को जागृति नहीं रहती जब कि विवेकशील साधकों को जागृति रहती है। ‘आवृतं ज्ञानम्’ विवेक प्राणिमात्र में है। पशु-पक्षी आदि मनुष्येतर योनियों में यह विवेक विकसित नहीं होता और केवल जीवननिर्वाह तक सीमित रहता है परन्तु मनुष्य में यदि कामना न हो तो यह विवेक विकसित हो सकता है क्योंकि कामना के कारण ही मनुष्य का विवेक ढका रहता है। विवेक ढका रहने से मनुष्य अपने लक्ष्य परमात्मप्राप्ति की ओर बढ़ नहीं सकता क्योंकि कामना उसे चिन्मयतत्त्व की ओर नहीं जाने देती बल्कि जडतत्त्व में ही लगाये रखती है। अपने प्रति कोई अप्रिय एवं असत्य बोले तो वह बुरा लगता है और प्रिय एवं सत्य बोले तो अच्छा लगताहै। इसका अर्थ यह हुआ कि अच्छे-बुरे , सद्गुण-दुर्गुण , कर्तव्य-अकर्तव्य आदि का ज्ञान अर्थात् विवेक सभी मनुष्यों में रहता है। परन्तु ऐसा होने पर भी वह अप्रिय और असत्य बोलता है , अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता तो इसका कारण यही है कि कामना ने उसका विवेक ढक दिया है। कामनाके कारण ही त्याग में सुख है यह ज्ञान काम नहीं करता। मनुष्य को प्रतीत तो ऐसा होता है कि अनुकूल भोगपदार्थ के मिलने से सुख होता है पर वास्तव में सुख उसके त्याग से होता है। यह सभी का अनुभव है कि जाग्रत् और स्वप्न में भोगपदार्थों से सम्बन्ध रहने पर सुख और दुःख दोनों होते हैं पर सुषुप्ति (गाढ़ निद्रा) में भोगपदार्थों की किञ्चित् भी स्मृति न रहने पर सुख ही होता है दुःख नहीं। इसलिये गाढ़ निद्रा से जागने पर वह कहता है कि मैं बड़े सुख से सोया। इसके सिवाय जाग्रत् और स्वप्न से थकावट आती है जब कि सुषुप्ति से थकावट दूर होती है और ताजगी आती है। इससे सिद्ध होता है कि भोगपदार्थों के त्याग में ही सुख है। धन की कामना होते ही धन मन के द्वारा पकड़ा जाता है। जब बाहर से धन प्राप्त हो जाता है तब मन से पकड़े हुए धन का त्याग हो जाता है और सुख की प्रतीति होती है। अतः वास्तव में सुख की प्रतीति बाहर से धन मिलने पर नहीं हुई बल्कि मन से पकड़े हुए धन के त्याग से ही हुई है है। यदि धन के मिलने से ही सुख होता तो उस धन के रहते हुए कभी दुःख नहीं आता परन्तु उस धन के रहते हुए भी दुःख आ जाता है।जब मनुष्य किसी वस्तु की कामना करता है तब वह पराधीन हो जाता है। जैसे उसके मन में घड़ी की कामना पैदा हुई। कामना पैदा होते ही उसको घड़ी के अभाव का दुःख होने लगता है तो यह घड़ी की पराधीनता है। वह सोचता है कि यदि रुपये मिल जायँ तो अभी घड़ी खरीद लूँ अर्थात् रुपयों के होने से अपने को स्वाधीन और न होने से अपने को पराधीन मानता है। यह मान्यता बिलकुल गलत है। वास्तव में रुपये मिलने पर घड़ी की पराधीनता तो नहीं रही पर रुपयों की पराधीनता तो हो ही गयी क्योंकि रुपये भी पर हैं स्व नहीं। जैसे वस्तु की कामना होने से वह वस्तु के पराधीन हुआ ऐसे ही रुपयों की कामना होने से रुपयोंके पराधीन हुआ। पराधीनता तो वैसी की वैसी ही रही परन्तु कामना से विवेक ढका जाने के कारण मनुष्य को वस्तु की पराधीनता का तो अनुभव होता है पर रुपयों की पराधीनता का अनुभव नहीं होता बल्कि रुपयों के कारण वह स्वाधीनता का अनुभव करता है। जो पराधीनता स्वाधीनता के रूप में दिखायी देती है उस पराधीनता से छूटना बड़ा कठिन होता है। संसारमात्र क्षणभङ्गुर है। शरीर , धन , जमीन , मकान आदि जितनी भी सांसारिक वस्तुएँ हैं वे सब की सब प्रतिक्षण विनाश की ओर जा रही हैं और हमारे से वियुक्त भी हो रही हैं परन्तु भोग भोगते समय उनकी क्षणभङ्गुरता का ज्ञान नहीं रहता। पदार्थ को नित्य और स्थिर माने बिना सुखभोग हो ही नहीं सकता। साधारण मनुष्यों की बात ही क्या है साधक भी भोगों को नित्य और स्थिर मानने पर ही उनमें फँसता है। इसका कारण कामना द्वारा विवेक ढका जाना ही है। विशेष बात – मनुष्य को सदा के लिये महान् बनाने के उद्देश्य से भगवान् कामना को नित्यवैरी बताकर उससे बचने के लिये सावधान करते हैं क्योंकि कामना ही सम्पूर्ण पापों और दुःखों का कारण है। एक मनुष्य अपनी स्त्री को ढूँढ रहा था। लोगों ने पूछा तुम्हारी स्त्री का नाम क्या है ? उसने कहा फजीती। फिर पूछा कि तुम्हारा नाम क्या है ? उसने कहा बदमाश। लोगों ने कहा घबराओ मत बड़ी पतिव्रता स्त्री है अपने आप आ जायगी कारण कि बदमाश को फजीती (बदनामी ) अवश्य मिलती है। इसी प्रकार संसार के नाशवान् भोगों की कामना करने वाले मनुष्य के पास दुःख अपने आप आते हैं। मनुष्य दुःखों से तो बचना चाहता है पर दुःखों के कारण काम (कामना ) को नहीं छोड़ता। कामना के रहते हुए स्वप्नमें भी सुख नहीं मिलता ‘काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं ‘ (मानस 7। 90। 1)। भगवान् अनलेन दुष्पूरेण पदों से यह बताते हैं कि भोगपदार्थों से कामना कभी पूरी नहीं होती। ज्यों-ज्यों भोगपदार्थ मिलते हैं त्यों ही त्यों उनकी कामना बढ़ती है और ज्यों-ज्यों कामना बढ़ती है त्यों ही त्यों अभाव का अधिक अनुभव होता है एवं अभाव को मिटाने के लिये मनुष्य पापकर्मों में प्रवृत्त होता है। जैसे धन की कामना उत्पन्न होने पर मनुष्य धन की प्राप्तिमें न्याय-अन्याय का विचार नहीं करता। फिर कामना बढ़ने पर (द्वितीयावस्था में) वह चोरी डाके आदि में भी लग जाता है। फिर और अधिक कामना बढ़नेपर (तृतीयावस्था में ) वह धन के लिये दूसरों को जान से भी मार डालता है। इस प्रकार नाशवान् सुख की कामना करने वाला मनुष्य अपने लोक और परलोक दोनों को महान् दुःखरूप बना लेता है। किसी शत्रुको नष्ट करने के लिये उसके रहने के स्थानों की जानकारी होनी आवश्यक है इसलिये भगवान् आगे के श्लोक में ज्ञानियों के नित्यवैरीकाम के रहने के स्थान बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )