कर्मयोग ~ अध्याय तीन
25-35 अज्ञानी और ज्ञानवान के लक्षण तथा राग-द्वेष से रहित होकर कर्म करने के लिए प्रेरणा
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥3 .33॥
सदृशम् – तदानुसार; चेष्टते-कर्म करता है; स्वस्याः -अपने; प्रकृतेः-प्रकृति के गुणों का; ज्ञानवान् – बुद्धिमान; अपि – यद्यपि; प्रकृतिम्-प्रकृति को; यान्ति–पालन करते हैं; भूतानि–सभी जीव; निग्रहः-दमन; किम्-क्या; करिष्यति-करेगा।
बुद्धिमान लोग भी अपनी प्रकृति ( स्वभाव और गुणों ) के अनुसार कार्य करते हैं क्योंकि सभी जीव अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति से प्रेरित होते हैं, फिर किसी को दमन से क्या प्राप्त हो सकता है॥3 .33॥
( प्रकृतिं यान्ति भूतानि जितने भी कर्म किये जाते हैं वे स्वभाव अथवा सिद्धान्तको (टिप्पणी प0 174.1) सामने रखकर किये जाते हैं। स्वभाव दो प्रकारका होता है रागद्वेषरहित और रागद्वेषयुक्त। जैसे रास्ते में चलते हुए कोई बोर्ड दिखायी दिया और उस पर लिखा हुआ पढ़ लिया तो यह पढ़ना न तो राग द्वेष से हुआ और न किसी सिद्धान्त से अपितु रागद्वेष रहित स्वभाव से स्वतः हुआ। किसी मित्र का पत्र आने पर उसे रागपूर्वक पढ़ते हैं और शत्रु का पत्र आनेपर उसे द्वेषपूर्वक पढ़ते हैं तो यह पढ़ना रागद्वेषयुक्त स्वभाव से हुआ। गीता , रामायण आदि सत्शास्त्रों को पढ़ना सिद्धान्त से पढ़ना हुआ। मनुष्यजन्म परमात्मप्राप्ति के लिये ही है अतः परमात्मप्राप्ति के उद्देश्य से कर्म करना भी सिद्धान्त के अनुसार कर्म करना है। इस प्रकार देखना , सुनना , सूघँना , स्पर्श करना आदि मात्र क्रियाएँ स्वभाव और सिद्धान्त दोनों से होती हैं। रागद्वेषरहित स्वभाव दोषी नहीं होता बल्कि रागद्वेषयुक्त स्वभाव दोषी होता है। रागद्वेषपूर्वक होने वाली क्रियाएँ मनुष्य को बाँधती हैं क्योंकि इनसे स्वभाव अशुद्ध होता है और सिद्धान्त से होने वाली क्रियाएँ उद्धार करने वाली होती हैं क्योंकि इनसे स्वभाव शुद्ध होता है। स्वभाव अशुद्ध होने के कारण ही संसार से माने हुए सम्बन्ध का विच्छेद नहीं होता। स्वभाव शुद्ध होने से संसार से माने हुए सम्बन्ध का सुगमतापूर्वक विच्छेद हो जाता है। ज्ञानी महापुरुष के अपने कहलाने वाले शरीर के द्वारा स्वतः क्रियाएँ हुआ करती हैं क्योंकि उसमें कर्तृत्वाभिमान नहीं होता। परमात्मप्राप्ति चाहने वाले साधक की क्रियाएँ सिद्धान्त के अनुसार होती है। जैसे लोभी पुरुष सदा सावधान रहता है कि कहीं कोई घाटा न लग जाय ऐसे ही साधक निरन्तर सावधान रहता है कि कहीं कोई क्रिया रागद्वेषपूर्वक न हो जाय। ऐसी सावधानी होने पर साधक का स्वभाव शीघ्र शुद्ध हो जाता है और परिणामस्वरूप वह कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। यद्यपि क्रियामात्र स्वाभाविक ही प्रकृति के द्वारा होती है तथापि अज्ञानी पुरुष क्रियाओं के साथ अपना सम्बन्ध मानकर अपने को उन क्रियाओं का कर्ता मान लेता है (गीता 3। 27)। पदार्थों और क्रियाओं से अपना सम्बन्ध मानने के कारण ही रागद्वेष उत्पन्न होते हैं जिनसे जन्ममरणरूप बन्धन होता है परन्तु प्रकृति से सम्बन्ध न मानने वाला साधक अपने को सदा अकर्ता ही देखता है (गीता 13। 29)।स्वभाव में मुख्य दोष प्राकृत पदार्थों का राग ही है। जब तक स्वभाव में राग रहता है तभी तक अशुद्ध कर्म होते हैं। अतः साधक के लिये राग ही बन्धन का मुख्य कारण है। राग माने हुए अहम् में रहता है और मन , बुद्धि , इन्द्रियों एवं इन्द्रियों के विषयों में दिखायी देता है। अहम् दो प्रकार का है 1) चेतन द्वारा जड के साथ माने हुए सम्बन्ध से होने वाला तादात्म्यरूप अहम् । 2) जड प्रकृति का धातु रूप अहम् – महाभूतान्यहंकारः (गीता 13। 5)। जड प्रकृति के धातुरूप अहम् में कोई दोष नहीं है क्योंकि यह अहम् मन , बुद्धि , इन्द्रियों आदि की तरह एक करण ही है। इसलिये सम्पूर्ण दोष माने हुए अहम् में ही हैं। ज्ञानी महापुरुष में तादात्म्यरूप अहम् का सर्वथा अभाव होता है अतः उसके कहलाने वाले शरीर के द्वारा होने वाली समस्त क्रियाएँ प्रकृति के धातुरूप अहम् से ही होती हैं। वास्तव में समस्त प्राणियों की सब क्रियाएँ इस धातुरूप अहम् से ही होती हैं परन्तु जड शरीर को मैं और मेरा मानने वाला अज्ञानी पुरुष उन क्रियाओं को अपनी तथा अपने लिये मान लेता है और बँध जाता है। कारण कि क्रियाओं को अपनी और अपने लिये मानने से ही राग उत्पन्न होता है (टिप्पणी प0 174.2)। “सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ” यद्यपि अन्तःकरण में रागद्वेष न रहने से ज्ञानी महापुरुष की प्रकृति निर्दोष होती है और वह प्रकृति के वशीभूत नहीं होता तथापि वह चेष्टा तो अपनी प्रकृति (स्वाभाव) के अनुसार ही करता है। जैसे कोई ज्ञानी महापुरुष अंग्रेजी भाषा नहीं जानता और उससे अंग्रेजी बोलने के लिये कहा जाय तो वह बोल नहीं सकेगा। वह जिस भाषा को जानता है उसी भाषा में बोलेगा। भगवान् भी अपनी प्रकृति (स्वभाव) को वश में करके जिस योनि में अवतार लेते हैं उसी योनि के स्वभाव के अनुसार चेष्टा करते हैं जैसे भगवान् राम या कृष्णरूप से मनुष्ययोनि में अवतार लेते हैं तथा मत्स्य , कच्छप , वराह आदि योनियों में अवतार लेते हैं तो वहाँ उस-उस योनि के अनुसार ही चेष्टा करते हैं। तात्पर्य है कि भगवान के अवतारी शरीरों में भी वर्ण योनि के अनुसार स्वभाव की भिन्नता रहती है पर परवशता नहीं रहती। इसी तरह जिन महापुरुषोंका प्रकृति(जडता) से सम्बन्धविच्छेद हो गया है उनमें स्वभावकी भिन्नता तो रहती है पर परवशता नहीं रहती परन्तु जिन मनुष्यों का प्रकृति से सम्बन्धविच्छेद नहीं हुआ है उनमें स्वभाव की भिन्नता और परवशता दोनों रहती हैं। यहाँ ‘स्वस्याः’ पद का तात्पर्य यह है कि ज्ञानी महापुरुष की प्रकृति निर्दोष होती है। वह प्रकृति के वश में नहीं होता बल्कि प्रकृति उसके वश में होती है। कर्मों की फल जनकता का मूल बीज कर्तृत्वाभिमान और स्वार्थबुद्धि है। ज्ञानी महापुरुष में कर्तृत्वाभिमान और स्वार्थबुद्धि नहीं होती। उसके द्वारा चेष्टामात्र होती है। बन्धनकारक कर्म होता है चेष्टा या क्रिया नहीं। इसीलिये यहाँ चेष्टते पद आया है। उसका स्वभाव इतना शुद्ध होता है कि उसके द्वारा होने वाली क्रियाएँ भी महान् शुद्ध एवं साधकों के लिये आदर्श होती हैं। पीछे के और वर्तमान जन्म के संस्कार , माता-पिता के संस्कार , वर्तमान का सङ्ग , शिक्षा , वातावरण , अध्ययन , उपासना , चिन्तन , क्रिया ,भाव आदि के अनुसार स्वभाव बनता है। यह स्वभाव सभी मनुष्यों में भिन्न-भिन्न होताहै और इसे निर्दोष बनाने में सभी मनुष्य स्वतन्त्र हैं। व्यक्तिगत स्वभाव की भिन्नता ज्ञानी महापुरुषों में भी रहती है। चेतन में भिन्नता होती ही नहीं और प्रकृति (स्वभाव) में स्वाभाविक भिन्नता रहती है। प्रकृति है ही विषम। जैसे एक जाति होने पर भी आम आदि के वृक्षों में अवान्तर भेद रहता है ऐसे ही प्रकृति (स्वभाव) शुद्ध होने पर भी ज्ञानी महापुरुषों में प्रकृति का भेद रहता है। ज्ञानी महापुरुष का स्वभाव शुद्ध (रागद्वेषरहित) होता है अतः वह प्रकृति के वश में नहीं होता। इसके विपरीत अशुद्ध (रागद्वेषयुक्त) स्वभाव वाले मनुष्य अपनी बनायी हुई परवशता से बाध्य होकर कर्म करते हैं। “निग्रहः किं करिष्यति ” – जिनका स्वभाव महान् शुद्ध एवं श्रेष्ठ है उनकी क्रियाएँ भी अपनी प्रकृति के अनुसार हुआ करती हैं फिर जिनका स्वभाव अशुद्ध (रागद्वेषयुक्त) है उन पुरुषों की क्रियाएँ तो प्रकृति के अनुसार होंगी ही। इस विषय में हठ उनके काम नहीं आयेगा। जिसका जैसा स्वभाव है उसे उसी के अनुसार कर्म करने पड़ेंगे। यदि स्वभाव अशुद्ध हो तो वह अशुद्ध कर्मों में और शुद्ध हो ते वह शुद्ध कर्मों में मनुष्य को लगा देगा।अर्जुन भी जब हठपूर्वक युद्धरूप कर्तव्यकर्म का त्याग करना चाहते हैं तब भगवान् उन्हें यही कहते हैं कि तेरा स्वभाव तुझे बलपूर्वक युद्ध में लगा देगा – “प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति” (18। 59) क्योंकि तेरे स्वभाव में क्षात्रकर्म (युद्ध आदि) करने का प्रवाह है। इसलिये स्वाभाविक कर्मों से बँधा हुआ तू परवश होकर युद्ध करेगा अर्थात् इसमें तेरा हठ काम नहीं आयेगा – “करिष्यस्यवशोऽपि तत् ” (18। 60)। जैसे सौ मील प्रति घंटे की गति से चलने वाली मोटर अपनी नियत क्षमता से अधिक नहीं चलेगी , ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष के द्वारा भी अपनी शुद्ध प्रकृति के विपरीत चेष्टा नहीं होगी। जिनकी प्रकृति अशुद्ध है उनकी प्रकृति बिगड़ी हुई मोटर के समान है। बिगड़ी हुई मोटर को सुधारने के दो मुख्य उपाय हैं (1) मोटर को खुद ठीक करना और (2) मोटर को कारखाने में पहुँचा देना। इसी प्रकार अशुद्ध प्रकृति को सुधारने के भी दो मुख्य उपाय हैं (1) रागद्वेष से रहित होकर कर्म करना (गीता 3। 34) और (2) भगवान्के शरणमें चले जाना (गीता 18। 62)। यदि मोटर ठीक चलती है तो हम मोटर के वश में नहीं हैं और यदि मोटर बिगड़ी हुई है तो हम मोटर के वश में हैं। ऐसे ही ज्ञानी महापुरुष प्रकृति के शुद्ध होने के कारण प्रकृति के वश में नहीं होता और अज्ञानी पुरुष प्रकृति के अशुद्ध होने के कारण प्रकृति के वश में होता है। जिसकी बुद्धि में जडता (सांसारिक भोग और संग्रह) का ही महत्त्व है ऐसा मनुष्य कितना ही विद्वान् क्यों न हो उसका पतन अवश्यम्भावी है परन्तु जिसकी बुद्धि में जडता का महत्त्व नहीं है और भगवत्प्राप्ति ही जिसका उद्देश्य है ऐसा मनुष्य विद्वान् न भी हो तो भी उसका उत्थान अवश्यम्भावी है। कारण कि जिसका उद्देश्य भोग और संग्रह न होकर केवल परमात्मा को प्राप्त करना ही है उसके समस्त भाव , विचार , कर्म आदि उसकी उन्नति में सहायक हो जाते हैं। अतः साधक को सर्वप्रथम परमात्मप्राप्ति का उद्देश्य बना लेना चाहिये फिर उस उद्देश्य की सिद्धि के लिये रागद्वेष से रहित होकर कर्तव्यकर्म करने चाहिये। रागद्वेष से रहित होने का सुगम उपाय है मिले हुए शरीरादि पदार्थों को अपना और अपने लिये न मानते हुए दूसरों की सेवा में लगाना और बदले में दूसरों से कुछ भी न चाहना। प्रकृति के वश में होने के लिये साधक को चाहिये कि वह किसी आदर्श को सामने रखकर कर्तव्यकर्म करे। आदर्श दो हो सकते हैं (1) भगवान्का मत (सिद्धान्त) और (2) श्रेष्ठ महापुरुषोंका आचरण। आदर्श को सामने रखकर कर्म करने वाले मनुष्य की प्रकृति शुद्ध हो जाती है और नित्यप्राप्त परमात्मतत्त्व का अनुभव हो जाता है। इसके विपरीत आदर्श को सामने न रखकर कर्म करने वाला मनुष्य रागद्वेषपूर्वक ही सब कर्म करता है जिससे रागद्वेष पुष्ट हो जाते हैं और उसका पतन हो जाता है “नष्टान् विद्धि” (गीता 3।32)। जैसे नदी के प्रवाह को हम रोक तो नहीं सकते पर नहर बनाकर मोड़ सकते हैं , ऐसे ही कर्मों के प्रवाह को रोक तो नहीं सकते पर उसका प्रवाह मोड़ सकते हैं। निःस्वार्थ भाव से केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करना ही कर्मों के प्रवाहको मोड़ना है। अपने लिये किञ्चिन्मात्र भी कर्म करने से कर्मों का प्रवाह मुड़ेगा नहीं। तात्पर्य यह कि केवल दूसरों के हित के लिये कर्म करने से कर्मों का प्रवाह संसार की ओर हो जाता है और साधक कर्मबन्धन से मुक्त हो जाता है। प्रत्येक मनुष्य का अपनी प्रकृति को साथ लेकर ही जन्म होता है अतः उसे अपनी प्रकृति के अनुसार कर्म करने ही पड़ते हैं। इसलिये अब भगवान् आगे के श्लोक में प्रकृति को शुद्ध करने का उपाय बताते हैं – स्वामी रामसुखदास जी )